वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 29 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 29
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
एकोनत्रिंशः सर्गः (सर्ग 29 )
(विश्वामित्रजी का श्रीराम से सिद्धाश्रम का पूर्ववृत्तान्त बताना और उन दोनों भाइयों के साथ अपने आश्रम पहुँचकर पूजित होना)
अथ तस्याप्रमेयस्य वचनं परिपृच्छतः।
विश्वामित्रो महातेजा व्याख्यातुमुपचक्रमे॥१॥
अपरिमित प्रभावशाली भगवान् श्रीराम का वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनके प्रश्नका उत्तर देना आरम्भ किया— ॥१॥
इह राम महाबाहो विष्णुर्देवनमस्कृतः।
वर्षाणि सुबहूनीह तथा युगशतानि च॥२॥
तपश्चरणयोगार्थमुवास सुमहातपाः।
एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मनः॥३॥
‘महाबाहु श्रीराम! पूर्वकाल में यहाँ देववन्दित भगवान् विष्णु ने बहुत वर्षों एवं सौ युगों तक तपस्या के लिये निवास किया था। उन्होंने यहाँ बहुत बड़ी तपस्या की थी। यह स्थान महात्मा वामन का वामन अवतार धारण करने को उद्यत हुए श्री विष्णुका अवतार ग्रहण से पूर्व आश्रम था॥२-३॥
सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धो ह्यत्र महातपाः।
एतस्मिन्नेव काले तु राजा वैरोचनिर्बलिः॥४॥
निर्जित्य दैवतगणान् सेन्द्रान् सहमरुद्गणान्।
कारयामास तद्राज्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतः॥५॥
‘इसकी सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्धि थी; क्योंकि यहाँ महातपस्वी विष्णु को सिद्धि प्राप्त हुई थी। जब वे तपस्या करते थे, उसी समय विरोचन कुमार राजा बलि ने इन्द्र और मरुद्गणों सहित समस्त देवताओं को पराजित करके उनका राज्य अपने अधिकार में कर लिया था। वे तीनों लोकों में विख्यात हो गये थे। ४-५॥
यज्ञं चकार सुमहानसुरेन्द्रो महाबलः।
बलेस्तु यजमानस्य देवाः साग्निपुरोगमाः।
समागम्य स्वयं चैव विष्णुमूचुरिहाश्रमे॥६॥
‘उन महाबली महान् असुरराज ने एक यज् ञका आयोजन किया। उधर बलि यज्ञ में लगे हुए थे, इधर अग्नि आदि देवता स्वयं इस आश्रम में पधार कर भगवान् विष्णु से बोले—॥
बलिर्वैरोचनिर्विष्णो यजते यज्ञमुत्तमम्।
असमाप्तव्रते तस्मिन् स्वकार्यमभिपद्यताम्॥७॥
“सर्वव्यापी परमेश्वर! विरोचन कुमार बलि एक उत्तम यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं। उनका वह यज्ञ सम्बन्धी नियम पूर्ण होने से पहले ही हमें अपना कार्य सिद्ध कर लेना चाहिये॥७॥
ये चैनमभिवर्तन्ते याचितार इतस्ततः।
यच्च यत्र यथावच्च सर्वं तेभ्यः प्रयच्छति॥८॥
“इस समय जो भी याचक इधर-उधर से आकर उनके यहाँ याचना के लिये उपस्थित होते हैं, वे गो, भूमि और सुवर्ण आदि सम्पत्तियों में से जिस वस्तु को भी लेना चाहते हैं, उनको वे सारी वस्तुएँ राजा बलि यथावत्-रूप से अर्पित करते हैं॥८॥
स त्वं सुरहितार्थाय मायायोगमुपाश्रितः।
वामनत्वं गतो विष्णो कुरु कल्याणमुत्तमम्॥९॥
“अतः विष्णो! आप देवताओं के हित के लिये अपनी योगमाया का आश्रय ले वामनरूप धारण करके उस यज्ञ में जाइये और हमारा उत्तम कल्याण साधन कीजिये’ ॥ ९॥
एतस्मिन्नन्तरे राम कश्यपोऽग्निसमप्रभः।
अदित्या सहितो राम दीप्यमान इवौजसा॥१०॥
देवीसहायो भगवान् दिव्यं वर्षसहस्रकम्।
व्रतं समाप्य वरदं तुष्टाव मधुसूदनम्॥११॥
‘श्रीराम! इसी समय अग्नि के समान तेजस्वी महर्षि कश्यप धर्मपत्नी अदिति के साथ अपने तेज से प्रकाशित होते हुए वहाँ आये। वे एक सहस्र दिव्य वर्षों तक चालू रहनेवाले महान् व्रत को अदिति देवी के साथ ही समाप्त करके आये थे। उन्होंने वरदायक भगवान् मधुसूदन की इस प्रकार स्तुति की— ॥ १० ११॥
तपोमयं तपोराशिं तपोमूर्तिं तपात्मकम्।
तपसा त्वां सुतप्तेन पश्यामि पुरुषोत्तमम्॥१२॥
“भगवन्! आप तपोमय हैं,तपस्या की राशि हैं, तप आपका स्वरूप है, आप ज्ञानस्वरूप हैं मैं भलीभाँति तपस्या करके उसके प्रभाव से आप पुरुषोत्तम का दर्शन कर रहा हूँ॥१२॥
शरीरे तव पश्यामि जगत् सर्वमिदं प्रभो।
त्वमनादिरनिर्देश्यस्त्वामहं शरणं गतः॥१३॥
“प्रभो! मैं इस सारे जगत् को आपके शरीर में स्थित देखता हूँ। आप अनादि हैं। देश, काल और वस्तु की सीमा से परे होने के कारण आपका – इदमित्थंरूप से निर्देश नहीं किया जा सकता, मैं आपकी शरण में आया हूँ’॥ १३॥
तमुवाच हरिः प्रीतः कश्यपं गतकल्मषम्।
वरं वरय भद्रं ते वरार्होऽसि मतो मम॥१४॥
‘कश्यप जी के सारे पाप धुल गये थे। भगवान् श्रीहरि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे कहा—’महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अपनी इच्छा के अनुसार कोई वर माँगो; क्योंकि तुम मेरे विचार से वर पाने के योग्य हो’॥ १४॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य मारीचः कश्यपोऽब्रवीत्।
अदित्या देवतानां च मम चैवानुयाचितम्॥ १५॥
वरं वरद सुप्रीतो दातुमर्हसि सुव्रत।
पुत्रत्वं गच्छ भगवन्नदित्या मम चानघ॥१६॥
‘भगवान् का यह वचन सुनकर मरीचिनन्दन कश्यप ने कहा-‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले वरदायक परमेश्वर! सम्पूर्ण देवताओं की, अदिति की तथा मेरी भी आपसे एक ही बातके लिये बारम्बार याचना है। आप अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझे वह एक ही वर प्रदान करें। भगवन् ! निष्पाप नारायणदेव! आप मेरे और अदिति के पुत्र हो जायँ॥ १५-१६ ।।
भ्राता भव यवीयांस्त्वं शक्रस्यासुरसूदन।
शोकार्तानां तु देवानां साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥१७॥
“असुरसूदन! आप इन्द्र के छोटे भाई हों और शोक से पीड़ित हुए इन देवताओं की सहायता करें। १७॥
अयं सिद्धाश्रमो नाम प्रसादात् ते भविष्यति।
सिद्धे कर्मणि देवेश उत्तिष्ठ भगवन्नितः॥१८॥
“देवेश्वर! भगवन्! आपकी कृपा से यह स्थान सिद्धाश्रम के नाम से विख्यात होगा। अब आपका तपरूप कार्य सिद्ध हो गया है,अतः यहाँ से उठिये’। १८॥
अथ विष्णुर्महातेजा अदित्यां समजायत।
वामनं रूपमास्थाय वैरोचनिमुपागमत्॥१९॥
‘तदनन्तर महातेजस्वी भगवान् विष्णु अदिति देवी के गर्भ से प्रकट हुए और वामनरूप धारण करके विरोचन कुमार बलि के पास गये॥ १९॥
त्रीन् पदानथ भिक्षित्वा प्रतिगृह्य च मेदिनीम्।
आक्रम्य लोकाँल्लोकार्थी सर्वलोकहिते रतः॥ २०॥
महेन्द्राय पुनः प्रादान्नियम्य बलिमोजसा।
त्रैलोक्यं स महातेजाश्चक्रे शक्रवशं पुनः॥ २१॥
‘सम्पूर्ण लोकों के हित में तत्पर रहने वाले भगवान् विष्णु बलि के अधिकार से त्रिलोकी का राज्य ले लेना चाहते थे; अतः उन्होंने तीन पग भूमि के लिये याचना करके उनसे भूमिदान ग्रहण किया और तीनों लोकों को आक्रान्त करके उन्हें पुनः देवराज इन्द्र को लौटा दिया। महातेजस्वी श्रीहरि ने अपनी शक्ति से बलि का निग्रह करके त्रिलोकी को पुनः इन्द्र के अधीन कर दिया॥ २०-२१॥
तेनैव पूर्वमाक्रान्त आश्रमः श्रमनाशनः।
मयापि भक्त्या तस्यैव वामनस्योपभुज्यते॥२२॥
‘उन्हीं भगवान् ने पूर्वकाल में यहाँ निवास किया था; इसलिये यह आश्रम सब प्रकार के श्रम (दुःखशोक) का नाश करनेवाला है। उन्हीं भगवान् वामन में भक्ति होने के कारण मैं भी इस स्थान को अपने उपयोग में लाता हूँ॥ २२॥
एनमाश्रममायान्ति राक्षसा विघ्नकारिणः।
अत्र ते पुरुषव्याघ्र हन्तव्या दुष्टचारिणः ॥२३॥
‘इसी आश्रमपर मेरे यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षस आते हैं। पुरुषसिंह! यहीं तुम्हें उन दुराचारियों का वध करना है॥२३॥
अद्य गच्छामहे राम सिद्धाश्रममनुत्तमम्।
तदाश्रमपदं तात तवाप्येतद् यथा मम॥२४॥
‘श्रीराम ! अब हम लोग उस परम उत्तम सिद्धाश्रम में पहुँच रहे हैं। तात! वह आश्रम जैसे मेरा है, वैसे ही तुम्हारा भी है’ ॥ २४ ॥
इत्युक्त्वा परमप्रीतो गृह्य रामं सलक्ष्मणम्।
प्रविशन्नाश्रमपदं व्यरोचत महामुनिः।
शशीव गतनीहारः पुनर्वसुसमन्वितः॥ २५॥
ऐसा कहकर महामुनि ने बड़े प्रेम से श्रीराम और लक्ष्मण के हाथ पकड़ लिये और उन दोनों के साथ आश्रम में प्रवेश किया। उस समय पुनर्वसु नामक दो नक्षत्रों के बीचमें स्थित तुषाररहित चन्द्रमाकी भाँति उनकी शोभा हुई॥ २५ ॥
तं दृष्ट्वा मुनयः सर्वे सिद्धाश्रमनिवासिनः।
उत्पत्योत्पत्य सहसा विश्वामित्रमपूजयन्॥२६॥
यथार्ह चक्रिरे पूजां विश्वामित्राय धीमते।
तथैव राजपुत्राभ्यामकुर्वन्नतिथिक्रियाम्॥ २७॥
विश्वामित्रजी को आया देख सिद्धाश्रम में रहने वाले सभी तपस्वी उछलते-कूदते हुए सहसा उनके पास आये और सबने मिलकर उन बुद्धिमान् विश्वामित्रजी की यथोचित पूजा की। इसी प्रकार उन्होंने उन दोनों राजकुमारों का भी अतिथि- सत्कार किया॥ २६-२७॥
मुहूर्तमथ विश्रान्तौ राजपुत्रावरिंदमौ।
प्राञ्जली मुनिशार्दूलमूचतू रघुनन्दनौ ॥२८॥
दो घड़ी तक विश्राम करने के बाद रघुकुल को आनन्द देने वाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्र से बोले-॥ २८॥
अद्यैव दीक्षां प्रविश भद्रं ते मुनिपुंगव।
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धः स्यात् सत्यमस्तु वचस्तव॥ २९॥
‘मुनिश्रेष्ठ ! आप आज ही यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करें,आपका कल्याण हो। यह सिद्धाश्रम वास्तव में यथानाम तथागुण सिद्ध हो और राक्षसों के वध के विषयमें आपकी कही हुई बात सच्ची हो’ ॥ २९॥
एवमुक्तो महातेजा विश्वामित्रो महानृषिः।
प्रविवेश तदा दीक्षा नियतो नियतेन्द्रियः॥३०॥
कुमारावपि तां रात्रिमुषित्वा सुसमाहितौ।
प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां संध्यामुपास्य च॥ ३१॥
प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च।
हताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम्॥३२॥
उनके ऐसा कहने पर महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र जितेन्द्रिय भाव से नियमपूर्वक यज्ञ की दीक्षा में प्रविष्ट हुए। वे दोनों राजकुमार भी सावधानी के साथ रात व्यतीत करके सबेरे उठे और स्नान आदि से शुद्ध हो प्रातःकाल की संध्योपासना तथा नियमपूर्वक सर्वश्रेष्ठ गायत्री मन्त्र का जप करने लगे। जप पूरा होने पर उन्होंने अग्निहोत्र करके बैठे हुए विश्वामित्रजी के चरणों में वन्दना की॥ ३०–३२॥
इत्या श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः॥२९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें उन्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। २९॥
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