वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 99 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 99
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
नवनवतितमः सर्गः (सर्ग 99)
भरत का शत्रुघ्न आदि के साथ श्रीराम के आश्रम पर जाना, उनकी पर्णशाला देख रोते-रोते चरणों में गिरना, श्रीराम का उन सबको हृदय से लगाना
निविष्टायां तु सेनायामुत्सुको भरतस्ततः।
जगाम भ्रातरं द्रष्टं शत्रुघ्नमनुदर्शयन्॥१॥
सेना के ठहर जाने पर भाई के दर्शन के लिये उत्कण्ठित होकर भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न को आश्रम के चिह्न दिखाते हुए उसकी ओर चले॥१॥
ऋषिं वसिष्ठं संदिश्य मातृमें शीघ्रमानय।
इति त्वरितमग्रे स जगाम गुरुवत्सलः॥२॥
गुरुभक्त भरत महर्षि वसिष्ठ को यह संदेश देकर कि आप मेरी माताओं को साथ लेकर शीघ्र ही आइये, तुरंत आगे बढ़ गये॥२॥
सुमन्त्रस्त्वपि शत्रुघ्नमदूरादन्वपद्यत।
रामदर्शनजस्त! भरतस्येव तस्य च ॥३॥
सुमन्त्र भी शत्रुघ्न के समीप ही पीछे-पीछे चल रहे थे। उन्हें भी भरत के समान ही श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की तीव्र अभिलाषा थी॥३॥
गच्छन्नेवाथ भरतस्तापसालयसंस्थिताम्।
भ्रातुः पर्णकुटी श्रीमानुटजं च ददर्श ह॥४॥
चलते-चलते ही श्रीमान् भरत ने तपस्वीजनों के आश्रमों के समान प्रतिष्ठित हुई भाई की पर्णकुटी और झोंपड़ी देखी॥ ४॥
शालायास्त्वग्रतस्तस्या ददर्श भरतस्तदा।
काष्ठानि चावभग्नानि पुष्पाण्यपचितानि च॥५॥
उस पर्णशाला के सामने भरत ने उस समय बहुत-से कटे हुए काष्ठ के टुकड़े देखे, जो होम के लिये संगृहीत थे। साथ ही वहाँ पूजा के लिये संचित किये हुए फूल भी दृष्टिगोचर हुए॥ ५ ॥
स लक्ष्मणस्य रामस्य ददर्शाश्रममीयुषः।
कृतं वृक्षेष्वभिज्ञानं कुशचीरैः क्वचित् क्वचित्॥
आश्रमपर आने-जाने वाले श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा निर्मित मार्गबोधक चिह्न भी उन्हें वृक्षों में लगे दिखायी दिये, जो कशों और चीरों द्वारा तैयार करके कहीं-कहीं वृक्षों की शाखाओं में लटका दिये गये थे। ६॥
ददर्श च वने तस्मिन् महतः संचयान् कृतान्।
मृगाणां महिषाणां च करीषैः शीतकारणात्॥
उस वन में शीत-निवारण के लिये मृगों की लेंडी और भैंसों के सूखे हुए गोबर के ढेर एकत्र करके रखे गये थे, जिन्हें भरत ने अपनी आँखों देखा ॥ ७॥
गच्छन्नेव महाबाहुर्युतिमान् भरतस्तदा।
शत्रुघ्नं चाब्रवीद् हृष्टस्तानमात्यांश्च सर्वशः॥८॥
उस समय चलते-चलते ही परम कान्तिमान् महाबाहु भरत ने शत्रुघ्न तथा सम्पूर्ण मन्त्रियों से अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा- ॥८॥
मन्ये प्राप्ताः स्म तं देशं भरद्वाजो यमब्रवीत्।
नातिदूरे हि मन्येऽहं नदीं मन्दाकिनीमितः॥९॥
‘जान पड़ता है कि महर्षि भरद्वाज ने जिस स्थान का पता बताया था, वहाँ हमलोग आ गये हैं। मैं समझता हूँ मन्दाकिनी नदी यहाँ से अधिक दूर नहीं है॥९॥
उच्चैर्बद्धानि चीराणि लक्ष्मणेन भवेदयम्।
अभिज्ञानकृतः पन्था विकाले गन्तुमिच्छता॥१०॥
‘वृक्षों में ऊँचे बँधे हए ये चीर दिखायी दे रहे हैं।अतः समय-बे समय जल आदि लाने के निमित्त बाहर जाने की इच्छा वाले लक्ष्मण ने जिसकी पहचान के लिये यह चिह्न बनाया है, वह आश्रम को जाने वाला मार्ग यही हो सकता है॥ १० ॥
इतश्चोदात्तदन्तानां कुञ्जराणां तरस्विनाम्।
शैलपाइँ परिक्रान्तमन्योन्यमभिगर्जताम् ॥११॥
‘इधर से बड़े-बड़े दाँत वाले वेगशाली हाथी निकलकर एक-दूसरे के प्रति गर्जना करते हुए इस पर्वत के पार्श्वभाग में चक्कर लगाते रहते हैं (अतः उधर जाने से रोकने के लिये लक्ष्मण ने ये चिह्न बनाये होंगे) ॥ ११॥
यमेवाधातुमिच्छन्ति तापसाः सततं वने।
तस्यासौ दृश्यते धूमः संकुलः कृष्णवर्त्मनः॥ १२॥
‘वन में तपस्वी मुनि सदा जिनका आधान करना चाहते हैं, उन अग्निदेव का यह अति सघन धूम दृष्टिगोचर हो रहा है।॥ १२॥
अत्राहं पुरुषव्याघ्रं गुरुसत्कारकारिणम्।
आर्य द्रक्ष्यामि संहृष्टं महर्षिमिव राघवम्॥१३॥
‘यहाँ मैं गुरुजनों का सत्कार करने वाले पुरुषसिंह आर्य रघुनन्दन का सदा आनन्दमग्न रहने वाले महर्षि की भाँति दर्शन करूँगा’ ॥ १३॥
अथ गत्वा मुहूर्तं तु चित्रकूटं स राघवः।
मन्दाकिनीमनुप्राप्तस्तं जनं चेदमब्रवीत्॥१४॥
तदनन्तर रघुकुलभूषण भरत दो ही घडी में मन्दाकिनी के तट पर विराजमान चित्रकूट के पास जा पहुँचे और अपने साथ वाले लोगों से इस प्रकार बोले –॥
जगत्यां पुरुषव्याघ्र आस्ते वीरासने रतः।
जनेन्द्रो निर्जनं प्राप्य धिने जन्म सजीवितम्॥ १५॥
‘अहो! मेरे ही कारण पुरुषसिंह महाराज श्रीरामचन्द्र इस निर्जन वन में आकर खुली पृथ्वी के ऊपर वीरासन से बैठते हैं; अतः मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार है॥ १५ ॥
मत्कृते व्यसनं प्राप्तो लोकनाथो महाद्युतिः।
सर्वान् कामान् परित्यज्य वने वसति राघवः॥ १६॥
‘मेरे ही कारण महातेजस्वी लोकनाथ रघुनाथ भारी संकट में पड़कर समस्त कामनाओं का परित्याग करके वन में निवास करते हैं।॥ १६॥
इति लोकसमाक्रुष्टः पादेष्वद्य प्रसादयन्।
रामं तस्य पतिष्यामि सीताया लक्ष्मणस्य च॥ १७॥
‘इसलिये मैं सब लोगों के द्वारा निन्दित हूँ, अतः मेरे जन्म को धिक्कार है! आज मैं श्रीराम को प्रसन्न करने के लिये उनके चरणों में गिर जाऊँगा। सीता और लक्ष्मण के भी पैरों पढूंगा’ ॥ १७॥
एवं स विलपंस्तस्मिन् वने दशरथात्मजः।
ददर्श महतीं पुण्यां पर्णशालां मनोरमाम्॥१८॥
इस तरह विलाप करते हुए दशरथकुमार भरत ने उस वन में एक बड़ी पर्णशाला देखी, जो परम पवित्र और मनोरम थी॥ १८॥
सालतालाश्वकर्णानां पर्णैर्बहुभिरावृताम्।
विशालां मृदुभिस्तीर्णां कुशैर्वेदिमिवाध्वरे॥ १९॥
वह शाल, ताल और अश्वकर्ण नामक वृक्षों के बहुत-से पत्तों द्वारा छायी हुई थी; अतः यज्ञशाला में जिस पर कोमल कुश बिछाये गये हों, उस लंबीचौड़ी वेदी के समान शोभा पा रही थी॥ १९॥
शक्रायुधनिकाशैश्च कार्मुकै रसाधनैः।
रुक्मपृष्ठैर्महासारैः शोभितां शत्रुबाधकैः॥२०॥
वहाँ इन्द्रधनुष के समान बहुत-से धनुष रखे गये थे, जो गुरुतर कार्य-साधन में समर्थ थे। जिनके पृष्ठभाग सोने से मढ़े गये थे और जो बहुत ही प्रबल तथा शत्रुओं को पीड़ा देने वाले थे। उनसे उस पर्णकुटी की बड़ी शोभा हो रही थी॥२०॥
अर्करश्मिप्रतीकाशैोरैस्तूणगतैः शरैः।
शोभितां दीप्तवदनैः सर्भोगवतीमिव॥२१॥
वहाँ तरकसों में बहुत-से बाण भरे थे, जो सूर्य की किरणों के समान चमकीले और भयङ्कर थे। उन बाणों से वह पर्णशाला उसी प्रकार सुशोभित होती थी, जैसे दीप्तिमान् मुख वाले सोसे भोगवती पुरी शोभित होती है॥२१॥
महारजतवासोभ्यामसिभ्यां च विराजिताम्।
रुक्मबिन्दुविचित्राभ्यां चर्मभ्यां चापि शोभिताम्॥२२॥
सोने की म्यानों में रखी हुई दो तलवारें और स्वर्णमय बिन्दुओं से विभूषित दो विचित्र ढालें भी उस आश्रम की शोभा बढ़ा रही थीं॥ २२॥
गोधाङ्गलिरासक्तैश्चित्रकाञ्चनभूषितैः।
अरिसंधैरनाधृष्यां मृगैः सिंहगुहामिव ॥२३॥
वहाँ गोह के चमड़े के बने हुए बहुत-से सुवर्णजटित दस्ताने भी टॅगे हुए थे। जैसे मृग सिंह की गुफा पर आक्रमण नहीं कर सकते, उसी प्रकार वह पर्णशाला शत्रुसमूहों के लिये अगम्य एवं अजेय थी॥ २३॥
प्रागुदक्प्रवणां वेदिं विशालां दीप्तपावकाम्।
ददर्श भरतस्तत्र पुण्यां रामनिवेशने॥२४॥
श्रीराम के उस निवास स्थान में भरत ने एक पवित्र एवं विशाल वेदी भी देखी, जो ईशान कोण की ओर कुछ नीची थी। उसपर अग्नि प्रज्वलित हो रही थी॥ २४॥
निरीक्ष्य स मुहूर्तं तु ददर्श भरतो गुरुम्।
उटजे राममासीनं जटामण्डलधारिणम्॥२५॥
कृष्णाजिनधरं तं तु चीरवल्कलवाससम्।
ददर्श राममासीनमभितः पावकोपमम्॥२६॥
पर्णशाला की ओर थोड़ी देरतक देखकर भरत ने कुटिया में बैठे हुए अपने पूजनीय भ्राता श्रीराम को देखा, जो सिर पर जटामण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने अपने अङ्गों में कृष्णमृगचर्म तथा चीर एवं वल्कल वस्त्र धारण कर रखे थे। भरत को दिखायी दिया कि श्रीराम पास ही बैठे हैं और प्रज्वलित अग्नि के समान अपनी दिव्य प्रभा फैला रहे हैं। २५-२६॥
सिंहस्कन्धं महाबाहुं पुण्डरीकनिभेक्षणम्।
पृथिव्याः सागरान्ताया भर्तारं धर्मचारिणम्॥ २७॥
उपविष्टं महाबाहं ब्रह्माणमिव शाश्वतम्।
स्थण्डिले दर्भसंस्तीर्णे सीतया लक्ष्मणेन च॥२८॥
समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के स्वामी, धर्मात्मा, महाबाहु श्रीराम सनातन ब्रह्मा की भाँति कुश बिछी हुई वेदीपर बैठे थे। उनके कंधे सिंह के समान, भुजाएँ बड़ी-बड़ीऔर नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान थे। उस वेदी पर वे सीता और लक्ष्मण के साथ विराजमान थे॥ २७-२८॥
तं दृष्ट्वा भरतः श्रीमान् शोकमोहपरिप्लुतः।
अभ्यधावत धर्मात्मा भरतः केकयीसुतः॥ २९॥
उन्हें इस अवस्था में देख धर्मात्मा श्रीमान् कैकेयीकुमार भरत शोक और मोह में डूब गये तथा बड़े वेग से उनकी ओर दौड़े॥२९॥
दृष्ट्वैव विललापा” बाष्पसंदिग्धया गिरा।
अशक्नुवन् वारयितुं धैर्याद् वचनमब्रुवन्॥३०॥
भाई की ओर दृष्टि पड़ते ही भरत आर्तभाव से विलाप करने लगे। वे अपने शोक के आवेग को धैर्य से रोक न सके और आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी में बोले- ॥३०॥
यः संसदि प्रकृतिभिर्भवेद् युक्त उपासितुम्।
वन्यैर्मृगैरुपासीनः सोऽयमास्ते ममाग्रजः॥ ३१॥
‘हाय! जो राजसभा में बैठकर प्रजा और मन्त्रिवर्ग के द्वारा सेवा तथा सम्मान पाने के योग्य हैं, वे ही ये मेरे बड़े भ्राता श्रीराम यहाँ जंगली पशुओं से घिरे हुए बैठे हैं।
वासोभिर्बहुसाहस्रों महात्मा पुरोचितः।
मृगाजिने सोऽयमिह प्रवस्ते धर्ममाचरन्॥३२॥
‘जो महात्मा पहले कई सहस्र वस्त्रों का उपयोग करते थे, वे अब धर्माचरण करते हुए यहाँ केवल दो मृगचर्म धारण करते हैं॥३२॥
अधारयद् यो विविधाश्चित्राः सुमनसः सदा।
सोऽयं जटाभारमिमं सहते राघवः कथम्॥३३॥
‘जो सदा नाना प्रकार के विचित्र फूलों को अपने सिर पर धारण करते थे, वे ही ये श्रीरघुनाथजी इस समय इस जटाभार को कैसे सहन करते हैं? ॥ ३३॥
यस्य यज्ञैर्यथादिष्टैर्युक्तो धर्मस्य संचयः।
शरीरक्लेशसम्भूतं स धर्म परिमार्गते॥३४॥
‘जिनके लिये शास्त्रोक्त यज्ञों के अनुष्ठान द्वारा धर्म का संग्रह करना उचित है, वे इस समय शरीर को कष्ट देनेसे प्राप्त होने वाले धर्म का अनुसंधान कर रहे हैं।॥ ३४॥
चन्दनेन महार्हेण यस्याङ्गमुपसेवितम्।
मलेन तस्याङ्गमिदं कथमार्यस्य सेव्यते॥ ३५॥
‘जिनके अङ्गों की बहुमूल्य चन्दन से सेवा होती थी, उन्हीं मेरे पूज्य भ्राता का यह शरीर कैसे मल से सेवित हो रहा है॥ ३५॥
मन्निमित्तमिदं दुःखं प्राप्तो रामः सुखोचितः।
धिग्जीवितं नृशंसस्य मम लोकविगर्हितम्॥३६॥
‘हाय! जो सर्वथा सुख भोगने के योग्य हैं, वे श्रीराम मेरे ही कारण ऐसे दुःख में पड़ गये हैं। ओह! मैं कितना क्रूर हूँ? मेरे इस लोकनिन्दित जीवन को धिक्कार है!’ ॥ ३६॥
इत्येवं विलपन् दीनः प्रस्विन्नमुखपङ्कजः।
पादावप्राप्य रामस्य पपात भरतो रुदन्॥३७॥
इस प्रकार विलाप करते-करते भरत अत्यन्त दुःखी हो गये। उनके मुखारविन्दपर पसीने की बूंदें दिखायी देने लगीं। वे श्रीरामचन्द्रजी के चरणों तक पहँचने के पहले ही पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ३७॥
दुःखाभितप्तो भरतो राजपुत्रो महाबलः।
उक्त्वाऽऽर्येति सकृद् दीनं पुनर्नोवाच किंचन॥ ३८॥
अत्यन्त दुःख से संतप्त होकर महाबली राजकुमार भरत ने एक बार दीनवाणी में ‘आर्य’ कहकर पुकारा फिर वे कुछ न बोल सके॥ ३८॥
बाष्पैः पिहितकण्ठश्च प्रेक्ष्य रामं यशस्विनम्।
आर्येत्येवाभिसंक्रुश्य व्याहर्तुं नाशकत् ततः॥ ३९॥
आँसुओं से उनका गला रुंध गया था। यशस्वी श्रीराम की ओर देख वे ‘हा! आर्य’ कहकर चीख उठे। इससे आगे उनसे कुछ बोला न जा सका। ३९॥
शत्रुघ्नश्चापि रामस्य ववन्दे चरणौ रुदन्।
तावुभौ च समालिङ्य रामोऽप्यश्रूण्यवर्तयत्॥ ४०॥
फिर शत्रुघ्न ने भी रोते-रोते श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया। श्रीराम ने उन दोनों को उठाकर छाती से लगा लिया। फिर वे भी नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाने लगे॥ ४०॥
ततः सुमन्त्रेण गुहेन चैव समीयतू राजसुतावरण्ये।
दिवाकरश्चैव निशाकरश्च यथाम्बरे शुक्रबृहस्पतिभ्याम्॥४१॥
तत्पश्चात् राजकुमार श्रीराम तथा लक्ष्मण उस वन में सुमन्त्र और निषादराज गुह से मिले, मानो आकाश में सूर्य और चन्द्रमा, शुक्र और बृहस्पति से मिल रहे हों।
तान् पार्थिवान् वारणयूथपार्हान् समागतांस्तत्र महत्यरण्ये।
वनौकसस्तेऽभिसमीक्ष्य सर्वे त्वश्रूण्यमुञ्चन् प्रविहाय हर्षम्॥४२॥
यूथपति गजराज पर बैठकर यात्रा करने योग्य उन चारों राजकुमारों को उस विशाल वन में आया देख समस्त वनवासी हर्ष छोड़कर शोक के आँसू बहाने लगे॥४२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे नवनवतितमः सर्गः॥ ९९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में निन्यानबेवाँ सर्ग पूराहुआ॥९९॥