वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 96 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 96
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
षण्णवतितमः सर्गः (सर्ग 96)
लक्ष्मण का शाल-वृक्ष पर चढ़कर भरत की सेना को देखना और उनके प्रति अपना रोषपूर्ण उद्गार प्रकट करना
तां तदा दर्शयित्वा तु मैथिली गिरिनिम्नगाम्।
निषसाद गिरिप्रस्थे सीतां मांसेन छन्दयन्॥१॥
इस प्रकार मिथिलेशकुमारी सीता को मन्दाकिनी नदी का दर्शन कराकर उस समय श्रीरामचन्द्रजी पर्वत के समतल प्रदेश में उनके साथ बैठ गये और तपस्वी-जनों के उपभोग में आने योग्य फल-मूल के गूदे से उनकी मानसिक प्रसन्नता को बढ़ाने—उनका लालन करने लगे।
इदं मेध्यमिदं स्वादु निष्टप्तमिदमग्निना।
एवमास्ते स धर्मात्मा सीतया सह राघवः॥२॥
धर्मात्मा रघुनन्दन सीताजी के साथ इस प्रकार की बातें कर रहे थे—’प्रिये! यह फल परम पवित्र है। यह बहुत स्वादिष्ट है तथा इस कन्द को अच्छी तरह आग पर सेका गया है’ ॥ २॥
तथा तत्रासतस्तस्य भरतस्योपयायिनः।
सैन्यरेणुश्च शब्दश्च प्रादुरास्तां नभस्पृशौ॥३॥
इस प्रकार वे उस पर्वतीय प्रदेश में बैठे हुए ही थे कि उनके पास आने वाली भरत की सेना की धूल और कोलाहल दोनों एक साथ प्रकट हुए और आकाश में फैलने लगे॥३॥
एतस्मिन्नन्तरे त्रस्ताः शब्देन महता ततः।
अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथाद् दुद्रुवुर्दिशः॥४॥
इसी बीच में सेना के महान् कोलाहल से भयभीत एवं पीड़ित हो हाथियों के कितने ही मतवाले यूथपति अपने यूथों के साथ सम्पूर्ण दिशाओं में भागने लगे। ४॥
स तं सैन्यसमुद्भूतं शब्दं शुश्राव राघवः।
तांश्च विप्रद्रुतान् सर्वान् यूथपानन्ववैक्षत॥५॥
श्रीरामचन्द्रजी ने सेना से प्रकट हुए उस महान् कोलाहल को सुना तथा भागे जाते हुए उन समस्त यूथपतियों को भी देखा ॥ ५ ॥
तांश्च विप्रद्रुतान् दृष्ट्वा तं च श्रुत्वा महास्वनम्।
उवाच रामः सौमित्रिं लक्ष्मणं दीप्ततेजसम्॥६॥
उन भागे हुए हाथियों को देखकर और उस महाभयंकर शब्द को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी उद्दीप्त तेज वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण से बोले—॥६॥
हन्त लक्ष्मण पश्येह सुमित्रा सुप्रजास्त्वया।
भीमस्तनितगम्भीरं तुमुलः श्रूयते स्वनः॥७॥
‘लक्ष्मण ! इस जगत् में तुमसे ही माता सुमित्रा श्रेष्ठ पुत्र वाली हुई हैं। देखो तो सही—यह भयंकर गर्जना के साथ कैसा गम्भीर तुमुल नाद सुनायी देता है।॥ ७॥
गजयथानि वारण्ये महिषा वा महावने।
वित्रासिता मृगाः सिंहैः सहसा प्रद्रता दिशः॥८॥
राजा वा राजपुत्रो वा मृगयामटते वने।
अन्यद्वा श्वापदं किंचित् सौमित्रे ज्ञातुमर्हसि॥९॥
‘सुमित्रानन्दन! पता तो लगाओ, इस विशाल वन में ये जो हाथियों के झुंड अथवा भैंसे या मृग जो सहसासम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग चले हैं, इसका क्या कारण है ? इन्हें सिंहों ने तो नहीं डरा दिया है अथवा कोई राजा या राजकुमार इस वन में आकर शिकार तो नहीं खेल रहा है या दूसरा कोई हिंसक जन्तु तो नहीं प्रकट हो गया है ? ।। ८-९॥
सुदुश्चरो गिरिश्चायं पक्षिणामपि लक्ष्मण।
सर्वमेतद् यथातत्त्वमभिज्ञातुमिहार्हसि॥१०॥
‘लक्ष्मण! इस पर्वत पर अपरिचित पक्षियों का आना-जाना भी अत्यन्त कठिन है (फिर यहाँ किसी हिंसक जन्तु वा राजा का आक्रमण कैसे सम्भव है)। अतः इन सारी बातों की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त करो’ ॥ १०॥
स लक्ष्मणः संत्वरितः सालमारुह्य पुष्पितम्।
प्रेक्षमाणो दिशः सर्वाः पूर्वां दिशमवैक्षत ॥११॥
भगवान् श्रीराम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण तुरंत ही फूलों से भरे हुए एक शाल-वृक्ष पर चढ़ गये और सम्पूर्ण दिशाओं की ओर देखते हुए उन्होंने पूर्व दिशा की ओर दृष्टिपात किया॥११॥
उदङ्मुखः प्रेक्षमाणो ददर्श महतीं चमूम्।
गजाश्वरथसम्बाधां यत्तैर्युक्तां पदातिभिः॥१२॥
तत्पश्चात् उत्तर की ओर मँह करके देखने पर उन्हें एक विशाल सेना दिखायी दी, जो हाथी, घोड़े और रथों से परिपूर्ण तथा प्रयत्नशील पैदल सैनिकों से संयुक्त थी॥
तामश्वरथसम्पूर्णां रथध्वजविभूषिताम्।
शशंस सेनां रामाय वचनं चेदमब्रवीत्॥१३॥
घोड़ों और रथों से भरी हई तथा रथ की ध्वजा से विभूषित उस सेना की सूचना उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को दी और यह बात कही— ॥ १३॥
अग्निं संशमयत्वार्यः सीता च भजतां गुहाम्।
सज्यं कुरुष्व चापं च शरांश्च कवचं तथा॥ १४॥
‘आर्य! अब आप आग बुझा दें (अन्यथा धुआँ देखकर यह सेना यहीं चली आयगी) देवी सीता गुफा में जा बैठें। आप अपने धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा लें और बाण तथा कवच धारण कर लें ॥१४॥
तं रामः पुरुषव्याघ्रो लक्ष्मणं प्रत्युवाच ह।
अङ्गावेक्षस्व सौमित्रे कस्येमां मन्यसे चमूम्॥ १५॥
यह सुनकर पुरुषसिंह श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा —’प्रिय सुमित्राकुमार! अच्छी तरह देखो तो सही, तुम्हारी समझ में यह किसकी सेना हो सकती है ?’॥ १५॥
एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्।
दिधक्षन्निव तां सेनां रुषितः पावको यथा॥ १६॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर लक्ष्मण रोष से प्रज्वलित हुए अग्निदेव की भाँति उस सेना की ओर इस तरह देखने लगे, मानो उसे जलाकर भस्म कर देना चाहते हों और इस प्रकार बोले- ॥१६॥
सम्पन्नं राज्यमिच्छंस्तु व्यक्तं प्राप्याभिषेचनम्।
आवां हन्तुं समभ्येति कैकेय्या भरतः सुतः॥ १७॥
‘भैया! निश्चय ही यह कैकेयी का पुत्र भरत है, जो अयोध्या में अभिषिक्त होकर अपने राज्य को निष्कण्टक बनाने की इच्छा से हम दोनों को मार डालने के लिये यहाँ आ रहा है॥ १७ ॥
एष वै सुमहान् श्रीमान् विटपी सम्प्रकाशते।
विराजत्युज्ज्वलस्कन्धः कोविदारध्वजो रथे॥ १८॥
‘सामने की ओर यह जो बहुत बड़ा शोभासम्पन्न वृक्ष दिखायी देता है, उसके समीप जो रथ है, उसपरउज्ज्वल तने से युक्त कोविदार वृक्ष से चिह्नित ध्वज शोभा पा रहा है॥ १८॥
भजन्त्येते यथाकाममश्वानारुह्य शीघ्रगान्।
एते भ्राजन्ति संहृष्टा गजानारुह्य सादिनः ॥१९॥
‘ये घुड़सवार सैनिक इच्छानुसार शीघ्रगामी घोड़ों पर आरूढ़ हो इधर ही आ रहे हैं और ये हाथीसवार भी बड़े हर्ष से हाथियों पर चढ़कर आते हए प्रकाशित हो रहे हैं।
गृहीतधनुषावावां गिरिं वीर श्रयावहे।
अथवेहैव तिष्ठावः संनद्धावुद्यतायुधौ॥२०॥
‘वीर! हम दोनों को धनुष लेकर पर्वत के शिखर पर चलना चाहिये अथवा कवच बाँधकर अस्त्रशस्त्रधारण किये यहीं डटे रहना चाहिये।॥ २० ॥
अपि नौ वशमागच्छेत् कोविदारध्वजो रणे।
अपि द्रक्ष्यामि भरतं यत्कृते व्यसनं महत्॥२१॥
त्वया राघव सम्प्राप्तं सीतया च मया तथा।
यन्निमित्तं भवान् राज्याच्च्युतो राघव शाश्वतात्॥
‘रघुनन्दन! आज यह कोविदार के चिह्न से युक्त ध्वजवाला रथ रणभूमि में हम दोनों के अधिकार में आ जायगा और आज मैं अपनी इच्छा के अनुसार उस भरत को भी सामने देखेंगा कि जिसके कारण आपको, सीता को और मुझे भी महान् संकट का सामना करना पड़ा है तथा जिसके कारण आप अपने सनातन राज्याधिकार से वञ्चित किये गये हैं।॥ २२॥
सम्प्राप्तोऽयमरिर्वीर भरतो वध्य एव हि।
भरतस्य वधे दोषं नाहं पश्यामि राघव॥२३॥
‘वीर रघुनाथजी! यह भरत हमारा शत्रु है और सामने आ गया है; अतः वध के ही योग्य है। भरत का वध करने में मुझे कोई दोष नहीं दिखायी देता ॥ २३ ॥
पूर्वापकारिणं हत्वा न ह्यधर्मेण युज्यते।
पूर्वापकारी भरतस्त्यागेऽधर्मश्च राघव॥२४॥
‘रघुनन्दन! जो पहले का अपकारी रहा हो, उसको मारकर कोई अधर्म का भागी नहीं होता है। भरत ने पहले हम लोगों का अपकार किया है, अतः उसे मारने में नहीं, जीवित छोड़ देने में ही अधर्म है। २४ ।।
एतस्मिन् निहते कृत्स्नामनुशाधि वसुंधराम्।
अद्य पुत्रं हतं संख्ये कैकेयी राज्यकामुका॥ २५॥
मया पश्येत् सुदुःखार्ता हस्तिभिन्नमिव द्रुमम्।
‘इस भरत के मारे जाने पर आप समस्त वसुधा का शासन करें। जैसे हाथी किसी वृक्ष को तोड़ डालता है, उसी प्रकार राज्य का लोभ करने वाली कैकेयी आज अत्यन्त दुःखसे आर्त हो इसे मेरे द्वारा युद्ध में मारा गया देखे ॥ २५ १/२॥
कैकेयीं च वधिष्यामि सानुबन्धां सबान्धवाम्॥ २६॥
कलुषेणाद्य महता मेदिनी परिमुच्यताम्।
‘मैं कैकेयी का भी उसके सगे-सम्बन्धियों एवं बन्धु-बान्धवों सहित वध कर डालूँगा। आज यह पृथ्वी कैकेयी रूप महान् पाप से मुक्त हो जाय॥ २६ १/२॥
अद्येमं संयतं क्रोधमसत्कारं च मानद ॥२७॥
मोक्ष्यामि शत्रुसैन्येषु कक्षेष्विव हुताशनम्।
‘मानद! आज मैं अपने रोके हुए क्रोध और तिरस्कार को शत्रु की सेनाओं पर उसी प्रकार छोडूंगा, जैसे सूखे घास-फूस के ढेर में आग लगा दी जाय॥ २७ १/२॥
अद्यैव चित्रकूटस्य काननं निशितैः शरैः॥ २८॥
छिन्दन शत्रशरीराणि करिष्ये शोणितोक्षितम्।
‘अपने तीखे बाणों से शत्रुओं के शरीरों के टुकड़े-टुकड़े करके मैं अभी चित्रकूट के इस वन को रक्त से सींच दूंगा॥ २८ १/२॥
शरैर्निभिन्नहृदयान् कुञ्जरांस्तुरगांस्तथा ॥२९॥
श्वापदाः परिकर्षन्तु नरांश्च निहतान् मया।
‘मेरे बाणों से विदीर्ण हुए हृदय वाले हाथियों और घोड़ों को तथा मेरे हाथ से मारे गये मनुष्यों को भीगीदड़ आदि मांसभक्षी जन्तु इधर-उधर घसीटें॥ २९ १/२॥
शराणां धनुषश्चाहमनृणोऽस्मिन् महावने।
ससैन्यं भरतं हत्वा भविष्यामि न संशयः॥३०॥
‘इस महान् वन में सेनासहित भरत का वध करके मैं धनुष और बाण के ऋण से उऋण हो जाऊँगा—इसमें संशय नहीं है’ ॥ ३० ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षण्णवतितमः सर्ग॥ ९६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छियानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ९६॥