वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 36 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 36
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
षट्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 36)
(देवताओं का शिव-पार्वती को सुरतक्रीडा से निवृत्त करना तथा उमादेवी का देवताओं और पृथ्वी को शाप देना)
उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन्नुभौ राघवलक्ष्मणौ।
प्रतिनन्द्य कथां वीरावूचतुर्मुनिपुंगवम्॥१॥
विश्वामित्र जी की बात समाप्त होने पर श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरों ने उनकी कही हुई कथा का अभिनन्दन करके मुनिवर विश्वामित्र से इस प्रकार कहा- ॥१॥
धर्मयुक्तमिदं ब्रह्मन् कथितं परमं त्वया।
दुहितुः शैलराजस्य ज्येष्ठाया वक्तुमर्हसि।
विस्तरं विस्तरज्ञोऽसि दिव्यमानुषसम्भवम्॥२॥
‘ब्रह्मन्! आपने यह बड़ी उत्तम धर्मयुक्त कथा सुनायी। अब आप गिरिराज हिमवान् की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के दिव्यलोक तथा मनुष्यलोक से सम्बन्ध होने का वृत्तान्त विस्तार के साथ सुनाइये; क्योंकि आप विस्तृत वृत्तान्त के ज्ञाता हैं ॥२॥
त्रीन् पथो हेतुना केन प्लावयेल्लोकपावनी।
कथं गंगा त्रिपथगा विश्रुता सरिदुत्तमा॥३॥
‘लोक को पवित्र करने वाली गंगा किस कारण से तीन मार्गों में प्रवाहित होती हैं? सरिताओं में श्रेष्ठ गंगाकी ‘त्रिपथगा’ नाम से प्रसिद्धि क्यों हुई? ॥ ३॥
त्रिषु लोकेषु धर्मज्ञ कर्मभिः कैः समन्विता।
तथा ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रस्तपोधनः॥४॥
निखिलेन कथां सर्वामृषिमध्ये न्यवेदयत्।
‘धर्मज्ञ महर्षे! तीनों लोकों में वे अपनी तीन धाराओं के द्वारा कौन-कौन-से कार्य करती हैं?’ श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर तपोधन विश्वामित्र ने मुनिमण्डली के बीच गंगाजी से सम्बन्ध रखनेवाली सारी बातें पूर्णरूप से कह सुनायीं- ॥ ४ १/२॥
पुरा राम कृतोद्वाहः शितिकण्ठो महातपाः॥५॥
दृष्ट्वा च भगवान् देवीं मैथुनायोपचक्रमे।
‘श्रीराम! पूर्वकाल में महातपस्वी भगवान् नीलकण्ठ ने उमादेवी के साथ विवाह करके उनको नववधूके रूपमें अपने निकट आयी देख उनके साथ रति-क्रीडा आरम्भ की॥ ५ १/२॥
तस्य संक्रीडमानस्य महादेवस्य धीमतः।
शितिकण्ठस्य देवस्य दिव्यं वर्षशतं गतम्॥६॥
‘परम बुद्धिमान् महान् देवता भगवान् नीलकण्ठ के उमादेवी के साथ क्रीडा-विहार करते सौ दिव्य वर्ष बीत गये॥६॥
न चापि तनयो राम तस्यामासीत् परंतप।
सर्वे देवाः समुद्युक्ताः पितामहपुरोगमाः॥७॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम! इतने वर्षोंतक विहार के बाद भी महादेवजी के उमा देवी के गर्भ से कोई पुत्र नहीं हुआ। यह देख ब्रह्मा आदि सभी देवता उन्हें रोकने का उद्योग करने लगे॥७॥
यदिहोत्पद्यते भूतं कस्तत् प्रतिसहिष्यति।
अभिगम्य सुराः सर्वे प्रणिपत्येदमब्रुवन्॥८॥
“उन्होंने सोचा-इतने दीर्घकाल के पश्चात् यदि रुद्र के तेजसे उमादेवी के गर् भसे कोई महान् प्राणी प्रकट हो भी जाय तो कौन उसके तेज को सहन करेगा? यह विचारकर सब देवता भगवान् शिवके पास जा उन्हें प्रणाम करके यों बोले- ॥८॥
देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि॥९॥
‘इस लोक के हितमें तत्पर रहनेवाले देव देव महादेव! देवता आपके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। इससे प्रसन्न होकर आप इन देवताओंपर कृपा करें॥९॥
न लोका धारयिष्यन्ति तव तेजः सुरोत्तम।
ब्राह्मण तपसा युक्तो देव्या सह तपश्चर॥१०॥
‘सुरश्रेष्ठ! ये लोक आपके तेज को नहीं धारण कर सकेंगे; अतः आप क्रीडा से निवृत्त हो वेद बोधित तपस्या से युक्त होकर उमादेवी के साथ तप कीजिये॥ १०॥
त्रैलोक्यहितकामार्थं तेजस्तेजसि धारय।
रक्ष सर्वानिमाल्लोकान् नालोकं कर्तुमर्हसि ॥ ११॥
‘तीनों लोकोंके हितकी कामनासे अपने तेज (वीर्य) को तेजःस्वरूप अपने-आप में ही धारण कीजिये। इन सब लोकों की रक्षा कीजिये लोकोंका विनाश न कर डालिये’ ॥ ११॥
देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकमहेश्वरः।
बाढमित्यब्रवीत् सर्वान् पुनश्चेदमुवाच ह॥१२॥
‘देवताओंकी यह बात सुनकर सर्वलोकमहेश्वर शिवने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया; फिर उनसे इस प्रकार कहा-॥ १२॥
धारयिष्याम्यहं तेजस्तेजसैव सहोमया।
त्रिदशाः पृथिवी चैव निर्वाणमधिगच्छतु॥१३॥
“देवताओ! उमा सहित मैं अर्थात् हम दोनों अपने तेज से ही तेज को धारण कर लेंगे। पृथ्वी आदि सभी लोकों के निवासी शान्ति लाभ करें॥ १३ ॥
यदिदं क्षुभितं स्थानान्मम तेजो ह्यनुत्तमम्।
धारयिष्यति कस्तन्मे ब्रुवन्तु सुरसत्तमाः॥१४॥
‘किंतु सुरश्रेष्ठगण! यदि मेरा यह सर्वोत्तम तेज (वीर्य) क्षुब्ध होकर अपने स्थान से स्खलित हो जाय तो उसे कौन धारण करेगा?—यह मुझे बताओ’। १४॥
एवमुक्तास्ततो देवाः प्रत्यूचुर्वृषभध्वजम्।
यत्तेजः क्षुभितं ह्यद्य तद्धरा धारयिष्यति॥१५॥
उनके ऐसा कहने पर देवताओं ने वृषभध्वज भगवान् शिव से कहा—’भगवन् ! आज आपका जो तेज क्षुब्ध होकर गिरेगा, उसे यह पृथ्वी देवी धारण करेगी’। १५॥
एवमुक्तः सुरपतिः प्रमुमोच महाबलः।
तेजसा पृथिवी येन व्याप्ता सगिरिकानना॥१६॥
‘देवताओंका यह कथन सुनकर महाबली देवेश्वर शिव ने अपना तेज छोड़ा, जिससे पर्वत और वनों सहित यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी॥ १६ ॥
ततो देवाः पुनरिदमूचुश्चापि हुताशनम्।
आविश त्वं महातेजो रौद्रं वायुसमन्वितः॥१७॥
‘तब देवताओंने अग्नि देव से कहा—’अग्ने! तुम वायु के सहयोग से भगवान् शिवके इस महान् तेज को अपने भीतर रख लो’ ॥ १७॥
तदग्निना पुनर्व्याप्तं संजातं श्वेतपर्वतम्।
दिव्यं शरवणं चैव पावकादित्यसंनिभम्॥१८॥
‘अग्नि से व्याप्त होने पर वह तेज श्वेत पर्वत के रूप में परिणत हो गया। साथ ही वहाँ दिव्य सरकंडों का वन भी प्रकट हुआ, जो अग्नि और सूर् यके समान तेजस्वी प्रतीत होता था॥ १८॥
यत्र जातो महातेजाः कार्तिकेयोऽग्निसम्भवः ।
अथोमां च शिवं चैव देवाः सर्षिगणास्तथा॥ १९॥
पूजयामासुरत्यर्थं सुप्रीतमनसस्तदा।
‘उसी वनमें अग्निजनित महातेजस्वी कार्तिकेयका प्रादुर्भाव हुआ। तदनन्तर ऋषियों सहित देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर देवी उमा और भगवान् शिवका बड़े भक्तिभावसे पूजन किया। १९ १/२॥
अथ शैलसुता राम त्रिदशानिदमब्रवीत्॥२०॥
समन्युरशपत् सर्वान् क्रोधसंरक्तलोचना।
‘श्रीराम! इसके बाद गिरिराजनन्दिनी उमा के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने समस्त देवताओं को रोषपूर्वक शाप दे दिया। वे बोलीं- ॥२० १/२॥
यस्मान्निवारिता चाहं संगता पुत्रकाम्यया॥२१॥
अपत्यं स्वेषु दारेषु नोत्पादयितुमर्हथ।
अद्यप्रभृति युष्माकमप्रजाः सन्तु पत्नयः॥ २२॥
‘देवताओ ! मैंने पुत्र-प्राप्तिकी इच्छा से पति के साथ समागम किया था, परंतु तुमने मुझे रोक दिया अतः अब तुम लोग भी अपनी पत्नियों से संतान उत्पन्न करने योग्य नहीं रह जाओगे। आज से तुम्हारी पत्नियाँ संतानोत्पादन नहीं कर सकेंगी संतानहीन हो जायँगी’ ॥ २१-२२॥
एवमुक्त्वा सुरान् सर्वान् शशाप पृथिवीमपि।
अवने नैकरूपा त्वं बहभार्या भविष्यसि ॥२३॥
‘सब देवताओं से ऐसा कहकर उमादेवी ने पृथिवी को भी शाप दिया—’भूमे! तेरा एक रूप नहीं रह जायगा तू बहुतों की भार्या होगी॥ २३॥
न च पुत्रकृतां प्रीतिं मत्क्रोधकलुषीकृता।
प्राप्स्यसि त्वं सुदुर्मेधो मम पुत्रमनिच्छती॥ २४॥
‘खोटी बुद्धिवाली पृथ्वी! तू चाहती थी कि मेरे पुत्र न हो अतः मेरे क्रोध से कलुषित होकर तू भी पुत्रजनित सुख या प्रसन्नता का अनुभव न कर सकेगी’ ॥ २४॥
तान् सर्वान् पीडितान् दृष्ट्वा सुरान् सुरपतिस्तदा।
गमनायोपचक्राम दिशं वरुणपालिताम्॥ २५॥
‘उन सब देवताओंको उमादेवी के शाप से पीडित देख देवेश्वर भगवान् शिव ने उस समय पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया॥ २५ ॥
स गत्वा तप आतिष्ठत् पार्श्वे तस्योत्तरे गिरेः।
हिमवत्प्रभवे श्रृंगे सह देव्या महेश्वरः॥२६॥
‘वहाँ से जाकर हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में उसी के एक शिखरपर उमादेवी के साथ भगवान् महेश्वर तप करने लगे॥ २६॥
एष ते विस्तरो राम शैलपुत्र्या निवेदितः।
गंगायाः प्रभवं चैव शृणु मे सहलक्ष्मण ॥२७॥
‘लक्ष्मण सहित श्रीराम! यह मैंने तुम्हें गिरिराज हिमवान् की छोटी पुत्री उमादेवी का विस्तृत वृत्तान्त बताया है अब मुझसे गंगा के प्रादुर्भाव की कथा सुनो’ ।। २७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे षत्रिंशः सर्गः ॥३६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।
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