वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 95 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 95
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चनवतितमः सर्गः (सर्ग 95)
श्रीराम का सीता के प्रति मन्दाकिनी नदी की शोभा का वर्णन
अथ शैलाद् विनिष्क्रम्य मैथिली कोसलेश्वरः।
अदर्शयच्छुभजलां रम्यां मन्दाकिनी नदीम्॥१॥
तदनन्तर उस पर्वत से निकलकर कोसल नरेश श्रीरामचन्द्रजी ने मिथिलेशकुमारी सीता को पुण्यसलिला रमणीय मन्दाकिनी नदी का दर्शन कराया ॥१॥
अब्रवीच्च वरारोहां चन्द्रचारुनिभाननाम्।
विदेहराजस्य सुतां रामो राजीवलोचनः॥२॥
और उस समय कमलनयन श्रीराम ने चन्द्रमा के समान मनोहर मुख तथा सुन्दर कटिप्रदेशवाली विदेहराजनन्दिनी सीता से इस प्रकार कहा- ॥२॥
विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम्।
कुसुमैरुपसम्पन्नां पश्य मन्दाकिनी नदीम्॥३॥
‘प्रिये! अब मन्दाकिनी नदी की शोभा देखो, हंस और सारसों से सेवित होने के कारण यह कितनी सुन्दर जान पड़ती है। इसका किनारा बड़ा ही विचित्र है। नाना प्रकार के पुष्प इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं॥३॥
नानाविधैस्तीररुहैर्वृतां पुष्पफलद्रुमैः।
राजन्तीं राजराजस्य नलिनीमिव सर्वतः॥४॥
‘फल और फूलों के भार से लदे हुए नाना प्रकार के तटवर्ती वृक्षों से घिरी हुई यह मन्दाकिनी कुबेर के सौगन्धिक सरोवर की भाँति सब ओर से सुशोभित हो रही है॥४॥
मृगयूथनिपीतानि कलुषाम्भांसि साम्प्रतम्।
तीर्थानि रमणीयानि रतिं संजनयन्ति मे॥५॥
‘हरिनों के झुंड पानी पीकर इस समय यद्यपि यहाँ का जल गेंदला कर गये हैं तथापि इसके रमणीय घाट मेरे मन को बड़ा आनन्द दे रहे हैं॥५॥
जटाजिनधराः काले वल्कलोत्तरवाससः।
ऋषयस्त्ववगाहन्ते नदीं मन्दाकिनीं प्रिये॥६॥
‘प्रिये! वह देखो, जटा, मृगचर्म और वल्कल का उत्तरीय धारण करने वाले महर्षि उपयुक्त समय में आकर इस मन्दाकिनी नदी में स्नान कर रहे हैं॥६॥
आदित्यमुपतिष्ठन्ते नियमादूर्ध्वबाहवः।
एते परे विशालाक्षि मुनयः संशितव्रताः॥७॥
‘विशाललोचने! ये दूसरे मुनि, जो कठोर व्रत का पालन करने वाले हैं, नैत्यिक नियम के कारण दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर सूर्यदेव का उपस्थान कर रहे हैं।
मारुतोद्धृतशिखरैः प्रनृत्त इव पर्वतः।
पादपैः पुष्पपत्राणि सृजद्भिरभितो नदीम्॥८॥
‘हवा के झोंके से जिनकी शिखाएँ झूम रही हैं, अतएव जो मन्दाकिनी नदी के उभय तटों पर फूल और पत्ते बिखेर रहे हैं, उन वृक्षों से उपलक्षित हुआ यह पर्वत मानो नृत्य-सा करने लगा है॥८॥
क्वचिन्मणिनिकाशोदां क्वचित् पुलिनशालिनीम्।
क्वचित् सिद्धजनाकीर्णां पश्य मन्दाकिनी नदीम्॥९॥
‘देखो! मन्दाकिनी नदी की कैसी शोभा है; कहीं तो इसमें मोतियों के समान स्वच्छ जल बहता दिखायी देता है, कहीं यह ऊँचे कगारों से ही शोभा पाती है । (वहाँ का जल कगारों में छिप जाने के कारण दिखायी नहीं देता है) और कहीं सिद्धजन इसमें अवगाहन कर रहे हैं तथा यह उनसे व्याप्त दिखायी देती है।
निर्धूतान् वायुना पश्य विततान् पुष्पसंचयान्।
पोप्लूयमानानपरान् पश्य त्वं तनुमध्यमे॥१०॥
‘सूक्ष्म कटिप्रदेशवाली सुन्दरि ! देखो, वायु के द्वारा उड़ाकर लाये हुए ये ढेर-के-ढेर फूल किस तरह मन्दाकिनी के दोनों तटों पर फैले हुए हैं और वे दूसरे पुष्पसमूह कैसे पानी पर तैर रहे हैं॥ १० ॥
पश्यैतदल्गुवचसो रथाङ्गाह्वयना द्विजाः।
अधिरोहन्ति कल्याणि निष्कूजन्तः शुभा गिरः॥
‘कल्याणि! देखो तो सही, ये मीठी बोली बोलने वाले चक्रवाक पक्षी सुन्दर कलरव करते हुए किस तरह नदी के तटों पर आरूढ़ हो रहे हैं॥ ११॥
दर्शनं चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याश्च शोभने।
अधिकं पुरवासाच्च मन्ये तव च दर्शनात्॥१२॥
‘शोभने! यहाँ जो प्रतिदिन चित्रकूट और मन्दाकिनी का दर्शन होता है, वह नित्य-निरन्तर तुम्हारा दर्शन होने के कारण अयोध्या निवास की अपेक्षा भी अधिक सुखदजान पड़ता है। १२ ।।
विधूतकल्मषैः सिद्वैस्तपोदमशमान्वितैः।
नित्यविक्षोभितजलां विगाहस्व मया सह ॥१३॥
‘इस नदी में प्रतिदिन तपस्या, इन्द्रिय संयम और मनोनिग्रह से सम्पन्न निष्पाप सिद्ध महात्माओं के अवगाहन करने से इसका जल विक्षुब्ध होता रहता है। चलो, तुम भी मेरे साथ इसमें स्नान करो॥ १३॥
सखीवच्च विगाहस्व सीते मन्दाकिनी नदीम्।
कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि च भामिनि॥ १४॥
‘भामिनि सीते! एक सखी दूसरी सखी के साथ जैसे क्रीड़ा करती है, उसी प्रकार तुम मन्दाकिनी नदी में उतरकर इसके लाल और श्वेत कमलों को जल में डुबोती हुई इसमें स्नान-क्रीड़ा करो॥ १४ ॥
त्वं पौरजनवद् व्यालानयोध्यामिव पर्वतम्।
मन्यस्व वनिते नित्यं सरयूवदिमां नदीम्॥१५॥
‘प्रिये! तुम इस वन के निवासियों को पुरवासी मनुष्यों के समान समझो, चित्रकूट पर्वत को अयोध्या के तुल्य मानो और इस मन्दाकिनी नदी को सरयू के सदृश जानो॥ १५ ॥
लक्ष्मणश्चैव धर्मात्मा मन्निदेशे व्यवस्थितः।
त्वं चानुकूला वैदेहि प्रीतिं जनयती मम॥१६॥
‘विदेहनन्दिनि! धर्मात्मा लक्ष्मण सदा मेरी आज्ञा के अधीन रहते हैं और तुम भी मेरे मन के अनुकूल ही चलती हो; इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है॥ १६ ॥
उपस्पृशंस्त्रिषवणं मधुमूलफलाशनः।
नायोध्यायै न राज्याय स्पृहये च त्वया सह॥ १७॥
‘प्रिये! तुम्हारे साथ तीनों काल स्नान करके मधुर फल-मूल का आहार करता हुआ मैं न तो अयोध्या जाने की इच्छा रखता हूँ और न राज्य पाने की ही॥ १७॥
इमां हि रम्यां गजयूथलोडितां निपीततोयां गजसिंहवानरैः।
सुपुष्पितां पुष्पभरैरलंकृतां न सोऽस्ति यः स्यान्न गतक्लमः सखी॥१८॥
‘जिसे हाथियों के समूह मथे डालते हैं तथा सिंह और वानर जिसका जल पिया करते हैं, जिसके तट पर सुन्दर पुष्पों से लदे वृक्ष शोभा पाते हैं तथा जो पुष्प समूहों से अलंकृत है, ऐसी इस रमणीय मन्दाकिनी नदी में स्नान करके जो ग्लानिरहित और सुखी न हो जाय—ऐसा मनुष्य इस संसार में नहीं है’ ॥ १८॥
इतीव रामो बहुसंगतं वचः प्रियासहायः सरितं प्रति ब्रुवन्।
चचार रम्यं नयनाञ्जनप्रभं स चित्रकूटं रघुवंशवर्धनः॥१९॥
रघुवंश की वृद्धि करने वाले श्रीरामचन्द्रजी मन्दाकिनी नदी के प्रति ऐसी अनेक प्रकार की सुसंगत बातें कहते हुए नील-कान्तिवाले रमणीय चित्रकूट पर्वत पर अपनी प्रिया पत्नी सीता के साथ विचरने लगे॥१९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चनवतितमः सर्गः॥ ९५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पंचानबेवाँ सर्ग पूराहुआ॥ ९५॥