वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 93 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 93
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्रिनवतितमः सर्गः (सर्ग 93)
सेनासहित भरत की चित्रकूट-यात्रा का वर्णन
तया महत्या यायिन्या ध्वजिन्या वनवासिनः।
अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथाः सम्प्रदुद्रुवुः ॥१॥
यात्रा करने वाली उस विशाल वाहिनी से पीड़ित हो वनवासी यूथपति मतवाले हाथी आदि अपने यूथों के साथ भाग चले॥१॥
ऋक्षाः पृषतमुख्याश्च रुरवश्च समन्ततः।
दृश्यन्ते वनवाटेषु गिरिष्वपि नदीषु च॥२॥
रीछ, चितकबरे मृग तथा रुरु नामक मृग वन प्रदेशों में, पर्वतों में और नदियों के तटों पर चारों ओर उस सेना से पीड़ित दिखायी देते थे॥२॥
स सम्प्रतस्थे धर्मात्मा प्रीतो दशरथात्मजः।
वृतो महत्या नादिन्या सेनया चतुरङ्गया॥३॥
महान् कोलाहल करने वाली उस विशाल चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए धर्मात्मा दशरथनन्दन भरत बड़ी प्रसन्नता के साथ यात्रा कर रहे थे॥३॥
सागरौघनिभा सेना भरतस्य महात्मनः।
महीं संछादयामास प्रावृषि द्यामिवाम्बुदः॥४॥
जैसे वर्षा ऋतु में मेघों की घटा आकाश को ढकलेती है, उसी प्रकार महात्मा भरत की समुद्र-जैसी उस विशाल सेना ने दूर तक के भूभाग को आच्छादित कर लिया था॥
तुरंगौघैरवतता वारणैश्च महाबलैः।
अनालक्ष्या चिरं कालं तस्मिन् काले बभूव सा॥
घोड़ों के समूहों तथा महाबली हाथियों से भरी और दूर तक फैली हुई वह सेना उस समय बहुत देर तक दृष्टि में ही नहीं आती थी॥ ५॥
स गत्वा दूरमध्वानं सम्परिश्रान्तवाहनः।
उवाच वचनं श्रीमान् वसिष्ठं मन्त्रिणां वरम्॥६॥
दूर तक का रास्ता तै कर लेने पर जब भरत की सवारियाँ बहुत थक गयीं, तब श्रीमान् भरत ने मन्त्रियों में श्रेष्ठ वसिष्ठजी से कहा- ॥६॥
यादृशं लक्ष्यते रूपं यथा चैव मया श्रुतम्।
व्यक्तं प्राप्ताः स्म तं देशं भरद्वाजो यमब्रवीत्॥ ७॥
‘ब्रह्मन् ! मैंने जैसा सुन रखा था और जैसा इस देश का स्वरूप दिखायी देता है, इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि भरद्वाजजी ने जहाँ पहुँचने का आदेश दिया था, उस देश में हम लोग आ पहुँचे हैं॥७॥
अयं गिरिश्चित्रकूटस्तथा मन्दाकिनी नदी।
एतत् प्रकाशते दूरान्नीलमेघनिभं वनम्॥८॥
‘जान पड़ता है यही चित्रकूट पर्वत है तथा वह मन्दाकिनी नदी बह रही है। यह पर्वतके आसपासका वन दूरसे नील मेघके समान प्रकाशित हो रहा है॥८॥
गिरेः सानूनि रम्याणि चित्रकूटस्य सम्प्रति।
वारणैरवमृद्यन्ते मामकैः पर्वतोपमैः॥९॥
‘इस समय मेरे पर्वताकार हाथी चित्रकूट के रमणीय शिखरों का अवमर्दन कर रहे हैं॥९॥
मुञ्चन्ति कुसुमान्येते नगाः पर्वतसानुषु।
नीला इवातपापाये तोयं तोयधरा घनाः॥१०॥
‘ये वृक्ष पर्वत शिखरों पर उसी प्रकार फूलों की वर्षा कर रहे हैं, जैसे वर्षाकाल में नील जलधर मेघ उन पर जल की वृष्टि करते हैं’॥१०॥
किंनराचरितं देशं पश्य शत्रुघ्न पर्वते।
हयैः समन्तादाकीर्णं मकरैरिव सागरम्॥११॥
(इसके बाद भरत शत्रुघ्न से कहने लगे-) ‘शत्रुघ्न ! देखो, इस पर्वत की उपत्यका में जो देश है, जहाँ पर किन्नर विचरा करते हैं, वही प्रदेश हमारी सेना के घोड़ों से व्याप्त होकर मगरों से भरे हुए समुद्र के समान प्रतीत होता है।
एते मृगगणा भान्ति शीघ्रवेगाः प्रचोदिताः।
वायुप्रविद्धाः शरदि मेघजाला इवाम्बरे॥१२॥
‘सैनिकों के खदेड़े हुए ये मृगों के झुंड तीव्र वेग से भागते हुए वैसी ही शोभा पा रहे हैं, जैसे शरत्काल के आकाश में हवा से उड़ाये गये बादलों के समूह सुशोभित होते हैं।॥ १२॥
कुर्वन्ति कुसुमापीडान् शिरःसु सुरभीनमी।
मेघप्रकाशैः फलकैर्दाक्षिणात्या नरा यथा॥ १३॥
‘ये सैनिक अथवा वृक्ष मेघ के समान कान्तिवाली ढालों से उपलक्षित होने वाले दक्षिण भारतीय मनुष्यों के समान अपने मस्तकों अथवा शाखाओं पर सुगन्धित पुष्प गुच्छमय आभूषणों को धारण करते हैं॥ १३॥
निष्कूजमिव भूत्वेदं वनं घोरप्रदर्शनम्।
अयोध्येव जनाकीर्णा सम्प्रति प्रतिभाति मे॥ १४॥
‘यह वन जो पहले जनरव-शून्य होने के कारण अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था, वही इस समय हमारे साथ आये हुए लोगों से व्याप्त होने के कारण मुझे अयोध्यापुरी के समान प्रतीत होता है॥ १४ ॥
खरैरुदीरितो रेणर्दिवं प्रच्छाद्य तिष्ठति।
तं वहत्यनिलः शीघ्रं कुर्वन्निव मम प्रियम्॥१५॥
‘घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल आकाश को आच्छादित करके स्थित होती है, परंतु उसे हवा मेरा प्रिय करती हुई-सी शीघ्र ही अन्यत्र उड़ा ले जाती है।
स्यन्दनांस्तुरगोपेतान् सूतमुख्यैरधिष्ठितान्।
एतान् सम्पततः शीघ्रं पश्य शत्रुघ्न कानने॥
‘शत्रुघ्न ! देखो, इस वन में घोड़ों से जुते हुए और श्रेष्ठ सारथियों द्वारा संचालित हुए ये रथ कितनी शीघ्रता से आगे बढ़ रहे हैं। १६ ॥
एतान् वित्रासितान् पश्य बहिणः प्रियदर्शनान्।
एवमापततः शैलमधिवासं पतत्त्रिणः॥१७॥
‘जो देखने में बड़े प्यारे लगते हैं उन मोरों को तो देखो। ये हमारे सैनिकों के भय से कितने डरे हुए हैं। इसी प्रकार अपने आवास-स्थान पर्वत की ओर उड़ते हुए अन्य पक्षियों पर भी दृष्टिपात करो॥ १७॥
अतिमात्रमयं देशो मनोज्ञः प्रतिभाति मे।
तापसानां निवासोऽयं व्यक्तं स्वर्गपथोऽनघ॥ १८॥
‘निष्पाप शत्रुघ्न ! यह देश मुझे बड़ा ही मनोहर प्रतीत होता है। तपस्वी जनों का यह निवास स्थान वास्तव में स्वर्गीय पथ है॥ १८॥
मृगा मृगीभिः सहिता बहवः पृषता वने।
मनोज्ञरूपा लक्ष्यन्ते कुसुमैरिव चित्रिताः॥१९॥
‘इस वन में मृगियों के साथ विचरने वाले बहुत-से चितकबरे मृग ऐसे मनोहर दिखायी देते हैं, मानो इन्हें फूलों से चित्रित—सुसज्जित किया गया हो ॥ १९॥
साधु सैन्याः प्रतिष्ठन्तां विचन्वन्तु च काननम्।
यथा तौ पुरुषव्याघ्रौ दृश्येते रामलक्ष्मणौ ॥२०॥
‘मेरे सैनिक यथोचित रूप से आगे बढ़ें और वन में सब ओर खोजें, जिससे उन दोनों पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण का पता लग जाय’ ॥ २० ॥
भरतस्य वचः श्रुत्वा पुरुषाः शस्त्रपाणयः।
विविशुस्तद्वनं शूरा धूमाग्रं ददृशुस्ततः॥२१॥
भरत का यह वचन सुनकर बहुत-से शूरवीर पुरुषों ने हाथों में हथियार लेकर उस वन में प्रवेश किया। तदनन्तर आगे जाने पर उन्हें कुछ दूरपर ऊपर को धुआँ उठता दिखायी दिया॥ २१॥
ते समालोक्य धूमाग्रमूचुर्भरतमागताः।
नामनुष्ये भवत्यग्निर्व्यक्तमत्रैव राघवौ॥२२॥
उस धूमशिखा को देखकर वे लौट आये और भरत से बोले—’प्रभो! जहाँ कोई मनुष्य नहीं होता, वहाँ आग नहीं होती। अतः श्रीराम और लक्ष्मण अवश्य यहीं होंगे॥
अथ नात्र नरव्याघ्रौ राजपुत्रौ परंतपौ।
अन्ये रामोपमाः सन्ति व्यक्तमत्र तपस्विनः॥ २३॥
‘यदि शत्रुओं को संताप देने वाले पुरुषसिंह राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण यहाँ न हों तो भी श्रीराम-जैसे तेजस्वी दूसरे कोई तपस्वी तो अवश्य ही होंगे’॥ २३॥
तच्छ्रुत्वा भरतस्तेषां वचनं साधुसम्मतम्।
सैन्यानुवाच सर्वांस्तानमित्रबलमर्दनः॥२४॥
उनकी बातें श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा मानने योग्य थीं, उन्हें सुनकर शत्रुसेना का मर्दन करने वाले भरत ने उन समस्त सैनिकों से कहा- ॥ २४॥
यत्ता भवन्तस्तिष्ठन्तु नेतो गन्तव्यमग्रतः।
अहमेव गमिष्यामि सुमन्त्रो धृतिरेव च ॥२५॥
‘तुम सब लोग सावधान होकर यहीं ठहरो! यहाँ से आगे न जाना। अब मैं ही वहाँ जाऊँगा। मेरे साथ सुमन्त्र और धृति भी रहेंगे’ ॥ २५ ॥
एवमुक्तास्ततः सैन्यास्तत्र तस्थुः समन्ततः।
भरतो यत्र धूमाग्रं तत्र दृष्टिं समादधत्॥२६॥
उनकी ऐसी आज्ञा पाकर समस्त सैनिक वहीं सब ओर फैलकर खड़े हो गये और भरत ने जहाँ धुआँ उठ रहा था, उस ओर अपनी दृष्टि स्थिर की॥ २६॥
व्यवस्थिता या भरतेन सा चमूनिरीक्षमाणापि च भूमिमग्रतः।
बभूव हृष्टा नचिरेण जानती प्रियस्य रामस्य समागमं तदा ॥२७॥
भरत के द्वारा वहाँ ठहरायी गयी वह सेना आगे की भूमिका निरीक्षण करती हुई भी वहाँ हर्षपूर्वक खड़ी रही; क्योंकि उस समय उसे मालूम हो गया था कि अब शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी से मिलने का अवसर आनेवाला है॥ १७॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रिनवतितमः सर्गः॥ ९३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिरानबेवाँ सर्ग पूराहुआ॥९३॥