वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 35 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 35
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
पञ्चत्रिंशः सर्गः (सर्ग 35)
(शोणभद्र पार करके विश्वामित्र आदि का गंगाजी के तटपर पहुँचकर वहाँ रात्रिवास करना, श्रीराम विश्वामित्रजीका उन्हें गंगाजी की उत्पत्तिकी कथा सुनाना)
उपास्य रात्रिशेषं तु शोणाकूले महर्षिभिः।
निशायां सुप्रभातायां विश्वामित्रोऽभ्यभाषत।
महर्षियों सहित विश्वामित्र ने रात्रि के शेषभाग में शोणभद्रके तटपर शयन किया। जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब वे श्रीरामचन्द्र जी से इस प्रकार बोले – ॥१॥
सुप्रभाता निशा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते गमनायाभिरोचय॥२॥
‘श्रीराम! रात बीत गयी। सबेरा हो गया। तुम्हारा कल्याण हो, उठो, उठो और चलनेकी तैयारी करो’। २॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृतपूर्वाणिकक्रियः।
गमनं रोचयामास वाक्यं चेदमुवाच ह॥३॥
मुनिकी बात सुनकर पूर्वाह्णकालका नित्यनियम पूर्ण करके श्रीराम चलनेको तैयार हो गये और इस प्रकार बोले-॥३॥
अयं शोणः शुभजलोऽगाधः पुलिनमण्डितः।
कतरेण पथा ब्रह्मन् संतरिष्यामहे वयम्॥४॥
‘ब्रह्मन्! शुभ जल से परिपूर्ण तथा अपने तटों से सुशोभित होने वाला यह शोणभद्र तो अथाह जान पड़ता है हमलोग किस मार्ग से चलकर इसे पार करेंगें?’ ॥४॥ ।
एवमुक्तस्तु रामेण विश्वामित्रोऽब्रवीदिदम्।
एष पन्था मयोद्दिष्टो येन यान्ति महर्षयः॥५॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर विश्वामित्र बोले—’जिस मार्ग से महर्षिगण शोणभद्रको पार करते हैं, उसका मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है, वह मार्ग यह है’॥५॥
एवमुक्ता महर्षयो विश्वामित्रेण धीमता।
पश्यन्तस्ते प्रयाता वै वनानि विविधानि च॥६॥
बुद्धिमान् विश्वामित्र के ऐसा कहनेपर वे महर्षि नाना प्रकार के वनों की शोभा देखते हुए वहाँ से प्रस्थित हुए॥६॥
ते गत्वा दूरमध्वानं गतेऽर्धदिवसे तदा।
जाह्नवीं सरितां श्रेष्ठां ददृशुर्मुनिसेविताम्॥७॥
बहुत दूर का मार्ग तै कर लेनेपर दोपहर होते-होते उन सब लोगोंने मुनिजनसेवित, सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाजी के तटपर पहुँचकर उनका दर्शन किया। ७॥
तां दृष्ट्वा पुण्यसलिलां हंससारससेविताम्।
बभूवुर्मुनयः सर्वे मुदिताः सहराघवाः॥८॥
हंसों तथा सारसों से सेवित पुण्यसलिला भागीरथी का दर्शन करके श्रीरामचन्द्र जी के साथ समस्त मुनि बहुत प्रसन्न हुए॥८॥
तस्यास्तीरे तदा सर्वे चक्रुर्वासपरिग्रहम्।
ततः स्नात्वा यथान्यायं संतर्ण्य पितृदेवताः॥९॥
हुत्वा चैवाग्निहोत्राणि प्राश्य चामृतवद्धविः।
विविशुर्जाह्नवीतीरे शुभा मुदितमानसाः॥१०॥
विश्वामित्रं महात्मानं परिवार्य समन्ततः।
उस समय सबने गंगाजीके तट पर डेरा डाला फिर विधिवत् स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसके बाद अग्निहोत्र करके अमृत के समान मीठे हविष्य का भोजन किया तदनन्तर वे सभी कल्याणकारी महर्षि प्रसन्नचित्त हो महात्मा विश्वामित्र को चारों ओरसे घेरकर गंगाजीके तटपर बैठ गये॥९-१० १/२॥
विष्ठिताश्च यथान्यायं राघवौ च यथार्हतः।
सम्प्रहृष्टमना रामो विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥११॥
जब वे सब मुनि स्थिरभावसे विराजमान हो गये और श्रीराम तथा लक्ष्मण भी यथायोग्य स्थानपर बैठ गये, तब श्रीरामने प्रसन्नचित्त होकर विश्वामित्रजीसे पूछा- ॥११॥
भगवन् श्रोतुमिच्छामि गंगां त्रिपथगां नदीम्।
त्रैलोक्यं कथमाक्रम्य गता नदनदीपतिम्॥१२॥
‘भगवन् ! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि तीन मार्गों से प्रवाहित होने वाली नदी ये गंगा जी किस प्रकार तीनों लोकों में घूमकर नदों और नदियों के स्वामी समुद्र में जा मिली हैं?’ ॥ १२॥
चोदितो रामवाक्येन विश्वामित्रो महामुनिः।
वृद्धिं जन्म गंगाया वक्तुमेवोपचक्रमे॥१३॥
श्रीराम के इस प्रश्न द्वारा प्रेरित हो महामुनि विश्वामित्र ने गंगाजी की उत्पत्ति और वृद्धि की कथा कहना आरम्भ किया— ॥१३॥
शैलेन्द्रो हिमवान् राम धातूनामाकरो महान्।
तस्य कन्याद्वयं राम रूपेणाप्रतिमं भुवि॥१४॥
‘श्रीराम! हिमवान् नामक एक पर्वत है, जो समस्त पर्वतों का राजा तथा सब प्रकार के धातुओंका बहुत बड़ा खजाना है। हिमवान् की दो कन्याएँ हैं, जिनके सुन्दर रूप की इस
भूतलपर कहीं तुलना नहीं है। १४॥
या मेरुदुहिता राम तयोर्माता सुमध्यमा।
नाम्ना मेना मनोज्ञा वै पत्नी हिमवतः प्रिया॥ १५॥
‘मेरु पर्वतकी मनोहारिणी पुत्री मेना हिमवान की प्यारी पत्नी है । सुन्दर कटिप्रदेशवाली मेना ही उन दोनों कन्याओंकी जननी हैं॥ १५ ॥
तस्यां गंगेयमभवज्ज्येष्ठा हिमवतः सुता।
उमा नाम द्वितीयाभूत् कन्या तस्यैव राघव॥ १६॥
” ‘रघुनन्दन ! मेनाके गर्भसे जो पहली कन्या उत्पन्न हुई, वही ये गंगाजी हैं । ये हिमवान्की ज्येष्ठ पुत्री हैं । हिमवानकी ही दूसरी कन्या, जो मेना के गर्भसे उत्पन्न हुईं, उमा नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ १६॥
अथ ज्येष्ठां सुराः सर्वे देवकार्यचिकीर्षया।
शैलेन्द्रं वरयामासुरींगां त्रिपथगां नदीम्॥१७॥
कुछ काल के पश्चात् सब देवताओं ने देवकार्य की सिद्धिके लिये ज्येष्ठ कन्या गंगाजी को, जो आगे चलकर स्वर्ग से त्रिपथगा नदीके रूप में अवतीर्ण हुईं, गिरिराज हिमालय से माँगा ॥ १७॥
ददौ धर्मेण हिमवांस्तनयां लोकपावनीम्।
स्वच्छन्दपथगां गंगां त्रैलोक्यहितकाम्यया॥ १८॥
‘हिमवान्ने त्रिभुवन का हित करनेकी इच्छासे स्वच्छन्द पथ पर विचरने वाली अपनी लोक पावनी पुत्री गंगा को धर्म पूर्वक उन्हें दे दिया॥१८॥
प्रतिगृह्य त्रिलोकार्थं त्रिलोकहितकांक्षिणः।
गंगामादाय तेऽगच्छन् कृतार्थेनान्तरात्मना ॥१९॥
‘तीनों लोकों के हितकी इच्छा वाले देवता त्रिभुवनकी भलाई के लिये ही गंगाजी को लेकर मन ही-मन कृतार्थता का अनुभव करते हुए चले गये। १९॥
या चान्या शैलदुहिता कन्याऽऽसीद्रघुनन्दन।
उग्रं सुव्रतमास्थाय तपस्तेपे तपोधना॥२०॥
‘रघुनन्दन! गिरिराजकी जो दूसरी कन्या उमा थीं, वे उत्तम एवं कठोर व्रत का पालन करती हुई घोर तपस्यामें लग गयीं उन्होंने तपोमय धनका संचय किया॥ २०॥
उग्रेण तपसा युक्तां ददौ शैलवरः सुताम्।
रुद्रायाप्रतिरूपाय उमां लोकनमस्कृताम्॥२१॥
‘गिरिराजने उग्र तपस्यामें संलग्न हुई अपनी वह विश्ववन्दिता पुत्री उमा अनुपम प्रभावशाली भगवान् रुद्र को ब्याह दी॥ २१॥
एते ते शैलराजस्य सुते लोकनमस्कृते।
गंगा च सरितां श्रेष्ठा उमादेवी च राघव॥२२॥
‘रघुनन्दन! इस प्रकार सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगा तथा भगवती उमा—ये दोनों गिरिराज हिमालयकी कन्याएँ हैं। सारा संसार इनके चरणों में मस्तक झुकाता है। २२॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं यथा त्रिपथगामिनी।
खं गता प्रथमं तात गतिं गतिमतां वर ॥२३॥
सैषा सुरनदी रम्या शैलेन्द्रतनया तदा।
सुरलोकं समारूढा विपापा जलवाहिनी॥२४॥
‘गतिशीलों में श्रेष्ठ तात श्रीराम! गंगाजी की उत्पत्ति के विषय में ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं, ये त्रिपथगामिनी कैसे हुईं ? यह भी सुन लो, पहले तो ये आकाश मार्ग में गयी थीं तत्पश्चात् ये गिरिराजकुमारी गंगा रमणीया देवनदी के रूपमें देवलोक में आरूढ़ हुई थीं। फिर जलरूपमें प्रवाहित हो लोगों के पाप दूर करती हुई रसातल में पहुंची थीं’ ॥ २३-२४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे पञ्चत्रिंशः सर्गः॥ ३५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ३५॥
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