वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 91 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 91
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकनवतितमः सर्गः (सर्ग 91)
भरद्वाज मुनि के द्वारा सेनासहित भरत का दिव्य सत्कार
कृतबुद्धिं निवासाय तत्रैव स मुनिस्तदा।
भरतं केकयीपुत्रमातिथ्येन न्यमन्त्रयत्॥१॥
जब भरत ने उस आश्रम में ही निवास का दृढ़निश्चय कर लिया, तब मुनि ने कैकेयीकुमार भरत को अपना आतिथ्य ग्रहण करने के लिये न्यौता दिया॥१॥
अब्रवीद् भरतस्त्वेनं नन्विदं भवता कृतम्।
पाद्यमय॑मथातिथ्यं वने यदुपपद्यते॥२॥
यह सुनकर भरत ने उनसे कहा—’मुने! वन में जैसा आतिथ्य-सत्कार सम्भव है, वह तो आप पाद्य, अर्घ्य और फल-मूल आदि देकर कर ही चुके’ ॥ २॥
अथोवाच भरद्वाजो भरतं प्रहसन्निव।
जाने त्वां प्रीतिसंयुक्तं तष्येस्त्वं येन केनचित्॥
उनके ऐसा कहने पर भरद्वाजजी भरत से हँसते हुए से बोले—’भरत ! मैं जानता हूँ, मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम है; अतः मैं तुम्हें जो कुछ दूंगा, उसी से तुम संतुष्ट हो जाओगे॥३॥
सेनायास्तु तवैवास्याः कर्तुमिच्छामि भोजनम्।
मम प्रीतिर्यथारूपा त्वम मनुजर्षभ॥४॥
‘किंतु इस समय मैं तुम्हारी सेना को भोजन कराना चाहता हूँ। नरश्रेष्ठ! इससे मुझे प्रसन्नता होगी और जिस तरह मुझे प्रसन्नता हो, वैसा कार्य तुम्हें अवश्य करना चाहिये॥ ४॥
किमर्थं चापि निक्षिप्य दूरे बलमिहागतः।
कस्मान्नेहोपयातोऽसि सबलः पुरुषर्षभ॥५॥
‘पुरुषप्रवर! तुम अपनी सेना को किसलिये इतनी दूर छोड़कर यहाँ आये हो, सेनासहित यहाँ क्यों नहींआये?’ ॥ ५॥
भरतः प्रत्युवाचेदं प्राञ्जलिस्तं तपोधनम्।
न सैन्येनोपयातोऽस्मि भगवन् भगवद्भयात्॥६॥
तब भरत ने हाथ जोड़कर उन तपोधन मुनि को उत्तर दिया—’भगवन् ! मैं आपके ही भय से सेना के साथ यहाँ नहीं आया॥६॥
राज्ञा हि भगवन् नित्यं राजपुत्रेण वा तथा।
यत्नतः परिहर्तव्या विषयेषु तपस्विनः॥७॥
‘प्रभो! राजा और राजपुत्र को चाहिये कि वे सभी देशों में प्रयत्नपूर्वक तपस्वीजनों को दूर छोड़कर रहें(क्योंकि उनके द्वारा उन्हें कष्ट पहुँचने की सम्भावना रहती है)॥
वाजिमुख्या मनुष्याश्च मत्ताश्च वरवारणाः।
प्रच्छाद्य भगवन् भूमिं महतीमनुयान्ति माम्॥८॥
‘भगवन्! मेरे साथ बहुत-से अच्छे-अच्छे घोड़े, मनुष्य और मतवाले गजराज हैं, जो बहुत बड़े भूभाग को ढककर मेरे पीछे-पीछे चलते हैं।। ८॥
ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा।।
न हिंस्युरिति तेनाहमेक एवागतस्ततः॥९॥
‘वे आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाओं को हानि न पहुँचायें, इसलिये मैं यहाँ अकेला ही आया हूँ॥
आनीयतामितः सेनेत्याज्ञप्तः परमर्षिणा।
तथानुचक्रे भरतः सेनायाः समुपागमम्॥१०॥
तदनन्तर उन महर्षि ने आज्ञा दी कि ‘सेना को यहीं ले आओ’ तब भरत ने सेना को वहीं बुलवा लिया॥ १०॥
अग्निशालां प्रविश्याथ पीत्वापः परिमृज्य च।
आतिथ्यस्य क्रियाहेतोर्विश्वकर्माणमाह्वयत्॥
इसके बाद मुनिवर भरद्वाज ने अग्निशाला में प्रवेश करके जल का आचमन किया और ओठ पोंछकर भरत के आतिथ्य-सत्कार के लिये विश्वकर्मा आदि का आवाहन किया॥११॥
आह्वये विश्वकर्माणमहं त्वष्टारमेव च।
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि तत्र मे संविधीयताम्॥ १२॥
वे बोले—’मैं विश्वकर्मा त्वष्टा देवता का आवाहन करता हूँ। मेरे मन में सेनासहित भरत का आतिथ्यसत्कार करने की इच्छा हुई है। इसमें मेरे लिये वे आवश्यक प्रबन्ध करें॥ १२॥
आह्वये लोकपालांस्त्रीन् देवान् शक्रपुरोगमान्।
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि तत्र मे संविधीयताम्॥
‘जिनके अगुआ इन्द्र हैं, उन तीन लोकपालों का (अर्थात् इन्द्रसहित यम, वरुण और कुबेर नामक देवताओं का) मैं आवाहन करता हूँ। इस समय भरत का आतिथ्य-सत्कार करना चाहता हूँ, इसमें मेरे लिये वे लोग आवश्यक प्रबन्ध करें॥ १३॥
प्राक्स्रोतसश्च या नद्यस्तिर्यक्स्रोतस एव च।
पृथिव्यामन्तरिक्षे च समायान्त्वद्य सर्वशः॥१४॥
‘पृथिवी और आकाश में जो पूर्व एवं पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ हैं, उनका भी मैं आवाहन करता हूँ; वे सब आज यहाँ पधारें॥ १४ ॥
अन्याः सवन्तु मैरेयं सुरामन्याः सुनिष्ठिताम्।
अपराश्चोदकं शीतमिक्षुकाण्डरसोपमम्॥ १५॥
‘कुछ नदियाँ मैरेय प्रस्तुत करें। दूसरी अच्छी तरह तैयार की हुई सुरा ले आवें तथा अन्य नदियाँ ईंख के पोरुओं में होने वाले रस की भाँति मधुर एवं शीतल जल तैयार करके रखें॥ १५॥
आह्वये देवगन्धर्वान् विश्वावसुहहाहुहुन्।
तथैवाप्सरसो देवगन्धर्वैश्चापि सर्वशः॥१६॥
‘मैं विश्वावसु, हाहा और हूहू आदि देव-गन्धर्वो का तथा उनके साथ समस्त अप्सराओं का भी आवाहन करता हूँ॥
घृताचीमथ विश्वाची मिश्रकेशीमलम्बुषाम्।
नागदत्तां च हेमां च सोमामद्रिकृतस्थलीम्॥ १७॥
‘घृताची, विश्वाची, मिश्रकेशी, अलम्बुषा नागदत्ता, हेमा, सोमा तथा अद्रिकृतस्थली (अथवा पर्वत पर निवास करने वाली सोमा) का भी मैं आवाहन करता हूँ॥ १७॥
शक्रं याश्चोपतिष्ठन्ति ब्रह्माणं याश्च भामिनीः।
सर्वास्तुम्बुरुणा सार्धमाह्वये सपरिच्छदाः॥१८॥
‘जो अप्सराएँ इन्द्र की सभा में उपस्थित होती हैं तथा जो देवाङ्गनाएँ ब्रह्माजी की सेवा में जाया करती हैं, उन सबका मैं तुम्बुरु के साथ आवाहन करता हूँ। । वे अलङ्कारों तथा नृत्यगीत के लिये अपेक्षित अन्यान्य उपकरणों के साथ यहाँ पधारें॥ १८ ॥
वनं कुरुषु यद् दिव्यं वासोभूषणपत्रवत्।
दिव्यनारीफलं शश्वत् तत्कौबेरमिहैव तु॥१९॥
‘उत्तर कुरुवर्ष में जो दिव्य चैत्ररथ नामक वन है, जिसमें दिव्य वस्त्र और आभूषण ही वृक्षों के पत्ते हैं और दिव्य नारियाँ ही फल हैं, कुबेर का वह सनातन दिव्य वन यहीं आ जाय॥ १९ ॥
इह मे भगवान् सोमो विधत्तामन्नमुत्तमम्।
भक्ष्यं भोज्यं च चोष्यं च लेह्यं च विविधं बहु॥ २०॥
‘यहाँ भगवान् सोम मेरे अतिथियों के लिये उत्तम अन्न, नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य की प्रचुर मात्रामें व्यवस्था करें॥ २० ॥
विचित्राणि च माल्यानि पादपप्रच्युतानि च।
सुरादीनि च पेयानि मांसानि विविधानि च॥ २१॥
‘वृक्षों से तुरंत चुने गये नाना प्रकार के पुष्प, मधु आदि पेय पदार्थ तथा नाना प्रकार के फलों के गूदे भी भगवान् सोम यहाँ प्रस्तुत करें’॥ २१॥
एवं समाधिना युक्तस्तेजसाप्रतिमेन च।
शिक्षास्वरसमायुक्तं सुव्रतश्चाब्रवीन्मुनिः॥२२॥
इस प्रकार उत्तम व्रत का पालन करने वाले भरद्वाज मुनि ने एकाग्रचित्त और अनुपम तेज से सम्पन्न हो शिक्षा (शिक्षाशास्त्र में बतायी गयी उच्चारणविधि) और (व्याकरणशास्त्रोक्त प्रकृति-प्रत्यय सम्बन्धी)स्वर से युक्त वाणी में उन सबका आवाहन किया॥ २२॥
मनसा ध्यायतस्तस्य प्राङ्मुखस्य कृताञ्जलेः।
आजग्मुस्तानि सर्वाणि दैवतानि पृथक् पृथक्॥ २३॥
इस तरह आवाहन करके मुनि पूर्वाभिमुख हो हाथ जोड़े मन-ही-मन ध्यान करने लगे। उनके स्मरण करते ही वे सभी देवता एक-एक करके वहाँ आ पहुँचे॥ २३॥
मलयं दर्दुरं चैव ततः स्वेदनदोऽनिलः।
उपस्पृश्य ववौ युक्त्या सुप्रियात्मा सुखं शिवः॥ २४॥
फिर तो वहाँ मलय और दर्दर नामक पर्वतोंका स्पर्श करके बहनेवाली अत्यन्त प्रिय और सुखदायिनी हवा धीरे-धीरे चलने लगी, जो स्पर्शमात्रसे शरीरके पसीनेको सुखा देनेवाली थी॥ २४॥
ततोऽभ्यवर्षन्त घना दिव्याः कुसुमवृष्टयः।
देवदुन्दुभिघोषश्च दिक्षु सर्वासु शुश्रुवे॥२५॥
तत्पश्चात् मेघगण दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। सम्पूर्ण दिशाओं में देवताओं की दुन्दुभियों का मधुर शब्द सुनायी देने लगा॥ २५ ॥
प्रववुश्चोत्तमा वाता ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
प्रजगुर्देवगन्धर्वा वीणाः प्रमुमुचुः स्वरान्॥ २६॥
उत्तम वायु चलने लगी। अप्सराओं के समुदायों का नृत्य होने लगा। देवगन्धर्व गाने लगे और सब ओर वीणाओं की स्वरलहरियाँ फैल गयीं ॥ २६ ॥
स शब्दो द्यां च भूमिं च प्राणिनां श्रवणानि च।
विवेशोच्चावचः श्लक्ष्णः समो लयगुणान्वितः॥ २७॥
संगीत का वह शब्द पृथ्वी, आकाश तथा प्राणियों के कर्णकुहरों में प्रविष्ट होकर गूंजने लगा।आरोह-अवरोह से युक्त वह शब्द कोमल एवं मधुर था, समताल से विशिष्ट और लयगुण से सम्पन्न था॥ २७॥
तस्मिन्नेवंगते शब्दे दिव्ये श्रोत्रसुखे नृणाम्।
ददर्श भारतं सैन्यं विधानं विश्वकर्मणः ॥२८॥
इस प्रकार मनुष्यों के कानों को सुख देने वाला वह दिव्य शब्द हो ही रहा था कि भरत की सेना को विश्वकर्मा का निर्माण कौशल दिखायी पड़ा ॥ २८॥
बभूव हि समा भूमिः समन्तात् पञ्चयोजनम्।
शादलैर्बहुभिश्छन्ना नीलवैदूर्यसंनिभैः ॥ २९॥
चारों ओर पाँच योजनतक की भूमि समतल हो गयी। उस पर नीलम और वैदूर्य मणि के समान नाना प्रकार की घनी घास छा रही थी॥ २९॥
तस्मिन् बिल्वाः कपित्थाश्च पनसा बीजपूरकाः।
आमलक्यो बभूवुश्च चूताश्च फलभूषिताः॥ ३०॥
स्थान-स्थान पर बेल, कैथ, कटहल, आँवला, बिजौरा तथा आम के वृक्ष लगे थे, जो फलों से सुशोभित हो रहे थे॥ ३०॥
उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्च वनं दिव्योपभोगवत्।
आजगाम नदी सौम्या तीरजैर्बहभिर्वृता॥३१॥
उत्तर कुरुवर्ष से दिव्य भोग-सामग्रियों से सम्पन्न चैत्ररथ नामक वन वहाँ आ गया। साथ ही वहाँ की रमणीय नदियाँ भी आ पहुँचीं, जो बहुसंख्यक तटवर्ती वृक्षों से घिरी हुई थीं॥३१॥
चतुःशालानि शुभ्राणि शालाश्च गजवाजिनाम्।
हर्म्यप्रासादसंयुक्ततोरणानि शुभानि च ॥ ३२॥
उज्ज्व ल, चार-चार कमरों से युक्त गृह (अथवा गृहयुक्त चबूतरे) तैयार हो गये। हाथी और घोड़ोंके रहनेके लिये शालाएँ बन गयीं। अट्टालिकाओं तथा सतमंजिले महलों से युक्त सुन्दर नगरद्वार भी निर्मित हो गये॥३२॥
सितमेघनिभं चापि राजवेश्म सुतोरणम्।
शुक्लमाल्यकृताकारं दिव्यगन्धसमुक्षितम्॥ ३३॥
राजपरिवार के लिये बना हुआ सुन्दर द्वार से युक्त दिव्य भवन श्वेत बादलों के समान शोभा पा रहा था।उसे सफेद फूलों की मालाओं से सजाया और दिव्य सुगन्धित जल से सींचा गया था॥ ३३॥
चतुरस्रमसम्बाधं शयनासनयानवत्।
दिव्यैः सर्वरसैर्युक्तं दिव्यभोजनवस्त्रवत्॥ ३४॥
वह महल चौकोना तथा बहुत बड़ा था उसमें संकीर्णता का अनुभव नहीं होता था। उसमें सोने, बैठने और सवारियों के रहने के लिये अलग-अलग स्थान थे।वहाँ सब प्रकार के दिव्य रस, दिव्य भोजन और दिव्य वस्त्र प्रस्तुत थे॥ ३४॥ ।
उपकल्पितसर्वान्नं धौतनिर्मलभाजनम्।
क्लृप्तसर्वासनं श्रीमत्स्वास्तीर्णशयनोत्तमम्॥ ३५॥
सब तरहके अन्न और धुले हुए स्वच्छ पात्र रखे गये थे। उस सुन्दर भवन में कहीं बैठने के लिये सब प्रकार के आसन उपस्थित थे और कहीं सोने के लिये सुन्दर शय्याएँ बिछी थीं॥ ३५॥
प्रविवेश महाबाहुरनुज्ञातो महर्षिणा।
वेश्म तद रत्नसम्पूर्ण भरतः कैकयीसुतः॥३६॥
अनुजग्मुश्च ते सर्वे मन्त्रिणः सपुरोहिताः।
बभूवुश्च मुदा युक्तास्तं दृष्ट्वा वेश्मसंविधिम्॥ ३७॥
महर्षि भरद्वाज की आज्ञा से कैकेयी पुत्र महाबाहु भरत ने नाना प्रकार के रत्नों से भरे हुए उस महल में प्रवेश किया। उनके साथ-साथ पुरोहित और मन्त्री भी उसमें गये। उस भवन का निर्माण कौशल देखकर उन सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। ३६-३७॥
तत्र राजासनं दिव्यं व्यजनं छत्रमेव च।
भरतो मन्त्रिभिः सार्धमभ्यवर्तत राजवत्॥ ३८॥
उस भवन में भरत ने दिव्य राजसिंहासन, चँवर और छत्र भी देखे तथा वहाँ राजा श्रीराम की भावना करके मन्त्रियों के साथ उन समस्त राजभोग्य वस्तुओं की प्रदक्षिणा की।
आसनं पूजयामास रामायाभिप्रणम्य च।
वालव्यजनमादाय न्यषीदत् सचिवासने॥३९॥
सिंहासन पर श्रीरामचन्द्रजी महाराज विराजमान हैं, ऐसी धारणा बनाकर उन्होंने श्रीराम को प्रणाम किया और उस सिंहासन की भी पूजा की फिर अपने हाथ में चँवर ले, वे मन्त्री के आसन पर जा बैठे॥ ३९ ॥
आनुपूर्व्यान्निषेदुश्च सर्वे मन्त्रिपुरोहिताः।
ततः सेनापतिः पश्चात् प्रशास्ता च न्यषीदत॥ ४०॥
तत्पश्चात् पुरोहित और मन्त्री भी क्रमशः अपने योग्य आसनों पर बैठे फिर सेनापति और प्रशास्ता (छावनी की रक्षा करने वाले) भी बैठ गये॥ ४०॥
ततस्तत्र मुहूर्तेन नद्यः पायसकर्दमाः।
उपातिष्ठन्त भरतं भरद्वाजस्य शासनात्॥४१॥
तदनन्तर वहाँ दो ही घड़ी में भरद्वाज मुनि की आज्ञा से भरत की सेवा में नदियाँ उपस्थित हुईं, जिनमें कीच के स्थान में खीर भरी थी॥ ४१॥
आसामुभयतःकूलं पाण्डुमृत्तिकलेपनाः।
रम्याश्चावसथा दिव्या ब्राह्मणस्य प्रसादजाः॥ ४२॥
उन नदियों के दोनों तटों पर ब्रह्मर्षि भरद्वाज की कृपा से दिव्य एवं रमणीय भवन प्रकट हो गये थे, जो चूने से पुते हुए थे॥ ४२॥
तेनैव च मुहूर्तेन दिव्याभरणभूषिताः।
आगुर्विंशतिसाहस्राः ब्रह्मणा प्रहिताः स्त्रियः॥ ४३॥
उसी मुहूर्त में ब्रह्माजी की भेजी हुई दिव्य आभूषणों से विभूषित बीस हजार दिव्याङ्गनाएँ वहाँ आयीं॥४३॥
सुवर्णमणिमुक्तेन प्रवालेन च शोभिताः।
आगुर्विंशतिसाहस्राः कुबेरप्रहिताः स्त्रियः॥४४॥
याभिर्गृहीतः पुरुषः सोन्माद इव लक्ष्यते।
इसी तरह सुवर्ण, मणि, मुक्ता और मूंगों के आभूषणों से सुशोभित, कुबेर की भेजी हुई बीस हजार दिव्य महिलाएँ भी वहाँ उपस्थित हईं, जिनका स्पर्श पाकर पुरुष उन्मादग्रस्त-सा दिखायी देता है॥ ४४ १/२॥
आगुर्विंशतिसाहस्रा नन्दनादप्सरोगणाः॥४५॥
नारदस्तुम्बुरुर्गोपः प्रभया सूर्यवर्चसः।
एते गन्धर्वराजानो भरतस्याग्रतो जगुः ॥ ४६॥
इनके सिवा नन्दनवन से बीस हजार अप्सराएँ भी आयीं। नारद, तुम्बुरु और गोप अपनी कान्ति से सूर्य के समान प्रकाशित होते थे। ये तीनों गन्धर्वराज भरत के सामने गीत गाने लगे॥ ४५-४६ ॥
अलम्बुषा मिश्रकेशी पुण्डरीकाथ वामना।
उपानृत्यन्त भरतं भरद्वाजस्य शासनात्॥४७॥
अलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्डरी का और वामना—ये चार अप्सराएँ भरद्वाज मुनि की आज्ञा से भरत के समीप नृत्य करने लगीं॥४७॥
यानि माल्यानि देवेषु यानि चैत्ररथे वने।
प्रयागे तान्यदृश्यन्त भरद्वाजस्य तेजसा॥४८॥
जो फूल देवताओं के उद्यानों में और जो चैत्ररथ वन में हुआ करते हैं, वे महर्षि भरद्वाज के प्रताप से प्रयाग में दिखायी देने लगे॥४८॥
बिल्वा मार्दङ्गिका आसन् शम्याग्राहा बिभीतकाः।
अश्वत्था नर्तकाश्चासन् भरद्वाजस्य तेजसा॥ ४९॥
भरद्वाज मुनि के तेज से बेल के वृक्ष मृदङ्ग बजाते, बहेड़े के पेड़ शम्या नामक ताल देते और पीपल के वृक्ष वहाँ नृत्य करते थे। ४९॥
ततः सरलतालाश्च तिलकाः सतमालकाः।
प्रहृष्टास्तत्र सम्पेतुः कुब्जा भूत्वाथ वामनाः॥ ५०॥
तदनन्तर देवदारु, ताल, तिलक और तमाल नामक वृक्ष कुबड़े और बौने बनकर बड़े हर्ष के साथ भरत की सेवा में उपस्थित हुए॥५०॥
शिंशपाऽऽमलकी जम्बूर्याश्चान्याः कानने लताः।
मालती मल्लिका जातियश्चान्याः कानने लताः।
प्रमदाविग्रहं कृत्वा भरद्वाजाश्रमेऽवसन्॥५१॥
शिंशपा, आमल की और जम्बू आदि स्त्रीलिङ्गवृक्ष तथा मालती, मल्लिका और जाति आदि वन की लताएँ नारी का रूप धारण करके भरद्वाज मुनि के आश्रम में आ बसीं॥५१॥
सुरां सुरापाः पिबत पायसं च बुभुक्षिताः।
मांसानि च सुमेध्यानि भक्ष्यन्तां यो यदिच्छति॥ ५२॥
(वे भरतके सैनिकों को पुकार-पुकारकर कहती थीं -) ‘मधु का पान करने वाले लोगो! लो, यह मधु पान कर लो। तुममें से जिन्हें भूख लगी हो, वे सब लोग यह खीर खाओ और परम पवित्र फलों के गूदे
भी प्रस्तुत हैं, इनका आस्वादन करो। जिसकी जो इच्छा हो, वही भोजन करो’ ॥ ५२॥
उच्छोद्य स्नापयन्ति स्म नदीतीरेषु वल्गुषु।
अप्येकमेकं पुरुषं प्रमदाः सप्त चाष्ट च॥५३॥
सात-आठ तरुणी स्त्रियाँ मिलकर एक-एक पुरुष को नदी के मनोहर तटोंपर उबटन लगा-लगाकर नहलाती थीं॥
संवाहन्त्यः समापेतुर्नार्यो विपुललोचनाः।
परिमृज्य तदान्योन्यं पाययन्ति वराङ्गनाः॥५४॥
बड़े-बड़े नेत्रोंवाली सुन्दरी रमणियाँ अतिथियों का पैर दबाने के लिये आयी थीं। वे उनके भीगे हुए अङ्गों को वस्त्रों से पोंछकर शुद्ध वस्त्र धारण कराकर उन्हें स्वादिष्ट पेय (दूध आदि) पिलाती थीं॥ ५४॥
हयान् गजान् खरानुष्ट्रांस्तथैव सुरभेः सुतान्।
अभोजयन् वाहनपास्तेषां भोज्यं यथाविधि॥
तत्पश्चात् भिन्न-भिन्न वाहनों की रक्षा में नियुक्त मनुष्यों ने हाथी, घोड़े, गधे, ऊँट और बैलों को भलीभाँति दाना-घास आदि का भोजन कराया॥ ५५ ॥
इखूश्च मधुलाजांश्च भोजयन्ति स्म वाहनान्।
इक्ष्वाकुवरयोधानां चोदयन्तो महाबलाः॥५६॥
इक्ष्वाकुकुलके श्रेष्ठ योद्धाओं की सवारी में आने वाले वाहनों को वे महाबली वाहन-रक्षक (जिन्हें महर्षि ने सेवा के लिये नियुक्त किया था) प्रेरणा दे-देकर गन्ने के टुकड़े और मधुमिश्रित लावे खिलाते थे। ५६॥
नाश्वबन्धोऽश्वमाजानान्न गजं कुञ्जरग्रहः।
मत्तप्रमत्तमुदिता सा चमूस्तत्र सम्बभौ ॥५७॥
घोड़े बाँधने वाले सईस को अपने घोड़े का और हाथीवान को अपने हाथी का कुछ पता नहीं था। सारी सेना वहाँ मत्त-प्रमत्त और आनन्दमग्न प्रतीत होती थी॥५७॥
तर्पिताः सर्वकामैश्च रक्तचन्दनरूषिताः।
अप्सरोगणसंयुक्ताः सैन्या वाचमुदीरयन्॥५८॥
सम्पूर्ण मनोवाञ्छित पदार्थों से तृप्त होकर लाल चन्दन से चर्चित हुए सैनिक अप्सराओं का संयोग पाकर निम्नाङ्कित बातें कहने लगे- ॥ ५८॥ ।
नैवायोध्यां गमिष्यामो न गमिष्याम दण्डकान्।
कुशलं भरतस्यास्तु रामस्यास्तु तथा सुखम्॥ ५९॥
‘अब हम अयोध्या नहीं जायेंगे, दण्डकारण्य में भी नहीं जायेंगे। भरत सकुशल रहें (जिनके कारण हमें इस भूतल पर स्वर्गका सुख मिला) तथा श्रीरामचन्द्रजी भी सुखी रहें (जिनके दर्शन के लिये आने पर हमें इस दिव्य सुख की प्राप्ति हुई)’ ॥ ५९॥
इति पादातयोधाश्च हस्त्यश्वारोहबन्धकाः।
अनाथास्तं विधिं लब्ध्वा वाचमेतामुदीरयन्॥ ६०॥
इस प्रकार पैदल सैनिक तथा हाथीसवार, घुड़सवार, सईस और महावत आदि उस सत्कार को पाकर स्वच्छन्द हो उपर्युक्त बातें कहने लगे॥ ६० ॥
सम्प्रहृष्टा विनेदुस्ते नरास्तत्र सहस्रशः।
भरतस्यानुयातारः स्वर्गोऽयमिति चाब्रुवन्॥६१॥
भरत के साथ आये हुए हजारों मनुष्य वहाँ का वैभव देखकर हर्ष के मारे फूले नहीं समाते थे और जोर जोर से कहते थे—यह स्थान स्वर्ग है॥ ६१॥
नृत्यन्तश्च हसन्तश्च गायन्तश्चैव सैनिकाः।
समन्तात् परिधावन्तो माल्योपेताः सहस्रशः॥ ६२॥
सहस्रों सैनिक फूलों के हार पहनकर नाचते, हँसते और गाते हुए सब ओर दौड़ते फिरते थे॥६२॥
ततो भुक्तवतां तेषां तदन्नममृतोपमम्।
दिव्यानुवीक्ष्य भक्ष्यांस्तानभवद् भक्षणे मतिः॥ ६३॥
उस अमृत के समान स्वादिष्ट अन्न का भोजन कर चुकने पर भी उन दिव्य भक्ष्य पदार्थों को देखकर उन्हें पुनः भोजन करने की इच्छा हो जाती थी॥ ६३॥
प्रेष्याश्चेट्यश्च वध्वश्च बलस्थाश्चापि सर्वशः।
बभूवुस्ते भृशं प्रीताः सर्वे चाहतवाससः॥६४॥
दास-दासियाँ, सैनिकों की स्त्रियाँ और सैनिक सबके-सब नूतन वस्त्र धारण करके सब प्रकार से अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे॥६४॥
कुञ्जराश्च खरोष्ट्राश्च गोऽश्वाश्च मृगपक्षिणः।
बभूवुः सुभृतास्तत्र नातो ह्यन्यमकल्पयत्॥६५॥
हाथी, घोड़े, गदहे, ऊँट, बैल, मृग तथा पक्षी भी वहाँ पूर्ण तृप्त हो गये थे; अतः कोई दूसरी किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता था॥६५॥
नाशुक्लवासास्तत्रासीत् क्षुधितो मलिनोऽपि वा।
रजसा ध्वस्तकेशो वा नरः कश्चिददृश्यत॥ ६६॥
उस समय वहाँ कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं दिखायी देता था, जिसके कपड़े सफेद न हों, जो भूखा या मलिन रह गया हो, अथवा जिसके केश धूल से धूसरित हो गये हों॥६६॥
आजैश्चापि च वाराहैर्निष्ठानवरसंचयैः।
फलनिर्वृहसंसिद्धैः सूपैर्गन्धरसान्वितैः॥६७॥
पुष्पध्वजवतीः पूर्णाः शुक्लस्यान्नस्य चाभितः।
ददृशुर्विस्मितास्तत्र नरा लौहीः सहस्रशः॥ ६८॥
अजवाइन मिलाकर बनाये गये, वराही कन्द से तैयार किये गये तथा आम आदि फलों के गरम किये हुए रस में पकाये गये उत्तमोत्तम व्यञ्जनों के संग्रहों, सुगन्धयुक्त रसवाली दालों तथा श्वेत रंग के भातों से भरे हुए सहस्रों सुवर्ण आदि के पात्र वहाँ सब ओर रखे हुए थे, जिन्हें फूलों की ध्वजाओं से सजाया गया था। भरत के साथ आये हुए सब लोगों ने उन पात्रों को आश्चर्यचकित होकर देखा ॥ ६७-६८ ॥
बभूवुर्वनपार्श्वेषु कूपाः पायसकर्दमाः।
ताश्च कामदुघा गावो द्रुमाश्चासन् मधुच्युतः॥ ६९॥
वन के आस-पास जितने कुएँ थे, उन सबमें गाढ़ी स्वादिष्ट खीर भरी हुई थी। वहाँ की गौएँ कामधेनु (सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाली) हो गयी थीं और उस दिव्य वन के वृक्ष मधु की वर्षा करते थे॥ ६९॥
वाप्यो मैरेयपूर्णाश्च मृष्टमांसचयैर्वृताः।
प्रतप्तपिठरैश्चापि मार्गमायूरकौक्कुटैः॥७०॥
भरत की सेना में आये हए निषाद आदि निम्न वर्ग के लोगों की तृप्ति के लिये वहाँ मधु से भरी हुई बावड़ियाँ प्रकट हो गयी थीं तथा उनके तटों पर तपे हुए पिठर (कुण्ड) में पकाये गये मृग, मोर और मुर्गों के स्वच्छ मांस भी ढेर-के-ढेर रख दिये गये थे।॥ ७० ॥
पात्रीणां च सहस्राणि स्थालीनां नियुतानि च।
न्यर्बुदानि च पात्राणि शातकुम्भमयानि च॥ ७१॥
वहाँ सहस्रों सोने के अन्नपात्र, लाखों व्यञ्जनपात्र और लगभग एक अरब थालियाँ संगृहीत थीं॥ ७१॥
स्थाल्यः कुम्भ्यः करम्भ्यश्च दधिपूर्णाः सुसंस्कृताः।
यौवनस्थस्य गौरस्य कपित्थस्य सुगन्धिनः॥ ७२॥
ह्रदाः पूर्णा रसालस्य दध्नः श्वेतस्य चापरे।
बभूवुः पायसस्यान्ये शर्कराणां च संचयाः॥ ७३॥
पिठर, छोटे-छोटे घड़े तथा मटके दही से भरे हुए थे और उनमें दही को सुस्वादु बनाने वाले सोंठ आदि मसाले पड़े हुए थे। एक पहर पहले के तैयार किये हुए केसर मिश्रित पीतवर्ण वाले सुगन्धित तक्र के कई तालाब भरे हुए थे। जीरा आदि मिलाये हुए तक्र (रसाल), सफेद दही तथा दूध के भी कई कुण्ड पृथक्-पृथक् भरे हुए थे शक्करों के कई ढेर लगे थे। ७२-७३॥
कल्कांश्चूर्णकषायांश्च स्नानानि विविधानि च।
ददृश जनस्थानि तीर्थेष सरितां नराः॥७४॥
स्नान करने वाले मनुष्यों को नदी के घाटोंपर भिन्नभिन्न पात्रों में पीसे हुए आँवले, सुगन्धित चूर्ण तथाऔर भी नाना प्रकार के स्नानोपयोगी पदार्थ दिखायी देते थे॥ ७४॥
शुक्लानंशुमतश्चापि दन्तधावनसंचयान्।
शुक्लांश्चन्दनकल्कांश्च समुद्रेष्ववतिष्ठतः॥ ७५॥
साथ ही ढेर-के-ढेर दाँतन, जो सफेद कूँचे वाले थे, वहाँ रखे हए थे। सम्पुटों में घिसे हए सफेद चन्दन विद्यमान थे। इन सब वस्तुओं को लोगों ने देखा। ७५॥
दर्पणान् परिमृष्टांश्च वाससां चापि संचयान्।
पादुकोपानहं चैव युग्मान्यत्र सहस्रशः॥७६॥
इतना ही नहीं, वहाँ बहुत-से स्वच्छ दर्पण, ढेर-केढेर वस्त्र और हजारों जोड़े खड़ाऊँ और जूते भी दिखायी देते थे॥ ७६॥
आञ्जनीः कङ्कतान् कूर्चाश्छत्राणि च धनूंषि च।
मर्मत्राणानि चित्राणि शयनान्यासनानि च॥ ७७॥
काजलों सहित कजरौटे, कंघे, कूर्च (थकरी या ब्रश), छत्र, धनुष, मर्मस्थानों की रक्षा करने वाले कवच आदि तथा विचित्र शय्या और आसन भी वहाँ दृष्टिगोचर होते थे॥ ७७॥
प्रतिपानह्रदान् पूर्णान् खरोष्ट्रगजवाजिनाम्।
अवगाह्यसुतीर्थांश्च ह्रदान् सोत्पलपुष्करान्।
आकाशवर्णप्रतिमान् स्वच्छतोयान् सुखाप्लवान्॥७८॥
गधे, ऊँट, हाथी और घोड़ों के पानी पीने के लिये कई जलाशय भरे थे, जिनके घाट बड़े सुन्दर और सुखपूर्वक उतरने योग्य थे। उन जलाशयों में कमल और उत्पल शोभा पा रहे थे। उनका जल आकाश के समान स्वच्छ था तथा उनमें सुखपूर्वक तैरा जा सकता था।
नीलवैदूर्यवर्णाश्च मृदून् यवससंचयान्।
निर्वापार्थं पशूनां ते ददृशुस्तत्र सर्वशः॥७९॥
पशुओं के खाने के लिये वहाँ सब ओर नील वैदूर्यमणि के समान रंगवाली हरी एवं कोमल घास की ढेरियाँ लगी थीं। उन सब लोगों ने वे सारी वस्तुएँ देखीं॥ ७९॥
व्यस्मयन्त मनुष्यास्ते स्वप्नकल्पं तदद्भुतम्।
दृष्ट्वाऽऽतिथ्यं कृतं तादृग् भरतस्य महर्षिणा॥ ८०॥
महर्षि भरद्वाज के द्वारा सेनासहित भरत का किया हुआ वह अनिर्वचनीय आतिथ्य-सत्कार अद्भुत और स्वप्न के समान था। उसे देखकर वे सब मनुष्य आश्चर्यचकित हो उठे। ८० ॥
इत्येवं रममाणानां देवानामिव नन्दने।
भरद्वाजाश्रमे रम्ये सा रात्रिय॑त्यवर्तत॥८१॥
जैसे देवता नन्दनवन में विहार करते हैं, उसी प्रकार भरद्वाज मुनि के रमणीय आश्रम में यथेष्ट क्रीडा विहार करते हुए उन लोगों की वह रात्रि बड़े सुख से बीती॥
प्रतिजग्मुश्च ता नद्यो गन्धर्वाश्च यथागतम्।
भरद्वाजमनुज्ञाप्य ताश्च सर्वा वराङ्गनाः॥८२॥
तत्पश्चात् वे नदियाँ, गन्धर्व और समस्त सुन्दरी अप्सराएँ भरद्वाजजी की आज्ञा ले जैसे आयी थीं, उसी प्रकार लौट गयीं। ८२।।
तथैव मत्ता मदिरोत्कटा नरास्तथैव दिव्यागुरुचन्दनोक्षिताः।
तथैव दिव्या विविधाः स्रगुत्तमाःपृथग्विकीर्णा मनुजैः प्रमर्दिताः॥ ८३॥
सबेरा हो जाने पर भी लोग उसी प्रकार मधुपान से मत्त एवं उन्मत्त दिखायी देते थे। उनके अङ्गों पर दिव्य अगुरुयुक्त चन्दन का लेप ज्यों-का-त्यों दृष्टिगोचर हो रहा था। मनुष्यों के उपभोग में लाये गये नाना प्रकार के दिव्य उत्तम पुष्पहार भी उसी अवस्था में पृथक्-पृथक् बिखरे पड़े थे॥ ८३॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकनवतितमः सर्गः॥ ९१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इक्यानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ९१॥
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