वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 9 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 9
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
नवमः सर्गः (सर्ग 9)
कुब्जा के कुचक्र से कैकेयी का कोप भवन में प्रवेश
एवमुक्ता तु कैकेयी क्रोधेन ज्वलितानना।
दीर्घमुष्णं विनिःश्वस्य मन्थरामिदमब्रवीत्॥१॥
मन्थरा के ऐसा कहने पर कैकेयी का मुख क्रोध से तमतमा उठा। वह लंबी और गरम साँस खींचकर उससे इस प्रकार बोली- ॥१॥
अद्य राममितः क्षिप्रं वनं प्रस्थापयाम्यहम्।
यौवराज्येन भरतं क्षिप्रमद्याभिषेचये॥२॥
‘कुब्जे ! मैं श्रीराम को शीघ्र ही यहाँ से वन में भेजूंगी और तुरंत ही युवराज के पदपर भरत का अभिषेक कराऊँगी॥२॥
इदं त्विदानीं सम्पश्य केनोपायेन साधये।
भरतः प्राप्नुयाद् राज्यं न तु रामः कथंचन॥३॥
‘परंतु इस समय यह तो सोचो कि किस उपाय से अपना अभीष्ट साधन करूँ? भरत को राज्य प्राप्त हो जाय और श्रीराम उसे किसी तरह भी न पा सकें यह काम कैसे बने?’॥३॥
एवमुक्ता तु सा देव्या मन्थरा पापदर्शिनी।
रामार्थमुपहिंसन्ती कैकेयीमिदमब्रवीत्॥४॥
देवी कैकेयी के ऐसा कहने पर पाप का मार्ग दिखाने वाली मन्थरा श्रीराम के स्वार्थ पर कुठाराघात करती हुई वहाँ कैकेयी से इस प्रकार बोली- ॥ ४॥
हन्तेदानीं प्रपश्य त्वं कैकेयि श्रूयतां वचः।
यथा ते भरतो राज्यं पुत्रः प्राप्स्यति केवलम्॥
‘केकयनन्दिनि! अच्छा, अब देखो कि मैं क्या करती हूँ ? तुम मेरी बात सुनो, जिससे केवल तुम्हारे पुत्र भरत ही राज्य प्राप्त करेंगे (श्रीराम नहीं)॥ ५ ॥
किं न स्मरसि कैकेयि स्मरन्ती वा निगृहसे।
यदुच्यमानमात्मार्थं मत्तस्त्वं श्रोतुमिच्छसि॥६॥
‘कैकेयि! क्या तुम्हें स्मरण नहीं है? या स्मरण होने पर भी मुझसे छिपा रही हो? जिसकी तुम मुझसे अनेक बार चर्चा करती रहती हो, अपने उसी प्रयोजन को तुम मुझसे सुनना चाहती हो? इसका क्या कारण है? ॥
मयोच्यमानं यदि ते श्रोतुं छन्दो विलासिनि।
‘विलासिनि! यदि मेरे ही मुँह से सुनने के लिये तुम्हारा आग्रह है तो बताती हूँ, सुनो और सुनकर इसी के अनुसार कार्य करो’ ॥ ७॥
श्रुत्वैवं वचनं तस्या मन्थरायास्तु कैकयी।
किंचिदुत्थाय शयनात् स्वास्तीर्णादिदमब्रवीत्॥ ८ ॥
मन्थरा का यह वचन सुनकर कैकेयी अच्छी तरह से बिछे हुए उस पलंग से कुछ उठकर उससे यों बोली -॥८॥
कथयस्व ममोपायं केनोपायेन मन्थरे।
भरतः प्राप्नुयाद् राज्यं न तु रामः कथंचन॥९॥
मन्थरे! मुझसे वह उपाय बताओ। किस उपायसे भरत को तो राज्य मिल जायगा, किंतु श्रीराम उसे किसी तरह नहीं पा सकेंगे’॥ ९॥
एवमुक्ता तदा देव्या मन्थरा पापदर्शिनी।
रामार्थमुपहिंसन्ती कैकेयीमिदमब्रवीत्॥१०॥
देवी कैकेयी के ऐसा कहने पर पाप का मार्ग दिखाने वाली मन्थरा श्रीराम के स्वार्थ पर कुठारा घात करती हुई उस समय कैकेयी से इस प्रकार बोली- ॥ १०॥
पुरा देवासुरे युद्धे सह राजर्षिभिः पतिः।
अगच्छत् त्वामुपादाय देवराजस्य साह्यकृत्॥ ११॥
‘देवि! पूर्वकालकी बात है कि देवासुर-संग्राम के अवसर पर राजर्षियों के साथ तुम्हारे पतिदेव तुम्हें साथ लेकर देवराज की सहायता करनेके लिये गये थे॥ ११॥
दिशमास्थाय कैकेयि दक्षिणां दण्डकान् प्रति।
वैजयन्तमिति ख्यातं पुरं यत्र तिमिध्वजः॥१२॥
स शम्बर इति ख्यातः शतमायो महासुरः।
ददौ शक्रस्य संग्रामं देवसङ्घरनिर्जितः॥१३॥
‘केकयराजकुमारी! दक्षिण दिशा में दण्डकारण्य के भीतर वैजयन्त नाम से विख्यात एक नगर है, जहाँ शम्बर नाम से प्रसिद्ध एक महान् असुर रहता था। वह अपनी ध्वजा में तिमि (वेल मछली) का चिह्न धारण करता था और सैकड़ों मायाओं का जानकार था। देवताओं के समूह भी उसे पराजित नहीं कर पाते थे। एक बार उसने इन्द्र के साथ युद्ध छेड़ दिया। १२-१३॥
तस्मिन् महति संग्रामे पुरुषान् क्षतविक्षतान्।
रात्रौ प्रसुप्तान् जन्ति स्म तरसापास्य राक्षसाः॥ १४॥
‘उस महान् संग्राम में क्षत-विक्षत हुए पुरुष जब रात में थककर सो जाते, उस समय राक्षस उन्हें उन के बिस्तर से खींच ले जाते और मार डालते थे॥ १४ ॥
तत्राकरोन्महायुद्धं राजा दशरथस्तदा।
असुरैश्च महाबाहुः शस्त्रैश्च शकलीकृतः॥ १५॥
‘उन दिनों महाबाहु राजा दशरथ ने भी वहाँ असुरों के साथ बड़ा भारी युद्ध किया। उस युद्ध में असुरों ने अपने अस्त्र-शस्त्रोंद् वारा उनके शरीर को जर्जर कर दिया॥ १५॥
अपवाह्य त्वया देवि संग्रामान्नष्टचेतनः।
तत्रापि विक्षतः शस्त्रैः पतिस्ते रक्षितस्त्वया॥ १६॥
‘देवि! जब राजा की चेतना लुप्त-सी हो गयी, उस समय सारथि का काम करती हुई तुमने अपने पतिकोरण भूमि से दूर हटाकर उनकी रक्षा की। जब वहाँ भी राक्षसों के शस्त्रों से वे घायल हो गये, तब तुमने पुनः वहाँ से अन्यत्र ले जाकर उनकी रक्षा की॥१६॥
तुष्टेन तेन दत्तौ ते द्वौ वरौ शुभदर्शने।
स त्वयोक्तः पतिर्देवि यदेच्छेयं तदा वरम्॥१७॥
गृह्णीयां तु तदा भर्तस्तथेत्युक्तं महात्मना।
अनभिज्ञा ह्यहं देवि त्वयैव कथितं पुरा॥१८॥
‘शुभदर्शने! इससे संतुष्ट होकर महाराज ने तुम्हें दो वरदान देने को कहा—देवि! उस समय तुमने अपने पति से कहा—’प्राणनाथ! जब मेरी इच्छा होगी, तब मैं इन वरों को माँग लूंगी।’ उस समय उन महात्मा नरेश ने ‘तथास्तु’ कहकर तुम्हारी बात मान ली थी। देवि! मैं इस कथा को नहीं जानती थी। पूर्वकालमें तुम्हींने मुझसे यह वृत्तान्त कहा था॥ १७-१८॥
कथैषा तव तु स्नेहान्मनसा धार्यते मया।
रामाभिषेकसम्भारान्निगृह्य विनिवर्तय॥१९॥
‘तबसे तुम्हारे स्नेहवश मैं इस बात को मन-ही-मन । सदा याद रखती आयी हूँ। तुम इन वरों के प्रभाव से स्वामी को वश में करके श्रीराम के अभिषेक के आयोजन को पलट दो॥ १९ ॥
तौ च याचस्व भर्तारं भरतस्याभिषेचनम्।
प्रव्राजनं च रामस्य वर्षाणि च चतुर्दश॥२०॥
‘तुम उन दोनों वरों को अपने स्वामी से माँगो। एक वरके द्वारा भरत का राज्याभिषेक और दूसरे के द्वारा श्रीराम का चौदह वर्ष तक का वनवास माँग लो॥ २० ॥
चतुर्दश हि वर्षाणि रामे प्रव्राजिते वनम्।
प्रजाभावगतस्नेहः स्थिरः पुत्रो भविष्यति॥२१॥
‘जब श्रीराम चौदह वर्षों के लिये वन में चले जायँगे।’ तब उतने समय में तुम्हारे पुत्र भरत समस्त प्रजा के हृदय में अपने लिये स्नेह पैदा कर लेंगे और इस राज्यपर स्थिर हो जायँगे॥ २१॥
क्रोधागारं प्रविश्याद्य क्रुद्धवाश्वपतेः सुते।
शेष्वानन्तर्हितायां त्वं भूमौ मलिनवासिनी॥२२॥
‘अश्वपतिकुमारी! तुम इस समय मैले वस्त्र पहन लो और कोपभवन में प्रवेश करके कुपित-सी होकर बिना बिस्तर के ही भूमिपर लेट जाओ॥ २२ ॥
मा स्मैनं प्रत्युदीक्षेथा मा चैनमभिभाषथाः।
रुदन्ती पार्थिवं दृष्ट्वा जगत्यां शोकलालसा॥ २३॥
‘राजा आवे तो उनकी ओर आँखें उठाकर न देखो और न उनसे कोई बात ही करो। महाराजको देखते ही रोती हुई शोकमग्न हो धरतीपर लोटने लगो॥ २३॥
दयिता त्वं सदा भर्तुरत्र मे नास्ति संशयः।
त्वत्कृते च महाराजो विशेदपि हुताशनम्॥२४॥
‘इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि तुम अपने पतिको सदा ही बड़ी प्यारी रही हो। तुम्हारे लिये महाराज आग में भी प्रवेश कर सकते हैं ॥ २४ ॥
न त्वां क्रोधयितुं शक्तो न क्रुद्धां प्रत्युदीक्षितुम्।
तव प्रियार्थं राजा तु प्राणानपि परित्यजेत्॥२५॥
वे न तो तुम्हें कुपित कर सकते हैं और न कुपित अवस्था में तुम्हें देख ही सकते हैं। राजा दशरथ तुम्हारा प्रिय करने के लिये अपने प्राणों का भी त्याग कर सकते हैं ॥ २५॥
न ह्यतिक्रमितुं शक्तस्तव वाक्यं महीपतिः।
मन्दस्वभावे बुध्यस्व सौभाग्यबलमात्मनः॥ २६॥
‘महाराज तुम्हारी बात किसी तरह टाल नहीं सकते। मुग्धे! तुम अपने सौभाग्य के बल का स्मरण करो॥ २६॥
मणिमुक्तासुवर्णानि रत्नानि विविधानि च।
दद्याद् दशरथो राजा मा स्म तेषु मनः कृथाः॥ २७॥
‘राजा दशरथ तुम्हें भुलावे में डालने के लिये मणि, मोती, सुवर्ण तथा भाँति-भाँति के रत्न देने की चेष्टा करेंगे; किंतु तुम उनकी ओर मन न चलाना ॥ २७॥
यौ तौ देवासुरे युद्धे वरौ दशरथो ददौ।
तौ स्मारय महाभागे सोऽर्थो न त्वा क्रमेदति॥ २८॥
‘महाभागे! देवासुर-संग्राम के अवसर पर राजा दशरथ ने वे जो दो वर दिये थे, उनका उन्हें स्मरण दिलाना। वरदान के रूप में माँगा गया वह तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ सिद्ध हुए बिना नहीं रह सकता। २८॥
यदा तु ते वरं दद्यात् स्वयमुत्थाप्य राघवः।
व्यवस्थाप्य महाराजं त्वमिमं वृणुया वरम्॥२९॥
‘रघुकुलनन्दन राजा दशरथ जब स्वयं तुम्हें धरती से उठाकर वर देने को उद्यत हो जायँ, तब उन महाराज को सत्य की शपथ दिलाकर खूब पक्का करके उनसे वर माँगना॥ २९॥
रामप्रव्रजनं दूरं नव वर्षाणि पञ्च च।
भरतः क्रियतां राजा पृथिव्यां पार्थिवर्षभ॥३०॥
‘वर माँगते समय कहना कि नृपश्रेष्ठ! आप श्रीराम को चौदह वर्षों के लिये बहुत दूर वन में भेज दीजिये और भरत को भूमण्डल का राजा बनाइये॥ ३०॥
चतुर्दश हि वर्षाणि रामे प्रव्राजिते वनम्।
रूढश्च कृतमूलश्च शेषं स्थास्यति ते सुतः॥३१॥
‘श्रीराम के चौदह वर्षों के लिये वनमें चले जाने पर तुम्हारे पुत्र भरत का राज्य सुदृढ़ हो जायगा और प्रजा आदि को वश में कर लेने से यहाँ उनकी जड़ जम जायगी। फिर चौदह वर्षों के बाद भी वे आजीवन स्थिर बने रहेंगे॥३१॥
रामप्रव्राजनं चैव देवि याचस्व तं वरम्।
एवं सेत्स्यन्ति पुत्रस्य सर्वार्थास्तव कामिनि॥ ३२॥
‘देवि! तुम राजा से श्रीराम के वनवास का वर अवश्य माँगो। पुत्र के लिये राज्य की कामना करने वाली कैकेयि! ऐसा करने से तुम्हारे पुत्र के सभी मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे॥ ३२ ॥
एवं प्रव्राजितश्चैव रामोऽरामो भविष्यति।
भरतश्च गतामित्रस्तव राजा भविष्यति॥३३॥
‘इस प्रकार वनवास मिल जानेपर ये राम राम नहीं रह जायँगे (इनका आज जो प्रभाव है वह भविष्य में नहीं रह सकेगा) और तुम्हारे भरत भी शत्रुहीन राजा होंगे॥
येन कालेन रामश्च वनात् प्रत्यागमिष्यति।
अन्तर्बहिश्च पुत्रस्ते कृतमूलो भविष्यति॥३४॥
‘जिस समय श्रीराम वनसे लौटेंगे, उस समयतक तुम्हारे पुत्र भरत भीतर और बाहरसे भी दृढमूल हो जायँगे॥
संगृहीतमनुष्यश्च सुहृद्भिः साकमात्मवान्।
प्राप्तकालं नु मन्येऽहं राजानं वीतसाध्वसा॥ ३५॥
रामाभिषेकसंकल्पान्निगृह्य विनिवर्तय।
‘उनके पास सैनिक-बल का भी संग्रह हो जायगा; जितेन्द्रिय तो वे हैं ही; अपने सुहृदों के साथ रहकर दृढमूल हो जायँगे। इस समय मेरी मान्यता के अनुसार राजा को श्रीराम के राज्याभिषेक के संकल्प से हटा देने का समय आ गया है; अतः तुम निर्भय होकर राजा को अपने वचनों में बाँध लो और उन्हें श्रीराम के अभिषेक के संकल्प से हटा दो’ ॥ ३५ १/२॥
अनर्थमर्थरूपेण ग्राहिता सा ततस्तया॥३६॥
हृष्टा प्रतीता कैकेयी मन्थरामिदमब्रवीत्।।
सा हि वाक्येन कुब्जायाः किशोरीवोत्पथं गता॥ ३७॥
कैकेयी विस्मयं प्राप्य परं परमदर्शना।
ऐसी बातें कहकर मन्थरा ने कैकेयी की बुद्धि में अनर्थ को ही अर्थ रूप में ऊँचा दिया। कैकेयी को उसकी बातपर विश्वास हो गया और वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई। यद्यपि वह बहुत समझदार थी, तो भी कुबरी के कहने से नादान बालिका की तरह कुमार्ग पर चली गयी-अनुचित काम करने को तैयार हो गयी। उसे मन्थरा की बुद्धि पर बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उससे इस प्रकार बोली- ॥ ३६-३७ १/२॥
प्रज्ञां ते नावजानामि श्रेष्ठे श्रेष्ठाभिधायिनि॥३८॥
पृथिव्यामसि कुब्जानामुत्तमा बुद्धिनिश्चये।
त्वमेव तु ममार्थेषु नित्ययुक्ता हितैषिणी॥ ३९॥
‘हित की बात बताने में कुशल कुब्जे! तू एक श्रेष्ठ स्त्री है; मैं तेरी बुद्धि की अवहेलना नहीं करूँगी।बुद्धि के द्वारा किसी कार्य का निश्चय करने में तू इस पृथ्वी पर सभी कुब्जाओं में उत्तम है। केवल तू ही मेरी हितैषिणी है और सदा सावधान रहकर मेरा कार्य सिद्ध करने में लगी रहती है॥ ३८-३९ ।।
नाहं समवबुद्ध्येयं कुब्जे राज्ञश्चिकीर्षितम्।
सन्ति दुःसंस्थिताः कुब्जाः वक्राः परमपापिकाः॥ ४०॥
‘कुब्जे! यदि तू न होती तो राजा जो षडयन्त्र रचना चाहते हैं, वह कदापि मेरी समझमें नहीं आता। तेरे सिवा जितनी कुब्जाएँ हैं, वे बेडौल शरीर वाली, टेढ़ी-मेढ़ी और बड़ी पापिनी होती हैं॥ ४० ॥
त्वं पद्ममिव वातेन संनता प्रियदर्शना।
उरस्तेऽभिनिविष्टं वै यावत् स्कन्धात् समुन्नतम्॥४१॥
‘तू तो वायु के द्वारा झुकायी हुई कमलिनी की भाँति कुछ झुकी हुई होने पर भी देखने में प्रिय (सुन्दर) है। तेरा वक्षःस्थल कुब्जता के दोष से व्याप्त है, अत एव कंधों तक ऊँचा दिखायी देता है॥४१॥
अधस्ताच्चोदरं शान्तं सुनाभमिव लज्जितम्।
प्रतिपूर्णं च जघनं सुपीनौ च पयोधरौ॥४२॥
‘वक्षःस्थल से नीचे सुन्दर नाभि से युक्त जो उदर है, वह मानो वक्षःस्थल की ऊँचाई देखकर लज्जित-सा हो गया है, इसीलिये शान्त—कृश प्रतीत होता है। तेरा जघन विस्तृत है और दोनों स्तन सुन्दर एवं स्थूल हैं।
विमलेन्दुसमं वक्त्रमहो राजसि मन्थरे।
जघनं तव निर्मष्टं रशनादामभूषितम्॥४३॥
‘मन्थरे! तेरा मुख निर्मल चन्द्रमा के समान अद्भुत शोभा पा रहा है। करधनी की लड़ियों से विभूषित तेरी कटि का अग्रभाग बहुत ही स्वच्छ—रोमादि से रहित है॥४३॥
जङ्के भृशमुपन्यस्ते पादौ च व्यायतावुभौ।
त्वमायताभ्यां सक्थिभ्यां मन्थरे क्षौमवासिनी॥ ४४॥
अग्रतो मम गच्छन्ती राजसेऽतीव शोभने।
‘मन्थरे ! तेरी पिण्डलियाँ परस्पर अधिक सटी हुई हैं और दोनों पैर बड़े-बड़े हैं। तू विशाल ऊरुओं (जाँघों) से सुशोभित होती है। शोभने! जब तू रेशमी साड़ी पहनकर मेरे आगे-आगे चलती है, तब तेरी बड़ी शोभा होती है॥ ४४ १/२ ।।
आसन् याः शम्बरे मायाः सहस्रमसुराधिपे॥ ४५॥
हृदये ते निविष्टास्ता भूयश्चान्याः सहस्रशः।
तदेव स्थगु यद दीर्घ रथघोणमिवायतम्॥४६॥
मतयः क्षत्रविद्याश्च मायाश्चात्र वसन्ति ते।
‘असुरराज शम्बर को जिन सहस्रों मायाओं का ज्ञान है, वे सब तेरे हृदय में स्थित हैं; इनके अलावे भी तू हजारों प्रकार की मायाएँ जानती है। इन मायाओं का समुदाय ही तेरा यह बड़ा-सा कुब्बड़ है, जो रथ के नकुए (अग्रभाग) के समान बड़ा है। इसी में तेरी मति, स्मृति और बुद्धि, क्षत्रविद्या (राजनीति) तथा नाना प्रकारकी मायाएँ निवास करती हैं। ४५-४६१/२॥
अत्र तेऽहं प्रमोक्ष्यामि मालां कुब्जे हिरण्मयीम्॥ ४७॥
अभिषिक्ते च भरते राघवे च वनं गते।
जात्येन च सुवर्णेन सुनिष्टप्तेन सुन्दरि॥४८॥
लब्धार्था च प्रतीता च लेपयिष्यामि ते स्थगु।
‘सुन्दरी कुब्जे! यदि भरत का राज्याभिषेक हुआ और श्रीराम वन को चले गये तो मैं सफल मनोरथ एवं संतुष्ट होकर अच्छी जाति के खूब तपाये हुए सोने की बनी हुई सुन्दर स्वर्णमाला तेरे इस कुब्बड़ को पहनाऊँगी और इसपर चन्दनका लेप लगवाऊँगी॥ ४७-४८ १/२॥
मुखे च तिलकं चित्रं जातरूपमयं शुभम्॥४९॥
कारयिष्यामि ते कुब्जे शुभान्याभरणानि च।
परिधाय शुभे वस्त्रे देवतेव चरिष्यसि ॥५०॥
‘कुब्जे! तेरे मुख (ललाट) पर सुन्दर और विचित्र सोने का टीका लगवा दूंगी और तू बहुत-से सुन्दर आभूषण एवं दो उत्तम वस्त्र (लहँगा और दुपट्टा) धारण करके देवाङ्गना के समान विचरण करेगी॥ ४९-५०॥
चन्द्रमाह्वयमानेन मुखेनाप्रतिमानना।
गमिष्यसि गतिं मुख्यां गर्वयन्ती द्विषज्जने॥५१॥
‘चन्द्रमासे होड़ लगानेवाले अपने मनोहर मुखद्वारा तू ऐसी सुन्दर लगेगी कि तेरे मुखकी कहीं समता । नहीं रह जायगी तथा शत्रुओंके बीचमें अपनेसौभाग्यपर गर्व प्रकट करती हुई तू सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लेगी॥५१॥
तवापि कुब्जाः कुब्जायाः सर्वाभरणभूषिताः।
पादौ परिचरिष्यन्ति यथैव त्वं सदा मम॥५२॥
‘जैसे तू सदा मेरे चरणों की सेवा किया करती है, उसी प्रकार समस्त आभूषणों से विभूषित बहुत-सी कुब्जाएँ तुझ कुब्जा के भी चरणों की सदा परिचर्या किया करेंगी’॥
इति प्रशस्यमाना सा कैकेयीमिदमब्रवीत्।
शयानां शयने शुभ्रे वेद्यामग्निशिखामिव॥५३॥
जब इस प्रकार कुब्जा की प्रशंसा की गयी, तब उसने वेदी पर प्रज्वलित अग्नि-शिखा के समान शुभ्रशय्या पर शयन करने वाली कैकेयी से इस प्रकार कहा- ॥५३॥
गतोदके सेतुबन्धो न कल्याणि विधीयते।
उत्तिष्ठ कुरु कल्याणं राजानमनुदर्शय॥५४॥
‘कल्याणि! नदी का पानी निकल जाने पर उसके लिये बाँध नहीं बाँधा जाता, (यदि राम का अभिषेक हो गया तो तुम्हारा वर माँगना व्यर्थ होगा; अतः बातों में समय न बिताओ) जल्दी उठो और अपना कल्याण करो। कोप भवन में जाकर राजा को अपनी अवस्था का परिचय दो’ ॥ ५४॥
तथा प्रोत्साहिता देवी गत्वा मन्थरया सह।
क्रोधागारं विशालाक्षी सौभाग्यमदगर्विता ॥५५॥
अनेकशतसाहस्रं मुक्ताहारं वराङ्गना।।
अवमुच्य वराहा॑णि शुभान्याभरणानि च ॥५६॥
मन्थरा के इस प्रकार प्रोत्साहन देने पर सौभाग्य के मद से गर्व करने वाली विशाल लोचना सुन्दरी कैकेयी देवी उसके साथ ही कोप भवन में जाकर लाखों की लागत के मोतियों के हार तथा दूसरे-दूसरे सुन्दर बहुमूल्य आभूषणों को अपने शरीर से उतार उतारकर फेंकने लगी।। ५५-५६॥
तदा हेमोपमा तत्र कुब्जावाक्यवशंगता।
संविश्य भूमौ कैकेयी मन्थरामिदमब्रवीत्॥५७॥
सोने के समान सुन्दर कान्तिवाली कैकेयी कुब्जा की बातों के वशीभूत हो गयी थी, अतः वह धरती पर लेटकर मन्थरा से इस प्रकार बोली- ॥ ५७॥
इह वा मां मृतां कुब्जे नृपायावेदयिष्यसि।
वनं तु राघवे प्राप्ते भरतः प्राप्स्यते क्षितिम्॥ ५८॥
सुवर्णेन न मे ह्यर्थो न रत्नैर्न च भोजनैः।
एष मे जीवितस्यान्तो रामो यद्यभिषिच्यते॥५९॥
‘कुब्जे! मुझे न तो सुवर्ण से, न रत्नों से और न भाँति-भाँति के भोजनों से ही कोई प्रयोजन है; यदि श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ तो यह मेरे जीवन का अन्त होगा। अब या तो श्रीराम के वन में चले जाने पर भरत को इस भूतल का राज्य प्राप्त होगा अथवा तू यहाँ महाराज को मेरी मृत्यु का समाचार सुनायेगी’। ५८-५९॥
ततः पुनस्तां महिषीं महीक्षितो वचोभिरत्यर्थमहापराक्रमैः।
उवाच कुब्जा भरतस्य मातरं हितं वचो राममुपेत्य चाहितम्॥६०॥
तदनन्तर कुब्जा महाराज दशरथ की रानी और भरत की माता कैकेयी से अत्यन्त क्रूर वचनों द्वारा पुनः ऐसी बात कहने लगी, जो लौकिक दृष्टि से भरत के लिये हितकर और श्रीराम के लिये अहितकर थी— ॥६०॥
प्रपत्स्यते राज्यमिदं हि राघवो यदि ध्रुवं त्वं ससुता च तप्स्यसे।
ततो हि कल्याणि यतस्व तत् तथा यथा सुतस्ते भरतोऽभिषेक्ष्यते॥६१॥
‘कल्याणि! यदि श्रीराम इस राज्य को प्राप्त कर लेंगे तो निश्चय ही अपने पुत्र भरत सहित तुम भारी संताप में पड़ जाओगी; अतः ऐसा प्रयत्न करो, जिससे तुम्हारे पुत्र भरत का राज्याभिषेक हो जाय’। ६१॥
तथातिविद्धा महिषीति कुब्जया समाहता वागिषुभिर्मुहर्मुहुः।
विधाय हस्तौ हृदयेऽतिविस्मिता शशंस कुब्जां कुपिता पुनः पुनः॥ ६२॥
इस प्रकार कुब्जा ने अपने वचन रूपी बाणों का बारंबार प्रहार करके जब रानी कैकेयी को अत्यन्त घायल कर दिया, तब वह अत्यन्त विस्मित और कुपित हो अपने हृदय पर दोनों हाथ रखकर कुब्जासे । बारंबार इस प्रकार कहने लगी- ॥ ६२॥
यमस्य वा मां विषयं गतामितो निशम्य कुब्जे प्रतिवेदयिष्यसि।
वनं गते वा सुचिराय राघवे समृद्धकामो भरतो भविष्यति॥६३॥
‘कुब्जे! अब या तो रामचन्द्र के अधिक काल के लिये वन में चले जाने पर भरत का मनोरथ सफल होगा या तू मुझे यहाँ से यमलोक में चली गयी सुनकर महाराज से यह समाचार निवेदन करेगी॥ ६३॥
अहं हि नैवास्तरणानि न स्रजो न चन्दनं नाञ्जनपानभोजनम्।
न किंचिदिच्छामि न चेह जीवनं न चेदितो गच्छति राघवो वनम्॥६४॥
‘यदि राम यहाँ से वन को नहीं गये तो मैं न तो भाँति-भाँति के बिछौने, न फूलों के हार, न चन्दन, न अञ्जन, न पान, न भोजन और न दूसरी ही कोई वस्तु लेना चाहूँगी। उस दशा में तो मैं यहाँ इस जीवन को भी नहीं रखना चाहूँगी’॥ ६४॥
अथैवमुक्त्वा वचनं सुदारुणं निधाय सर्वाभरणानि भामिनी।
असंस्कृतामास्तरणेन मेदिनी तदाधिशिश्ये पतितेव किंनरी॥६५॥
ऐसे अत्यन्त कठोर वचन कहकर कैकेयी ने सारे आभूषण उतार दिये और बिना बिस्तर के ही वह खाली जमीन पर लेट गयी। उस समय वह स्वर्ग से भूतल पर गिरी हुई किसी किन्नरी के समान जान पड़ती थी॥६५॥
उदीर्णसंरम्भतमोवृतानना तदावमुक्तोत्तममाल्यभूषणा।
नरेन्द्रपत्नी विमना बभूव सा तमोवृता द्यौरिव मग्नतारका॥६६॥
उसका मुख बढ़े हुए अमर्षरूपी अन्धकार से आच्छादित हो रहा था। उसके अङ्गों से उत्तम पुष्पहार और आभूषण उतर चुके थे। उस दशा में उदास मनवाली राजरानी कैकेयी जिसके तारे डूब गये हों, उस अन्धकाराच्छन्न आकाशके समान प्रतीत होती थी॥६६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे नवमः सर्गः॥९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में नवाँ सर्ग पूरा हुआ॥९॥
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