वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 45 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 45
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
पञ्चचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 45)
(देवताओं और दैत्यों द्वारा क्षीर-समुद्र मन्थन, भगवान् रुद्र द्वारा हालाहल विषकापान,देवासुर-संग्राम में दैत्यों का संहार)
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः।
विस्मयं परमं गत्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥१॥
विश्वामित्रजी की बातें सुनकर लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा विस्मय हुआ वे मुनि से इस प्रकार बोले- ॥१॥
अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मन् कथितं परमं त्वया।
गंगावतरणं पुण्यं सागरस्यापि पूरणम्॥२॥
‘ब्रह्मन्! आपने गंगाजी के स्वर्ग से उतरने और समुद्र के भरने की यह बड़ी उत्तम और अत्यन्त अद्भुत कथा सुनायी॥२॥
क्षणभूतेव नौरात्रिः संवृत्तेयं परंतप।
इमां चिन्तयतोः सर्वां निखिलेन कथां तव॥३॥
‘काम-क्रोधादि शत्रुओं को संताप देने वाले महर्षे! आपकी कही हुई इस सम्पूर्ण कथा पर पूर्ण रूप से विचार करते हुए हम दोनों भाइयों की यह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी है॥३॥
तस्य सा शर्वरी सर्वा मम सौमित्रिणा सह।
जगाम चिन्तयानस्य विश्वामित्र कथां शुभाम्॥ ४॥
‘विश्वामित्र जी! लक्ष्मण के साथ इस शुभ कथा पर विचार करते हुए ही मेरी यह सारी रात बीती है’। ४॥
ततः प्रभाते विमले विश्वामित्रं तपोधनम्।
उवाच राघवो वाक्यं कृताह्निकमरिंदमः॥५॥
तत्पश्चात् निर्मल प्रभातकाल उपस्थित होने पर तपोधन विश्वामित्र जी जब नित्य कर्म से निवृत्त हो चुके, तब शत्रुदमन श्रीरामचन्द्रजी ने उनके पास जाकर कहा- ॥५॥
गता भगवती रात्रिः श्रोतव्यं परमं श्रुतम्।
तराम सरितां श्रेष्ठां पुण्यां त्रिपथगां नदीम्॥६॥
‘मुने! यह पूजनीया रात्रि चली गयी सुनने योग्य सर्वोत्तम कथा मैंने सुन ली,अब हम लोग सरिताओं में श्रेष्ठ पुण्यसलिला त्रिपथगामिनी नदी गंगाजी के उस पार चलें॥६॥
नौरेषा हि सुखास्तीर्णा ऋषीणां पुण्यकर्मणाम्।
भगवन्तमिह प्राप्तं ज्ञात्वा त्वरितमागता॥७॥
‘सदा पुण्यकर्म में तत्पर रहने वाले ऋषियों की यह नाव उपस्थित है। इस पर सुखद आसन बिछा है। आप परमपूज्य महर्षि को यहाँ उपस्थित जानकर ऋषियों की भेजी हुई यह नाव बड़ी तीव्र गति से यहाँ आयी है’ ॥ ७॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राघवस्य महात्मनः।
संतारं कारयामास सर्षिसङ्घस्य कौशिकः॥८॥
महात्मा रघुनन्दन का यह वचन सुनकर विश्वामित्र जी ने पहले ऋषियों सहित श्रीराम-लक्ष्मण को पार कराया॥ ८॥
उत्तरं तीरमासाद्य सम्पूज्यर्षिगणं ततः।
गंगाकूले निविष्टास्ते विशालां ददृशुः पुरीम्॥९॥
तत्पश्चात् स्वयं भी उत्तर तट पर पहुँचकर उन्होंने वहाँ रहने वाले ऋषियों का सत्कार किया। फिर सब लोग गंगाजी के किनारे ठहरकर विशाला नामक पुरी की शोभा देखने लगे॥९॥
ततो मुनिवरस्तूर्णं जगाम सहराघवः।
विशाला नगरी रम्यां दिव्यां स्वर्गोपमां तदा॥ १०॥
तदनन्तर श्रीराम-लक्ष्मण को साथ ले मुनिवर विश्वामित्र तुरंत उस दिव्य एवं रमणीय नगरी विशालाकी ओर चल दिये, जो अपनी सुन्दर शोभा से स्वर्ग के समान जान पड़ती थी॥ १०॥
उस समय परम बुद्धिमान् श्रीराम ने हाथ जोड़कर उस उत्तम विशाला पुरी के विषय में महामुनि विश्वामित्र से पूछा- ॥११॥
कतमो राजवंशोऽयं विशालायां महामुने।
श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते परं कौतूहलं हि मे ॥१२॥
‘महामुने! आपका कल्याण हो मैं यह सुनना चाहता हूँ कि विशाला में कौन-सा राजवंश राज्य कर रहा है ? इसके लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा है’ ॥ १२॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा रामस्य मुनिपुंगवः।
आख्यातुं तत्समारेभे विशालायाः पुरातनम्॥ १३॥
श्रीराम का यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने विशाला पुरी के प्राचीन इतिहासका वर्णन आरम्भ किया— ॥ १३॥
श्रूयतां राम शक्रस्य कथां कथयतः श्रुताम्।
अस्मिन् देशे हि यद् वृत्तं शृणु तत्त्वेन राघव॥ १४॥
“रघुकुलनन्दन श्रीराम! मैंने इन्द्र के मुखसे विशाला-पुरी के वैभव का प्रतिपादन करने वाली जो कथा सुनी है, उसे बता रहा हूँ, सुनो। इस देश में जो वृत्तान्त घटित हुआ है, उसे यथार्थ रूप से श्रवण करो॥ १४॥
पूर्वं कृतयुगे राम दितेः पुत्रा महाबलाः।
अदितेश्च महाभागा वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः॥ १५॥
‘श्रीराम! पहले सत्ययुग में दिति के पुत्र दैत्य बड़े बलवान् थे और अदिति के परम धर्मात्मा पुत्र महाभाग देवता भी बड़े शक्तिशाली थे॥ १५ ॥
ततस्तेषां नरव्याघ्र बुद्धिरासीन्महात्मनाम्।
अमरा विजराश्चैव कथं स्यामो निरामयाः॥ १६॥
‘पुरुषसिंह! उन महामना दैत्यों और देवताओं के मनमें यह विचार हुआ कि हम कैसे अजर-अमर और नीरोग हों? ॥ १६॥
तेषां चिन्तयतां तत्र बुद्धिरासीद विपश्चिताम्।
क्षीरोदमथनं कृत्वा रसं प्राप्स्याम तत्र वै॥१७॥
‘इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन विचारशील देवताओं और दैत्यों की बुद्धि में यह बात आयी कि हमलोग यदि क्षीर सागर का मन्थन करें तो उसमें निश्चय ही अमृतमय रस प्राप्त कर लेंगे॥१७॥
ततो निश्चित्य मथनं योक्त्रं कृत्वा च वासुकिम्।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा ममन्थुरमितौजसः॥१८॥
‘समुद्रमन्थन का निश्चय करके उन अमिततेजस्वी देवताओं और दैत्यों ने वासुकि नाग को रस्सी और मन्दराचल को मथानी बनाकर क्षीर-सागर को मथना आरम्भ कया॥१८॥
अथ वर्षसहस्रेण योकत्रसर्पशिरांसि च। ।
वमन्तोऽतिविषं तत्र ददंशुर्दशनैः शिलाः॥१९॥
‘तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतने पर रस्सी बने हुए सर्प के बहुसंख्यक मुख अत्यन्त विष उगलते हुए वहाँ मन्दराचल की शिलाओं को अपने दाँतों से डंसने लगे॥ १९॥
उत्पपाताग्निसंकाशं हालाहलमहाविषम्।
तेन दग्धं जगत् सर्वं सदेवासुरमानुषम्॥२०॥
‘अतः उस समय वहाँ अग्नि के समान दाहक हालाहल नामक महाभयंकर विष ऊपर को उठा। उसने देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् को दग्ध करना आरम्भ किया॥ २०॥
अथ देवा महादेवं शङ्करं शरणार्थिनः।
जग्मुः पशुपतिं रुद्रं त्राहि त्राहीति तुष्टवुः ॥२१॥
‘यह देख देवता लोग शरणार्थी होकर सबका कल्याण करने वाले महान् देवता पशुपति रुद्र की शरण में गये और त्राहि-त्राहि की पुकार लगाकर उनकी स्तुति करने लगे॥ २१॥
एवमुक्तस्ततो देवैर्देवदेवेश्वरः प्रभुः।
प्रादुरासीत् ततोऽत्रैव शङ्खचक्रधरो हरिः॥ २२॥
‘देवताओं के इस प्रकार पुकारने पर देवदेवेश्वर भगवान् शिव वहाँ प्रकट हुए फिर वहीं शङ्ख चक्रधारी भगवान् श्रीहरि भी उपस्थित हो गये॥ २२ ॥
उवाचैनं स्मितं कृत्वा रुद्रं शूलधरं हरिः।
दैवतैर्मथ्यमाने तु यत्पूर्वं समुपस्थितम्॥२३॥
तत् त्वदीयं सुरश्रेष्ठ सुराणामग्रतो हि यत्।
अग्रपूजामिह स्थित्वा गृहाणेदं विषं प्रभो॥२४॥
‘श्रीहरिने त्रिशूलधारी भगवान् रुद्र से मुसकराकर कहा—’सुरश्रेष्ठ ! देवताओं के समुद्रमन्थन करने पर जो वस्तु सबसे पहले प्राप्त हुई है, वह आपका भाग है; क्योंकि आप सब देवताओं में अग्रगण्य हैं। प्रभो! अग्रपूजा के रूप में प्राप्त हुए इस विष को आप यहीं खड़े होकर ग्रहण करें’॥ २३-२४ ॥
इत्युक्त्वा च सुरश्रेष्ठस्तत्रैवान्तरधीयत।
देवतानां भयं दृष्ट्वा श्रुत्वा वाक्यं तु शाङ्गिणः॥ २५॥
हालाहलं विषं घोरं संजग्राहामृतोपमम्।
देवान् विसृज्य देवेशो जगाम भगवान् हरः॥२६॥
‘ऐसा कहकर देवशिरोमणि विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। देवताओं का भय देखकर और भगवान् विष्णु की पूर्वोक्त बात सुनकर देवेश्वर भगवान् रुद्र ने उस घोर हालाहल विष को अमृत के समान मानकर अपने कण्ठ में धारण कर लिया तथा देवताओं को विदा करके वे अपने स्थान को चले गये॥ २५-२६ ॥
ततो देवासुराः सर्वे ममन्थू रघुनन्दन।
प्रविवेशाथ पातालं मन्थानः पर्वतोत्तमः॥२७॥
‘रघुनन्दन! तत्पश्चात् देवता और असुर सब मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करने लगे उस समय मथानी बना हुआ उत्तम पर्वत मन्दर पाताल में घुस गया॥२७॥
ततो देवाः सगन्धर्वास्तुष्टवुर्मधुसूदनम्।
त्वं गतिः सर्वभूतानां विशेषेण दिवौकसाम्॥ २८॥
पालयास्मान् महाबाहो गिरिमुद्धर्तुमर्हसि।
‘तब देवता और गन्धर्व भगवान् मधुसूदन की स्तुति करने लगे—’महाबाहो! आप ही सम्पूर्ण प्राणियों की गति हैं विशेषतः देवताओं के अवलम्बन तो आप ही हैं आप हमारी रक्षा करें और इस पर्वत को उठावें’। २८ १/२॥
इति श्रुत्वा हृषीकेशः कामठं रूपमास्थितः॥ २९॥
पर्वतं पृष्ठतः कृत्वा शिश्ये तत्रोदधौ हरिः।
‘यह सुनकर भगवान् हृषीकेश ने कच्छप का रूप धारण कर लिया और उस पर्वत को अपनी पीठ पर रखकर वे श्रीहरि वहीं समुद्र के भीतर सो गये॥ २९ १/२॥
पर्वताग्रं तु लोकात्मा हस्तेनाक्रम्य केशवः॥ ३०॥
देवानां मध्यतः स्थित्वा ममन्थ पुरुषोत्तमः।
‘फिर विश्वात्मा पुरुषोत्तम भगवान् केशव उस पर्वत शिखर को हाथ से पकड़कर देवताओंके बीचमें खड़े हो स्वयं भी समुद्रका मन्थन करने लगे॥ ३० १/२॥
अथ वर्षसहस्रेण आयुर्वेदमयः पुमान्॥३१॥
उदतिष्ठत् सुधर्मात्मा सदण्डः सकमण्डलुः।
पूर्वं धन्वन्तरि म अप्सराश्च सुवर्चसः॥ ३२॥
‘तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतने पर उस क्षीरसागर से एक आयुर्वेदमय धर्मात्मा पुरुष प्रकट हुए, जिनके एक हाथ में दण्ड और दूसरे में कमण्डलु था। उनका नाम धन्वन्तरि था। उनके प्राकट्य के बाद सागर से सुन्दर कान्तिवाली बहुत-सी अप्सराएँ प्रकट हुईं। ३१-३२॥
अप्सु निर्मथनादेव रसात् तस्माद् वरस्त्रियः।
उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्॥ ३३॥
‘नरश्रेष्ठ! मन्थन करने से ही अप् (जल) में उसके रस से वे सुन्दरी स्त्रियाँ उत्पन्न हुई थीं, इसलिये अप्सरा कहलायीं॥ ३३॥
षष्टिः कोट्योऽभवंस्तासामप्सराणां सुवर्चसाम्।
असंख्येयास्तु काकुत्स्थ यास्तासां परिचारिकाः॥ ३४॥
‘काकुत्स्थ! उन सुन्दर कान्तिवाली अप्सराओं की संख्या साठ करोड़ थी और जो उनकी परिचारिकाएँ थीं, उनकी गणना नहीं की जा सकती। वे सब असंख्य थीं॥ ३४॥
न ताः स्म प्रतिगृह्णन्ति सर्वे ते देवदानवाः।
अप्रतिग्रहणादेव ता वै साधारणाः स्मृताः॥ ३५॥
‘उन अप्सराओं को समस्त देवता और दानव कोई भी अपनी पत्नी’ रूप से ग्रहण न कर सके, इसलिये वे साधारणा (सामान्या) मानी गयीं॥ ३५॥
वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन।
उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहम्॥३६॥
‘रघुनन्दन! तदनन्तर वरुण की कन्या वारुणी, जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी, प्रकट हुई और अपने को स्वीकार करने वाले पुरुषकी खोज करने लगी॥ ३६॥
दितेः पुत्रा न तां राम जगृहुर्वरुणात्मजाम्।
अदितेस्तु सुता वीर जगृहुस्तामनिन्दिताम्॥ ३७॥
‘वीर श्रीराम! दैत्योंने उस वरुण कन्या सुरा को नहीं ग्रहण किया, परंतु अदिति के पुत्रों ने इस अनिन्द्यसुन्दरी को ग्रहण कर लिया॥३७॥
असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताश्चासन् वारुणीग्रहणात् सुराः॥ ३८॥
‘सुरा से रहित हो नेके कारण ही दैत्य ‘असुर’ कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की ‘सुर’ संज्ञा हुई। वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनन्दमग्न हो गये। ३८॥
उच्चैःश्रवा हयश्रेष्ठो मणिरत्नं च कौस्तुभम्।
उदतिष्ठन्नरश्रेष्ठ तथैवामृतमुत्तमम्॥ ३९॥
‘नरश्रेष्ठ! तदनन्तर घोड़ों में उत्तम उच्चैःश्रवा, मणिरत्न कौस्तुभ तथा परम उत्तम अमृत का प्राकट्य हुआ॥ ३९॥
अथ तस्य कृते राम महानासीत् कुलक्षयः।
अदितेस्तु ततः पुत्रा दितिपुत्रानयोधयन्॥४०॥
‘श्रीराम! उस अमृत के लिये देवताओं और असुरों के कुल का महान् संहार हुआ। अदिति के पुत्र दिति के पुत्रों के साथ युद्ध करने लगे॥ ४० ॥
एकतामगमन् सर्वे असुरा राक्षसैः सह।
युद्धमासीन्महाघोरं वीर त्रैलोक्यमोहनम्॥४१॥
समस्त असुर राक्षसों के साथ मिलकर एक हो गये। वीर! देवताओं के साथ उनका महाघोर संग्राम होने लगा, जो तीनों लोकों को मोह में डालने वाला था॥४१॥
यदा क्षयं गतं सर्वं तदा विष्णुर्महाबलः।
अमृतं सोऽहरत् तूर्णं मायामास्थाय मोहिनीम्॥ ४२॥
‘जब देवताओं और असुरों का वह सारा समूह क्षीण हो चला, तब महाबली भगवान् विष्णु ने मोहिनी माया का आश्रय लेकर तुरंत ही अमृत का अपहरण कर लिया॥ ४२॥
ये गताभिमुखं विष्णुमक्षरं पुरुषोत्तमम्।
सम्पिष्टास्ते तदा युद्धे विष्णुना प्रभविष्णुना॥ ४३॥
‘जो दैत्य बलपूर्वक अमृत छीन लाने के लिये अविनाशी पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु के सामने गये, उन्हें प्रभावशाली भगवान् विष्णु ने उस समय युद्ध में पीस डाला॥ ४३॥
अदितेरात्मजा वीरा दितेः पुत्रान् निजजिरे।
अस्मिन् घोरे महायुद्धे दैतेयादित्ययो शम्॥ ४४॥
‘देवताओं और दैत्यों के उस घोर महायुद्ध में अदिति के वीर पुत्रों ने दिति के पुत्रों का विशेष संहार किया॥४४॥
निहत्य दितिपुत्रांस्तु राज्यं प्राप्य पुरंदरः।
शशास मुदितो लोकान् सर्षिसङ्घान् सचारणान्॥ ४५॥
‘दैत्यों का वध करने के पश्चात् त्रिलोकी का राज्य पाकर देवराज इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और ऋषियों तथा चारणों सहित समस्त लोकों का शासन करने लगे’। ४५॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे पञ्चचत्वारिंशः सर्गः॥४५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४५॥
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महोदय🙏।
आप के इस महान प्रयास के लिए हार्दिक धन्यवाद।
कहीं-कहीं लिखावट में गलतियां हुई हैं विशेषतः हिंदी अनुवाद में, इस सर्ग में भी कई हैं।
विनम्र निवेदन है, यथासंभव सुधार करने की कृपा करें। धन्यवाद।🙏।