वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 54 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 54
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
चतुःपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 54)
(विश्वामित्र का वसिष्ठजी की गौ को बलपूर्वक ले जाना, गौका दुःखी होकर वसिष्ठजी से इसका कारण पूछना, विश्वामित्रजी की सेना का संहार करना)
कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यजते मुनिः।
तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षत॥१॥
‘श्रीराम! जब वसिष्ठ मुनि किसी तरह भी उस कामधेनु गौको देने के लिये तैयार न हुए, तब राजा विश्वामित्र उस चितकबरे रंग की धेनु को बलपूर्वक घसीट ले चले॥१॥
नीयमाना तु शबला राम राज्ञा महात्मना।
दुःखिता चिन्तयामास रुदन्ती शोककर्शिता॥ २॥
‘रघुनन्दन! महामनस्वी राजा विश्वामित्र के द्वारा इस प्रकार ले जायी जाती हुई वह गौ शोकाकुल हो मन-ही-मन रो पड़ी और अत्यन्त दुःखित हो विचार करने लगी- ॥२॥
परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना।
याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेय भृशदुःखिता॥३॥
‘अहो! क्या महात्मा वसिष्ठ ने मुझे त्याग दिया है, जो ये राजा के सिपाही मुझ दीन और अत्यन्तदुःखिया गौ को इस तरह बलपूर्वक लिये जा रहे हैं? ॥३॥
किं मयापकृतं तस्य महर्षे वितात्मनः।
यन्मामनागसं दृष्ट्वा भक्तां त्यजति धार्मिकः॥४॥
‘पवित्र अन्तःकरण वाले उन महर्षि का मैंने क्या अपराध किया है कि वे धर्मात्मा मुनि मुझे निरपराध और अपना भक्त जानकर भी त्याग रहे हैं?’ ॥ ४॥
इति संचिन्तयित्वा तु निःश्वस्य च पुनः पुनः।
जगाम वेगेन तदा वसिष्ठं परमौजसम्॥५॥
निर्धूय तांस्तदा भृत्यान् शतशः शत्रुसूदन।
‘शत्रुसूदन! यह सोचकर वह गौ बारम्बार लंब साँस लेने लगी और राजा के उन सैकड़ों सेवकों को झटककर उस समय महातेजस्वी वसिष्ठ मुनि के पास बड़े वेग से जा पहुँची॥ ५ १/२ ॥
जगामानिलवेगेन पादमूलं महात्मनः॥६॥
शबला सा रुदन्ती च क्रोशन्ती चेदमब्रवीत्।
वसिष्ठस्याग्रतः स्थित्वा रुदन्ती मेघनिःस्वना॥ ७॥
‘वह शबला गौ वायु के समान वेग से उन महात्मा के चरणों के समीप गयी और उनके सामने खड़ी हो मेघ के समान गम्भीर स्वर से रोती-चीत्कार करती हुई उनसे इस प्रकार बोली- ॥६-७॥
भगवन् किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुत।
यस्माद् राजभटा मां हि नयन्ते त्वत्सकाशतः॥ ८॥
‘भगवन् ! ब्रह्मकुमार! क्या आपने मुझे त्याग दिया,जो ये राजा के सैनिक मुझे आपके पास से दूर लिये जा रहे हैं?’ ॥ ८॥
एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिरिदं वचनमब्रवीत्।
शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम्॥९॥
‘उसके ऐसा कहने पर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शोक से संतप्त हृदयवाली दुःखिया बहिन के समान उस गौ से इस प्रकार बोले- ॥९॥
न त्वां त्यजामि शबले नापि मेऽपकृतं त्वया।
एष त्वां नयते राजा बलान्मत्तो महाबलः॥१०॥
‘शबले! मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है,ये महाबली राजा अपने बल से मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं॥ १०॥
नहि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः।
बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च॥ ११॥
‘मेरा बल इनके समान नहीं है विशेषतःआजकल ये राजा के पदपर प्रतिष्ठित हैं। राजा, क्षत्रिय तथा इस पृथ्वी के पालक होने के कारण ये बलवान् हैं।॥ ११॥
इयमक्षौहिणी पूर्णा गजवाजिरथाकुला।
हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः॥१२॥
‘इनके पास हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई यह अक्षौहिणी सेना है, जिसमें हाथियों के हौदों पर लगे हुए ध्वज सब ओर फहरा रहे हैं। इस सेना के कारण भी ये मुझसे प्रबल हैं’ ॥ १२॥
एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत्।
वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिमतुलप्रभम्॥१३॥
‘वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर बातचीत के मर्म को समझने वाली उस कामधेनु ने उन अनुपम तेजस्वी ब्रह्मर्षि से यह विनययुक्त बात कही- ॥१३॥
न बलं क्षत्रियस्याहुर्ब्राह्मणा बलवत्तराः।
ब्रह्मन् ब्रह्मबलं दिव्यं क्षात्राच्च बलवत्तरम्॥ १४॥
“ब्रह्मन् ! क्षत्रिय का बल कोई बल नहीं है ब्राह्मण ही क्षत्रिय आदि से अधिक बलवान् होते हैं। ब्राह्मणका बल दिव्य है। वह क्षत्रिय-बल से अधिक प्रबल होता है।
अप्रमेयं बलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः।
विश्वामित्रो महावीर्यस्तेजस्तव दुरासदम्॥१५॥
“आपका बल अप्रमेय है। महापराक्रमी विश्वामित्र आपसे अधिक बलवान् नहीं हैं। आपका तेज दुर्धर्ष है॥ १५ ॥
नियुक्ष्व मां महातेजस्त्वं ब्रह्मबलसम्भृताम्।
तस्य दर्पं बलं यत्नं नाशयामि दुरात्मनः॥१६॥
“महातेजस्वी महर्षे! मैं आपके ब्रह्मबल से परिपुष्ट हुई हूँ अतः आप केवल मुझे आज्ञा दे दीजिये। मैं इस दुरात्मा राजा के बल, प्रयत्न और अभिमान को अभी चूर्ण किये देती हूँ’॥ १६ ॥
इत्युक्तस्तु तया राम वसिष्ठस्तु महायशाः।
सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलार्दनम्॥१७॥
‘श्रीराम! कामधेनु के ऐसा कहने पर महायशस्वी वसिष्ठ ने कहा—’इस शत्रु-सेना को नष्ट करने वाले सैनिकों की सृष्टि करो’ ॥ १७॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा।
तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पहलवाः शतशो नृप। १८॥
‘राजकुमार ! उनका वह आदेश सुनकर उस गौने उस समय वैसा ही किया। उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पह्नव जाति के वीर पैदा हो गये॥१८॥
नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्रस्य पश्यतः।
स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः॥१९॥
वे सब विश्वामित्र के देखते-देखते उनकी सारी सेना का नाश करने लगे। इससे राजा विश्वामित्र को बड़ा क्रोध हुआ वे रोष से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे॥ १९॥
पहलवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पलवान् शतशस्तदा॥ २०॥
भूय एवासृजद् घोरान् शकान् यवनमिश्रितान्।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः॥२१॥
‘उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकड़ों पहलवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुनः यवन मिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गयी॥ २०-२१॥
प्रभावद्भिर्महावीहेमकिंजल्कसंनिभैः।
तीक्ष्णासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः॥२२॥
निर्दग्धं तबलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः।
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह।
तैस्ते यवनकाम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः॥ २३॥
‘वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे। उनके शरीरकी कान्ति सुवर्ण तथा केसर के समान थी। वे सुनहरे वस्त्रों से अपने शरीर को ढंके हुए थे। उन्होंने हाथों में तीखे खड्ग और पट्टिश ले रखे थे। प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित होने वाले उन वीरों ने विश्वामित्र की सारी सेना को भस्म करना आरम्भ किया, तब महातेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत-से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, काम्बोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे’ ।। २२-२३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः॥५४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आपरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौवनवाँ सर्ग पूरा हुआ। ५४॥
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