वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 56 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 56
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
ट्पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 56)
(विश्वामित्र द्वारा वसिष्ठजी पर नाना प्रकार के दिव्यास्त्रों का प्रयोग,वसिष्ठ द्वारा ब्रह्मदण्ड से ही उनका शमन,विश्वामित्र का ब्राह्मणत्व की प्राप्ति के लिये तप करने का निश्चय)
एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महाबलः।
आग्नेयमस्त्रमुद्दिश्य तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत्॥१॥
वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर महाबली विश्वामित्र आग्नेयास्त्र लेकर बोले-‘अरे खड़ा रह, खड़ा रह’॥१॥
ब्रह्मदण्डं समुद्यम्य कालदण्डमिवापरम्।
वसिष्ठो भगवान् क्रोधादिदं वचनमब्रवीत्॥२॥
उस समय द्वितीय कालदण्ड के समान ब्रह्मदण्ड को उठाकर भगवान् वसिष्ठ ने क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा -२॥
क्षत्रबन्धो स्थितोऽस्म्येष यद् बलं तद् विदर्शय।
नाशयाम्यद्य ते दर्प शस्त्रस्य तव गाधिज॥३॥
‘क्षत्रियाधम! ले, यह मैं खड़ा हूँ तेरे पास जो बल हो, उसे दिखा। गाधिपुत्र! आज तेरे अस्त्रशस्त्रों के ज्ञान का घमंड मैं अभी धूल में मिला दूंगा। ३॥
क्व च ते क्षत्रियबलं क्व च ब्रह्मबलं महत्।
पश्य ब्रह्मबलं दिव्यं मम क्षत्रियपांसन॥४॥
‘क्षत्रियकुलकलङ्क ! कहाँ तेरा क्षात्रबल और कहाँ महान् ब्रह्मबल। मेरे दिव्य ब्रह्मबल को देख ले’ ॥ ४ ॥
तस्यास्त्रं गाधिपुत्रस्य घोरमाग्नेयमुत्तमम्।
ब्रह्मदण्डेन तच्छान्तमग्नेर्वेग इवाम्भसा॥५॥
गाधिपुत्र विश्वामित्र का वह उत्तम एवं भयंकर आग्नेयास्त्र वसिष्ठजी के ब्रह्मदण्ड से उसी प्रकार शान्त हो गया, जैसे पानी पड़ने से जलती हुई आग का वेग॥
वारुणं चैव रौद्रं च ऐन्द्रं पाशुपतं तथा।
ऐषीकं चापि चिक्षेप कुपितो गाधिनन्दनः॥६॥
तब गाधिपुत्र विश्वामित्र ने कुपित होकर वारुण, रौद्र, ऐन्द्र, पाशुपत और ऐषीक नामक अस्त्रों का प्रयोग किया।
मानवं मोहनं चैव गान्धर्वं स्वापनं तथा।
जृम्भणं मादनं चैव संतापनविलापने॥७॥
शोषणं दारणं चैव वज्रमस्त्रं सुदुर्जयम्।
ब्रह्मपाशं कालपाशं वारुणं पाशमेव च॥८॥
पिनाकमस्त्रं दयितं शुष्काइँ अशनी तथा।
दण्डास्त्रमथ पैशाचं क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च॥९॥
धर्मचक्रं कालचक्रं विष्णुचक्रं तथैव च।
वायव्यं मथनं चैव अस्त्रं हयशिरस्तथा ॥१०॥
शक्तिद्वयं च चिक्षेप कङ्कालं मुसलं तथा।
वैद्याधरं महास्त्रं च कालास्त्रमथ दारुणम्॥ ११॥
त्रिशूलमस्त्रं घोरं च कापालमथ कङ्कणम्।
एतान्यस्त्राणि चिक्षेप सर्वाणि रघुनन्दन ॥१२॥
रघुनन्दन! उसके पश्चात् क्रमशः मानव, मोहन, गान्धर्व, स्वापन, जृम्भण, मादन, संतापन, विलापन, शोषण, विदारण, सुदुर्जय वज्रास्त्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वारुणपाश, परमप्रिय पिनाकास्त्र, सूखी गीली दो प्रकारकी अशनि, दण्डास्त्र, पैशाचास्त्र, क्रौञ्चास्त्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्यास्त्र, मन्थनास्त्र, हयशिरा, दो प्रकार की शक्ति, कङ्काल, मूसल, महान् वैद्याधरास्त्र, दारुण कालास्त्र, भयंकर त्रिशूलास्त्र, कापालास्त्र और कङ्कणास्त्र—ये सभी अस्त्र उन्होंने वसिष्ठजी के ऊपर चलाये। ७– १२॥
वसिष्ठे जपतां श्रेष्ठे तदद्भुतमिवाभवत्।
तानि सर्वाणि दण्डेन ग्रसते ब्रह्मणः सुतः॥१३॥
जपने वालों में श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठ पर इतने अस्त्रों का प्रहार वह एक अद्भुत-सी घटना थी, परंतु ब्रह्मा के पुत्र वसिष्ठजी ने उन सभी अस्त्रों को केवल अपने डंडे से ही नष्ट कर दिया॥१३॥
तेषु शान्तेषु ब्रह्मास्त्रं क्षिप्तवान् गाधिनन्दनः।
तदस्त्रमुद्यतं दृष्ट्वा देवाः साग्निपुरोगमाः॥१४॥
देवर्षयश्च सम्भ्रान्ता गन्धर्वाः समहोरगाः।
त्रैलोक्यमासीत् संत्रस्तं ब्रह्मास्त्रे समुदीरिते॥ १५॥
उन सब अस्त्रों के शान्त हो जाने पर गाधिनन्दन विश्वामित्र ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया ब्रह्मास्त्र को उद्यत देख अग्नि आदि देवता, देवर्षि, गन्धर्व और बड़े-बड़े नाग भी दहल गये, ब्रह्मास्त्र के ऊपर उठते ही तीनों लोकों के प्राणी थर्रा उठे॥१४-१५॥
तदप्यस्त्रं महाघोरं ब्राह्मं ब्राह्मण तेजसा।
वसिष्ठो ग्रसते सर्वं ब्रह्मदण्डेन राघव॥१६॥
राघव! वसिष्ठजी ने अपने ब्रह्म तेज के प्रभाव से उस महाभयंकर ब्रह्मास्त्र को भी ब्रह्मदण्ड के द्वारा ही शान्त कर दिया॥१६॥
ब्रह्मास्त्रं ग्रसमानस्य वसिष्ठस्य महात्मनः।
त्रैलोक्यमोहनं रौद्रं रूपमासीत् सुदारुणम्॥१७॥
उस ब्रह्मास्त्र को शान्त करते समय महात्मा वसिष्ठ का वह रौद्ररूप तीनों लोकों को मोह में डालने वाला और अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। १७॥
रोमकूपेषु सर्वेषु वसिष्ठस्य महात्मनः ।
मरीच्य इव निष्पेतुरग्ने माकुलार्चिषः॥१८॥
महात्मा वसिष्ठ के समस्त रोमकूपों में से किरणों की भाँति धूमयुक्त आग की लपटें निकलने लगीं॥ १८॥
प्राज्वलद् ब्रह्मदण्डश्च वसिष्ठस्य करोद्यतः।
विधूम इव कालाग्नेर्यमदण्ड इवापरः॥१९॥
वसिष्ठजी के हाथ में उठा हुआ द्वितीय यमदण्ड के समान वह ब्रह्मदण्ड धूमरहित कालाग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था॥ १९ ॥
ततोऽस्तुवन् मुनिगणा वसिष्ठं जपतां वरम्।
अमोघं ते बलं ब्रह्मस्तेजो धारय तेजसा॥२०॥
उस समय समस्त मुनिगण मन्त्र जपने वालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि की स्तुति करते हुए बोले—’ब्रह्मन् ! आपका बल अमोघ है। आप अपने तेज को अपनी ही शक्ति से समेट लीजिये॥ २० ॥
निगृहीतस्त्वया ब्रह्मन् विश्वामित्रो महाबलः।
अमोघं ते बलं श्रेष्ठ लोकाः सन्तु गतव्यथाः॥ २१॥
‘महाबली विश्वामित्र आपसे पराजित हो गये। मुनिश्रेष्ठ! आपका बल अमोघ है। अब आप शान्त हो जाइये, जिससे लोगोंकी व्यथा दूर हो’ ॥ २१॥
एवमुक्तो महातेजाः शमं चक्रे महाबलः।
विश्वामित्रो विनिकृतो विनिःश्वस्येदमब्रवीत्॥ २२॥
महर्षियों के ऐसा कहने पर महातेजस्वी महाबली वसिष्ठजी शान्त हो गये और पराजित विश्वामित्र लम्बी साँस खींचकर यों बोले- ॥ २२ ॥
धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे ॥२३॥
‘क्षत्रिय के बल को धिक्कार है। ब्रह्मतेज से प्राप्त होने वाला बल ही वास्तव में बल है; क्योंकि आज एक ब्रह्मदण्ड ने मेरे सभी अस्त्र नष्ट कर दिये॥२३॥
तदेतत् प्रसमीक्ष्याहं प्रसन्नेन्द्रियमानसः।
तपो महत् समास्थास्ये यद् वै ब्रह्मत्वकारणम्॥ २४॥
‘इस घटना को प्रत्यक्ष देखकर अब मैं अपने मन और इन्द्रियों को निर्मल करके उस महान् तप का अनुष्ठान करूँगा, जो मेरे लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति का कारण होगा’ ॥ २४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः॥५६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५६॥