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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 59 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 59

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
एकोनषष्टितमः सर्गः(सर्ग 59)

 

(विश्वामित्र का त्रिशंकु का यज्ञ कराने के लिये ऋषिमुनियों को आमन्त्रित करना और उनकी बात न मानने वाले महोदय तथा ऋषिपुत्रों को शाप देकर नष्ट करना)

 

उक्तवाक्यं तु राजानं कृपया कुशिकात्मजः।
अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साक्षाच्चण्डालतां गतम्॥

[शतानन्दजी कहते हैं- श्रीराम!] साक्षात् चाण्डाल के स्वरूप को प्राप्त हुए राजा त्रिशंकु के पूर्वोक्त वचन को सुनकर कुशिकनन्दन विश्वामित्रजी ने दया से द्रवित होकर उनसे मधुर वाणीमें कहा— ॥१॥

इक्ष्वाको स्वागतं वत्स जानामि त्वां सुधार्मिकम्।
शरणं ते प्रदास्यामि मा भैषीनूपपुंगव॥२॥

‘वत्स! इक्ष्वाकुकुलनन्दन! तुम्हारा स्वागत है, मैं जानता हूँ, तुम बड़े धर्मात्मा हो। नृपप्रवर! डरो मत, मैं तुम्हें शरण दूंगा॥२॥

अहमामन्त्रये सर्वान् महर्षीन् पुण्यकर्मणः।
यज्ञसाह्यकरान् राजंस्ततो यक्ष्यसि निर्वृतः॥३॥

‘राजन्! तुम्हारे यज्ञ में सहायता करने वाले समस्त पुण्यकर्मा महर्षियों को मैं आमन्त्रित करता हूँ फिर तुम आनन्दपूर्वक यज्ञ करना॥३॥

गुरुशापकृतं रूपं यदिदं त्वयि वर्तते।
अनेन सह रूपेण सशरीरो गमिष्यसि॥४॥
हस्तप्राप्तमहं मन्ये स्वर्गं तव नराधिप।
यस्त्वं कौशिकमागम्य शरण्यं शरणागतः॥५॥

‘गुरु के शाप से तुम्हें जो यह नवीन रूप प्राप्त हुआ है इसके साथ ही तुम सदेह स्वर्गलोक को जाओगे। नरेश्वर! तुम जो शरणागतवत्सल विश्वामित्र की शरण में आ गये, इससे मैं यह समझता हूँ कि स्वर्गलोक तुम्हारे हाथ में आ गया है’॥ ४-५॥

एवमुक्त्वा महातेजाः पुत्रान् परमधार्मिकान्।
व्यादिदेश महाप्राज्ञान् यज्ञसम्भारकारणात्॥६॥

ऐसा कहकर महातेजस्वी विश्वामित्र ने अपने परम धर्मपरायण महाज्ञानी पुत्रों को यज्ञ की सामग्री जुटाने की आज्ञा दी॥६॥

सर्वान् शिष्यान् समाहूय वाक्यमेतदुवाच ह।
सर्वानृषीन् सवासिष्ठानानयध्वं ममाज्ञया॥७॥
सशिष्यान् सुहृदश्चैव सर्विजः सुबहुश्रुतान्।

तत्पश्चात् समस्त शिष्यों को बुलाकर उनसे यह बात कही—’तुम लोग मेरी आज्ञा से अनेक विषयों के ज्ञाता समस्त ऋषि-मुनियों को, जिनमें वसिष्ठ के पुत्र भी सम्मिलित हैं, उनके शिष्यों, सुहृदों तथा ऋत्विजों सहित बुला लाओ॥ ७ १/२॥

यदन्यो वचनं ब्रूयान्मवाक्यबलचोदितः॥८॥
तत् सर्वमखिलेनोक्तं ममाख्येयमनादृतम्।

‘जिसे मेरा संदेश देकर बुलाया गया हो वह अथवा दूसरा कोई यदि इस यज्ञ के विषय में कोई अवहेलनापूर्ण बात कहे तो तुम लोग वह सब पूरा-पूरा मुझसे आकर कहना’ ॥ ८ १/२॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा दिशो जग्मुस्तदाज्ञया॥
आजग्मुरथ देशेभ्यः सर्वेभ्यो ब्रह्मवादिनः।
ते च शिष्याः समागम्य मुनिं ज्वलिततेजसम्॥ १०॥
ऊचुश्च वचनं सर्वं सर्वेषां ब्रह्मवादिनाम्।

उनकी आज्ञा मानकर सभी शिष्य चारों दिशाओं में चले गये। फिर तो सब देशों से ब्रह्मवादी मुनि आने लगे। विश्वामित्र के वे शिष्य उन प्रज्वलित तेज वाले महर्षि के पास सबसे पहले लौट आये और समस्त ब्रह्मवादियों ने जो बातें कही थीं, उन्हें सबने विश्वामित्रजी से कह सुनाया।

श्रुत्वा ते वचनं सर्वे समायान्ति द्विजातयः॥११॥
सर्वदेशेषु चागच्छन् वर्जयित्वा महोदयम्।।

वे बोले—’गुरुदेव! आपका आदेश या संदेश सुनकर प्रायः सम्पूर्ण देशों में रहने वाले सभी ब्राह्मण आ रहे हैं। केवल महोदय नामक ऋषि तथा वसिष्ठपुत्रों को छोड़कर सभी महर्षि यहाँ आने के लिये प्रस्थान कर चुके हैं। ११ १/२॥

वासिष्ठं यच्छतं सर्वं क्रोधपर्याकुलाक्षरम्॥१२॥
यथाह वचनं सर्वं शृणु त्वं मुनिपुंगव।

‘मुनिश्रेष्ठ! वसिष्ठ के जो सौ पुत्र हैं, उन सबने क्रोधभरी वाणी में जो कुछ कहा है, वह सब आप सुनिये॥ १२ १/२॥

क्षत्रियो याजको यस्य चण्डालस्य विशेषतः॥ १३॥
कथं सदसि भोक्तारो हविस्तस्य सुरर्षयः।
ब्राह्मणा वा महात्मानो भुक्त्वा चाण्डालभोजनम्॥१४॥
कथं स्वर्गं गमिष्यन्ति विश्वामित्रेण पालिताः।

‘वे कहते हैं—जो विशेषतः चण्डाल है और जिसका यज्ञ कराने वाला आचार्य क्षत्रिय है, उसके यज्ञ में देवर्षि अथवा महात्मा ब्राह्मण हविष्य का भोजन कैसे कर सकते हैं? अथवा चण्डाल का अन्न खाकर विश्वामित्र से पालित हुए ब्राह्मण स्वर्ग में कैसे जा सकेंगे?’ ॥ १३-१४ १/२ ॥

एतद् वचननैष्ठर्यमूचुः संरक्तलोचनाः॥१५॥
वासिष्ठा मुनिशार्दूल सर्वे सहमहोदयाः।

‘मुनिप्रवर! महोदय के साथ वसिष्ठ के सभी पुत्रों ने क्रोध से लाल आँखें करके ये उपर्युक्त निष्ठुरतापूर्ण बातें कही थीं’॥ १५ १/२ ॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा सर्वेषां मुनिपुंगवः ॥१६॥
क्रोधसंरक्तनयनः सरोषमिदमब्रवीत्।

उन सबकी वह बात सुनकर मुनिवर विश्वामित्र के दोनों नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वे रोषपूर्वक इस प्रकार बोले- ॥ १६ १/२॥

यद् दूषयन्त्यदुष्टं मां तप उग्रं समास्थितम्॥१७॥
भस्मीभूता दुरात्मानो भविष्यन्ति न संशयः।

‘मैं उग्र तपस्या में लगा हूँ और दोष या दुर्भावना से रहित हूँ तो भी जो मुझ पर दोषारोपण करते हैं, वे दुरात्मा भस्मीभूत हो जायँगे, इसमें संशय नहीं है। १७ १/२॥

अद्य ते कालपाशेन नीता वैवस्वतक्षयम्॥१८॥
सप्तजातिशतान्येव मृतपाः सम्भवन्तु ते।।
श्वमांसनियताहारा मुष्टिका नाम निघृणाः॥१९॥

‘आज कालपाश से बँधकर वे यमलोक में पहँचा दिये गये। अब ये सात सौ जन्मोंतक मुर्दो की रखवाली करने वाली, निश्चितरूप से कुत्ते का मांस खाने वाली मुष्टिक नामक प्रसिद्ध निर्दय चण्डालजाति में जन्म ग्रहण करें॥ १८-१९॥

विकृताश्च विरूपाश्च लोकाननुचरन्त्विमान्।
महोदयश्च दुर्बुद्धिर्मामदूष्यं ह्यदूषयत्॥२०॥
दूषितः सर्वलोकेषु निषादत्वं गमिष्यति।
प्राणातिपातनिरतो निरनुक्रोशतां गतः॥ २१॥
दीर्घकालं मम क्रोधाद् दुर्गतिं वर्तयिष्यति।

‘वे लोग विकृत एवं विरूप होकर इन लोकों में विचरें, साथ ही दुर्बुद्धि महोदय भी, जिसने मुझ दोषहीन को भी दूषित किया है, मेरे क्रोध से दीर्घकाल तक सब लोगों में निन्दित, दूसरे प्राणियों की हिंसा में तत्पर और दयाशून्य निषादयोनि को प्राप्त करके दुर्गति भोगेगा’। २०-२१ १/२॥

एतावदुक्त्वा वचनं विश्वामित्रो महातपाः।
विरराम महातेजा ऋषिमध्ये महामुनिः॥ २२॥

ऋषियों के बीच में ऐसा कहकर महातपस्वी, महातेजस्वी एवं महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये। २२॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकोनषष्टितमः सर्गः॥५९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ। ५९॥


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Shivangi

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