वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 25 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 25
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
पञ्चविंशः सर्गः (सर्ग 25 )
(श्रीराम के पूछने पर विश्वामित्रजी का ताटका की उत्पत्ति, विवाह एवं शाप आदि का प्रसंग सुनाकर उन्हें ताटका-वध के लिये प्रेरित करना)
अथ तस्याप्रमेयस्य मुनेर्वचनमुत्तमम्।
श्रुत्वा पुरुषशार्दूलः प्रत्युवाच शुभां गिरम्॥१॥
अपरिमित प्रभावशाली विश्वामित्र मुनि का यह उत्तम वचन सुनकर पुरुषसिंह श्रीराम ने यह शुभ बात कही-॥१॥
अल्पवीर्या यदा यक्षी श्रूयते मुनिपुंगव।
कथं नागसहस्रस्य धारयत्यबला बलम्॥२॥
‘मुनिश्रेष्ठ! जब वह यक्षिणी एक अबला सुनी जाती है, तब तो उसकी शक्ति थोड़ी ही होनी चाहिये; फिर वह एक हजार हाथियों का बल कैसे धारण करती है ?’ ॥२॥
इत्युक्तं वचनं श्रुत्वा राघवस्यामितौजसः।
हर्षयन् श्लक्ष्णया वाचा सलक्ष्मणमरिंदमम्॥३॥
विश्वामित्रोऽब्रवीद् वाक्यं शृणु येन बलोत्कटा।
वरदानकृतं वीर्यं धारयत्यबला बलम्॥४॥
अमित तेजस्वी श्रीरघुनाथ के कहे हुए इस वचन को सुनकर विश्वामित्र जी अपनी मधुर वाणीद् वारा लक्ष्मण सहित शत्रुदमन श्रीराम को हर्ष प्रदान करते हुए बोले—’रघुनन्दन! जिस कारण से ताटका अधिक बलशालिनी हो गयी है, वह बताता हूँ, सुनो। उसमें वरदानजनित बल का उदय हुआ है; अतः वह अबला होकर भी बल धारण करती है (सबला हो गयी है)। ३-४॥
पूर्वमासीन्महायक्षः सुकेतुर्नाम वीर्यवान्।
अनपत्यः शुभाचारः स च तेपे महत्तपः॥५॥
‘पूर्व काल की बात है, सुकेतु नाम से प्रसिद्ध एक महान् यक्ष थे। वे बड़े पराक्रमी और सदाचारी थे परंतु उन्हें कोई संतान नहीं थी; इसलिये उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की॥ ५॥
पितामहस्तु सुप्रीतस्तस्य यक्षपतेस्तदा।
कन्यारत्नं ददौ राम ताटकां नाम नामतः॥६॥
‘श्रीराम! यक्षराज सुकेतु की उस तपस्या से ब्रह्माजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुकेतु को एक कन्यारत्न प्रदान किया, जिसका नाम ताटका था।
ददौ नागसहस्रस्य बलं चास्याः पितामहः।
न त्वेव पुत्रं यक्षाय ददौ चासौ महायशाः॥७॥
ब्रह्माजी ने ही उस कन्या को एक हजार हाथियों के समान बल दे दिया; परंतु उन महायशस्वी पितामह ने उस यक्ष को पुत्र नहीं ही दिया (उसके संकल्प के अनुसार पुत्र प्राप्त हो जाने पर उसके द्वारा जनता का अत्यधिक उत्पीड़न होता, यही सोचकर ब्रह्माजी ने पुत्र नहीं दिया) ॥ ७॥
तां तु बालां विवर्धन्तीं रूपयौवनशालिनीम्।
जम्भपुत्राय सुन्दाय ददौ भार्यां यशस्विनीम्॥ ८॥
‘धीरे-धीरे वह यक्ष-बालिका बढ़ने लगी और बढ़कर रूप-यौवन से सुशोभित होने लगी। उस अवस्था में सुकेतु ने अपनी उस यशस्विनी कन्या को जम्भपुत्र सुन्द के हाथ में उसकी पत्नी के रूप में दे दिया॥ ८॥
कस्यचित्त्वथ कालस्य यक्षी पुत्रं व्यजायत।
मारीचं नाम दुर्धर्षं यः शापाद् राक्षसोऽभवत्॥ ९॥
‘कुछ काल के बाद उस यक्षी ताटका ने मारीच नाम से प्रसिद्ध एक दुर्जय पुत्र को जन्म दिया, जो अगस्त्य मुनि के शाप से राक्षस हो गया॥९॥
सुन्दे तु निहते राम अगस्त्यमृषिसत्तमम्।
ताटका सहपुत्रेण प्रधर्षयितुमिच्छति॥१०॥
‘श्रीराम! अगस्त्य ने ही शाप देकर ताटका पति सुन्द को भी मार डाला। उसके मारे जाने पर ताटका पुत्र सहित जाकर मुनिवर अगस्त्य को भी मौत के घाट उतार देने की इच्छा करने लगी॥१०॥
भक्षार्थं जातसंरम्भा गर्जन्ती साभ्यधावत।
आपतन्तीं तु तां दृष्ट्वा अगस्त्यो भगवानृषिः॥ ११॥
राक्षसत्वं भजस्वेति मारीचं व्याजहार सः।
‘वह कुपित हो मुनि को खा जानेके लिये गर्जना करती हुई दौड़ी। उसे आती देख भगवान् अगस्त्य मुनि ने मारीच से कहा—’तू देवयोनि-रूप का परित्याग करके राक्षस भाव को प्राप्त हो जा’॥ ११ १/२॥
अगस्त्यः परमामर्षस्ताटकामपि शप्तवान्॥१२॥
पुरुषादी महायक्षी विकृता विकृतानना।
इदं रूपं विहायाशु दारुणं रूपमस्तु ते॥१३॥
‘फिर अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए ऋषि ने ताटका को भी शाप दे दिया—’तू विकराल मुखवाली नरभक्षिणी राक्षसी हो जा। तू है तो महायक्षी; परंतु अब शीघ्र ही इस रूप को त्याग कर तेरा भयङ्कर रूप हो जाय’। १२-१३॥
सैषा शापकृतामर्षा ताटका क्रोधमर्च्छिता।
देशमुत्सादयत्येनमगस्त्याचरितं शुभम्॥१४॥
‘इस प्रकार शाप मिलने के कारण ताटका का अमर्ष और भी बढ़ गया। वह क्रोध से मूर्च्छित हो उठी और उन दिनों अगस्त्य जी जहाँ रहते थे, उस सुन्दर देश को उजाड़ने लगी॥१४॥
एनां राघव दुर्वृत्तां यक्षीं परमदारुणाम्।
गोब्राह्मणहितार्थाय जहि दुष्टपराक्रमाम्॥१५॥
‘रघुनन्दन! तुम गौओं और ब्राह्मणों का हित करनेके लिये दुष्ट पराक्रम वाली इस परम भयङ्कर दुराचारिणी यक्षी का वध कर डालो॥ १५ ॥
नह्येनां शापसंसृष्टां कश्चिदुत्सहते पुमान्।
निहन्तुं त्रिषु लोकेषु त्वामृते रघुनन्दन॥१६॥
‘रघुकुल को आनन्दित करनेवाले वीर! इस शापग्रस्त ताटका को मारने के लिये तीनों लोकों में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष समर्थ नहीं है॥ १६॥
नहि ते स्त्रीवधकृते घृणा कार्या नरोत्तम।
चातुर्वर्ण्यहितार्थं हि कर्तव्यं राजसूनुना॥ १७॥
‘नरश्रेष्ठ! तुम स्त्री-हत्या का विचार करके इसके प्रति दया न दिखाना। एक राजपुत्र को चारों वर्गों के हितके लिये स्त्रीहत्या भी करनी पड़े तो उससे मुँह नहीं मोड़ना चाहिये॥ १७॥
नृशंसमनृशंसं वा प्रजारक्षणकारणात्।
पातकं वा सदोषं वा कर्तव्यं रक्षता सदा॥१८॥
‘प्रजापालक नरेश को प्रजाजनों की रक्षाके लिये क्रूरतापूर्ण या क्रूरतारहित, पातकयुक्त अथवा सदोष कर्म भी करना पड़े तो कर लेना चाहिये। यह बात उसे सदा ही ध्यान में रखनी चाहिये॥१८॥
राज्यभारनियुक्तानामेष धर्मः सनातनः।
अध` जहि काकुत्स्थ धर्मो ह्यस्यां न विद्यते॥ १९॥
‘जिनके ऊपर राज्य के पालनका भार है, उनका तो यह सनातन धर्म है। ककुत्स्थकुलनन्दन! ताटका महापापिनी है। उसमें धर्म का लेशमात्र भी नहीं है; अतः उसे मार डालो॥ १९॥
श्रूयते हि पुरा शक्रो विरोचनसुतां नृप।
पृथिवीं हन्तुमिच्छन्ती मन्थरामभ्यसूदयत्॥ २०॥
‘नरेश्वर! सुना जाता है कि पूर्वकाल में विरोचन की पुत्री मन्थरा सारी पृथ्वी का नाश कर डालना चाहती थी। उसके इस विचार को जानकर इन्द्र ने उसका वध कर डाला ॥ २०॥
विष्णुना च पुरा राम भृगुपत्नी पतिव्रता।
अनिन्द्रं लोकमिच्छन्ती काव्यमाता निषूदिता॥ २१॥
‘श्रीराम! प्राचीन काल में शुक्राचार्य की माता तथा भृगुकी पतिव्रता पत्नी त्रिभुवन को इन्द्र से शून्य कर देना चाहती थीं। यह जानकर भगवान् विष्णु ने उनको मार डाला॥
एतैश्चान्यैश्च बहुभी राजपुत्रैर्महात्मभिः।
अधर्मसहिता नार्यो हताः पुरुषसत्तमैः।
तस्मादेनां घृणां त्यक्त्वा जहि मच्छासनान्नृप। २२॥
‘इन्होंने तथा अन्य बहुत-से महामनस्वी पुरुषप्रवर राजकुमारों ने पापचारिणी स्त्रियों का वध किया है। नरेश्वर! अतः तुम भी मेरी आज्ञा से दया अथवा घृणा को त्यागकर इस राक्षसी को मार डालो’ ॥ २२ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे पञ्चविंशः सर्गः ॥२५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पचीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥२५॥
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