वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 31 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 31
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
एकत्रिंशः सर्गः (सर्ग 31)
(श्रीराम, लक्ष्मण तथा ऋषियों सहित विश्वामित्र का मिथिला को प्रस्थान तथा मार्ग में संध्या के समय शोणभद्र तट पर विश्राम)
अथ तां रजनीं तत्र कृतार्थौ रामलक्ष्मणौ।
ऊषतुर्मुदितौ वीरौ प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥१॥
तदनन्तर (विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करके) कृतकृत्य हुए श्रीराम और लक्ष्मण ने उस यज्ञशाला में ही वह रात बितायी। उस समय वे दोनों वीर बड़े प्रसन्न थे। उनका हृदय
हर्षोल्लाससे परिपूर्ण था॥ १॥
प्रभातायां तु शर्वर्यां कृतपौर्वाणिकक्रियौ।
विश्वामित्रमृषींश्चान्यान् सहितावभिजग्मतुः॥ २ ॥
रात बीतने पर जब प्रातःकाल आया, तब वे दोनों भाई पूर्वाण काल के नित्य-नियम से निवृत्त हो विश्वामित्र मुनि तथा अन्य ऋषियों के पास साथ-साथ गये॥२॥
अभिवाद्य मुनिश्रेष्ठं ज्वलन्तमिव पावकम्।
ऊचतुः परमोदारं वाक्यं मधुरभाषिणौ ॥३॥
वहाँ जाकर उन्होंने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ! विश्वामित्र को प्रणाम किया और मधुर भाषा में यह परम उदार वचन कहा- ॥३॥
इमौ स्म मुनिशार्दूल किंकरौ समुपागतौ।
आज्ञापय मुनिश्रेष्ठ शासनं करवाव किम्॥४॥
‘मुनिप्रवर! हम दोनों किङ्कर आपकी सेवा में उपस्थित हैं। मुनिश्रेष्ठ! आज्ञा दीजिये, हम क्या सेवा करें?’ ॥ ४॥
एवमुक्ते तयोर्वाक्ये सर्व एव महर्षयः।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य रामं वचनमब्रुवन्॥५॥
उन दोनों के ऐसा कहने पर वे सभी महर्षि विश्वामित्र को आगे करके श्रीरामचन्द्रजी से बोले-॥ ५॥
मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति।
यज्ञः परमधर्मिष्ठस्तत्र यास्यामहे वयम्॥६॥
‘नरश्रेष्ठ! मिथिला के राजा जनक का परम धर्ममय यज्ञ प्रारम्भ होने वाला है उसमें हम सब लोग जायँगे॥६॥
त्वं चैव नरशार्दूल सहास्माभिर्गमिष्यसि।
अद्भुतं च धनूरत्नं तत्र त्वं द्रष्टुमर्हसि ॥७॥
‘पुरुषसिंह! तुम्हें भी हमारे साथ वहाँ चलना है। वहाँ एक बड़ा ही अद्भुत धनुषरत्न है, तुम्हें उसे देखना चाहिये॥७॥
तद्धि पूर्वं नरश्रेष्ठ दत्तं सदसि दैवतैः।
अप्रमेयबलं घोरं मखे परमभास्वरम्॥८॥
‘पुरुषप्रवर! पहले कभी यज्ञ में पधारे हुए देवताओं ने जनक के किसी पूर्वपुरुष को वह धनुष दिया था। वह कितना प्रबल और भारी है, इसका कोई माप-तोल नहीं है। वह बहुत ही प्रकाशमान एवं भयंकर है॥ ८॥
नास्य देवा न गन्धर्वा नासुरा न च राक्षसाः।
कर्तुमारोपणं शक्ता न कथंचन मानुषाः॥९॥
‘मनुष्यों की तो बात ही क्या है देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी किसी तरह उसकी प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ा पाते॥९॥
धनुषस्तस्य वीर्यं हि जिज्ञासन्तो महीक्षितः।
न शेकुरारोपयितुं राजपुत्रा महाबलाः॥१०॥
‘उस धनुष की शक्ति का पता लगाने के लिये कितने ही महाबली राजा और राजकुमार आये; किंतु कोई भी उसे चढ़ा न सके॥१०॥
तद्धनुर्नरशार्दूल मैथिलस्य महात्मनः।
तत्र द्रक्ष्यसि काकुत्स्थ यज्ञं च परमाद्भुतम्॥ ११॥
‘ककुत्स्थकुलनन्दन पुरुषसिंह राम! वहाँ चलने से तुम महामना मिथिलानरेश के उस धनुष को तथा उनके परम अद्भुत यज्ञ को भी देख सकोगे॥११॥
तद्धि यज्ञफलं तेन मैथिलेनोत्तमं धनुः ।
याचितं नरशार्दूल सुनाभं सर्वदैवतैः॥१२॥
‘नरश्रेष्ठ! मिथिलानरेश ने अपने यज्ञ के फलरूप में उस उत्तम धनुषको माँगा था; अतः सम्पूर्ण देवताओं तथा भगवान् शङ्कर ने उन्हें वह धनुष प्रदान किया था। उस धनुषका मध्यभाग जिसे मुट्ठीसे पकड़ा जाता है, बहुत ही सुन्दर है॥ १२॥
आयागभूतं नृपतेस्तस्य वेश्मनि राघव।
अर्चितं विविधैर्गन्धैधूपैश्चागुरुगन्धिभिः॥१३॥
‘रघुनन्दन! राजा जनक के महल में वह धनुष पूजनीय देवता की भाँति प्रतिष्ठित है और नाना प्रकार के गन्ध, धूप तथा अगुरु आदि सुगन्धित पदार्थों से उसकी पूजा होती है’॥ १३॥
एवमुक्त्वा मुनिवरः प्रस्थानमकरोत् तदा।
सर्षिसङ्घः सकाकुत्स्थ आमन्त्र्य वनदेवताः॥ १४॥
ऐसा कहकर मुनिवर विश्वामित्रजी ने वनदेवताओं से आज्ञा ली और ऋषिमण्डली तथा राम लक्ष्मणके साथ वहाँ से प्रस्थान किया।। १४॥
स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि सिद्धः सिद्धाश्रमादहम्। ।
उत्तरे जाह्नवीतीरे हिमवन्तं शिलोच्चयम्॥१५॥
चलते समय उन्होंने वनदेवताओं से कहा—’मैं अपना यज्ञकार्य सिद्ध करके इस सिद्धाश्रम से जा रहा हूँ। गंगा के उत्तर तट पर होता हुआ हिमालय पर्वतकी उपत्यका में जाऊँगा आप लोगोंका कल्याण हो’॥ १५॥
इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलः कौशिकः स तपोधनः।
उत्तरां दिशमुद्दिश्य प्रस्थातुमुपचक्रमे॥१६॥
ऐसा कहकर तपस्या के धनी मुनिश्रेष्ठ कौशिक ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान आरम्भ किया॥१६॥
तं व्रजन्तं मुनिवरमन्वगादनुसारिणाम्।
शकटीशतमात्रं तु प्रयाणे ब्रह्मवादिनाम्॥१७॥
उस समय—प्रस्थान के समय यात्रा करते हुए मुनिवर विश्वामित्र के पीछे उनके साथ जाने वाले ब्रह्मवादी महर्षियों की सौ गाड़ियाँ चलीं॥ १७॥
मृगपक्षिगणाश्चैव सिद्धाश्रमनिवासिनः।
अनुजग्मुर्महात्मानं विश्वामित्रं तपोधनम्॥१८॥
सिद्धाश्रममें निवास करने वाले मृग और पक्षी भी तपोधन विश्वामित्र के पीछे-पीछे जाने लगे॥ १८ ॥
निवर्तयामास ततः सर्षिसङ्घः स पक्षिणः।
ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे॥१९॥
वासं चक्रुर्मुनिगणाः शोणाकूले समाहिताः।
तेऽस्तं गते दिनकरे स्नात्वा हुतहुताशनाः॥२०॥
कुछ दूर जानेपर ऋषिमण्डली सहित विश्वामित्र ने उन पशु-पक्षियों को लौटा दिया फिर दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन ऋषियों ने पूर्ण सावधान रहकर शोणभद्र के तट पर पड़ाव डाला। जब सूर्यदेव अस्त हो गये, तब स्नान करके उन सबने अग्निहोत्र का कार्य पूर्ण किया॥
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य निषेदुरमितौजसः।
रामोऽपि सहसौमित्रिर्मुनीस्तानभिपूज्य च॥२१॥
अग्रतो निषसादाथ विश्वामित्रस्य धीमतः।
इसके बाद वे सभी अमिततेजस्वी ऋषि मुनिवर विश्वामित्र को आगे करके बैठे; फिर लक्ष्मणसहित श्रीराम भी उन ऋषियोंका आदर करते हुए बुद्धिमान् विश्वामित्रजीके सामने बैठ गये॥ २१ १/२ ।।
अथ रामो महातेजा विश्वामित्रं तपोधनम्॥२२॥
पप्रच्छ मुनिशार्दूलं कौतूहलसमन्वितम्।
तत्पश्चात् महातेजस्वी श्रीराम ने तपस्या के धनी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से कौतूहलपूर्वक पूछा- ॥ २२ १/२॥
भगवन् को न्वयं देशः समृद्धवनशोभितः॥२३॥
श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते वक्तुमर्हसि तत्त्वतः।
भगवन् ! यह हरे-भरे समृद्धिशाली वन से सुशोभित देश कौन-सा है? मैं इसका परिचय सुनना चाहता हूँ। आपका कल्याण हो आप मुझे ठीक-ठीक इसका रहस्य बताइये’ ।।२३ १/२ ।।
नोदितो रामवाक्येन कथयामास सुव्रतः।
तस्य देशस्य निखिलमृषिमध्ये महातपाः॥२४॥
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रश्न से प्रेरित होकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले महातपस्वी विश्वामित्र ने ऋषिमण्डली के बीच उस देशका पूर्णरूप से परिचय देना प्रारम्भ किया॥ २४ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकत्रिंशः सर्गः॥ ३१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ३१॥
Pingback: वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित Valmiki Ramayana BalaKanda Hindi