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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 89 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 89

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकोननवतितमः सर्गः (सर्ग 89)

भरत का सेनासहित गङ्गापार करके भरद्वाज के आश्रम पर जाना

 

व्युष्य रात्रिं तु तत्रैव गङ्गाकूले स राघवः।
काल्यमुत्थाय शत्रुघ्नमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥

शृङ्गवेरपुर में ही गङ्गा के तटपर रात्रि बिताकर रघुकुलनन्दन भरत प्रातःकाल उठे और शत्रुघ्न से इस प्रकार बोले- ॥१॥

शत्रुघ्नोत्तिष्ठ किं शेषे निषादाधिपतिं गुहम्।
शीघ्रमानय भद्रं ते तारयिष्यति वाहिनीम्॥२॥

‘शत्रुघ्न ! उठो, क्या सो रहे हो। तुम्हारा कल्याण हो, तुम निषादराज गुह को शीघ्र बुला लाओ, वही हमें गङ्गा के पार उतारेगा’ ॥ २॥

जागर्मि नाहं स्वपिमि तथैवार्यं विचिन्तयन्।
इत्येवमब्रवीद् भ्राता शत्रुनो विप्रचोदितः॥३॥

उनसे इस प्रकार प्रेरित होने पर शत्रुघ्न ने कहा – ‘भैया! मैं भी आपकी ही भाँति आर्य श्रीराम का चिन्तन करता हुआ जाग रहा हूँ, सोता नहीं हूँ’॥३॥

इति संवदतोरेवमन्योन्यं नरसिंहयोः।
आगम्य प्राञ्जलिः काले गुहो वचनमब्रवीत्॥४॥

वे दोनों पुरुषसिंह जब इस प्रकार परस्पर बातचीत कर रहे थे, उसी समय गुह उपयुक्त वेला में आ पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला— ॥ ४॥

कच्चित् सुखं नदीतीरेऽवात्सीः काकुत्स्थ शर्वरीम्।
कच्चिच्च सहसैन्यस्य तव नित्यमनामयम्॥५॥

‘ककुत्स्थ कूलभूषण भरतजी! इस नदी के तट पर आप रात में सुख से रहे हैं न? सेनासहित आपको यहाँ कोई कष्ट तो नहीं हुआ है? आप सर्वथा नीरोग हैं न?’॥

गुहस्य तत् तु वचनं श्रुत्वा स्नेहादुदीरितम्।
रामस्यानुवशो वाक्यं भरतोऽपीदमब्रवीत्॥६॥

गुह के स्नेहपूर्वक कहे गये इस वचन को सुनकर श्रीराम के अधीन रहने वाले भरत ने यों कहा- ॥६॥

सुखा नः शर्वरी धीमन् पूजिताश्चापि ते वयम्।
गङ्गां तु नौभिर्बह्वीभिर्दाशाः संतारयन्तु नः॥७॥

‘बुद्धिमान् निषादराज! हम सब लोगों की रात बड़े सुख से बीती है। तुमने हमारा बड़ा सत्कार किया। अब ऐसी व्यवस्था करो, जिससे तुम्हारे मल्लाह बहुत-सी नौकाओं द्वारा हमें गङ्गा के पार उतार दें’।७॥

ततो गुहः संत्वरितः श्रुत्वा भरतशासनम्।
प्रतिप्रविश्य नगरं तं ज्ञातिजनमब्रवीत्॥८॥

भरत का यह आदेश सुनकर गुह तुरंत अपने नगर में गया और भाई-बन्धुओं से बोला— ॥८॥

उत्तिष्ठत प्रबुध्यध्वं भद्रमस्तु हि वः सदा।
नावः समुपकर्षध्वं तारयिष्यामि वाहिनीम्॥९॥

‘उठो, जागो, सदा तुम्हारा कल्याण हो नौकाओं को खींचकर घाटपर ले आओ। भरत की सेना को गङ्गाजी के पार उतारूँगा’॥९॥

ते तथोक्ताः समुत्थाय त्वरिता राजशासनात्।
पञ्च नावां शतान्येव समानिन्युः समन्ततः॥ १०॥

गुह के इस प्रकार कहने पर अपने राजा की आज्ञा से सभी मल्लाह शीघ्र ही उठ खड़े हुए और चारों ओर से पाँच सौ नौकाएँ एकत्र कर लाये॥ १० ॥

अन्याः स्वस्तिकविज्ञेया महाघण्टाधरावराः।
शोभमानाः पताकिन्यो युक्तवाहाः सुसंहताः॥ ११॥

इन सबके अतिरिक्त कुछ स्वस्तिक नाम से प्रसिद्ध नौकाएँ थीं; जो स्वस्तिकके चिह्नों से अलंकृत होने के कारण उन्हीं चिह्नों से पहचानी जाती थीं। उनपर ऐसी पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनमें बड़ी-बड़ी घण्टियाँ लटक रही थीं। स्वर्ण आदि के बने हुए चित्रों से उन नौकाओं की विशेष शोभा हो रही थी। उनमें नौका खेने के लिये बहुत-से डाँड़ लगे हुए थे तथा चतुर नाविक उन्हें चलाने के लिये तैयार बैठे थे। वे सभी नौकाएँ बड़ी मजबूत बनी थीं॥ ११॥

ततः स्वस्तिकविज्ञेयां पाण्डुकम्बलसंवृताम्।
सनन्दिघोषां कल्याणी गुहो नावमुपाहरत्॥१२॥

उन्हीं में से एक कल्याणमयी नाव गुह स्वयं लेकर आया, जिसमें श्वेत कालीन बिछे हुए थे तथा उस स्वस्तिक नामवाली नाव पर माङ्गलिक शब्द हो रहा था॥ १२॥

तामारुरोह भरतः शत्रुघ्नश्च महाबलः।
कौसल्या च सुमित्रा च याश्चान्या राजयोषितः॥
पुरोहितश्च तत् पूर्वं गुरवो ब्राह्मणाश्च ये।
अनन्तरं राजदारास्तथैव शकटापणाः॥१४॥

उस पर सबसे पहले पुरोहित, गुरु और ब्राह्मण बैठे। तत्पश्चात् उस पर भरत, महाबली शत्रुघ्न, कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी तथा राजा दशरथ की जो अन्य रानियाँ थीं, वे सब सवार हुईं। तदनन्तर राजपरिवार की दूसरी स्त्रियाँ बैठीं। गाड़ियाँ तथा क्रय विक्रय की सामग्रियाँ दूसरी-दूसरी नावों पर लादी गयीं॥ १३-१४॥

आवासमादीपयतां तीर्थं चाप्यवगाहताम्।
भाण्डानि चाददानानां घोषस्तु दिवमस्पृशत्॥

कुछ सैनिक बड़ी-बड़ी मशालें जलाकर* अपने खेमों में छूटी हुई वस्तुओं को सँभालने लगे। कुछ लोग शीघ्रतापूर्वक घाट पर उतरने लगे तथा बहुत-से सैनिक अपने-अपने सामान को ‘यह मेरा है, यह मेरा है’ इस तरह पहचानकर उठाने लगे। उस समय जो महान् कोलाहल मचा, वह आकाश में गूंज उठा।। १५ ॥
* यहाँ ‘आवासमादीपयताम्’ का अर्थ कुछ टीकाकारों ने यह किया है कि वे अपने आवासस्थान में आग लगाने लगे। ‘आवश्यक वस्तुओं को लाद लेने के बाद जो मामूली झोंपड़े और नगण्य वस्तुएँ शेष रह जाती हैं, उनमें छावनी उखाड़ते समय आग लगा देना—यह सेना का धर्म बताया गया है। इसके दो रहस्य हैं, किसी शत्रुपक्षीय व्यक्ति के लिये अपना कोई निशान न छोडना—यह सैनिक नीति है। दसरा यह है कि इस तरह आग लगाकर जाने से विजय-लक्ष्मी की प्राप्ति होती है—ऐसा उनका परम्परागत विश्वास है।

पताकिन्यस्तु ता नावः स्वयं दाशैरधिष्ठिताः।
वहन्त्यो जनमारूढं तदा सम्पेतुराशुगाः॥१६॥

उन सभी नावों पर पताकाएँ फहरा रही थीं। सबके ऊपर खेने वाले कई मल्लाह बैठे थे। वे सब नौकाएँ उस समय चढ़े हुए मनुष्यों को तीव्रगति से पार ले जाने लगीं॥ १६॥

नारीणामभिपूर्णास्तु काश्चित् काश्चित् तु वाजिनाम्।
काश्चित् तत्र वहन्ति स्म यानयुग्यं महाधनम्॥ १७॥

कितनी ही नौकाएँ केवल स्त्रियों से भरी थीं, कुछ नावों पर घोड़े थे तथा कुछ नौकाएँ गाड़ियों, उनमें जोते जाने वाले घोडे, खच्चर. बैल आदि वाहनों तथा बहुमूल्य रत्न आदि को ढो रही थीं॥ १७॥

तास्तु गत्वा परं तीरमवरोप्य च तं जनम्।
निवृत्ता काण्डचित्राणि क्रियन्ते दाशबन्धुभिः॥ १८॥

वे दूसरे तट पर पहुँचकर वहाँ लोगों को उतारकर जब लौटीं, उस समय मल्लाहबन्धु जल में उनकी विचित्र गतियों का प्रदर्शन करने लगे॥ १८ ॥

सवैजयन्तास्तु गजा गजारोहैः प्रचोदिताः।
तरन्तः स्म प्रकाशन्ते सपक्षा इव पर्वताः ॥१९॥

वैजयन्ती पताकाओं से सुशोभित होने वाले हाथी महावतों से प्रेरित होकर स्वयं ही नदी पार करने लगे। उस समय वे पंखधारी पर्वतों के समान प्रतीत होते थे॥

नावश्चारुरुहुस्त्वन्ये प्लवैस्तेरुस्तथापरे।
अन्ये कुम्भघटैस्तेरुरन्ये तेरुश्च बाहुभिः॥२०॥

कितने ही मनुष्य नावों पर बैठे थे और कितने ही बाँस तथा तिनकोंसे बने हुए बेड़ों पर सवार थे। कुछ लोग बड़े-बड़े कलशों, कुछ छोटे घड़ों और कुछ अपनी बाहुओं से ही तैरकर पार हो रहे थे॥ २० ॥

सा पुण्या ध्वजिनी गङ्गां दाशैः संतारिता स्वयम्।
मैत्रे मुहूर्ते प्रययौ प्रयागवनमुत्तमम्॥२१॥

इस प्रकार मल्लाहों की सहायता से वह सारी पवित्र सेना गङ्गा के पार उतारी गयी। फिर वह स्वयं मैत्र* नामक मुहूर्त में उत्तम प्रयाग वन की ओर प्रस्थित हो गयी॥ २१॥
* दो-दो घड़ी (दण्ड) का एक मुहूर्त होता है। दिन में कुल पंद्रह मुहूर्त बीतते हैं। इनमें से तीसरे मुहूर्त को ‘मैत्र’ कहते हैं। बृहस्पति ने पंद्रह मुहूर्तो के नाम इस प्रकार गिनाये हैं रौद्र, सार्प, मैत्र, पैत्र, वासव, आप्य, वैश्व, ब्राह्म, प्राज, ईश, ऐन्द्र, ऐन्द्राग्न, नैर्ऋत, वारुणार्यमण तथा भगी जैसा कि वचन है॥

रौद्रः सार्पस्तथा मैत्रः पैत्रो वासव एव च।
आप्यो वैश्वस्तथा ब्राह्मः प्राजेशैन्द्रास्तथैव च।
ऐन्द्राग्नो नैर्ऋतश्चैव वारुणार्यमणो भगी।
एतेऽह्नि क्रमशो ज्ञेया मुहूर्ता दश पश्च च॥

आश्वासयित्वा च चमं महात्मा निवेशयित्वा च यथोपजोषम्।
द्रष्टुं भरद्वाजमृषिप्रवर्यमृत्विक्सदस्यैर्भरतः प्रतस्थे॥२२॥

वहाँ पहुँचकर महात्मा भरत सेना को सुखपूर्वक विश्राम की आज्ञा दे उसे प्रयाग वन में ठहराकर स्वयंऋत्विजों तथा राजसभा के सदस्यों के साथ ऋषिश्रेष्ठ भरद्वाज का दर्शन करने के लिये गये॥ २२ ॥

स ब्राह्मणस्याश्रममभ्युपेत्य महात्मनो देवपुरोहितस्य।
ददर्श रम्योटजवृक्षदेशं महदनं विप्रवरस्य रम्यम्॥ २३॥

देवपुरोहित महात्मा ब्राह्मण भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचकर भरत ने उन विप्रशिरोमणि के रमणीय एवं विशाल वन को देखा, जो मनोहर पर्णशालाओं तथा वृक्षावलियों से सुशोभित था॥ २३॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकोननवतितमः सर्गः॥ ८९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में नवासीवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ८९॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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