वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 58 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 58
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
अष्टपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 58)
(वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों का त्रिशंकु को शाप-प्रदान, उनके शाप से चाण्डाल हुए त्रिशंकु का विश्वामित्रजी की शरण में जाना)
ततस्त्रिशङ्कोर्वचनं श्रुत्वा क्रोधसमन्वितम्।
ऋषिपुत्रशतं राम राजानमिदमब्रवीत्॥१॥
प्रत्याख्यातोऽसि दुर्मेधो गुरुणा सत्यवादिना।
तं कथं समतिक्रम्य शाखान्तरमुपेयिवान्॥२॥
रघुनन्दन! राजा त्रिशंकु का यह वचन सुनकर वसिष्ठ मुनि के वे सौ पुत्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले- ‘दुर्बुद्धे ! तुम्हारे सत्यवादी गुरु ने जब तुम्हें मना कर दिया है, तब तुमने उनका उल्लङ्घन करके दूसरी शाखा का आश्रय कैसे लिया? ॥ १-२॥
इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः।
न चातिक्रमितुं शक्यं वचनं सत्यवादिनः॥३॥
‘समस्त इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों के लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परमगति हैं। उन सत्यवादी महात्मा की बात को कोई अन्यथा नहीं कर सकता॥३॥
अशक्यमिति सोवाच वसिष्ठो भगवानृषिः।
तं वयं वै समाहर्तुं क्रतुं शक्ताः कथंचन॥४॥
‘जिस यज्ञ कर्म को उन भगवान् वसिष्ठमुनि ने असम्भव बताया है, उसे हम लोग कैसे कर सकते हैं॥४॥
बालिशस्त्वं नरश्रेष्ठ गम्यतां स्वपुरं पुनः।
याजने भगवान् शक्तस्त्रैलोक्यस्यापि पार्थिव॥
अवमानं कथं कर्तुं तस्य शक्ष्यामहे वयम्।
‘नरश्रेष्ठ ! तुम अभी नादान हो, अपने नगर को लौट जाओ। पृथ्वीनाथ! भगवान् वसिष्ठ तीनों लोकों का यज्ञ कराने में समर्थ हैं, हम लोग उनका अपमान कैसे कर सकेंगे’॥ ५ १/२॥
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा क्रोधपर्याकुलाक्षरम्॥६॥
स राजा पुनरेवैतानिदं वचनमब्रवीत्।
प्रत्याख्यातो भगवता गुरुपुत्रैस्तथैव हि ॥७॥
अन्यां गतिं गमिष्यामि स्वस्ति वोऽस्तु तपोधनाः।
गुरुपुत्रों का वह क्रोधयुक्त वचन सुनकर राजा त्रिशंकु ने पुनः उनसे इस प्रकार कहा—’तपोधनो! भगवान् वसिष्ठ ने तो मुझे ठुकरा ही दिया था, आप गुरुपुत्र गण भी मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार कर रहे हैं; अतः आपका कल्याण हो, अब मैं दूसरे किसी की शरण में जाऊँगा’॥
ऋषिपुत्रास्तु तच्छ्रुत्वा वाक्यं घोराभिसंहितम्॥ ८ ॥
शेपुः परमसंक्रुद्धाश्चण्डालत्वं गमिष्यसि।
इत्युक्त्वा ते महात्मानो विविशुः स्वं स्वमाश्रमम्॥ ९॥
त्रिशंकु का यह घोर अभिसंधिपूर्ण वचन सुनकर महर्षि के पुत्रों ने अत्यन्त कुपित हो उन्हें शाप दे दिया —’अरे! जा तू चाण्डाल हो जायगा।’ ऐसा कहकर वे महात्मा अपने-अपने आश्रम में प्रविष्ट हो गये॥ ८-९॥
अथ रात्र्यां व्यतीतायां राजा चण्डालतां गतः।
नीलवस्त्रधरो नीलः पुरुषो ध्वस्तमूर्धजः॥१०॥
चित्यमाल्यांगरागश्च आयसाभरणोऽभवत्।
तदनन्तर रात व्यतीत होते ही राजा त्रिशंकु चाण्डाल हो गये। उनके शरीर का रंग नीला हो गया। कपड़े भी नीले हो गये। प्रत्येक अंग में रुक्षता आ गयी। सिर के बाल छोटे-छोटे हो गये। सारे शरीर में चिता की राख-सी लिपट गयी। विभिन्न अंगों में यथास्थान लोहे के गहने पड़ गये॥ १० १/२ ॥
तं दृष्ट्वा मन्त्रिणः सर्वे त्यज्य चण्डालरूपिणम्॥ ११॥
प्राद्रवन सहिता राम पौरा येऽस्यानुगामिनः।
एको हि राजा काकुत्स्थ जगाम परमात्मवान्॥ १२॥
दह्यमानो दिवारानं विश्वामित्रं तपोधनम्।
श्रीराम! अपने राजा को चाण्डाल के रूप में देखकर सब मन्त्री और पुरवासी जो उनके साथ आये थे, उन्हें छोड़कर भाग गये। ककुत्स्थनन्दन! वे धीरस्वभाव नरेश दिन-रात चिन्ता की आग में जलने लगे और अकेले ही तपोधन विश्वामित्र की शरण में गये॥११-१२ १/२॥
विश्वामित्रस्तु तं दृष्ट्वा राजानं विफलीकृतम्॥ १३॥
चण्डालरूपिणं राम मुनिः कारुण्यमागतः।
कारुण्यात् स महातेजा वाक्यं परमधार्मिकः॥ १४॥
इदं जगाद भद्रं ते राजानं घोरदर्शनम्।
किमागमनकार्यं ते राजपुत्र महाबल॥१५॥
अयोध्याधिपते वीर शापाच्चण्डालतां गतः।
श्रीराम ! विश्वामित्र ने देखा राजा का जीवन निष्फल हो गया है। उन्हें चाण्डाल के रूपमें देखकर उन महातेजस्वी परम धर्मात्मा मुनि के हृदय में करुणा भर आयी। वे दया से द्रवित होकर भयंकर दिखायी देने वाले राजा त्रिशंकु से इस प्रकार बोले—’महाबली राजकुमार! तुम्हारा भला हो, यहाँ किस काम से तुम्हारा आना हुआ है। वीर अयोध्यानरेश! जान पड़ता है तुम शाप से चाण्डाल भाव को प्राप्त हुए हो’॥ १३–१५ १/२॥
अथ तदाक्यमाकर्ण्य राजा चण्डालतां गतः॥ १६॥
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम्।
विश्वामित्र की बात सुनकर चाण्डालभाव को प्राप्त हुए और वाणी के तात्पर्य को समझने वाले राजा त्रिशंकु ने हाथ जोड़कर वाक्यार्थ कोविद विश्वामित्र मुनि से इस प्रकार कहा— ॥ १६ १/२ ॥
प्रत्याख्यातोऽस्मि गुरुणा गुरुपुत्रैस्तथैव च॥ १७॥
अनवाप्यैव तं कामं मया प्राप्तो विपर्ययः।
‘महर्षे! मुझे गुरु तथा गुरुपुत्रों ने ठुकरा दिया। मैं जिस मनोऽभीष्ट वस्तु को पाना चाहता था, उसे न पाकर इच्छा के विपरीत अनर्थ का भागी हो गया। १७ १/२॥
सशरीरो दिवं यायामिति मे सौम्यदर्शन॥१८॥
मया चेष्टं क्रतुशतं तच्च नावाप्यते फलम्।
‘सौम्यदर्शन मुनीश्वर! मैं चाहता था कि इसी शरीर से स्वर्ग को जाऊँ, परंतु यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। मैंने सैकड़ों यज्ञ किये हैं; किंतु उनका भी कोई फल नहीं मिल रहा है॥ १८ १/२॥
अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन ॥१९॥
कृच्छ्रेष्वपि गतः सौम्य क्षत्रधर्मेण ते शपे।
‘सौम्य! मैं क्षत्रिय धर्म की शपथ खाकर आपसे कहता हूँ कि बड़े-से-बड़े सङ्कट में पड़ने पर भी न तो पहले कभी मैंने मिथ्या भाषण किया है और न भविष्य में ही कभी करूँगा। १९ १/२॥
यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं प्रजा धर्मेण पालिताः॥२०॥
गुरवश्च महात्मानः शीलवृत्तेन तोषिताः।
धर्मे प्रयतमानस्य यज्ञं चाहर्तुमिच्छतः॥ २१॥
परितोषं न गच्छन्ति गुरवो मुनिपुंगव।
दैवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम्॥२२॥
‘मैंने नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान किया, प्रजाजनों की धर्मपूर्वक रक्षा की और शील एवं सदाचार के द्वारा महात्माओं तथा गुरुजनों को संतुष्ट रखने का प्रयास किया। इस समय भी मैं यज्ञ करना चाहता था; अतः मेरा यह प्रयत्न धर्म के लिये ही था। मुनिप्रवर! तो भी मेरे गुरुजन मुझ पर संतुष्ट न हो सके। यह देखकर मैं दैव को ही बड़ा मानता हूँ पुरुषार्थ तो निरर्थक जान पड़ता है। २०–२२ ॥
दैवेनाक्रम्यते सर्वं दैवं हि परमा गतिः।
तस्य मे परमार्तस्य प्रसादमभिकांक्षतः।
कर्तुमर्हसि भद्रं ते दैवोपहतकर्मणः॥२३॥
‘दैव सबपर आक्रमण करता है। दैव ही सबकी परमगति है। मुने! मैं अत्यन्त आर्त होकर आपकी कृपा चाहता हूँ। दैव ने मेरे पुरुषार्थ को दबा दिया है। आपका भला हो। आप मुझपर अवश्य कृपा करें।२३॥
नान्यां गतिं गमिष्यामि नान्यच्छरणमस्ति मे।
दैवं पुरुषकारेण निवर्तयितुमर्हसि ॥२४॥
‘अब मैं आपके सिवा दूसरे किसी की शरण में नहीं जाऊँगा। दूसरा कोई मुझे शरण देने वाला है भी नहीं। आप ही अपने पुरुषार्थ से मेरे दुर्दैव को पलट सकते हैं ॥२४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डेऽष्टपञ्चाशः सर्गः॥५८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ।५८॥
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