वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 61 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 61
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
एकषष्टितमः सर्गः (सर्ग 61)
(विश्वामित्र की पुष्कर तीर्थ में तपस्या तथा राजर्षि अम्बरीष का ऋचीक के मध्यम पुत्र शुनःशेप को यज्ञ-पशु बनाने के लिये खरीदकर लाना)
विश्वामित्रो महातेजाः प्रस्थितान् वीक्ष्य तानृषीन्।
अब्रवीन्नरशार्दूल सर्वांस्तान् वनवासिनः॥१॥
[शतानन्दजी कहते हैं-] पुरुषसिंह श्रीराम ! यज्ञ में आये हुए उन सब वनवासी ऋषियों को वहाँ से जाते देख महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनसे कहा-॥ १॥
महाविघ्नः प्रवृत्तोऽयं दक्षिणामास्थितो दिशम्।
दिशमन्यां प्रपत्स्यामस्तत्र तप्स्यामहे तपः॥२॥
‘महर्षियो! इस दक्षिण दिशामें रहने से हमारी तपस्या में महान् विघ्न आ पड़ा है; अतः अब हम दूसरी दिशा में चले जायँगे और वहीं रहकर तपस्या करेंगे॥२॥
पश्चिमायां विशालायां पुष्करेषु महात्मनः।
सुखं तपश्चरिष्यामः सुखं तद्धि तपोवनम्॥३॥
‘विशाल पश्चिम दिशा में जो महात्मा ब्रह्माजी के तीन पुष्कर हैं, उन्हीं के पास रहकर हम सुखपूर्वक तपस्या करेंगे; क्योंकि वह तपोवन बहुत ही सुखद है’॥३॥
एवमुक्त्वा महातेजाः पुष्करेषु महामुनिः।
तप उग्रं दुराधर्षं तेपे मूलफलाशनः॥४॥
ऐसा कहकर वे महातेजस्वी महामुनि पुष्कर में चले गये और वहाँ फल-मूल का भोजन करके उग्र एवं दुर्जय तपस्या करने लगे॥ ४॥
एतस्मिन्नेव काले तु अयोध्याधिपतिर्महान्।
अम्बरीष इति ख्यातो यष्टुं समुपचक्रमे ॥५॥
इन्हीं दिनों अयोध्या के महाराज अम्बरीष एक यज्ञ की तैयारी करने लगे॥ ५ ॥
तस्य वै यजमानस्य पशुमिन्द्रो जहार ह।
प्रणष्टे तु पशौ विप्रो राजानमिदमब्रवीत्॥६॥
जब वे यज्ञ में लगे हुए थे, उस समय इन्द्र ने उनके यज्ञपशु को चुरा लिया। पशु के खो जाने पर पुरोहितजी ने राजा से कहा- ॥६॥
पशुरभ्याहृतो राजन् प्रणष्टस्तव दुर्नयात्।
अरक्षितारं राजानं जन्ति दोषा नरेश्वर ॥७॥
‘राजन् ! जो पशु यहाँ लाया गया था, वह आपकी दुर्नीतिके कारण खो गया। नरेश्वर! जो राजा यज्ञपशु की रक्षा नहीं करता, उसे अनेक प्रकार के दोष नष्ट कर डालते हैं॥ ७॥
प्रायश्चित्तं महद्ध्येतन्नरं वा पुरुषर्षभ।
आनयस्व पशुं शीघ्रं यावत् कर्म प्रवर्तते॥८॥
‘पुरुषप्रवर! जबतक कर्म का आरम्भ होता है,उसके पहले ही खोये हुए पशु की खोज कराकर उसे शीघ्र यहाँ ले आओ अथवा उसके प्रतिनिधि रूप से किसी पुरुष पशु को खरीद लाओ। यही इस पाप का महान् प्रायश्चित्त है’।
उपाध्यायवचः श्रुत्वा स राजा पुरुषर्षभः।
अन्वियेष महाबुद्धिः पशं गोभिः सहस्रशः॥९॥
पुरोहित की यह बात सुनकर महाबुद्धिमान् पुरुषश्रेष्ठ राजा अम्बरीष ने हजारों गौओं के मूल्यपर खरीदने के लिये एक पुरुष का अन्वेषण किया॥९॥
देशाञ्जनपदांस्तांस्तान् नगराणि वनानि च।
आश्रमाणि च पुण्यानि मार्गमाणो महीपतिः॥ १०॥
स पुत्रसहितं तात सभार्यं रघुनन्दन।
भृगुतुंगे समासीनमृचीकं संददर्श ह॥११॥
तात रघुनन्दन! विभिन्न देशों, जनपदों, नगरों, वनों तथा पवित्र आश्रमों में खोज करते हुए राजा अम्बरीषभृगुतुंग पर्वत पर पहुँचे और वहाँ उन्होंने पत्नी तथा पुत्रों के साथ बैठे हुए ऋचीक मुनि का दर्शन किया। १०-११॥
तमुवाच महातेजाः प्रणम्याभिप्रसाद्य च।
महर्षिं तपसा दीप्तं राजर्षिरमितप्रभः॥१२॥
अमित कान्तिमान् एवं महातेजस्वी राजर्षि अम्बरीष ने तपस्या से उद्दीप्त होनेवाले महर्षि ऋचीक को प्रणाम किया और उन्हें प्रसन्न करके कहा॥१२॥
पृष्ट्वा सर्वत्र कुशलम्चीकं तमिदं वचः।
गवां शतसहस्रेण विक्रीणीषे सुतं यदि॥१३॥
पशोरर्थे महाभाग कृतकृत्योऽस्मि भार्गव।
पहले तो उन्होंने ऋचीक मुनि से उनकी सभी वस्तुओं के विषय में कुशल-समाचार पूछा, उसके बाद इस प्रकार कहा—’महाभाग भृगुनन्दन! यदि आप एक लाख गौएँ लेकर अपने एक पुत्र को पशु बनाने के लिये बेचें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा॥ १३ १/२॥
सर्वे परिगता देशा यज्ञियं न लभे पशुम्॥१४॥
दातुमर्हसि मूल्येन सतमेकमितो मम।
‘मैं सारे देशों में घूम आया; परंतु कहीं भी यज्ञोपयोगी पशु नहीं पा सका अतः आप उचितमूल्य लेकर यहाँ मुझे अपने एक पुत्र को दे दीजिये’। १४ १/२॥
एवमुक्तो महातेजा ऋचीकस्त्वब्रवीद् वचः॥१५॥
नाहं ज्येष्ठं नरश्रेष्ठ विक्रीणीयां कथंचन।
उनके ऐसा कहने पर महातेजस्वी ऋचीक बोले —’नरश्रेष्ठ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को तो किसी तरह नहीं बेचूँगा’ ॥ १५ १/२ ॥
ऋचीकस्य वचः श्रुत्वा तेषां माता महात्मनाम्॥ १६॥
उवाच नरशार्दूलमम्बरीषमिदं वचः।
ऋचीक मुनि की बात सुनकर उन महात्मा पुत्रों की माता ने पुरुषसिंह अम्बरीष से इस प्रकार कहा- ॥१६१/२॥
अविक्रेयं सुतं ज्येष्ठं भगवानाह भार्गवः॥१७॥
ममापि दयितं विद्धि कनिष्ठं शुनकं प्रभो।
तस्मात् कनीयसं पुत्रं न दास्ये तव पार्थिव॥ १८॥
‘प्रभो! भगवान् भार्गव कहते हैं कि ज्येष्ठ पुत्र कदापि बेचने योग्य नहीं है; परंतु आपको मालूम होना चाहिये जो सबसे छोटा पुत्र शुनक है, वह मुझे भी बहुत ही प्रिय है अतःपृथ्वीनाथ! मैं अपना छोटा पुत्र आपको कदापि नहीं दूंगी॥ १७-१८॥
प्रायेण हि नरश्रेष्ठ ज्येष्ठाः पितृषु वल्लभाः।
मातॄणां च कनीयांसस्तस्माद् रक्ष्ये कनीयसम्॥ १९॥
‘नरश्रेष्ठ! प्रायः जेठे पुत्र पिताओं को प्रिय होते हैंऔर छोटे पुत्र माताओं को, अतः मैं अपने कनिष्ठ पुत्र की अवश्य रक्षा करूँगी’ ॥ १९॥
उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन् मुनिपल्यां तथैव च।
शुनःशेपः स्वयं राम मध्यमो वाक्यमब्रवीत्॥ २०॥
श्रीराम! मुनि और उनकी पत्नी के ऐसा कहनेप र मझले पुत्र शुनःशेप ने स्वयं कहा- ॥ २० ॥
पिता ज्येष्ठमविक्रेयं माता चाह कनीयसम्।
विक्रेयं मध्यमं मन्ये राजपुत्र नयस्व माम्॥२१॥
‘राजपुत्र! पिता ने ज्येष्ठ को और माता ने कनिष्ठ पुत्र को बेचने के लिये अयोग्य बतलाया है, अतः मैं समझता हूँ इन दोनों की दृष्टि में मझला पुत्र ही बेचने के योग्य है, इसलिये तुम मुझे ही ले चलो’ ॥ २१॥
अथ राजा महाबाहो वाक्यान्ते ब्रह्मवादिनः।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य कोटिभी रत्नराशिभिः॥ २२॥
गवां शतसहस्रेण शुनःशेपं नरेश्वरः।
गृहीत्वा परमप्रीतो जगाम रघुनन्दन॥२३॥
महाबाहु रघुनन्दन! ब्रह्मवादी मझले पुत्र के ऐसा कहने पर राजा अम्बरीष बड़े प्रसन्न हुए और एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रत्नों के ढेर तथा एक लाख गौओं के बदले शुनःशेप को लेकर वे घर की ओर चले॥ २२-२३॥
अम्बरीषस्तु राजर्षी रथमारोप्य सत्वरः।
शुनःशेपं महातेजा जगामाशु महायशाः ॥ २४॥
महातेजस्वी महायशस्वी राजर्षि अम्बरीष शुनःशेप को रथपर बिठाकर बड़ी उतावली के साथ तीव्र गति से चले॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकषष्टितमः सर्गः॥६१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में एकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६१॥
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