वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 52 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 52
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
द्विपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 52)
(महर्षि वसिष्ठ द्वारा विश्वामित्र का सत्कार और कामधेनु को अभीष्ट वस्तुओं की सृष्टि करने का आदेश)
तं दृष्ट्वा परमप्रीतो विश्वामित्रो महाबलः।
प्रणतो विनयाद वीरो वसिष्ठं जपतां वरम्॥१॥
‘जप करनेवालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ का दर्शन करके महाबली वीर विश्वामित्र बड़े प्रसन्न हुए और विनयपूर्वक उन्होंने उनके चरणों में प्रणाम किया॥१॥
स्वागतं तव चेत्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना।
आसनं चास्य भगवान् वसिष्ठो व्यादिदेश ह॥ २॥
‘तब महात्मा वसिष्ठ ने कहा—’राजन्! तुम्हारा स्वागत है।’ ऐसा कहकर भगवान् वसिष्ठ ने उन्हें बैठने के लिये आसन दिया॥२॥
उपविष्टाय च तदा विश्वामित्राय धीमते।
यथान्यायं मुनिवरः फलमूलमुपाहरत्॥३॥
‘जब बुद्धिमान् विश्वामित्र आसन पर विराजमान हुए, तब मुनिवर वसिष्ठ ने उन्हें विधिपूर्वक फलमूल का उपहार अर्पित किया॥३॥
प्रतिगृह्य तु तां पूजां वसिष्ठाद् राजसत्तमः।
तपोऽग्निहोत्रशिष्येषु कुशलं पर्यपृच्छत॥४॥
विश्वामित्रो महातेजा वनस्पतिगणे तदा।
सर्वत्र कुशलं प्राह वसिष्ठो राजसत्तमम्॥५॥
‘वसिष्ठजी से वह आतिथ्य-सत्कार ग्रहण करके राजशिरोमणि महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनके तप, अग्निहोत्र, शिष्यवर्ग और लता-वृक्ष आदिका कुशल समाचार पूछा, फिर वसिष्ठजी ने उन नृपश्रेष्ठ से सबके सकुशल होने की बात बतायी॥ ४-५॥
सुखोपविष्टं राजानं विश्वामित्रं महातपाः।
पप्रच्छ जपतां श्रेष्ठो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः॥६॥
‘फिर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्रह्मकुमार महातपस्वी वसिष्ठने वहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए राजा विश्वामित्रसे इस प्रकार पूछा- ॥६॥
कच्चित्ते कुशलं राजन् कच्चिद् धर्मेण रञ्जयन्।
प्रजाः पालयसे राजन् राजवृत्तेन धार्मिक॥७॥
‘राजन् ! तुम सकुशल तो हो न? धर्मात्मा नरेश! क्या तुम धर्मपूर्वक प्रजा को प्रसन्न रखते हुए राजोचित रीति-नीति से प्रजावर्ग का पालन करते हो?॥७॥
कच्चित्ते सम्भृता भृत्याः कच्चित् तिष्ठन्ति शासने।
कच्चित्ते विजिताः सर्वे रिपवो रिपुसूदन॥८॥
‘शत्रुसूदन! क्या तुमने अपने भृत्यों का अच्छी तरह भरण-पोषण किया है? क्या वे तुम्हारी आज्ञा के अधीन रहते हैं? क्या तुमने समस्त शत्रुओं पर विजय पा ली है?॥
कच्चिद् बलेषु कोशेषु मित्रेषु च परंतप।
कुशलं ते नरव्याघ्र पुत्रपौत्रे तथानघ॥९॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले पुरुषसिंह निष्पाप नरेश! क्या तुम्हारी सेना, कोश, मित्रवर्ग तथा पुत्रपौत्र आदि सब सकुशल हैं ?’ ॥९॥
सर्वत्र कुशलं राजा वसिष्ठं प्रत्युदाहरत्।
विश्वामित्रो महातेजा वसिष्ठं विनयान्वितम्॥ १०॥
‘तब महातेजस्वी राजा विश्वामित्र ने विनयशील महर्षि वसिष्ठ को उत्तर दिया—’हाँ भगवन् ! मेरे यहाँ सर्वत्र कुशल है?’ ॥ १०॥
कृत्वा तौ सुचिरं कालं धर्मिष्ठौ ताः कथास्तदा।
मुदा परमया युक्तौ प्रीयेतां तौ परस्परम्॥११॥
‘तत्पश्चात् वे दोनों धर्मात्मा पुरुष बड़ी प्रसन्नताके साथ बहुत देरतक परस्पर वार्तालाप करते रहे। उस समय एकका दूसरेके साथ बड़ा प्रेम हो गया॥ ११ ॥
ततो वसिष्ठो भगवान् कथान्ते रघुनन्दन।
विश्वामित्रमिदं वाक्यमुवाच प्रहसन्निव॥१२॥
‘रघुनन्दन! बातचीत करने के पश्चात् भगवान् वसिष्ठ ने विश्वामित्र से हँसते हुए-से इस प्रकार कहा – ॥१२॥
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि बलस्यास्य महाबल।
तव चैवाप्रमेयस्य यथार्ह सम्प्रतीच्छ मे॥१३॥
‘महाबली नरेश! तुम्हारा प्रभाव असीम है मैं तुम्हारा और तुम्हारी इस सेना का यथा योग्य आतिथ्यसत्कार करना चाहता हूँ तुम मेरे इस अनुरोध को स्वीकार करो॥ १३॥
सत्क्रियां हि भवानेतां प्रतीच्छतु मया कृताम्।
राजंस्त्वमतिथिश्रेष्ठः पूजनीयः प्रयत्नतः॥१४॥
‘राजन्! तुम अतिथियों में श्रेष्ठ हो, इसलिये यत्नपूर्वक तुम्हारा सत्कार करना मेरा कर्तव्य है अतः मेरे द्वारा किये गये इस सत्कार को तुम ग्रहण करो’ ॥ १४॥
एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महामतिः।
कृतमित्यब्रवीद् राजा पूजावाक्येन मे त्वया॥ १५॥
‘वसिष्ठ के ऐसा कहने पर महाबुद्धिमान् राजा विश्वामित्र ने कहा—’मुने! आपके सत्कारपूर्ण वचनों से ही मेरा पूर्ण सत्कार हो गया॥ १५ ॥
फलमूलेन भगवन् विद्यते यत् तवाश्रमे।
पाद्येनाचमनीयेन भगवदर्शनेन च ॥१६॥
‘भगवन् ! आपके आश्रम पर जो विद्यमान हैं, उन फल-मूल, पाद्य और आचमनीय आदि वस्तुओं से मेरा भलीभाँति आदर-सत्कार हुआ है। सबसे बढ़कर जो आपका दर्शन हुआ, इसी से मेरी पूजा हो गयी।१६॥
सर्वथा च महाप्राज्ञ पूजाहेण सुपूजितः।
नमस्तेऽस्तु गमिष्यामि मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा॥१७॥
‘महाज्ञानी महर्षे! आप सर्वथा मेरे पूजनीय हैं तो भी आपने मेरा भलीभाँति पूजन किया आपको नमस्कार है अब मैं यहाँ से जाऊँगा। आप मैत्रीपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखिये’ ॥ १७॥
एवं ब्रुवन्तं राजानं वसिष्ठं पुनरेव हि।
न्यमन्त्रयत धर्मात्मा पुनः पुनरुदारधीः॥१८॥
ऐसा कहते हुए राजा विश्वामित्र से उदारचेता धर्मात्मा वसिष्ठ ने निमन्त्रण स्वीकार करने के लिये बारम्बार आग्रह किया॥ १८ ॥
बाढमित्येव गाधेयो वसिष्ठं प्रत्युवाच ह।
यथाप्रियं भगवतस्तथास्तु मुनिपुंगव॥१९॥
तब गाधिनन्दन विश्वामित्र ने उन्हें उत्तर देते हुए कहा—’बहुत अच्छा,मुझे आपकी आज्ञा स्वीकार है। मुनिप्रवर! आप मेरे पूज्य हैं आपकी जैसी रुचि हो—आपको जो प्रिय लगे, वही हो’ ॥ १९॥
एवमुक्तस्तथा तेन वसिष्ठो जपतां वरः।
आजुहाव ततः प्रीतः कल्माषीं धूतकल्मषाम्॥ २०॥
‘राजा के ऐसा कहने पर जप करने वालों में श्रेष्ठ मुनिवर वसिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपनी उस चितकबरी होम-धेनु को बुलाया, जिसके पाप (अथवा मैल) धुल गये थे (वह कामधेनु थी) ॥ २० ॥
एह्येहि शबले क्षिप्रं शृणु चापि वचो मम।
सबलस्यास्य राजर्षेः कर्तुं व्यवसितोऽस्म्यहम्।
भोजनेन महार्हेण सत्कारं संविधत्स्व मे॥२१॥
(उसे बुलाकर ऋषिने कहा-) शबले! शीघ्र आओ, आओ और मेरी यह बात सुनो—मैंने सेनासहित इन राजर्षि का महाराजाओं के योग्य उत्तम भोजन आदिके द्वारा आतिथ्य-सत्कार करने का निश्चय किया है तुम मेरे इस मनोरथ को सफल करो॥ २१॥
यस्य यस्य यथाकामं षड्रसेष्वभिपूजितम्।
तत् सर्वं कामधुग् दिव्ये अभिवर्ष कृते मम॥ २२॥
‘षड्रस भोजनों मेंसे जिसको जो-जो पसंद हो, उसके लिये वह सब प्रस्तुत कर दो। दिव्य कामधेनो! आज मेरे कहने से इन अतिथियों के लिये अभीष्ट वस्तुओं की वर्षा करो॥ २२॥
रसेनान्नेन पानेन लेह्यचोष्येण संयुतम्।
अन्नानां निचयं सर्वं सृजस्व शबले त्वर ॥२३॥
‘शबले! सरस पदार्थ, अन्न, पान, लेह्य (चटनी आदि) और चोष्य (चूसने की वस्तु) से युक्त भाँतिभाँति के अन्नों की ढेरी लगा दो। सभी आवश्यक वस्तुओं की सृष्टि कर दो,शीघ्रता करो—विलम्ब न होने पावे’ ॥ २३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे द्विपञ्चाशः सर्गः॥५२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५२॥
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