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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 18 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 18

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
अष्टादशः सर्गः (सर्ग 18)

 (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न के जन्म, संस्कार, शीलस्वभाव एवं सद्गुण, राजा के दरबार में विश्वामित्र का आगमन और उनका सत्कार)

 

निर्वृत्ते तु क्रतौ तस्मिन् हयमेधे महात्मनः।
प्रतिगृह्यामरा भागान् प्रतिजग्मुर्यथागतम्॥

महामना राजा दशरथ का यज्ञ समाप्त होने पर देवतालोग अपना-अपना भाग ले जैसे आये थे, वैसे लौट गये॥१॥

समाप्तदीक्षानियमः पत्नीगणसमन्वितः।
प्रविवेश पुरीं राजा सभृत्यबलवाहनः॥२॥

दीक्षा का नियम समाप्त होने पर राजा अपनी पत्नियों को साथ ले सेवक, सैनिक और सवारियोंसहित पुरी में प्रविष्ट हुए॥२॥

यथार्ह पूजितास्तेन राज्ञा च पृथिवीश्वराः।
मुदिताः प्रययुर्देशान् प्रणम्य मुनिपुंगवम्॥३॥

भिन्न-भिन्न देशों के राजा भी (जो उनके यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आये थे) महाराज दशरथ द्वारा यथावत् सम्मानित हो मुनिवर वसिष्ठ तथा ऋष्यशृंग को  प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने देश को चले गये॥३॥

श्रीमतां गच्छतां तेषां स्वगृहाणि पुरात् ततः।
बलानि राज्ञां शुभ्राणि प्रहृष्टानि चकाशिरे॥४॥

अयोध्यापुरी से अपने घर को जाते हुए उन श्रीमान् नरेशों के शुभ्र सैनिक अत्यन्त हर्षमग्न होने के कारण बड़ी शोभा पा रहे थे॥४॥

गतेषु पृथिवीशेषु राजा दशरथः पुनः।
प्रविवेश पुरीं श्रीमान् पुरस्कृत्य द्विजोत्तमान्॥

उन राजाओं के विदा हो जाने पर श्रीमान् महाराज दशरथ ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आगे करके अपनी पुरी में प्रवेश किया॥ ५ ॥

शान्तया प्रययौ सार्धमृष्यश्रृंगः सुपूजितः।
अनुगम्यमानो राज्ञा च सानुयात्रेण धीमता॥

राजा द्वारा अत्यन्त सम्मानित हो ऋष्यशृंग मुनि भी शान्ता के साथ अपने स्थान को चले गये। उस समय सेवकोंसहित बुद्धिमान् महाराज दशरथ कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे उन्हें पहुँचाने गये थे॥६॥

एवं विसृज्य तान् सर्वान् राजा सम्पूर्णमानसः।
उवास सुखितस्तत्र पुत्रोत्पत्तिं विचिन्तयन्॥७॥

इस प्रकार उन सब अतिथियों को विदा करके सफल मनोरथ हुए राजा दशरथ पुत्रोत्पत्ति की प्रतीक्षा करते हुए वहाँ बड़े सुख से रहने लगे। ७॥

ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥८॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥९॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्।
कौसल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणसंयुतम्॥१०॥

यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् जब छः ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौसल्यादेवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोकवन्दित जगदीश्वर श्रीराम को जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्रये) पाँच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे॥

विष्णोरर्धं महाभागं पुत्रमैक्ष्वाकुनन्दनम्।
लोहिताक्षं महाबाहुं रक्तोष्ठं दुन्दुभिस्वनम्॥११॥

वे विष्णुस्वरूप हविष्य या खीर के आधे भाग से प्रकट हुए थे। कौसल्या के महाभाग पुत्र श्रीराम इक्ष्वाकुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले थे। उनके नेत्रों में कुछ-कुछ लालिमा थी। उनके ओठ लाल, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और स्वर दुन्दुभि के शब्द के समान गम्भीर था॥ ११॥

कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा।
यथा वरेण देवानामदितिर्वज्रपाणिना॥१२॥

उस अमिततेजस्वी पुत्र से महारानी कौसल्या की बड़ी शोभा हुई, ठीक उसी तरह, जैसे सुरश्रेष्ठ वज्रपाणि इन्द्र से देवमाता अदिति सुशोभित हुई थीं॥ १२॥

भरतो नाम कैकेय्यां जज्ञे सत्यपराक्रमः।
साक्षाद् विष्णोश्चतुर्भागः सर्वैः समुदितोगुणैः॥१३॥

तदनन्तर कैकेयी से सत्यपराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान् विष्णु के (स्वरूपभूत पायस-खीर के) चतुर्थांश से भी न्यून भाग से प्रकट हुए थे। ये समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे। १३॥

अथ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्राजनयत् सतौ।
वीरौ सर्वास्त्रकुशलौ विष्णोरर्धसमन्वितौ॥१४॥

इसके बाद रानी सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न -इन दो पुत्रों को जन्म दिया। ये दोनों वीर साक्षात् भगवान् विष्णु के अर्धभाग से सम्पन्न और सब प्रकार के अस्त्रों की विद्या में कुशल थे॥ १४ ॥

पुष्ये जातस्तु भरतो मीनलग्ने प्रसन्नधीः।
सार्पे जातौ तु सौमित्री कुलीरेऽभ्युदिते रवौ॥१५॥

भरत सदा प्रसन्नचित्त रहते थे। उनका जन्म पुष्य नक्षत्र तथा मीन लग्न में हुआ था। सुमित्रा के दोनों पुत्र आश्लेषा नक्षत्र और कर्कलग्न में उत्पन्न हुए थे। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे॥ १५॥

राज्ञः पुत्रा महात्मानश्चत्वारो जज्ञिरे पृथक्।
गुणवन्तोऽनुरूपाश्च रुच्या प्रोष्ठपदोपमाः॥१६॥

राजा दशरथ के ये चारों महामनस्वी पुत्र पृथक्पृथक गुणों से सम्पन्न और सुन्दर थे। ये भाद्रपदा नामक चार तारों के समान कान्तिमान् थे* ॥ १६ ॥
* प्रोष्ठपदा कहते हैं-भाद्रपदा नक्षत्र को। उसके दो भेद हैं -पूर्वभाद्रपदा और उत्तरभाद्रपदा। इन दोनों में दो-दो तारे हैं। यह बात ज्यौतिषशास्त्र में प्रसिद्ध है। (रा०ति०)

जगुः कलं च गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिश्च खात् पतत्॥१७॥

इनके जन्म के समय गन्धर्वो ने मधुर गीत गाये। अप्सराओं ने नृत्य किया। देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं तथा आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी॥ १७॥

उत्सवश्च महानासीदयोध्यायां जनाकुलः।
रथ्याश्च जनसम्बाधा नटनर्तकसंकुलाः॥१८॥

अयोध्या में बहुत बड़ा उत्सव हुआ। मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई। गलियाँ और सड़कें लोगों से खचाखच भरी थीं। बहुत-से नट और नर्तक वहाँ अपनी कलाएँ दिखा रहे थे॥१८॥

गायनैश्च विराविण्यो वादनैश्च तथापरैः।
विरेजुर्विपुलास्तत्र सर्वरत्नसमन्विताः॥१९॥

वहाँ सब ओर गाने-बजाने वाले तथा दूसरे लोगों के शब्द गूंज रहे थे। दीन-दुःखियों के लिये लुटाये गये सब प्रकार के रत्न वहाँ बिखरे पड़े थे॥ १९॥

प्रदेयांश्च ददौ राजा सूतमागधवन्दिनाम्।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं गोधनानि सहस्रशः॥२०॥

राजा दशरथ ने सूत, मागध और वन्दीजनों को देने योग्य पुरस्कार दिये तथा ब्राह्मणों को धन एवं सहस्रों गोधन प्रदान किये॥ २० ॥

अतीत्यैकादशाहं तु नामकर्म तथाकरोत्।
ज्येष्ठं रामं महात्मानं भरतं कैकयीसुतम्॥२१॥
सौमित्रिं लक्ष्मणमिति शत्रुघ्नमपरं तथा।
वसिष्ठः परमप्रीतो नामानि कुरुते तदा ॥२२॥

ग्यारह दिन बीतने पर महाराजने बालकों का नामकरण संस्कार किया। उस समय महर्षि वसिष्ठ ने प्रसन्नता के साथ सबके नाम रखे। उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र का नाम ‘राम’ रखा। श्रीराम महात्मा (परमात्मा) थे। कैकेयीकुमार का नाम भरत तथा सुमित्रा के एक पुत्र का नाम लक्ष्मण और दूसरे का शत्रुघ्न निश्चित किया॥ २१-२२॥
* रामायणतिलक के निर्माता ने मूल के एकादशाह शब्द को सूतक के अन्तिम दिन का उपलक्षण माना है। उनका कहना है कि यदि ऐसा न माना जाय तो ‘क्षत्रियस्य द्वादशाहं सूतकम्’ (क्षत्रिय को बारह दिनों का सूतक लगता है) इस स्मृतिवाक्य से विरोध होगा; अतः रामजन्म के बारह दिन बीत जाने के बाद तेरहवें दिन राजा ने नामकरण-संस्कार किया ऐसा मानना चाहिये।

ब्राह्मणान् भोजयामास पौरजानपदानपि।
अददद् ब्राह्मणानां च रत्नौघममलं बहु॥२३॥

राजा ने  ब्राह्मणों, पुरवासियों तथा जनपदवासियों को भी भोजन कराया। ब्राह्मणों को बहुत-से उज्ज्व ल रत्नसमूह दान किये॥ २३॥

तेषां जन्मक्रियादीनि सर्वकर्माण्यकारयत्।
तेषां केतुरिव ज्येष्ठो रामो रतिकरः पितुः॥२४॥

महर्षि वसिष्ठ ने समय-समयपर राजा से उन बालकों के जातकर्म आदि सभी संस्कार करवाये थे। उन सबमें श्रीरामचन्द्रजी ज्येष्ठ होने के साथ ही अपने कुल की कीर्ति-ध्वजा को फहराने वाली पताका के समान थे। वे अपने पिता की प्रसन्नता को बढानेवाले थे॥२४॥

बभूव भूयो भूतानां स्वयम्भूरिव सम्मतः।
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः॥२५॥

सभी भूतों के लिये वे स्वयम्भू ब्रह्माजी के समान विशेष प्रिय थे। राजा के सभी पुत्र वेदों के विद्वान् और शूरवीर थे। सब-के-सब लोकहितकारी कार्यों में संलग्न रहते थे॥ २५ ॥

सर्वे ज्ञानोपसम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः।
तेषामपि महातेजा रामः सत्यपराक्रमः॥२६॥
इष्टः सर्वस्य लोकस्य शशाङ्क इव निर्मलः।
गजस्कन्धेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु सम्मतः॥२७॥
धनुर्वेदे च निरतः पितुः शुश्रूषणे रतः।

सभी ज्ञानवान् और समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे। उनमें भी सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी सबसे अधिक तेजस्वी और सब लोगों के विशेष प्रिय थे। वे निष्कलङ्क चन्द्रमा के समान शोभा पाते थे। उन्होंने हाथी के कंधे और घोड़े की पीठपर बैठने तथा रथ हाँकने की कला में भी सम्मानपूर्ण स्थान । प्राप्त किया था। वे सदा धनुर्वेद का अभ्यास करते और पिताजी की सेवा में लगे रहते थे।

बाल्यात् प्रभृति सुस्निग्धो लक्ष्मणोलक्ष्मिवर्धनः॥ २८॥
रामस्य लोकरामस्य भ्रातुर्येष्ठस्य नित्यशः।
सर्वप्रियकरस्तस्य रामस्यापि शरीरतः॥२९॥

लक्ष्मी की वृद्धि करने वाले लक्ष्मण बाल्यावस्था से ही श्रीरामचन्द्रजी के प्रति अत्यन्त अनुराग रखते थे। वे अपने बड़े भाई लोकाभिराम श्रीराम का सदा ही प्रिय करते थे और शरीर से भी उनकी सेवा में ही जुटे रहते थे।

लक्ष्मणो लक्ष्मिसम्पन्नो बहिःप्राण इवापरः।
न च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः॥३०॥
मृष्टमन्नमुपानीतमश्नाति न हि तं विना।

शोभासम्पन्न लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रजी के लिये बाहर विचरने वाले दूसरे प्राण के समान थे। पुरुषोत्तम श्रीराम को उनके बिना नींद भी नहीं आती थी। यदि उनके पास उत्तम भोजन लाया जाता तो श्रीरामचन्द्रजी उसमें से लक्ष्मण को दिये बिना नहीं खाते थे॥ ३० १/२॥

यदा हि हयमारूढो मृगयां याति राघवः॥३१॥
अथैनं पृष्ठतोऽभ्येति सधनुः परिपालयन्।
भरतस्यापि शत्रुघ्नो लक्ष्मणावरजो हि सः॥३२॥
प्राणैः प्रियतरो नित्यं तस्य चासीत् तथा प्रियः।

जब श्रीरामचन्द्रजी घोड़े पर चढ़कर शिकार खेलने के लिये जाते, उस समय लक्ष्मण धनुष लेकर उनके शरीर की रक्षा करते हुए पीछे-पीछे जाते थे। इसी प्रकार लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न भरतजी को प्राणों से भी अधिक प्रिय थे और वे भी भरतजी को सदा प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते थे। ३१-३२ १/२॥

स चतुर्भिर्महाभागैः पुत्रैर्दशरथः प्रियैः॥ ३३॥
बभूव परमप्रीतो देवैरिव पितामहः।

इन चार महान् भाग्यशाली प्रिय पुत्रों से राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती थी, ठीक वैसे ही जैसे चार देवताओं (दिक्पालों) से ब्रह्माजी को प्रसन्नता होती है।॥ ३३ १/२ ॥

ते यदा ज्ञानसम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः॥३४॥
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च सर्वज्ञा दीर्घदर्शिनः।
तेषामेवंप्रभावाणां सर्वेषां दीप्ततेजसाम्॥३५॥
पिता दशरथो हृष्टो ब्रह्मा लोकाधिपो यथा।

वे सब बालक जब समझदार हुए, तब समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो गये। वे सभी लज्जाशील, यशस्वी, सर्वज्ञ और दूरदर्शी थे। ऐसे प्रभावशालीऔर अत्यन्त तेजस्वी उन सभी पुत्रों की प्राप्ति से राजा दशरथ लोकेश्वर ब्रह्मा की भाँति बहुत प्रसन्न थे॥ ३४-३५ १/२॥

ते चापि मनुजव्याघ्रा वैदिकाध्ययने रताः॥३६॥
पितृशुश्रूषणरता धनुर्वेदे च निष्ठिताः।

वे पुरुषसिंह राजकुमार प्रतिदिन वेदों के स्वाध्याय, पिता की सेवा तथा धनुर्वेद के अभ्यास में दत्त-चित्त रहते थे॥ ३६ १/२॥

अथ राजा दशरथस्तेषां दारक्रियां प्रति॥३७॥
चिन्तयामास धर्मात्मा सोपाध्यायः सबान्धवः।
तस्य चिन्तयमानस्य मन्त्रिमध्ये महात्मनः॥३८॥
अभ्यागच्छन्महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः।

एक दिन धर्मात्मा राजा दशरथ पुरोहित तथा बन्धु-बान्धवों के साथ बैठकर पुत्रों के विवाह के विषय में विचार कर रहे थे। मन्त्रियों के बीच में विचार करते हुए उन महामनानरेशके यहाँ महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र पधारे॥ ३७-३८ १/२॥

स राज्ञो दर्शनाकांक्षी द्वाराध्यक्षानुवाच ह॥३९॥
शीघ्रमाख्यात मां प्राप्तं कौशिकं गाधिनःसुतम्।

वे राजा से मिलना चाहते थे। उन्होंने द्वारपालों से कहा—’तुमलोग शीघ्र जाकर महाराज को यह सूचना दो कि कुशिकवंशी गाधिपुत्र विश्वामित्र आये हैं’ ॥ ३९ १/२ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य राज्ञो वेश्म प्रदुद्रुवुः ॥४०॥
सम्भ्रान्तमनसः सर्वे तेन वाक्येन चोदिताः।

उनकी यह बात सुनकर वे द्वारपाल दौड़े हुए राजा के दरबार में गये। वे सब विश्वामित्र के उस वाक्य से प्रेरित होकर मन-ही-मन घबराये हुए थे। ४० १/२॥

ते गत्वा राजभवनं विश्वामित्रमृषिं तदा॥४१॥
प्राप्तमावेदयामासुर्नृपायेक्ष्वाकवे तदा।

राजा के दरबार में पहुँचकर उन्होंने इक्ष्वाकुकुलनन्दन अवधनरेश से कहा—’महाराज! महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं’। ४१ १/२॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा सपुरोधाः समाहितः॥४२॥
प्रत्युज्जगाम संहृष्टो ब्रह्माणमिव वासवः।

उनकी वह बात सुनकर राजा सावधान हो गये। उन्होंने पुरोहित को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ उनकी अगवानी की, मानो देवराज इन्द्र ब्रह्माजी का स्वागत कर रहे हों॥ ४२ १/२ ॥

स दृष्ट्वा ज्वलितं दीप्त्या तापसं संशितव्रतम्॥४३॥
प्रहृष्टवदनो राजा ततोऽर्ध्यमुपहारयत्।

विश्वामित्रजी कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। वे अपने तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उनका दर्शन करके राजा का मुख प्रसन्नता से खिल उठा और उन्होंने महर्षि को अर्घ्य निवेदन किया॥ ४३ १/२॥

स राज्ञः प्रतिगृह्यार्घ्य शास्त्रदृष्टेन कर्मणा॥४४॥
कुशलं चाव्ययं चैव पर्यपृच्छन्नराधिपम्।

राजा का वह अर्घ्य शास्त्रीय विधि के अनुसार स्वीकार करके महर्षि ने उनसे कुशल-मंगल पूछा॥ ४४ १/२॥

पुरे कोशे जनपदे बान्धवेषु सुहृत्सु च॥४५॥
कुशलं कौशिको राज्ञः पर्यपृच्छत् सुधार्मिकः।

धर्मात्मा विश्वामित्र ने क्रमशः राजा के नगर, खजाना, राज्य, बन्धु-बान्धव तथा मित्रवर्गआदि के विषय में कुशल प्रश्न किया- ॥ ४५ १/२॥

अपि ते संनताः सर्वे सामन्तरिपवो जिताः॥
दैवं च मानुषं चैव कर्म ते साध्वनुष्ठितम्।

‘राजन् आपके राज्य की सीमा के निकट रहने वाले शत्रु राजा आपके समक्ष नतमस्तक तो हैं? आपने उनपर विजय तो प्राप्त की है न? आपके यज्ञयाग आदि देवकर्म और अतिथिसत्कार आदि मनुष्यकर्म तो अच्छी तरह सम्पन्न होते हैं न?’ ॥ ४६ १/२॥

वसिष्ठं च समागम्य कुशलं मुनिपुंगवः॥४७॥
ऋषींश्च तान् यथान्यायं महाभाग उवाच ह। ।

इसके बाद महाभाग मुनिवर विश्वामित्र ने वसिष्ठजी तथा अन्यान्य ऋषियों से मिलकर उन सबका यथावत् कुशल-समाचार पूछा॥ ४७ १/२॥

ते सर्वे हृष्टमनसस्तस्य राज्ञो निवेशनम्॥४८॥
विविशुः पूजितास्तेन निषेदुश्च यथार्हतः।

फिर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर राजा के दरबार में गये और उनके द्वारा पूजित हो यथायोग्य आसनों पर बैठे॥

अथ हृष्टमना राजा विश्वामित्रं महामुनिम्॥४९॥
उवाच परमोदारो हृष्टस्तमभिपूजयन्।

तदनन्तर प्रसन्नचित्त परम उदार राजा दशरथ ने पुलकित होकर महामुनि विश्वामित्र की प्रशंसा करते हुए कहा- ॥ ४९ १/२॥

यथामृतस्य सम्प्राप्तिर्यथा वर्षमनूदके॥५०॥
यथा सदृशदारेषु पुत्रजन्माप्रजस्य वै।
प्रणष्टस्य यथा लाभो यथा हर्षो महोदयः॥५१॥
तथैवागमनं मन्ये स्वागतं ते महामुने।
कं च ते परमं कामं करोमि किमु हर्षितः॥५२॥

‘महामुने! जैसे किसी मरणधर्मा मनुष्य को अमृतकी प्राप्ति हो जाय, निर्जल प्रदेश में पानी बरस जाय, किसी संतानहीन को अपने अनुरूपपत्नी के गर्भ से पुत्र प्राप्त हो जाय, खोयी हुई निधि मिल जाय तथा किसी महान् उत्सव से हर्ष का उदय हो, उसी प्रकार आपका यहाँ शुभागमन हुआ है। ऐसा मैं मानता हूँ। आपका स्वागत है। आपके मन में कौन-सी उत्तम कामना है, जिसको मैं हर्ष के साथ पूर्ण करूँ? ॥ ५०–५२॥

पात्रभूतोऽसि मे ब्रह्मन् दिष्ट्या प्राप्तोऽसिमानद।
अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम्॥

‘ब्रह्मन्! आप मुझसे सब प्रकार की सेवा लेने योग्य उत्तम पात्र हैं। मानद! मेरा अहोभाग्य है, जो आपने यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया। आज मेरा जन्म सफल और जीवन धन्य हो गया। ५३॥

यस्माद् विप्रेन्द्रमद्राक्षं सुप्रभाता निशा मम।
पूर्वं राजर्षिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः॥५४॥
ब्रह्मर्षित्वमनुप्राप्तः पूज्योऽसि बहुधा मया।
तदद्भुतमभूद् विप्र पवित्रं परमं मम॥५५॥

‘मेरी बीती हुई रात सुन्दर प्रभात दे गयी, जिससे मैंने आज आप ब्राह्मणशिरोमणि का दर्शन किया। पूर्वकाल में आप राजर्षि शब्द से  उपलक्षित होते थे, फिर तपस्या से अपनी अद्भुत प्रभा को प्रकाशित करके आपने ब्रह्मर्षि का पद पाया; अतः आप राजर्षि और ब्रह्मर्षि दोनों ही रूपों में मेरे पूजनीय हैं। आपका जो यहाँ मेरे समक्ष शुभागमन हुआ है, यह परम पवित्र और अद्भुत है।

शुभक्षेत्रगतश्चाहं तव संदर्शनात् प्रभो।
ब्रूहि यत् प्रार्थितं तुभ्यं कार्यमागमनं प्रति॥

“प्रभो! आपके दर्शनसे आज मेरा घर तीर्थ हो गया। मैं अपने-आपको पुण्यक्षेत्रों की यात्रा करके आया हुआ मानता हूँ। बताइये, आप क्या चाहते हैं? आपके शुभागमन का शुभ उद्देश्य क्या है ? ॥५६॥

इच्छाम्यनुगृहीतोऽहं त्वदर्थं परिवृद्धये।
कार्यस्य न विमर्श च गन्तुमर्हसि सुव्रत॥५७॥

‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपा से अनुगृहीत होकर आपके अभीष्ट मनोरथ को जान लूँ और अपने अभ्युदय के लिये उसकी पूर्ति करूँ। ‘कार्य सिद्ध होगा या नहीं’ ऐसे संशय को अपने मन में स्थान न दीजिये।। ५७॥

कर्ता चाहमशेषेण दैवतं हि भवान् मम।
मम चायमनुप्राप्तो महानभ्युदयो द्विज।
तवागमनजः कृत्स्नो धर्मश्चानुत्तमो द्विज॥५८॥

‘आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं उसका पूर्णरूप से पालन करूँगा; क्योंकि सम्माननीय अतिथि होने के नाते आप मुझ गृहस्थ के लिये देवता हैं। ब्रह्मन्! आज आपके आगमन से मुझे सम्पूर्ण धर्मों का उत्तम फल प्राप्त हो गया। यह मेरे महान् अभ्युदय का अवसर आया है’। ५८॥

इति हृदयसुखं निशम्य वाक्यं श्रुतिसुखमात्मवता विनीतमुक्तम्।
प्रथितगुणयशा गुणैर्विशिष्टःपरमऋषिः परमं जगाम हर्षम्॥५९॥

मनस्वी नरेश के कहे हुए ये विनययुक्त वचन, जो हृदय और कानों को सुख देने वाले थे, सुनकर विख्यात गुण और यशवाले, शम-दम आदि सद्गुणों से सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए॥ ५९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डेऽष्टादशः सर्गः॥१८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१८॥


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Shivangi

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