वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 97 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 97
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तनवतितमः सर्गः (सर्ग 97)
श्रीराम का लक्ष्मण के रोष को शान्त करके भरत के सद्भाव का वर्णन करना,लक्ष्मण का लज्जित होना और भरत की सेना का पर्वत के नीचे छावनी डालना
सुसंरब्धं तु भरतं लक्ष्मणं क्रोधमूर्च्छितम्।
रामस्तु परिसान्त्व्याथ वचनं चेदमब्रवीत्॥१॥
लक्ष्मण भरत के प्रति रोषावेश के कारण क्रोधवश अपना विवेक खो बैठे थे, उस अवस्था में श्रीराम ने उन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और इस प्रकार कहा—
किमत्र धनुषा कार्यमसिना वा सचर्मणा।
महाबले महोत्साहे भरते स्वयमागते॥२॥
‘लक्ष्मण! महाबली और महान् उत्साही भरत जब स्वयं यहाँ आ गये हैं, तब इस समय यहाँ धनुष अथवा ढाल-तलवार से क्या काम है ? ॥ २॥
पितुः सत्यं प्रतिश्रुत्य हत्वा भरतमाहवे।
किं करिष्यामि राज्येन सापवादेन लक्ष्मण॥३॥
‘लक्ष्मण! पिता के सत्य की रक्षा के लिये प्रतिज्ञा करके यदि मैं युद्ध में भरत को मारकर उनका राज्य छीन लूँ तो संसार में मेरी कितनी निन्दा होगी, फिर उस कलंकित राज्य को लेकर मैं क्या करूँगा? ॥ ३॥
यद् द्रव्यं बान्धवानां वा मित्राणां वा क्षये भवेत्।
नाहं तत् प्रतिगृह्णीयां भक्ष्यान् विषकृतानिव॥ ४॥
‘अपने बन्धु-बान्धवों या मित्रों का विनाश करके जिस धन की प्राप्ति होती हो, वह तो विषमिश्रित भोजन के समान सर्वथा त्याग देने योग्य है; उसे मैं कदापि ग्रहण नहीं करूँगा॥ ४॥
धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिशृणोमि ते॥५॥
‘लक्ष्मण! मैं तुमसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि धर्म, अर्थ, काम और पृथ्वी का राज्य भी मैं तुम्हीं लोगों के लिये चाहता हूँ॥ ५॥
भ्रातॄणां संग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे॥६॥
सुमित्राकुमार! मैं भाइयों के संग्रह और सुख के लिये ही राज्य की भी इच्छा करता हूँ और इस बात की सच्चाई के लिये मैं अपना धनुष छूकर शपथ खाता हूँ॥
नेयं मम मही सौम्य दुर्लभा सागराम्बरा।
नहीच्छेयमधर्मेण शक्रत्वमपि लक्ष्मण ॥७॥
‘सौम्य लक्ष्मण! समुद्र से घिरी हई यह पृथिवी मेरे लिये दुर्लभ नहीं है, परंतु मैं अधर्म से इन्द्र का पद पाने की भी इच्छा नहीं कर सकता॥ ७॥
यद् विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं वापि मानद।
भवेन्मम सुखं किंचिद् भस्म तत् कुरुतां शिखी॥ ८॥
‘मानद! भरत को, तुमको और शत्रुघ्न को छोड़कर यदि मुझे कोई सुख मिलता हो तो उसे अग्निदेव जलाकर भस्म कर डालें॥८॥
मन्येऽहमागतोऽयोध्यां भरतो भ्रातृवत्सलः।
मम प्राणैः प्रियतरः कुलधर्ममनुस्मरन्॥९॥
श्रुत्वा प्रव्राजितं मां हि जटावल्कलधारिणम्।
जानक्या सहितं वीर त्वया च पुरुषोत्तम॥१०॥
स्नेहेनाक्रान्तहृदयः शोकेनाकुलितेन्द्रियः।
द्रष्टमभ्यागतो ह्येष भरतो नान्यथाऽऽगतः॥११॥
‘वीर! पुरुषप्रवर! भरत बड़े भ्रातृभक्त हैं। वे मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। मुझे तो ऐसा मालूम होता है, भरत ने अयोध्या में आने पर जब सुना है कि मैं तुम्हारे और जानकी के साथ जटा-वल्कल धारण करके वन में आ गया हूँ, तब उनकी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठी हैं और वे कुलधर्म का विचार करके स्नेहयुक्त हृदय से हमलोगों से मिलने आये हैं। इन भरत के आगमन का इसके सिवा दूसरा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता॥९–११॥
अम्बां च केकयीं रुष्य भरतश्चाप्रियं वदन्।
प्रसाद्य पितरं श्रीमान् राज्यं मे दातुमागतः॥१२॥
‘माता कैकेयी के प्रति कुपित हो, उन्हें कठोर वचन सुनाकर और पिताजी को प्रसन्न करके श्रीमान् भरत मुझे राज्य देने के लिये आये हैं ॥ १२॥
प्राप्तकालं यथैषोऽस्मान् भरतो द्रष्टमर्हति।
अस्मासु मनसाप्येष नाहितं किंचिदाचरेत्॥१३॥
‘भरत का हम लोगों से मिलने के लिये आना सर्वथा समयोचित है वे हमसे मिलने के योग्य हैं। हमलोगों का कोई अहित करने का विचार तो वे कभी मन में भी नहीं ला सकते॥१३॥
विप्रियं कृतपूर्वं ते भरतेन कदा नु किम्।
ईदृशं वा भयं तेऽद्य भरतं यद् विशङ्कसे॥१४॥
‘भरत ने तुम्हारे प्रति पहले कब कौन-सा अप्रिय बर्ताव किया है, जिससे आज तुम्हें उनसे ऐसा भय लग रहा है और तुम उनके विषय में इस तरह की आशङ्का कर रहे हो? ॥ १४॥
नहि ते निष्ठरं वाच्यो भरतो नाप्रियं वचः।
अहं ह्यप्रियमुक्तः स्यां भरतस्याप्रिये कृते॥१५॥
‘भरत के आने पर तुम उनसे कोई कठोर या अप्रिय वचन न बोलना। यदि तुमने उनसे कोई प्रतिकूल बात कही तो वह मेरे ही प्रति कही हुई समझी जायगी॥ १५॥
कथं नु पुत्राः पितरं हन्युः कस्यांचिदापदि।
भ्राता वा भ्रातरं हन्यात् सौमित्रे प्राणमात्मनः॥ १६॥
‘सुमित्रानन्दन ! कितनी ही बड़ी आपत्ति क्यों न आ जाय, पुत्र अपने पिता को कैसे मार सकते हैं? अथवा भाई अपने प्राणों के समान प्रिय भाई की हत्या कैसे कर सकता है ? ॥ १६॥
यदि राज्यस्य हेतोस्त्वमिमां वाचं प्रभाषसे।
वक्ष्यामि भरतं दृष्ट्वा राज्यमस्मै प्रदीयताम्॥ १७॥
‘यदि तुम राज्य के लिये ऐसी कठोर बात कहते हो तो मैं भरत से मिलने पर उन्हें कह दूँगा कि तुम यह राज्य लक्ष्मण को दे दो॥ १७॥
उच्यमानो हि भरतो मया लक्ष्मण तद्वचः।
राज्यमस्मै प्रयच्छेति बाढमित्येव मंस्यते॥१८॥
‘लक्ष्मण ! यदि मैं भरत से यह कहूँ कि ‘तुम राज्य इन्हें दे दो’ तो वे बहुत अच्छा’ कहकर अवश्य मेरी बात मान लेंगे’ ॥ १८॥
तथोक्तो धर्मशीलेन भ्रात्रा तस्य हिते रतः।
लक्ष्मणः प्रविवेशेव स्वानि गात्राणि लज्जया॥ १९॥
अपने धर्मपरायण भाई के ऐसा कहने पर उन्हीं के हित में तत्पर रहने वाले लक्ष्मण लज्जावश मानो अपने अङ्गों में ही समा गये—लाज से गड़ गये॥ १९ ॥
तद्वाक्यं लक्ष्मणः श्रुत्वा व्रीडितः प्रत्युवाच ह।
त्वां मन्ये द्रष्टमायातः पिता दशरथः स्वयम्॥ २०॥
श्रीराम का पूर्वोक्त वचन सुनकर लज्जित हुए लक्ष्मण ने कहा—’भैया! मैं समझता हूँ, हमारे पिता महाराज दशरथ स्वयं ही आपसे मिलने आये हैं’। २०॥
व्रीडितं लक्ष्मणं दृष्ट्वा राघवः प्रत्युवाच ह।
एष मन्ये महाबाहुरिहास्मान् द्रष्टमागतः॥२१॥
लक्ष्मण को लज्जित हुआ देख श्रीराम ने उत्तर दिया —’मैं भी ऐसा ही मानता हूँ कि हमारे महाबाहु पिताजी ही हमलोगों से मिलने आये हैं ॥ २१॥
अथवा नौ ध्रुवं मन्ये मन्यमानः सुखोचितौ।
वनवासमनुध्याय गृहाय प्रतिनेष्यति॥२२॥
‘अथवा मैं ऐसा समझता हूँ कि हमें सुख भोगने के योग्य मानते हुए पिताजी वनवास के कष्ट का विचार करके हम दोनों को निश्चय ही घर लौटा ले जायेंगे। २२॥
इमां चाप्येष वैदेहीमत्यन्तसुखसेविनीम्।
पिता मे राघवः श्रीमान् वनादादाय यास्यति॥ २३॥
‘मेरे पिता रघुकुलतिलक श्रीमान् महाराज दशरथ अत्यन्त सुख का सेवन करने वाली इन विदेहराजनन्दिनी सीता को भी वन से साथ लेकर ही घर को लौटेंगे॥ २३॥
एतौ तौ सम्प्रकाशेते गोत्रवन्तौ मनोरमौ।
वायुवेगसमौ वीरौ जवनौ तुरगोत्तमौ॥ २४॥
‘अच्छे घोड़ोंके कुलमें उत्पन्न हुए ये ही वे दोनों वायुके समान वेगशाली, शीघ्रगामी, वीर एवं मनोरम अपने उत्तम घोड़े चमक रहे हैं।॥ २४ ॥
स एष सुमहाकायः कम्पते वाहिनीमुखे।
नागः शत्रुजयो नाम वृद्धस्तातस्य धीमतः॥२५॥
‘परम बुद्धिमान् पिताजी की सवारी में रहने वाला यह वही विशालकाय शत्रुजय नामक बूढ़ा गजराज है, जो सेना के मुहाने पर झूमता हुआ चल रहा है ॥ २५ ॥
न तु पश्यामि तच्छत्रं पाण्डुरं लोकविश्रुतम्।
पितुर्दिव्यं महाभाग संशयो भवतीह मे ॥ २६॥
‘महाभाग! परंतु इसके ऊपर पिताजी का वह विश्वविख्यात दिव्य श्वेतछत्र मुझे नहीं दिखायी देता है—इससे मेरे मन में संशय उत्पन्न होता है॥२६॥
वृक्षायादवरोह त्वं कुरु लक्ष्मण मद्वचः।
इतीव रामो धर्मात्मा सौमित्रिं तमुवाच ह॥२७॥
अवतीर्य तु सालानात् तस्मात् स समितिंजयः।
लक्ष्मणः प्राञ्जलिर्भूत्वा तस्थौ रामस्य पार्श्वतः॥ २८॥
‘लक्ष्मण! अब मेरी बात मानो और पेड़ से नीचे उतर आओ।’ धर्मात्मा श्रीराम ने सुमित्राकुमार लक्ष्मण से जब ऐसी बात कही, तब युद्ध में विजय पाने वाले लक्ष्मण उस शाल वृक्ष के अग्रभाग से उतरे
और श्रीराम के पास हाथ जोड़कर खड़े हो गये। २७-२८॥
भरतेनाथ संदिष्टा सम्मर्दो न भवेदिति।
समन्तात् तस्य शैलस्य सेना वासमकल्पयत्॥ २९॥
उधर भरत ने सेना को आज्ञा दी कि ‘यहाँ किसी को हमलोगों के द्वारा बाधा नहीं पहुँचनी चाहिये।’ उनका यह आदेश पाकर समस्त सैनिक पर्वत के चारों ओर नीचे ही ठहर गये॥ २९॥
अध्यर्धमिक्ष्वाकुचमूर्योजनं पर्वतस्य ह।
पार्वे न्यविशदावृत्य गजवाजिनराकुला॥३०॥
उस समय हाथी, घोड़े और मनुष्यों से भरी हुई इक्ष्वाकुवंशी नरेश की वह सेना पर्वत के आस-पास की डेढ़ योजन (छः कोस) भूमि घेरकर पड़ाव डाले हुए थी॥
सा चित्रकूटे भरतेन सेना धर्मं पुरस्कृत्य विध्य दर्पम्।
प्रसादनार्थं रघुनन्दनस्य विरोचते नीतिमता प्रणीता॥३१॥
नीतिज्ञ भरत धर्म को सामने रखते हुए गर्व को त्यागकर रघुकुलनन्दन श्रीराम को प्रसन्न करने के लिये जिसे अपने साथ ले आये थे, वह सेना चित्रकूट पर्वत के समीप बड़ी शोभा पा रही थी॥३१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तनवतितमः सर्गः॥९७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्तानबेवाँ सर्ग पूराहुआ॥ ९७॥
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