वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 6 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 6
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
षष्ठः सर्गः (सर्ग 6)
( राजा दशरथ के शासनकाल में अयोध्या और वहाँ के नागरिकों की उत्तम स्थिति का वर्णन )
तस्यां पुर्यामयोध्यायां वेदवित् सर्वसंग्रहः।
दीर्घदर्शी महातेजाः पौरजानपदप्रियः॥१॥
उस अयोध्यापुरी में रहकर राजा दशरथ प्रजावर्ग का पालन करते थे। वे वेदों के विद्वान् तथा सभी उपयोगी वस्तुओं का संग्रह करने वाले थे। दूरदर्शी और महान् तेजस्वी थे। नगर और जनपद की प्रजा उनसे बहुत प्रेम रखती थी।
इक्ष्वाकूणामतिरथो यज्वा धर्मपरो वशी।
महर्षिकल्पो राजर्षिस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः॥२॥
वे इक्ष्वाकुकुलके अतिरथी* वीर थे। यज्ञ करनेवाले, धर्मपरायण और जितेन्द्रिय थे। महर्षियोंके समान दिव्य गुणसम्पन्न राजर्षि थे। उनकी तीनों लोकोंमें ख्याति थी।
बलवान् निहतामित्रो मित्रवान् विजितेन्द्रियः।
धनैश्च संचयैश्चान्यैः शक्रवैश्रवणोपमः॥३॥
वे बलवान्, शत्रुहीन, मित्रोंसे युक्त एवं इन्द्रियविजयी थे। धन और अन्य वस्तुओंके संचयकी दृष्टि से इन्द्र और कुबेरके समान जान पड़ते थे।
यथा मनुर्महातेजा लोकस्य परिरक्षिता।
तथा दशरथो राजा लोकस्य परिरक्षिता॥४॥
जैसे महातेजस्वी प्रजापति मनु सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते थे, उसी प्रकार महाराज दशरथ भी करते थे॥१-४॥ *(जो दस हजार महारथियोंके साथ अकेला ही युद्ध करनेमें समर्थ हो, वह ‘अतिरथी’ कहलाता है।)
तेन सत्याभिसंधेन त्रिवर्गमनुतिष्ठता।
पालिता सा पुरी श्रेष्ठा इन्द्रेणेवामरावती॥५॥
धर्म, अर्थ और कामका सम्पादन करने वाले कर्मों का अनुष्ठान करते हुए वे सत्यप्रतिज्ञ नरेश उस श्रेष्ठ अयोध्यापुरी का उसी तरह पालन करते थे, जैसे इन्द्र अमरावतीपुरी का॥ ५॥
तस्मिन् पुरवरे हृष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः।
नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः॥६॥
उस उत्तम नगरमें निवास करनेवाले सभी मनुष्य प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत, निर्लोभ, सत्यवादी तथा अपने-अपने धनसे संतुष्ट रहनेवाले थे॥६॥ ।
नाल्पसंनिचयः कश्चिदासीत् तस्मिन् पुरोत्तमे।
कुटुम्बी यो ह्यसिद्धार्थोऽगवाश्वधनधान्यवान्॥७॥
उस श्रेष्ठ पुरीमें कोई भी ऐसा कुटुम्बी नहीं था, जिसके पास उत्कृष्ट वस्तुओंका संग्रह अधिक मात्रामें न हो, जिसके धर्म, अर्थ और काममय पुरुषार्थ सिद्ध न हो गये हों तथा जिसके पास गाय-बैल, घोड़े, धनधान्य आदिका अभाव हो॥७॥
कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्।
द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः॥८॥
अयोध्यामें कहीं भी कोई कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक मनुष्य देखनेको भी नहीं मिलता था।
सर्वे नराश्च नार्यश्च धर्मशीलाः सुसंयताः।
मुदिताः शीलवृत्ताभ्यां महर्षय इवामलाः॥९॥
वहाँके सभी स्त्री-पुरुष धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न रहनेवाले तथा शील और सदाचारकी दृष्टिसे महर्षियोंकी भाँति निर्मल थे॥९॥
नाकुण्डली नामुकुटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान्।
नामृष्टो न नलिप्तांगो नासुगन्धश्च विद्यते॥१०॥
वहाँ कोई भी कुण्डल, मुकुट और पुष्पहारसे शून्य नहीं था। किसीके पास भोग-सामग्रीकी कमी नहीं थी। कोई भी ऐसा नहीं था, जो नहा-धोकर साफ-सुथरा न हो, जिसके अंगोंमें चन्दनका लेप न हुआ हो तथा जो सुगन्धसे वञ्चित हो॥ १०॥
नामृष्टभोजी नादाता नाप्यनंगदनिष्कधृक्।
नाहस्ताभरणो वापि दृश्यते नाप्यनात्मवान्॥११॥
अपवित्र अन्न भोजन करनेवाला, दान न देनेवाला तथा मनको काबूमें न रखनेवाला मनुष्य तो वहाँ कोई दिखायी ही नहीं देता था। कोई भी ऐसा पुरुष देखनेमें नहीं आता था, जो बाजूबन्द, निष्क (स्वर्णपदक या मोहर) तथा हाथका आभूषण (कड़ा आदि) धारण न किये हो॥११॥
नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः।
कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः॥
अयोध्यामें कोई भी ऐसा नहीं था, जो अग्निहोत्र और यज्ञ न करता हो; जो क्षुद्र, चोर, सदाचारशून्य अथवा वर्णसंकर हो ॥ १२॥
स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेन्द्रियाः।
दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे ॥१३॥
वहाँ निवास करनेवाले ब्राह्मण सदा अपने कर्मोमें लगे रहते, इन्द्रियोंको वशमें रखते, दान और स्वाध्याय । करते तथा प्रतिग्रहसे बचे रहते थे॥१३॥
नास्तिको नानृती वापि न कश्चिदबहुश्रुतः।
नासूयको न चाशक्तो नाविद्वान् विद्यते क्वचित्॥१४॥
वहाँ कहीं एक भी ऐसा द्विज नहीं था, जो नास्तिक, असत्यवादी, अनेक शास्त्रोंके ज्ञानसे रहित, दूसरोंके दोष ढूँढ़नेवाला, साधनमें असमर्थ और विद्याहीन हो॥
नाषडंगविदत्रास्ति नाव्रतो नासहस्रदः।
न दीनः क्षिप्तचित्तो वा व्यथितो वापि कश्चन॥१५॥
उस पुरीमें वेदके छहों अंगोंको न जाननेवाला, व्रतहीन, सहस्रोंसे कम दान देनेवाला, दीन, विक्षिप्तचित्त अथवा दुःखी भी कोई नहीं था॥१५॥
कश्चिन्नरो वा नारी वा नाश्रीमान् नाप्यरूपवान्।
द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नापि राजन्यभक्तिमान्॥१६॥
अयोध्यामें कोई भी स्त्री या पुरुष ऐसा नहीं देखा जा सकता था, जो श्रीहीन, रूपरहित तथा राजभक्तिसे शून्य हो॥ १६॥
वर्णेष्वग्र्यचतुर्थेषु देवतातिथिपूजकाः।
कृतज्ञाश्च वदान्याश्च शूरा विक्रमसंयुताः॥१७॥
ब्राह्मण आदि चारों वर्गों के लोग देवता और अतिथियोंके पूजक, कृतज्ञ, उदार, शूरवीर और पराक्रमी थे॥ १७॥
दीर्घायुषो नराः सर्वे धर्मं सत्यं च संश्रिताः।
सहिताः पुत्रपौत्रैश्च नित्यं स्त्रीभिः पुरोत्तमे॥१८॥
उस श्रेष्ठ नगरमें निवास करनेवाले सब मनुष्य दीर्घायु तथा धर्म और सत्यका आश्रय लेनेवाले थे। वे सदा स्त्री-पुत्र और पौत्र आदि परिवारके साथ सुखसे रहते थे।। १८॥
क्षत्रं ब्रह्ममुखं चासीद् वैश्याः क्षत्रमनुव्रताः।
शूद्राः स्वकर्मनिरतास्त्रीन् वर्णानुपचारिणः॥१९॥
क्षत्रिय ब्राह्मणोंका मुँह जोहते थे, वैश्य क्षत्रियोंकी आज्ञाका पालन करते थे और शूद्र अपने कर्तव्यका पालन करते हुए उपर्युक्त तीनों वर्गों की सेवामें संलग्न रहते थे॥ १९॥
सा तेनेक्ष्वाकुनाथेन पुरी सुपरिरक्षिता।
यथा पुरस्तान्मनुना मानवेन्द्रेण धीमता॥२०॥
इक्ष्वाकुकुलके स्वामी राजा दशरथ अयोध्यापुरीकी रक्षा उसी प्रकार करते थे, जैसे बुद्धिमान् महाराज मनुने पूर्वकालमें उसकी रक्षा की थी॥ २०॥
योधानामग्निकल्पानां पेशलानाममर्षिणाम्।
सम्पूर्णा कृतविद्यानां गुहा केसरिणामिव॥२१॥
शौर्यकी अधिकताके कारण अग्निके समान दुर्धर्ष, कुटिलतासे रहित, अपमानको सहन करनेमें असमर्थ तथा अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता योद्धाओंके समुदायसे वह पुरी उसी तरह भरी-पूरी रहती थी, जैसे पर्वतोंकी गुफा सिंहोंके समूहसे परिपूर्ण होती है॥ २१॥
काम्बोजविषये जातैर्बाह्नीकैश्च हयोत्तमैः।
वनायुजैर्नदीजैश्च पूर्णा हरिहयोत्तमैः॥ २२॥
काम्बोज और बालीक देशमें उत्पन्न हुए उत्तम घोड़ोंसे, वनायु देशके अश्वोंसे तथा सिन्धुनदके निकट
पैदा होनेवाले दरियाई घोड़ोंसे, जो इन्द्रके अश्व । उच्चैःश्रवाके समान श्रेष्ठ थे, अयोध्यापुरी भरी रहती थी॥ २२॥
विन्ध्यपर्वतजैर्मत्तैः पूर्णा हैमवतैरपि।
मदान्वितैरतिबलैर्मातंगैः पर्वतोपमैः ॥२३॥
विन्ध्य और हिमालय पर्वतोंमें उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त बलशाली पर्वताकार मदमत्त गजराजोंसे भी वह नगरी परिपूर्ण रहती थी॥ २३॥
ऐरावतकुलीनैश्च महापद्मकुलैस्तथा।
अञ्जनादपि निष्क्रान्तर्वामनादपि च द्विपैः ॥२४॥
ऐरावतकुलमें उत्पन्न, महापद्मके वंशमें पैदा हुए तथा अञ्जन और वामन नामक दिग्गजों से भी प्रकट हुए हाथी उस पुरीकी पूर्णतामें सहायक हो रहे थे। २४॥
भद्रैर्मन्म॑गैश्चैव भद्रमन्द्रमृगैस्तथा।
भद्रमन्द्रैर्भद्रमृगैर्मुगमन्त्रैश्च सा पुरी॥२५॥
नित्यमत्तैः सदा पूर्णा नागैरचलसंनिभैः।
सा योजने द्वे च भूयः सत्यनामा प्रकाशते।
यस्यां दशरथो राजा वसञ्जगदपालयत्॥२६॥
हिमालय पर्वत पर उत्पन्न भद्रजाति के, विन्ध्यपर्वत पर उत्पन्न हुए मन्द्रजाति के तथा सह्यपर्वत पर पैदा हुए मृग जाति के हाथी भी वहाँ मौजूद थे। भद्र, मन्द्र और मृग -इन तीनों के मेल से उत्पन्न हुए संकरजाति के, भद्र और मन्द्र-इन दो जातियों के मेल से पैदा हुए संकर जाति के, भद्र और मृग जातिके संयोगसे उत्पन्न संकरजाति के तथा मृग और मन्द्र-इन दो जातियोंके सम्मिश्रण से पैदा हुए पर्वताकार गजराज भी, जो सदा मदोन्मत्त रहते थे, उस पुरीमें भरे हुए थे। (तीन योजनके विस्तारवाली अयोध्यामें) दो योजनकी भूमि । तो ऐसी थी, जहाँ पहुँचकर किसीके लिये भी युद्ध करना असम्भव था, इसलिये वह पुरी ‘अयोध्या’ इस सत्य एवं सार्थक नामसे प्रकाशित होती थी; जिसमें रहते हुए राजा दशरथ इस जगत् का (अपने राज्यका) पालन करते थे॥ २५-२६॥
तां पुरीं स महातेजा राजा दशरथो महान्।
शशास शमितामित्रो नक्षत्राणीव चन्द्रमाः॥२७॥
जैसे चन्द्रमा नक्षत्रलोकका शासन करते हैं, उसी प्रकार महातेजस्वी महाराज दशरथ अयोध्यापुरीका शासन करते थे। उन्होंने अपने समस्त शत्रुओंको नष्ट कर दिया था।। २७॥
तां सत्यनामां दृढतोरणार्गलां गृहैर्विचित्रैरुपशोभितां शिवाम्।
पुरीमयोध्यां नृसहस्रसंकुलां शशास वै शक्रसमो महीपतिः॥२८॥
जिसका अयोध्या नाम सत्य एवं सार्थक था, जिसके दरवाजे और अर्गला सुदृढ़ थे, जो विचित्र गृहोंसे सदा सुशोभित होती थी, सहस्रों मनुष्योंसे भरी हुई उस कल्याणमयी पुरीका इन्द्रतुल्य तेजस्वी राजा दशरथ न्यायपूर्वक शासन करते थे॥२८॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे षष्ठः सर्गः॥६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छठा सर्ग पूरा हुआ॥६॥
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