वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 90 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 90
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
नवतितमः सर्गः (सर्ग 90)
भरत और भरद्वाज मुनि की भेंट एवं बातचीत तथा मुनि का अपने आश्रम पर ही ठहरने का आदेश देना
भरद्वाजाश्रमं गत्वा क्रोशादेव नरर्षभः।
जनं सर्वमवस्थाप्य जगाम सह मन्त्रिभिः॥१॥
पद्भ्यामेव तु धर्मज्ञो न्यस्तशस्त्रपरिच्छदः।
वसानो वाससी क्षौमे पुरोधाय पुरोहितम्॥२॥
धर्म के ज्ञाता नरश्रेष्ठ भरत ने भरद्वाज-आश्रम के पास पहुँचकर अपने साथ के सब लोगों को आश्रम से एक कोस इधर ही ठहरा दिया था और अपने भी अस्त्रशस्त्र तथा राजोचित वस्त्र उतारकर वहीं रख दिये थे। केवल दो रेशमी वस्त्र धारण करके पुरोहित को आगे किये वे मन्त्रियों के साथ पैदल ही वहाँ गये॥ १-२॥
ततः संदर्शने तस्य भरद्वाजस्य राघवः।
मन्त्रिणस्तानवस्थाप्य जगामानुपुरोहितम्॥३॥
आश्रम में प्रवेश करके जहाँ दूर से ही मुनिवर भरद्वाज का दर्शन होने लगा। वहीं उन्होंने उन मन्त्रियों को खड़ा कर दिया और पुरोहित वसिष्ठजी को आगे करके वे पीछे-पीछे ऋषिके पास गये॥३॥
वसिष्ठमथ दृष्ट्वैव भरद्वाजो महातपाः।
संचचालासनात् तूर्णं शिष्यानय॑मिति ब्रुवन्॥ ४॥
महर्षि वसिष्ठ को देखते ही महातपस्वी भरद्वाज आसन से उठ खड़े हुए और शिष्यों से शीघ्रतापूर्वक अर्घ्य ले आने को कहा॥४॥
समागम्य वसिष्ठेन भरतेनाभिवादितः।
अबुध्यत महातेजाः सुतं दशरथस्य तम्॥५॥
फिर वे वसिष्ठ से मिले। तत्पश्चात् भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया। महातेजस्वी भरद्वाज समझ गये कि ये राजा दशरथ के पुत्र हैं॥ ५ ॥
ताभ्यामर्थ्य च पाद्यं च दत्त्वा पश्चात् फलानि च।
आनुपूर्व्याच्च धर्मज्ञः पप्रच्छ कुशलं कुले॥६॥
धर्मज्ञ ऋषि ने क्रमशः वसिष्ठ और भरत को अर्घ्य, पाद्य तथा फल आदि निवेदन करके उन दोनों के कुल का कुशल-समाचार पूछा ॥ ६॥
अयोध्यायां बले कोशे मित्रेष्वपि च मन्त्रिप।
जानन् दशरथं वृत्तं न राजानमुदाहरत्॥७॥
इसके बाद अयोध्या, सेना, खजाना, मित्रवर्ग तथा मन्त्रिमण्डल का हाल पूछा। राजा दशरथ की मृत्यु का वृत्तान्त वे जानते थे; इसलिये उनके विषय में उन्होंने कुछ नहीं पूछा ॥ ७॥
वसिष्ठो भरतश्चैनं पप्रच्छतुरनामयम्।
शरीरेऽग्निषु शिष्येषु वृक्षेषु मृगपक्षिषु॥८॥
वसिष्ठ और भरत ने भी महर्षि के शरीर, अग्निहोत्र, शिष्यवर्ग, पेड़-पत्ते तथा मृग-पक्षी आदि का कुशल समाचार पूछा ॥ ८॥
तथेति तु प्रतिज्ञाय भरद्वाजो महायशाः।
भरतं प्रत्युवाचेदं राघवस्नेहबन्धनात्॥९॥
महायशस्वी भरद्वाज ‘सब ठीक है’ ऐसा कहकर श्रीराम के प्रति स्नेह होने के कारण भरत से इस प्रकार बोले- ॥९॥
किमिहागमने कार्यं तव राज्यं प्रशासतः।
एतदाचक्ष्व सर्वं मे न हि मे शुध्यते मनः॥१०॥
‘तुम तो राज्य कर रहे हो न? तुम्हें यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? यह सब मुझे बताओ, क्योंकि मेरा मन तुम्हारी ओर से शुद्ध नहीं हो रहा है —मेरा विश्वास तुम पर नहीं जमता है॥ १० ॥
सुषुवे यममित्रघ्नं कौसल्याऽऽनन्दवर्धनम्।
भ्रात्रा सह सभार्यो यश्चिरं प्रव्राजितो वनम्॥ ११॥
नियुक्तः स्त्रीनिमित्तेन पित्रा योऽसौ महायशाः।
वनवासी भवेतीह समाः किल चतुर्दश॥१२॥
कच्चिन्न तस्यापापस्य पापं कर्तुमिहेच्छसि।
अकण्टकं भोक्तुमना राज्यं तस्यानुजस्य च॥ १३॥
‘जो शत्रुओं का नाश करने वाला है, जिस आनन्दवर्धक पुत्र को कौसल्या ने जन्म दिया है तथा तुम्हारे पिता ने स्त्री के कारण जिस महायशस्वी पुत्र को चौदह वर्षों तक वन में रहने की आज्ञा देकर उसे भाई
और पत्नी के साथ दीर्घकाल के लिये वन में भेज दिया है, उस निरपराध श्रीराम और उसके छोटे भाई लक्ष्मण का तुम अकण्टक राज्य भोगने की इच्छा से कोई अनिष्ट तो नहीं करना चाहते हो?’ ॥ ११–१३॥
एवमुक्तो भरद्वाजं भरतः प्रत्युवाच ह।
पर्यश्रुनयनो दुःखाद् वाचा संसज्जमानया॥१४॥
भरद्वाजजी के ऐसा कहने पर दुःख के कारण भरत की आँखें डबडबा आयीं। वे लड़खड़ाती हुई वाणी में उनसे इस प्रकार बोले- ॥ १४ ॥
हतोऽस्मि यदि मामेवं भगवानपि मन्यते।
मत्तो न दोषमाशङ्के मैवं मामनुशाधि हि॥१५॥
‘भगवन् ! यदि आप पूज्यपाद महर्षि भी मुझे ऐसा समझते हैं, तब तो मैं हर तरह से मारा गया। यह मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि श्रीराम के वनवास में मेरी ओर से कोई अपराध नहीं हुआ है, अतः आप मुझसे ऐसी कठोर बात न कहें॥ १५ ॥
न चैतदिष्टं माता मे यदवोचन्मदन्तरे।
नाहमेतेन तुष्टश्च न तद्वचनमाददे॥१६॥
‘मेरी आड़ लेकर मेरी माता ने जो कुछ कहा या किया है, यह मुझे अभीष्ट नहीं है। मैं इससे संतुष्ट नहीं हूँ और न माता की उस बात को स्वीकार ही करता
अहं तु तं नरव्याघ्रमुपयातः प्रसादकः।
रतिनेतुमयोध्यायां पादौ चास्याभिवन्दितुम्॥ १७॥
‘मैं तो उन पुरुषसिंह श्रीराम को प्रसन्न करके अयोध्या में लौटा लाने और उनके चरणों की वन्दना करने के लिये जा रहा हूँ॥ १७॥
तं मामेवंगतं मत्वा प्रसादं कर्तुमर्हसि।
शंस मे भगवन् रामः क्व सम्प्रति महीपतिः॥ १८॥
‘इसी उद्देश्यसे मैं यहाँ आया हूँ। ऐसा समझकर आपको मुझपर कृपा करनी चाहिये। भगवन् ! आप मुझे बताइये कि इस समय महाराज श्रीराम कहाँ हैं?’ ॥ १८॥
वसिष्ठादिभिर्ऋत्विग्भिर्याचितो भगवांस्ततः।
उवाच तं भरद्वाजः प्रसादाद् भरतं वचः॥१९॥
इसके बाद वसिष्ठ आदि ऋत्विजों ने भी यह प्रार्थना की कि भरत का कोई अपराध नहीं है। आप इन पर प्रसन्न हों। तब भगवान् भरद्वाज ने प्रसन्न होकर भरत से कहा- ॥ १९॥
त्वय्येतत् पुरुषव्याघ्र युक्तं राघववंशजे।
गुरुवृत्तिर्दमश्चैव साधूनां चानुयायिता॥ २०॥
‘पुरुषसिंह ! तुम रघुकुल में उत्पन्न हुए हो। तुममें गुरुजनों की सेवा, इन्द्रियसंयम तथा श्रेष्ठ पुरुषों के अनुसरण का भाव होना उचित ही है॥ २० ॥
जाने चैतन्मनःस्थं ते दृढीकरणमस्त्विति।
अपृच्छं त्वां तवात्यर्थं कीर्तिं समभिवर्धयन्॥ २१॥
‘तुम्हारे मन में जो बात है, उसे मैं जानता हूँ; तथापि मैंने इसलिये पूछा है कि तुम्हारा यह भाव और भी दृढ़ हो जाय तथा तुम्हारी कीर्ति का अधिकाधिक विस्तार हो॥ २१॥
जाने च रामं धर्मज्ञं ससीतं सहलक्ष्मणम्।
अयं वसति ते भ्राता चित्रकूटे महागिरौ॥२२॥
‘मैं सीता और लक्ष्मणसहित धर्मज्ञ श्रीराम का पता जानता हूँ। ये तुम्हारे भ्राता श्रीरामचन्द्र महापर्वत चित्रकूट पर निवास करते हैं॥ २२॥
श्वस्तु गन्तासि तं देशं वसाद्य सह मन्त्रिभिः।
एतं मे कुरु सुप्राज्ञ कामं कामार्थकोविद ॥२३॥
‘अब कल तुम उस स्थान की यात्रा करना। आज अपने मन्त्रियों के साथ इस आश्रम में ही रहो। महाबुद्धिमान् भरत! तुम मेरी इस अभीष्ट वस्तु को देने में समर्थ हो, अतः मेरी यह अभिलाषा पूर्ण करो’ ॥२३॥
ततस्तथेत्येवमुदारदर्शनः प्रतीतरूपो भरतोऽब्रवीद् वचः।
चकार बुद्धिं च तदाश्रमे तदा निशानिवासाय नराधिपात्मजः॥२४॥
तब जिनके स्वरूप एवं स्वभाव का परिचय मिल गया था, उन उदार दृष्टिवाले भरत ने ‘तथास्तु’ कहकर मुनि की आज्ञा शिरोधार्य की तथा उन राजकुमार ने उस समय रात को उस आश्रम में ही निवास करनेका विचार किया॥२४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे नवतितमः सर्गः॥९०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में नब्बेवाँ सर्ग पूरा हुआ।९०॥
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