वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 87 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 87
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्ताशीतितमः सर्गः (सर्ग 87)
भरत की मूर्छा से गुह, शत्रुघ्न और माताओं का दुःखी होना, भरत का गुह से श्रीराम आदि के भोजन और शयन आदि के विषय में पूछना
गुहस्य वचनं श्रुत्वा भरतो भृशमप्रियम्।
ध्यानं जगाम तत्रैव यत्र तच्छ्रुतमप्रियम्॥१॥
गुह का श्रीराम के जटाधारण आदि से सम्बन्ध रखने वाला अत्यन्त अप्रिय वचन सुनकर भरत चिन्तामग्न हो गये। जिन श्रीराम के विषय में उन्होंने अप्रिय बात सुनी थी, उन्हीं का वे चिन्तन करने लगे (उन्हें यह चिन्ता हो गयी कि अब मेरा मनोरथ पूर्ण न हो सकेगा। श्रीराम ने जब जटा धारण कर ली, तब वे शायद ही लौटें)॥१॥
सुकुमारो महासत्त्वः सिंहस्कन्धो महाभुजः।
पुण्डरीकविशालाक्षस्तरुणः प्रियदर्शनः॥२॥
प्रत्याश्वस्य मुहूर्तं तु कालं परमदुर्मनाः।
ससाद सहसा तोत्रैर्हदि विद्ध इव द्विपः॥३॥
भरत सुकुमार होने के साथ ही महान् बलशाली थे, उनके कंधे सिंह के समान थे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और नेत्र विकसित कमल के सदृश सुन्दर थे। उनकी अवस्था तरुण थी और वे देखने में बड़े मनोरम थे। उन्होंने गुह की बात सुनकर दो घड़ी तक किसी प्रकार धैर्य धारण किया, फिर उनके मन में बड़ा दुःख हुआ। वे अंकुश से विद्ध हुए हाथी के समान अत्यन्त व्यथित होकर सहसा दुःख से शिथिल एवं मूर्च्छित हो गये। २-३॥
भरतं मूर्च्छितं दृष्ट्वा विवर्णवदनो गुहः।
बभूव व्यथितस्तत्र भूमिकम्पे यथा द्रुमः॥४॥
भरत को मूर्छित हुआ देख गुह के चेहरे का रंग उड़ गया। वह भूकम्प के समय मथित हुए वृक्ष की भाँति वहाँ व्यथित हो उठा॥ ४॥
तदवस्थं तु भरतं शत्रुघ्नोऽनन्तरस्थितः।
परिष्वज्य रोदोच्चैर्विसंज्ञः शोककर्शितः॥५॥
शत्रुघ्न भरत के पास ही बैठे थे। वे उनकी वैसी अवस्था देख उन्हें हृदय से लगाकर जोर-जोर से रोने लगे और शोक से पीड़ित हो अपनी सुध-बुध खो बैठे॥५॥
ततः सर्वाः समापेतुर्मातरो भरतस्य ताः।
उपवासकृशा दीना भर्तृव्यसनकर्शिताः॥६॥
तदनन्तर भरत की सभी माताएँ वहाँ आ पहुँचीं। वे पति वियोग के दुःखसे दुःखी, उपवास कर नेके कारण दुर्बल और दीन हो रही थीं॥६॥
ताश्च तं पतितं भूमौ रुदत्यः पर्यवारयन्।
कौसल्या त्वनुसृत्यैनं दुर्मनाः परिषस्वजे॥७॥
भूमि पर पड़े हुए भरत को उन्होंने चारों ओर से घेर लिया और सब-की-सब रोने लगीं। कौसल्या का हृदय तो दुःख से और भी कातर हो उठा। उन्होंने भरत के पास जाकर उन्हें अपनी गोद में चिपका लिया॥७॥
वत्सला स्वं यथा वत्समुपगुह्य तपस्विनी।
परिपप्रच्छ भरतं रुदती शोकलालसा॥८॥
जैसे वत्सला गौ अपने बछड़े को गले से लगाकर चाटती है, उसी तरह शोक से व्याकुल हुई तपस्विनी कौसल्या ने भरत को गोद में लेकर रोते-रोते पूछा- ॥
पुत्र व्याधिर्न ते कच्चिच्छरीरं प्रति बाधते।
अस्य राजकुलस्याद्य त्वदधीनं हि जीवितम्॥९॥
‘बेटा! तुम्हारे शरीर को कोई रोग तो कष्ट नहीं पहुँचा रहा है ? अब इस राजवंश का जीवन तुम्हारे ही अधीन है॥९॥
त्वां दृष्ट्वा पुत्र जीवामि रामे सभ्रातृके गते।
वृत्ते दशरथे राज्ञि नाथ एकस्त्वमद्य नः॥१०॥
‘वत्स! मैं तुम्हींको देखकर जी रही हूँ। श्रीराम लक्ष्मणके साथ वनमें चले गये और महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये; अब एकमात्र तुम्हीं हमलोगोंके रक्षक हो॥१०॥
कच्चिन्न लक्ष्मणे पुत्र श्रुतं ते किंचिदप्रियम्।
पुत्रे वा ह्येकपुत्रायाः सहभार्ये वनं गते॥११॥
‘बेटा! सच बताओ, तुमने लक्ष्मण के सम्बन्ध में अथवा मुझ एक ही पुत्रवाली मा के बेटे वन में सीतासहित गये हुए श्रीराम के विषय में कोई अप्रिय बात तो नहीं सुनी है?’ ॥ ११॥
स मुहूर्तं समाश्वस्य रुदन्नेव महायशाः।
कौसल्यां परिसान्त्व्येदं गुहं वचनमब्रवीत्॥१२॥
दो ही घड़ी में जब महायशस्वी भरत का चित्त स्वस्थ हुआ, तब उन्होंने रोते-रोते ही कौसल्या को सान्त्वना दी (और कहा—’मा! घबराओ मत, मैंने कोई अप्रिय बात नहीं सुनी है’)। फिर निषादराज गुह से इस प्रकार पूछा- ॥ १२॥
भ्राता मे क्वावसद् रात्रौ क्व सीता क्व च लक्ष्मणः।
अस्वपच्छयने कस्मिन् किं भुक्त्वा गुह शंस मे॥
‘गुह ! उस दिन रात में मेरे भाई श्रीराम कहाँ ठहरे थे? सीता कहाँ थीं? और लक्ष्मण कहाँ रहे? उन्होंने क्या भोजन करके कैसे बिछौने पर शयन किया था? ये सब बातें मुझे बताओ’ ॥ १३॥
सोऽब्रवीद् भरतं हृष्टो निषादाधिपतिर्मुहः।
यद्विधं प्रतिपेदे च रामे प्रियहितेऽतिथौ॥१४॥
ये प्रश्न सुनकर निषादराज गुह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अपने प्रिय एवं हितकारी अतिथि श्रीराम के आने पर उनके प्रति जैसा बर्ताव किया था, वह सब बताते हुए भरत से कहा- ॥१४॥
अन्नमुच्चावचं भक्ष्याः फलानि विविधानि च।
रामायाभ्यवहारार्थं बहुशोऽपहृतं मया॥१५॥
‘मैंने भाँति-भाँति के अन्न, अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ और कई तरह के फल श्रीरामचन्द्रजी के पास भोजन के लिये प्रचुर मात्रा में पहुँचाये॥ १५॥
तत् सर्वं प्रत्यनुज्ञासीद् रामः सत्यपराक्रमः।
न हि तत् प्रत्यगृह्णात् स क्षत्रधर्ममनुस्मरन्॥ १६॥
‘सत्यपराक्रमी श्रीराम ने मेरी दी हुई सब वस्तुएँ स्वीकार तो कीं किंतु क्षत्रियधर्म का स्मरण करते हुए उनको ग्रहण नहीं किया—मुझे आदरपूर्वक लौटा दिया॥
नह्यस्माभिः प्रतिग्राह्यं सखे देयं तु सर्वदा।
इति तेन वयं सर्वे अनुनीता महात्मना॥१७॥
‘फिर उन महात्मा ने हम सब लोगों को समझाते हुए कहा—’सखे! हम-जैसे क्षत्रियों को किसी से कुछ लेना नहीं चाहिये; अपितु सदा देना ही चाहिये। १७॥
लक्ष्मणेन यदानीतं पीतं वारि महात्मना।
औपवास्यं तदाकार्षीद् राघवः सह सीतया॥ १८॥
‘सीतासहित श्रीराम ने उस रात में उपवास ही किया। लक्ष्मण जो जल ले आये थे, केवल उसी को उन महात्मा ने पीया॥१८॥
ततस्तु जलशेषेण लक्ष्मणोऽप्यकरोत् तदा।
वाग्यतास्ते त्रयः संध्यां समुपासन्त संहिताः॥ १९॥
‘उनके पीने से बचा हुआ जल लक्ष्मण ने ग्रहण किया। (जलपान के पहले) उन तीनों ने मौन एवं एकाग्रचित्त होकर संध्योपासना की थी॥१९॥
सौमित्रिस्तु ततः पश्चादकरोत् स्वास्तरं शुभम्।
स्वयमानीय बहींषि क्षिप्रं राघवकारणात्॥२०॥
‘तदनन्तर लक्ष्मण ने स्वयं कुश लाकर श्रीरामचन्द्रजी के लिये शीघ्र ही सुन्दर बिछौना बिछाया॥२०॥
तस्मिन् समाविशद् रामः स्वास्तरे सह सीतया।
प्रक्षाल्य च तयोः पादौ व्यपाक्रामत् स लक्ष्मणः॥ २१॥
‘उस सुन्दर बिस्तर पर जब सीता के साथ श्रीराम विराजमान हुए, तब लक्ष्मण उन दोनों के चरण पखारकर वहाँ से दूर हट आये॥ २१॥
एतत् तदिङ्गुदीमूलमिदमेव च तत् तृणम्।
यस्मिन् रामश्च सीता च रात्रिं तां शयितावुभौ॥ २२॥
‘यही वह इङ्गुदी-वृक्ष की जड़ है और यही वह तृण है, जहाँ श्रीराम और सीता—दोनों ने रात्रि में शयन किया था॥ २२॥
नियम्य पृष्ठे तु तलाङ्गलित्रवान् शरैः सुपूर्णाविषुधी परंतपः।
महद्धनुः सज्जमुपोह्य लक्ष्मणो निशामतिष्ठत् परितोऽस्य केवलम्॥ २३॥
‘शत्रुसंतापी लक्ष्मण अपनी पीठ पर बाणों से भरे दो तरकस बाँधे, दोनों हाथों की अंगुलियों में दस्ताने पहने और महान् धनुष चढ़ाये श्रीराम के चारों ओर घूमकर केवल पहरा देते हुए रात भर खड़े रहे ॥ २३॥
ततस्त्वहं चोत्तमबाणचापभृत् स्थितोऽभवं तत्र स यत्र लक्ष्मणः।
अतन्द्रितैातिभिरात्तकार्मुकैमहेन्द्रकल्पं परिपालयंस्तदा ॥ २४॥
‘तदनन्तर मैं भी उत्तम बाण और धनुष लेकर वहीं आ खड़ा हुआ, जहाँ लक्ष्मण थे। उस समय अपने बन्धु-बान्धवों के साथ, जो निद्रा और आलस्य का त्याग करके धनुष-बाण लिये सदा सावधान रहे, मैं देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी श्रीराम की रक्षा करता रहा’ ॥ २४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्ताशीतितमः सर्गः॥ ८७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सतासीवाँ सर्ग पूराहुआ॥८७॥