वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 47 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 47
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
सप्तचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 47)
(दिति का अपने पुत्रों को मरुद्गण बनाकर देवलोक में रखने के लिये इन्द्र से अनुरोध, इक्ष्वाकु-पुत्र विशाल द्वारा विशाला नगरी का निर्माण)
सप्तधा तु कृते गर्भे दितिः परमदुःखिता।
सहस्राक्षं दुराधर्षं वाक्यं सानुनयाब्रवीत्॥१॥
इन्द्र द्वारा अपने गर्भ के सात टुकड़े कर दिये जाने पर देवी दिति को बड़ा दुःख हुआ वे दुर्द्धर्ष वीर सहस्राक्ष इन्द्र से अनुनयपूर्वक बोलीं- ॥ १॥
ममापराधाद् गर्भोऽयं सप्तधा शकलीकृतः।
नापराधो हि देवेश तवात्र बलसूदन॥२॥
‘देवेश! बलसूदन! मेरे ही अपराध से इस गर्भ के सात टुकड़े हुए हैं इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। २॥
प्रियं त्वत्कृतमिच्छामि मम गर्भविपर्यये।
मरुतां सप्त सप्तानां स्थानपाला भवन्तु ते॥३॥
‘इस गर्भ को नष्ट करनेके निमित्त तुमने जो क्रूरतापूर्ण कर्म किया है, वह तुम्हारे और मेरे लिये भी जिस तरह प्रिय हो जाय—जैसे भी उसका परिणाम तुम्हारे और मेरे लिये सुखद हो जाय, वैसा उपाय मैं करना चाहती हूँ। मेरे गर्भ के वे सातों खण्ड सात व्यक्ति होकर सातों मरुद्गणों के स्थानों का पालन करने वाले हो जायँ॥ ३॥
वातस्कन्धा इमे सप्त चरन्तु दिवि पुत्रक।
मारुता इति विख्याता दिव्यरूपा ममात्मजाः॥ ४॥
‘बेटा! ये मेरे दिव्य रूपधारी पुत्र ‘मारुत’ नाम से प्रसिद्ध होकर आकाश में जो सुविख्यात सात वातस्कन्ध* हैं, उनमें विचरें॥४॥
* आवह, प्रवह, संवह, उद्वह, विवह, परिवह और परावहये सात मरुत् हैं, इन्हीं को सात वातस्कन्ध कहते हैं।
ब्रह्मलोकं चरत्वेक इन्द्रलोकं तथापरः।
दिव्यवायुरिति ख्यातस्तृतीयोऽपि महायशाः॥
(ऊपर जो सात मरुत् बताये गये हैं, वे सातसात के गण हैं, इस प्रकार उनचास मरुत् समझने चाहिये )इनमें से जो प्रथम गण है, वह ब्रह्मलोक में विचरे, दूसरा इन्द्रलोक में विचरण करे तथा तीसरा महायशस्वी मरुद्गण दिव्य वायु के नामसे विख्यात हो अन्तरिक्ष में बहा करे॥५॥
चत्वारस्तु सुरश्रेष्ठ दिशो वै तव शासनात्।
संचरिष्यन्ति भद्रं ते कालेन हि ममात्मजाः॥६॥
त्वत्कृतेनैव नाम्ना वै मारुता इति विश्रुताः।
‘सुरश्रेष्ठ! तुम्हारा कल्याण हो मेरे शेष चार पुत्रों के गण तुम्हारी आज्ञा से समयानुसार सम्पूर्ण दिशाओं में संचार करेंगे तुम्हारे ही रखे हुए नाम से (तुमने जो ‘मा रुदः’ कहकर उन्हें रोने से मना किया था, उसी ‘मा रुदः’ इस वाक्य से) वे सब-के-सब मारुत कहलायेंगे। मारुत नाम से ही उनकी प्रसिद्धि होगी’ ॥ ६ १/२॥
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा सहस्राक्षः पुरंदरः॥७॥
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यमतीदं बलसूदनः।
दिति का वह वचन सुनकर बल दैत्य को मारने वाले सहस्राक्ष इन्द्र ने हाथ जोड़कर यह बात कही— ॥ ७ १/२॥
सर्वमेतद यथोक्तं ते भविष्यति न संशयः॥८॥
विचरिष्यन्ति भद्रं ते देवरूपास्तवात्मजाः।
‘मा ! तुम्हारा कल्याण हो तुमने जैसा कहा है, वह सब वैसा ही होगा; इसमें संशय नहीं है। तुम्हारे ये पुत्र देवरूप होकर विचरेंगे’॥ ८ १/२ ॥
एवं तौ निश्चयं कृत्वा मातापुत्रौ तपोवने॥९॥
जग्मतुस्त्रिदिवं राम कृतार्थाविति नः श्रुतम्।
श्रीराम ! उस तपोवन में ऐसा निश्चय करके वे दोनों माता-पुत्र—दिति और इन्द्र कृतकृत्य हो स्वर्गलोक को चले गये—ऐसा हमने सुन रखा है॥९ १/२॥
एष देशः स काकुत्स्थ महेन्द्राध्युषितः पुरा॥ १०॥
दितिं यत्र तपःसिद्धामेवं परिचचार सः।
काकुत्स्थ! यही वह देश है, जहाँ पूर्वकाल में रहकर देवराज इन्द्र ने तपःसिद्ध दिति की परिचर्या की थी॥ १० १/२॥
इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्र पुत्रः परमधार्मिकः॥११॥
अलम्बुषायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः।
तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरी कृता॥ १२॥
पुरुषसिंह! पूर्वकाल में महाराज इक्ष्वाकु के एक परम धर्मात्मा पुत्र थे, जो विशाल नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका जन्म अलम्बुषा के गर्भ से हुआ था। उन्होंने इस स्थान पर विशाला नाम की पुरी बसायी थी॥ ११-१२॥
विशालस्य सुतो राम हेमचन्द्रो महाबलः।
सुचन्द्र इति विख्यातो हेमचन्द्रादनन्तरः॥१३॥
श्रीराम! विशाल के पुत्रका नाम था हेमचन्द्र, जो बड़े बलवान् थे। हेमचन्द्र के पुत्र सुचन्द्र नाम से विख्यात हुए॥ १३॥
सुचन्द्रतनयो राम धूम्राश्व इति विश्रुतः।
धूम्राश्वतनयश्चापि सृञ्जयः समपद्यत॥१४॥
श्रीरामचन्द्र! सुचन्द्र के पुत्र धूम्राश्व और धूम्राश्व के पुत्र संजय हुए॥ १४॥
सृञ्जयस्य सुतः श्रीमान् सहदेवः प्रतापवान्।
कुशाश्वः सहदेवस्य पुत्रः परमधार्मिकः॥१५॥
संजय के प्रतापी पुत्र श्रीमान् सहदेव हुए। सहदेव के परम धर्मात्मा पुत्र का नाम कुशाश्व था॥ १५ ॥
कुशाश्वस्य महातेजाः सोमदत्तः प्रतापवान्।
सोमदत्तस्य पुत्रस्तु काकुत्स्थ इति विश्रुतः॥ १६॥
कुशाश्वके महातेजस्वी पुत्र प्रतापी सोमदत्त हुए और सोमदत्तके पुत्र काकुत्स्थ नामसे विख्यात हुए।१६॥
तस्य पुत्रो महातेजाः सम्प्रत्येष पुरीमिमाम्।
आवसत् परमप्रख्यः सुमति म दुर्जयः॥१७॥
काकुत्स्थ के महातेजस्वी पुत्र सुमति नाम से प्रसिद्ध हैं; जो परम कान्तिमान् एवं दुर्जय वीर हैं वे ही इस समय इस पुरी में निवास करते हैं।॥ १७॥
इक्ष्वाकोस्तु प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः।
दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः॥ १८॥
महाराज इक्ष्वाकु के प्रसाद से विशाला के सभी नरेश दीर्घायु, महात्मा, पराक्रमी और परम धार्मिक होते आये हैं॥ १८॥
इहाद्य रजनीमेकां सुखं स्वप्स्यामहे वयम्।
श्वः प्रभाते नरश्रेष्ठ जनकं द्रष्टुमर्हसि ॥१९॥
नरश्रेष्ठ! आज एक रात हम लोग यहीं सुखपूर्वक शयन करेंगे; फिर कल प्रातःकाल यहाँ से चलकर तुम मिथिला में राजा जनक का दर्शन करोगे॥ १९॥
सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम्।
श्रुत्वा नरवर श्रेष्ठः प्रत्यागच्छन्महायशाः॥२०॥
नरेशों में श्रेष्ठ, महातेजस्वी, महायशस्वी राजा सुमति विश्वामित्रजी को पुरी के समीप आया हुआ सुनकर उनकी अगवानी के लिये स्वयं आये॥ २० ॥
पूजां च परमां कृत्वा सोपाध्यायः सबान्धवः।
प्राञ्जलिः कुशलं पृष्ट्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥ २१॥
अपने पुरोहित और बन्धु-बान्धवों के साथ राजा ने विश्वामित्रजी की उत्तम पूजा करके हाथ जोड़ उनका कुशल-समाचार पूछा और उनसे इस प्रकार कहा -॥
धन्योऽस्म्यनगृहीतोऽस्मि यस्य मे विषयं मने।
सम्प्राप्तो दर्शनं चैव नास्ति धन्यतरो मम॥२२॥
‘मुने! मैं धन्य हूँ। आपका मुझ पर बड़ा अनुग्रह है; क्योंकि आपने स्वयं मेरे राज्य में पधारकर मुझे दर्शन दिया। इस समय मुझसे बढ़कर धन्य पुरुष दूसरा कोई नहीं है’ ॥ २२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तचत्वारिंशः सर्गः॥४७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४७॥
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