वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 49 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 49
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
एकोनपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 49)
(पितृ देवताओं द्वारा इन्द्र को भेड़े के अण्डकोष से युक्त करना तथा भगवान् श्रीराम के द्वारा अहल्या का उद्धार एवं उन दोनों दम्पति के द्वारा इनका सत्कार)
अफलस्तु ततः शक्रो देवानग्निपुरोगमान्।
अब्रवीत् त्रस्तनयनः सिद्धगन्धर्वचारणान्॥१॥
तदनन्तर इन्द्र अण्डकोष से रहित होकर बहुत डर गये। उनके नेत्रों में त्रास छा गया। वे अग्नि आदि देवताओं, सिद्धों, गन्धर्वो और चारणों से इस प्रकार बोले- ॥१॥
कुर्वता तपसो विनं गौतमस्य महात्मनः।
क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम्॥ २॥
‘देवताओ! महात्मा गौतम की तपस्या में विघ्न डालने के लिये मैंने उन्हें क्रोध दिलाया है। ऐसा करके मैंने यह देवताओं का कार्य ही सिद्ध किया है। २॥
अफलोऽस्मि कृतस्तेन क्रोधात् सा च निराकृता।
शापमोक्षेण महता तपोऽस्यापहृतं मया॥३॥
‘मनि ने क्रोधपूर्वक भारी शाप देकर मुझे अण्डकोष से रहित कर दिया और अपनी पत्नी का भी परित्याग कर दिया। इससे मेरे द्वारा उनकी तपस्या का अपहरण हुआ है॥
तन्मां सुरवराः सर्वे सर्षिसङ्गाः सचारणाः।
सरकार्यकरं यूयं सफलं कर्तुमर्हथ॥४॥
‘यदि मैं उनकी तपस्या में विघ्न नहीं डालता तो वे देवताओं का राज्य ही छीन लेते अतः ऐसा करके मैंने देवताओं का ही कार्य सिद्ध किया है। इसलिये श्रेष्ठ देवताओ! तुम सब लोग, ऋषिसमुदाय और चारणगण मिलकर मुझे अण्डकोष से युक्त करने का प्रयत्न करो’ ॥ ४॥
शतक्रतोर्वचः श्रुत्वा देवाः साग्निपुरोगमाः।
पितृदेवानुपेत्याहुः सर्वे सह मरुद्गणैः॥५॥
इन्द्रका यह वचन सुनकर मरुद्गणों सहित अग्नि आदि समस्त देवता कव्यवाहन आदि पितृदेवताओं के पास जाकर बोले- ॥ ५॥
अयं मेषः सवृषणः शक्रो ह्यवृषणः कृतः।
मेषस्य वृषणौ गृह्य शक्रायाशु प्रयच्छत॥६॥
‘पितृगण ! यह आपका भेड़ा अण्डकोष से युक्त है और इन्द्र अण्डकोष रहित कर दिये गये हैं। अतः इस भेड़े के दोनों अण्डकोषों को लेकर आप शीघ्र ही इन्द्र को अर्पित कर दें॥६॥
अफलस्तु कृतो मेषः परां तुष्टिं प्रदास्यति।
भवतां हर्षणार्थं च ये च दास्यन्ति मानवाः।
अक्षयं हि फलं तेषां यूयं दास्यथ पुष्कलम्॥७॥
‘अण्डकोष से रहित किया हुआ यह भेड़ा इसी स्थान में आप लोगों को परम संतोष प्रदान करेगा। अतः जो मनुष्य आपलोगों की प्रसन्नता के लिये अण्डकोषरहित भेड़ा दान करेंगे, उन्हें आप लोग उस दान का उत्तम एवं पूर्ण फल प्रदान करेंगे’ ॥ ७॥
अग्नेस्तु वचनं श्रुत्वा पितृदेवाः समागताः।
उत्पाट्य मेषवृषणौ सहस्राक्षे न्यवेशयन्॥८॥
अग्नि की यह बात सुनकर पितृदेवताओं ने एकत्र हो भेड़े के अण्डकोषों को उखाड़कर इन्द्र के शरीर में उचित स्थान पर जोड़ दिया॥ ८॥
तदाप्रभृति काकुत्स्थ पितृदेवाः समागताः।
अफलान् भुञ्जते मेषान् फलैस्तेषामयोजयन्॥
ककुत्स्थनन्दन श्रीराम! तभी से वहाँ आये हए समस्त पितृ-देवता अण्डकोषरहित भेड़ों को ही उपयोग में लाते हैं और दाताओं को उनके दान जनित फलों के भागी बनाते हैं॥९॥
इन्द्रस्तु मेषवृषणस्तदाप्रभृति राघव।
गौतमस्य प्रभावेण तपसा च महात्मनः॥१०॥
रघुनन्दन! उसी समय से महात्मा गौतम के तपस्याजनित प्रभाव से इन्द्र को भेड़ों के अण्डकोष धारण करने पड़े॥१०॥
तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मणः।
तारयैनां महाभागामहल्यां देवरूपिणीम्॥११॥
महातेजस्वी श्रीराम! अब तुम पुण्यकर्मा महर्षि गौतम के इस आश्रम पर चलो और इन देवरूपिणी महाभागा अहल्या का उद्धार करो॥ ११॥
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य आश्रमं प्रविवेश ह॥१२॥
विश्वामित्रजी का यह वचन सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने उन महर्षि को आगे करके उस आश्रम में प्रवेश किया॥ १२॥
ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम्।
लोकैरपि समागम्य दुर्निरीक्ष्यां सुरासुरैः ॥ १३॥
वहाँ जाकर उन्होंने देखा—महासौभाग्यशालिनी अहल्या अपनी तपस्या से देदीप्यमान हो रही हैं। इस लोक के मनुष्य तथा सम्पूर्ण देवता और असुर भी वहाँ आकर उन्हें देख नहीं सकते थे॥१३॥
प्रयत्नान्निर्मितां धात्रा दिव्यां मायामयीमिव।
धूमेनाभिपरीतांगी दीप्तामग्निशिखामिव॥१४॥
सतुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव।
मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्ता सूर्यप्रभामिव॥१५॥
उनका स्वरूप दिव्य था। विधाता ने बड़े प्रयत्न से उनके अंगों का निर्माण किया था। वे मायामयी-सी प्रतीत होती थीं। धूम से घिरी हुई प्रज्वलित अग्निशिखा-सी जान पड़ती थीं। ओले और बादलों से ढकी हुई पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा-सी दिखायी देती थीं तथा जल के भीतर उद्भासित होने वाली सूर्य की दुर्धर्ष प्रभा के समान दृष्टिगोचर होती थीं॥ १४-१५ ॥
सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह।
त्रयाणामपि लोकानां यावद् रामस्य दर्शनम्।
शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता॥१६॥
गौतम के शापवश श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन होने से पहले तीनों लोकों के किसी भी प्राणी के लिये उनका दर्शन होना कठिन था। श्रीराम का दर्शन मिल जाने से जब उनके शाप का अन्त हो गया, तब वे उन सबको दिखायी देने लगीं।
राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा।
स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ॥१७॥
पाद्यमर्थ्य तथाऽऽतिथ्यं चकार सुसमाहिता।
प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा॥१८॥
उस समय श्रीराम और लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अहल्या के दोनों चरणोंका स्पर्श किया। महर्षिगौतम के वचनों का स्मरण करके अहल्या ने बड़ी सावधानी के साथ उन दोनों भाइयों को आदरणीय अतिथि के रूपमें अपनाया और पाद्य, अर्घ्य आदि अर्पित करके उनका आतिथ्य-सत्कार किया। श्रीरामचन्द्रजी ने शास्त्रीय विधि के अनुसार अहल्या का वह आतिथ्य ग्रहण किया॥ १७-१८ ॥
पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद् देवदुन्दुभिनिःस्वनैः।
गन्धर्वाप्सरसां चैव महानासीत् समुत्सवः ॥१९॥
उस समय देवताओं की दुन्दुभि बज उठी। साथ ही आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। गन्धर्वो और अप्सराओं द्वारा महान् उत्सव मनाया जाने लगा॥ १९॥
साधु साध्विति देवास्तामहल्यां समपूजयन्।
तपोबलविशुद्धांगी गौतमस्य वशानुगाम्॥२०॥
महर्षि गौतम के अधीन रहने वाली अहल्या अपनी तपःशक्ति से विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त हुईं—यह देख सम्पूर्ण देवता उन्हें साधुवाद देते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥ २०॥
गौतमोऽपि महातेजा अहल्यासहितः सुखी।
रामं सम्पूज्य विधिवत् तपस्तेपे महातपाः॥२१॥
महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम भी अहल्या को अपने साथ पाकर सुखी हो गये। उन्होंने श्रीराम की विधिवत् पूजा करके तपस्या आरम्भ की॥ २१॥
रामोऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः।
सकाशाद् विधिवत् प्राप्य जगाम मिथिलां ततः॥२२॥
महामुनि गौतम की ओर से विधिपूर्वक उत्तम पूजा -आदर-सत्कार पाकर श्रीराम भी मुनिवर विश्वामित्रजी के साथ मिथिलापुरी को चले गये॥ २२ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः॥४९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४९॥
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