वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 34 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 34
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
चतुस्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 34)
(गाधि की उत्पत्ति, कौशिकी की प्रशंसा, विश्वामित्रजी का कथा बंद करके आधी रात का वर्णन करना)
कृतोद्धाहे गते तस्मिन् ब्रह्मदत्ते च राघव।
अपुत्रः पुत्रलाभाय पौत्रीमिष्टिमकल्पयत्॥१॥
रघुनन्दन ! विवाह करके जब राजा ब्रह्मदत्त चले गये, तब पुत्रहीन महाराज कुशनाभ ने श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान किया॥१॥
इष्टयां तु वर्तमानायां कुशनाभं महीपतिम्।
उवाच परमोदारः कुशो ब्रह्मसुतस्तदा ॥२॥
उस यज्ञ के होते समय परम उदार ब्रह्मकुमार महाराज कुशने भूपाल कुशनाभ से कहा- ॥२॥
पुत्रस्ते सदृशः पुत्र भविष्यति सुधार्मिकः।
गाधि प्राप्स्यसि तेन त्वं कीर्तिं लोके च शाश्वतीम्॥३॥
‘बेटा! तुम्हें अपने समान ही परम धर्मात्मा पुत्र प्राप्त होगा। तुम ‘गाधि’ नामक पुत्र प्राप्त करोगे और उसके द्वारा तुम्हें संसार में अक्षय कीर्ति उपलब्ध होगी’ ॥३॥
एवमुक्त्वा कुशो राम कुशनाभं महीपतिम्।
जगामाकाशमाविश्य ब्रह्मलोकं सनातनम्॥४॥
श्रीराम! पृथ्वीपति कुशनाभ से ऐसा कहकर राजर्षि कुश आकाश में प्रविष्ट हो सनातन ब्रह्मलोक को चले गये॥ ४॥
कस्यचित् त्वथ कालस्य कुशनाभस्य धीमतः।
जज्ञे परमधर्मिष्ठो गाधिरित्येव नामतः॥५॥
कुछ काल के पश्चात् बुद्धिमान् राजा कुशनाभके यहाँ परम धर्मात्मा ‘गाधि’ नामक पुत्र का जन्म हुआ॥ ५॥
स पिता मम काकुत्स्थ गाधिः परमधार्मिकः।
कुशवंशप्रसूतोऽस्मि कौशिको रघुनन्दन॥६॥
ककुत्स्थकुलभूषण रघुनन्दन! वे परम धर्मात्मा राजा गाधि मेरे पिता थे मैं कुशके कुल में उत्पन्न होनेके कारण ‘कौशिक’ कहलाता हूँ॥६॥
पूर्वजा भगिनी चापि मम राघव सुव्रता।
नाम्ना सत्यवती नाम ऋचीके प्रतिपादिता॥७॥
राघव! मेरे एक ज्येष्ठ बहिन भी थी, जो उत्तम व्रत का पालन करने वाली थी उसका नाम सत्यवती था वह ऋचीक मुनि को ब्याही गयी थी॥ ७॥
सशरीरा गता स्वर्गं भर्तारमनुवर्तिनी।
कौशिकी परमोदारा प्रवृत्ता च महानदी॥८॥
अपने पति का अनुसरण करने वाली सत्यवती शरीर सहित स्वर्गलोक को चली गयी थी। वही परम उदार महानदी कौशिकी के रूप में भी प्रकट होकर इस भूतल पर प्रवाहित होती है॥ ८॥
दिव्या पुण्योदका रम्या हिमवन्तमुपाश्रिता।
लोकस्य हितकार्यार्थं प्रवृत्ता भगिनी मम॥९॥
मेरी वह बहिन जगत् के हित के लिये हिमालय का आश्रय लेकर नदी रूप में प्रवाहित हुई। वह पुण्यसलिला दिव्य नदी बड़ी रमणीय है ॥ ९॥
ततोऽहं हिमवत्पार्वे वसामि नियतः सुखम्।
भगिन्यां स्नेहसंयुक्तः कौशिक्यां रघुनन्दन॥ १०॥
रघुनन्दन! मेरा अपनी बहिन कौशिकी के प्रति बहुत स्नेह है; अतः मैं हिमालय के निकट उसी के ” तटपर नियमपूर्वक बड़े सुख से निवास करता हूँ। १०॥
सा तु सत्यवती पुण्या सत्ये धर्मे प्रतिष्ठिता।
पतिव्रता महाभागा कौशिकी सरितां वरा॥११॥
पुण्यमयी सत्यवती सत्य धर्म में प्रतिष्ठित है। वह परम सौभाग्यशालिनी पतिव्रता देवी यहाँ सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी के रूप में विद्यमान है॥ ११ ॥
अहं हि नियमाद् राम हित्वा तां समुपागतः।
सिद्धाश्रममनुप्राप्तः सिद्धोऽस्मि तव तेजसा॥ १२॥
श्रीराम ! मैं यज्ञ सम्बन्धी नियमकी सिद्धि के लिये ही अपनी बहिनका सांनिध्य छोड़कर सिद्धाश्रम (बक्सर) में आया था। अब तुम्हारे तेज से मुझे वह सिद्धि प्राप्त हो गयी है॥ १२॥
एषा राम ममोत्पत्तिः स्वस्य वंशस्य कीर्तिता।
देशस्य हि महाबाहो यन्मां त्वं परिपृच्छसि॥ १३॥
महाबाहु श्रीराम! तुमने मुझसे जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने तुम्हें शोणभद्रतटवर्ती देशका परिचय देते हुए यह अपनी तथा अपने कुलकी उत्पत्ति बतायी है।
गतोऽर्धरात्रः काकुत्स्थ कथाः कथयतो मम।
निद्रामभ्येहि भद्रं ते मा भूद् विघ्नोऽध्वनीह नः॥ १४॥
काकुत्स्थ! मेरे कथा कहते-कहते आधी रात बीत गयी। अब थोड़ी देर नींद ले लो तुम्हारा कल्याण हो। मैं चाहता हूँ कि अधिक जागरणके कारण हमारी यात्रा में विघ्न न पड़े॥१४॥
निष्पन्दास्तरवः सर्वे निलीना मृगपक्षिणः।
नैशेन तमसा व्याप्ता दिशश्च रघुनन्दन॥१५॥
सारे वृक्ष निष्कम्प जान पड़ते हैं—इनका एक पत्ता भी नहीं हिलता है। पशु-पक्षी अपने-अपने वासस्थान में छिपकर बसेरे लेते हैं। रघुनन्दन ! रात्रि के अन्धकार से सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं॥ १५ ॥
शनैर्विसृज्यते संध्या नभो नेत्ररिवावृतम्।
नक्षत्रतारागहनं ज्योतिर्भिरवभासते॥१६॥
धीरे-धीरे संध्या दूर चली गयी नक्षत्रों तथा ताराओं से भरा हुआ आकाश (सहस्राक्ष इन्द्रकी भाँति) सहस्रों ज्योतिर्मय नेत्रों से व्याप्त-सा होकर प्रकाशित हो रहा है।॥ १६ ॥
उत्तिष्ठते च शीतांशुः शशी लोकतमोनुदः।
ह्लादयन् प्राणिनां लोके मनांसि प्रभया स्वया॥ १७॥
सम्पूर्ण लोकका अन्धकार दूर करनेवाले शीतरश्मि चन्द्रमा अपनी प्रभासे जगत् के प्राणियों के मन को आह्लाद प्रदान करते हुए उदित हो रहे हैं * ॥ १७॥
* इस वर्णनसे जान पड़ता है कि उस रात्रिको कृष्णपक्षकी नवमी तिथि थी।
नैशानि सर्वभूतानि प्रचरन्ति ततस्ततः।
यक्षराक्षससङ्घाश्च रौद्राश्च पिशिताशनाः॥ १८॥
रातमें विचरने वाले समस्त प्राणी-यक्ष-राक्षसों के समुदाय तथा भयंकर पिशाच इधर-उधर विचर रहे हैं॥
एवमुक्त्वा महातेजा विरराम महामुनिः।
साधुसाध्विति ते सर्वे मुनयो ह्यभ्यपूजयन्॥१९॥
ऐसा कहकर महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये। उस समय सभी मुनियों ने साधुवाद देकर विश्वामित्रजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की— ॥१९॥
कुशिकानामयं वंशो महान् धर्मपरः सदा।
ब्रह्मोपमा महात्मानः कुशवंश्या नरोत्तमाः॥ २०॥
‘कुशपुत्रोंका यह वंश सदा ही महान् धर्मपरायण रहा है। कुशवंशी महात्मा श्रेष्ठ मानव ब्रह्माजी के समान तेजस्वी हुए हैं।॥ २० ॥
विशेषेण भवानेव विश्वामित्र महायशः।
कौशिकी सरितां श्रेष्ठा कुलोद्योतकरी तव॥ २१॥
‘महायशस्वी विश्वामित्रजी! अपने वंश में सबसे बड़े महात्मा आप ही हैं तथा सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी भी आपके कुल की कीर्ति को प्रकाशित करने वाली है॥
मुदितैर्मुनिशार्दूलैः प्रशस्तः कुशिकात्मजः।
निद्रामुपागमच्छ्रीमानस्तंगत इवांशुमान्॥ २२॥
इस प्रकार आनन्दमग्न हुए उन मुनिवरोंद्वारा प्रशंसित श्रीमान् कौशिक मुनि अस्त हुए सूर्य की भाँति नींद लेने लगे॥ २२॥
रामोऽपि सहसौमित्रिः किंचिदागतविस्मयः।
प्रशस्य मुनिशार्दूलं निद्रां समुपसेवते॥२३॥
वह कथा सुनकर लक्ष्मण सहित श्रीरामको भी कुछ विस्मय हो आया वे भी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रकी सराहना करके नींद लेने लगे॥ २३॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे चतुस्त्रिंशः सर्गः॥३४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३४॥
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