वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 57 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 57
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
सप्तपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 57)
(विश्वामित्र की तपस्या, राजा त्रिशंकु का यज्ञ के लिये वसिष्ठजी से प्रार्थना करना,उनके इन्कार करने पर उन्हीं के पुत्रों की शरण में जाना)
ततः संतप्तहृदयः स्मरन्निग्रहमात्मनः।
विनिःश्वस्य विनिःश्वस्य कृतवैरो महात्मना॥१॥
स दक्षिणां दिशं गत्वा महिष्या सह राघव।
तताप परमं घोरं विश्वामित्रो महातपाः॥२॥
श्रीराम! तदनन्तर विश्वामित्र अपनी पराजय को याद करके मन-ही-मन संतप्त होने लगे। महात्मा वसिष्ठ के साथ वैर बाँधकर महातपस्वी विश्वामित्र बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुए अपनी रानी के साथ दक्षिण दिशा में जाकर अत्यन्त उत्कृष्ट एवं भयंकर तपस्या करने लगे॥ १-२॥
फलमूलाशनो दान्तश्चचार परमं तपः।
अथास्य जज्ञिरे पुत्राः सत्यधर्मपरायणाः॥३॥
हविष्पन्दो मधुष्पन्दो दृढनेत्रो महारथः।
वहाँ मन और इन्द्रियों को वश में करके वे फलमूल का आहार करते तथा उत्तम तपस्या में लगे रहते थे। वहीं उनके हविष्पन्द, मधुष्पन्द, दृढनेत्र और महारथ नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सत्य और धर्म में तत्पर रहने वाले थे॥ ३ १/२ ॥
पूर्णे वर्षसहस्रे तु ब्रह्मा लोकपितामहः॥४॥
अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम्।
जिता राजर्षिलोकास्ते तपसा कुशिकात्मज॥५॥
अनेन तपसा त्वां हि राजर्षिरिति विद्महे।
एक हजार वर्ष पूरे हो जानेपर लोकपितामह ब्रह्माजी ने तपस्या के धनी विश्वामित्र को दर्शन देकर मधुर वाणी में कहा—’कुशिकनन्दन! तुमने तपस्या के द्वारा राजर्षियों के लोकों पर विजय पायी है। इस तपस्या के प्रभाव से हम तुम्हें सच्चा राजर्षि समझते हैं’॥ ४-५ १/२॥
एवमुक्त्वा महातेजा जगाम सह दैवतैः॥६॥
त्रिविष्टपं ब्रह्मलोकं लोकानां परमेश्वरः।
यह कहकर सम्पूर्ण लोकों के स्वामी ब्रह्माजी देवताओं के साथ स्वर्गलोक होते हुए ब्रह्मलोक को चले गये॥ ६ १/२॥
विश्वामित्रोऽपि तच्छत्वा ह्रिया किंचिदवाङ्मखः॥ ७॥
दुःखेन महताविष्टः समन्युरिदमब्रवीत्।
तपश्च सुमहत् तप्तं राजर्षिरिति मां विदुः ॥८॥
देवाः सर्षिगणाः सर्वे नास्ति मन्ये तपः फलम्।
उनकी बात सुनकर विश्वामित्र का मुख लज्जा से कुछ झुक गया। वे बड़े दुःख से व्यथित हो दीनतापूर्वक मन-ही-मन यों कहने लगे—’अहो! मैंने इतना बड़ा तप किया तो भी ऋषियों सहित सम्पूर्ण देवता मुझे राजर्षि ही समझते हैं मालूम होता है, इस तपस्या का कोई फल नहीं हुआ’। ७-८ १/२॥
एवं निश्चित्य मनसा भूय एव महातपाः॥९॥
तपश्चचार धर्मात्मा काकुत्स्थ परमात्मवान्।
श्रीराम! मन में ऐसा सोचकर अपने मन को वश में रखने वाले महातपस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र पुनः भारी तपस्या में लग गये॥९ १/२॥
एतस्मिन्नेव काले तु सत्यवादी जितेन्द्रियः॥ १०॥
त्रिशङ्करिति विख्यात इक्ष्वाकुकुलवर्धनः।
इसी समय इक्ष्वाकुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले एक सत्यवादी और जितेन्द्रिय राजा राज्य करते थे। उनका नाम था त्रिशंकु ॥ १० १/२ ॥
तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना यजेयमिति राघव॥११॥
गच्छेयं स्वशरीरेण देवतानां परां गतिम्।
रघुनन्दन! उनके मन में यह विचार हुआ कि ‘मैं ऐसा कोई यज्ञ करूँ, जिससे अपने इस शरीर के साथ ही देवताओं की परम गति—स्वर्गलोक को जा पहुँचूँ’ ॥
वसिष्ठं स समाहृय कथयामास चिन्तितम्॥१२॥
अशक्यमिति चाप्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना।।
तब उन्होंने वसिष्ठजी को बुलाकर अपना यह विचार उन्हें कह सुनाया। महात्मा वसिष्ठ ने उन्हें बताया कि ‘ऐसा होना असम्भव है’ ।। १२ १/२।।
प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन स ययौ दक्षिणां दिशम्॥ १३॥
ततस्तत्कर्मसिद्ध्यर्थं पुत्रांस्तस्य गतो नृपः।
जब वसिष्ठ ने उन्हें कोरा उत्तर दे दिया, तब वे राजा उस कर्म की सिद्धि के लिये दक्षिण दिशा में उन्हीं के पुत्रों के पास चले गये। १३ १/२ ।।
वासिष्ठा दीर्घतपसस्तपो यत्र हि तेपिरे॥१४॥
त्रिशङ्कस्तु महातेजाः शतं परमभास्वरम्।।
वसिष्ठपुत्रान् ददृशे तप्यमानान् मनस्विनः॥१५॥
वसिष्ठजी के वे पुत्र जहाँ दीर्घकाल से तपस्या में प्रवृत्त होकर तप करते थे, उस स्थानपर पहुँचकर महातेजस्वी त्रिशंकु ने देखा कि मन को वश में रखने वाले वे सौ परमतेजस्वी वसिष्ठकुमार तपस्या में संलग्न हैं॥
सोऽभिगम्य महात्मानः सर्वानेव गुरोः सुतान्।
अभिवाद्यानुपूर्वेण ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः॥१६॥
अब्रवीत् स महात्मानः सर्वानेव कृताञ्जलिः।
उन सभी महात्मा गुरुपुत्रों के पास जाकर उन्होंने क्रमशः उन्हें प्रणाम किया और लज्जा से अपने मुख को कुछ नीचा किये हाथ जोड़कर उन सब महात्माओं से कहा- ॥ १६ १/२ ॥
शरणं वः प्रपन्नोऽहं शरण्यान् शरणं गतः॥ १७॥
प्रत्याख्यातो हि भद्रं वो वसिष्ठेन महात्मना।
यष्टकामो महायज्ञं तदनुज्ञातुमर्हथ॥१८॥
‘गुरुपुत्रो! आप शरणागतवत्सल हैं। मैं आप लोगों की शरण में आया हूँ, आपका कल्याण हो। महात्मा वसिष्ठ ने मेरा यज्ञ कराना अस्वीकार कर दिया है। मैं एक महान् यज्ञ करना चाहता हूँ। आप लोग उसके लिये आज्ञा दें॥१७-१८॥
गुरुपुत्रानहं सर्वान् नमस्कृत्य प्रसादये।
शिरसा प्रणतो याचे ब्राह्मणांस्तपसि स्थितान्॥ १९॥
ते मां भवन्तः सिद्ध्यर्थं याजयन्तु समाहिताः।
सशरीरो यथाहं वै देवलोकमवाप्नुयाम्॥२०॥
‘मैं समस्त गुरुपुत्रों को नमस्कार करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप लोग तपस्या में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण हैं। मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह याचना करता हूँ कि आप लोग
एकाग्रचित्त हो मुझसे मेरी अभीष्टसिद्धि के लिये ऐसा कोई यज्ञ करावें, जिससे मैं इस शरीर के साथ ही देवलोक में जा सकूँ॥ १९-२०॥
प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन गतिमन्यां तपोधनाः।
गुरुपुत्रानृते सर्वान् नाहं पश्यामि कांचन॥२१॥
‘तपोधनो! महात्मा वसिष्ठ के अस्वीकार कर देने पर अब मैं अपने लिये समस्त गुरुपुत्रों की शरण में जाने के सिवा दूसरी कोई गति नहीं देखता॥ २१ ॥
इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः।
तस्मादनन्तरं सर्वे भवन्तो दैवतं मम॥२२॥
‘समस्त इक्ष्वाकुवंशियों के लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परमगति हैं। उनके बाद आप सब लोग ही मेरे परम देवता हैं’॥ २२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः॥५७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५७॥
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