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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 63 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 63

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
त्रिषष्टितमः सर्गः (सर्ग 63)

(विश्वामित्र को ऋषि एवं महर्षिपद की प्राप्ति, मेनका द्वारा उनका तपोभंग तथा ब्रह्मर्षिपद की प्राप्ति के लिये उनकी घोर तपस्या)

 

पूर्णे वर्षसहस्रे तु व्रतस्नातं महामुनिम्।
अभ्यगच्छन् सुराः सर्वे तपः फलचिकीर्षवः॥

[शतानन्दजी कहते हैं- श्रीराम!] जब एक हजार वर्ष पूरे हो गये, तब उन्होंने व्रत की समाप्ति का स्नान किया। स्नान कर लेने पर महामुनि विश्वामित्र के पास सम्पूर्ण देवता उन्हें तपस्या का फल देने की इच्छा से आये॥

अब्रवीत् सुमहातेजा ब्रह्मा सुरुचिरं वचः।
ऋषिस्त्वमसि भद्रं ते स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः॥ २॥

उस समय महातेजस्वी ब्रह्माजी ने मधुर वाणीमें कहा- ‘मुने! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने द्वारा उपार्जित शुभ कर्मों के प्रभाव से ऋषि हो गये’। २॥

तमेवमुक्त्वा देवेशस्त्रिदिवं पुनरभ्यगात्।
विश्वामित्रो महातेजा भूयस्तेपे महत् तपः॥३॥

उनसे ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी पुनः स्वर्ग को चले गये। इधर महातेजस्वी विश्वामित्र पुनः बड़ी भारी तपस्या में लग गये॥३॥

ततः कालेन महता मेनका परमाप्सराः।
पुष्करेषु नरश्रेष्ठ स्नातुं समुपचक्रमे ॥४॥

नरश्रेष्ठ! तदनन्तर बहुत समय व्यतीत होने पर परम सुन्दरी अप्सरा मेनका पुष्कर में आयी और वहाँ स्नान की तैयारी करने लगी॥४॥

तां ददर्श महातेजा मेनकां कुशिकात्मजः।
रूपेणाप्रतिमां तत्र विद्युतं जलदे यथा॥५॥

महातेजस्वी कुशिकनन्दन विश्वामित्र ने वहाँ उस मेनका को देखा। उसके रूप और लावण्य की कहीं तुलना नहीं थी। जैसे बादल में बिजली चमकती हो, उसी प्रकार वह पुष्कर के जल में शोभा पा रही थी॥

कन्दर्पदर्पवशगो मुनिस्तामिदमब्रवीत्।
अप्सरः स्वागतं तेऽस्तु वस चेह ममाश्रमे॥६॥

उसे देखकर विश्वामित्र मुनि काम के अधीन हो गये और उससे इस प्रकार बोले—’अप्सरा! तेरा स्वागत है, तू मेरे इस आश्रम में निवास कर॥६॥

अनुगृह्णीष्व भद्रं ते मदनेन विमोहितम्।।
इत्युक्ता सा वरारोहा तत्र वासमथाकरोत्॥७॥

‘तेरा भला हो, मैं काम से मोहित हो रहा हूँ। मुझ पर कृपा कर ‘ उनके ऐसा कहने पर सुन्दर कटिप्रदेश वाली मेनका वहाँ निवास करने लगी॥ ७॥

तपसो हि महाविघ्नो विश्वामित्रमुपागमत्।
तस्यां वसन्त्यां वर्षाणि पञ्च पञ्च च राघव॥ ८॥
विश्वामित्राश्रमे सौम्ये सुखेन व्यतिचक्रमः।

इस प्रकार तपस्या का बहुत बड़ा विघ्न विश्वामित्रजी के पास स्वयं उपस्थित हो गया। रघुनन्दन! मेनका को विश्वामित्रजी के उस सौम्य आश्रम पर रहते हुए दस वर्ष बड़े सुख से बीते॥ ८ १/२॥

अथ काले गते तस्मिन् विश्वामित्रो महामुनिः॥ ९॥
सव्रीड इव संवृत्तश्चिन्ताशोकपरायणः।

इतना समय बीत जाने पर महामुनि विश्वामित्र लज्जित-से हो गये, चिन्ता और शोक में डूब गये॥९ १/२॥

बुद्धिर्मुनेः समुत्पन्ना सामर्षा रघुनन्दन॥१०॥
सर्वं सुराणां कर्मैतत् तपोऽपहरणं महत्।

रघुनन्दन! मुनि के मन में रोषपूर्वक यह विचार उत्पन्न हुआ कि ‘यह सब देवताओं की करतूत है। उन्होंने हमारी तपस्या का अपहरण करने के लिये यह महान् प्रयास किया है। १० १/२ ॥

अहोरात्रापदेशेन गताः संवत्सरा दश॥११॥
काममोहाभिभूतस्य विनोऽयं प्रत्युपस्थितः।

‘मैं कामजनित मोह से ऐसा आक्रान्त हो गया कि मेरे दस वर्ष एक दिन-रात के समान बीत गये। यह मेरी तपस्या में बहुत बड़ा विघ्न उपस्थित हो गया’ । । ११ १/२॥

स निःश्वसन् मुनिवरः पश्चात्तापेन दुःखितः॥ १२॥

ऐसा विचारकर मुनिवर विश्वामित्र लम्बी साँस खींचते हुए पश्चात्ताप से दुःखित हो गये॥ १२ ॥

भीतामप्सरसं दृष्ट्वा वेपन्तीं प्राञ्जलिं स्थिताम्।
मेनकां मधुरैर्वाक्यैर्विसृज्य कुशिकात्मजः॥१३॥
उत्तरं पर्वतं राम विश्वामित्रो जगाम ह।

उस समय मेनका अप्सरा भयभीत हो थर-थर काँपती हुई हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हो गयी। उसकी ओर देखकर कुशिकनन्दन विश्वामित्र ने मधुर वचनों द्वारा उसे विदा कर दिया और स्वयं वे उत्तर पर्वत (हिमवान्) पर चले गये। १३ १/२॥

स कृत्वा नैष्ठिकी बुद्धिं जेतुकामो महायशाः॥ १४॥
कौशिकीतीरमासाद्य तपस्तेपे दुरासदम्।

वहाँ उन महायशस्वी मुनि ने निश्चयात्मक बुद्धि का आश्रय ले कामदेव को जीतने के लिये कौशिकी-तट पर जाकर दुर्जय तपस्या आरम्भ की॥ १४ १/२ ॥

तस्य वर्षसहस्राणि घोरं तप उपासतः॥१५॥
उत्तरे पर्वते राम देवतानामभूद् भयम्।

श्रीराम! वहाँ उत्तर पर्वत पर एक हजार वर्षांतक घोर तपस्या में लगे हुए विश्वामित्र से देवताओं को बड़ा भय हुआ॥ १५ १/२॥

आमन्त्रयन् समागम्य सर्वे सर्षिगणाः सुराः॥ १६॥
महर्षिशब्दं लभतां साध्वयं कुशिकात्मजः।

सब देवता और ऋषि परस्पर मिलकर सलाह करने लगे—’ये कुशिकनन्दन विश्वामित्र महर्षिकी पदवी प्राप्त करें, यही इनके लिये उत्तम बात होगी’। १६ १/२॥

देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः ॥१७॥
अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम्।
महर्षे स्वागतं वत्स तपसोग्रेण तोषितः॥१८॥
महत्त्वमृषिमुख्यत्वं ददामि तव कौशिक।

देवताओं की बात सुनकर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी तपोधन विश्वामित्र के पास जा मधुर वाणी में बोले —’महर्षे! तुम्हारा स्वागत है वत्स कौशिक! मैं तुम्हारी उग्र तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ और तुम्हें महत्ता एवं ऋषियों में श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ’॥ १७-१८ १/२॥

ब्रह्मणस्तु वचः श्रुत्वा विश्वामित्रस्तपोधनः॥ १९॥
प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा प्रत्युवाच पितामहम्।
ब्रह्मर्षिशब्दमतुलं स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः॥ २०॥
यदि मे भगवन्नाह ततोऽहं विजितेन्द्रियः।

ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर तपोधन विश्वामित्र हाथ जोड़ प्रणाम करके उनसे बोले-‘भगवन् ! यदि अपने द्वारा उपार्जित शुभ कर्मो के फल से मुझे आप ब्रह्मर्षि का अनुपम पद प्रदान कर सकें तो मैं अपने को जितेन्द्रिय समशृंगा’ ॥ १९-२० १/२ ॥

तमुवाच ततो ब्रह्मा न तावत् त्वं जितेन्द्रियः॥ २१॥
यतस्व मुनिशार्दूल इत्युक्त्वा त्रिदिवं गतः।

तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा—’मुनिश्रेष्ठ! अभी तुम जितेन्द्रिय नहीं हुए हो इसके लिये प्रयत्न करो।’ ऐसा कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये। २१ १/२ ॥

विप्रस्थितेषु देवेषु विश्वामित्रो महामुनिः॥२२॥
ऊर्ध्वबाहुर्निरालम्बो वायुभक्षस्तपश्चरन्।

देवताओं के चले जाने पर महामुनि विश्वामित्र ने पुनः घोर तपस्या आरम्भ की वे दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये बिना किसी आधार के खड़े होकर केवल वायु पीकर रहते हुए तप में संलग्न हो गये। २२ १/२ ॥

घर्मे पञ्चतपा भूत्वा वर्षास्वाकाशसंश्रयः॥२३॥
शिशिरे सलिलेशायी रात्र्यहानि तपोधनः।
एवं वर्षसहस्रं हि तपो घोरमुपागमत्॥२४॥

गर्मी के दिनों में पञ्चाग्नि का सेवन करते, वर्षाकाल में खुले आकाश के नीचे रहते और जाड़े के समय रात-दिन पानी में खड़े रहते थे। इस प्रकार उन तपोधन ने एक हजार वर्षां तक घोर तपस्या की॥ २३-२४॥

तस्मिन् संतप्यमाने तु विश्वामित्रे महामुनौ।
संतापः सुमहानासीत् सुराणां वासवस्य च॥ २५॥

महामुनि विश्वामित्र के इस प्रकार तपस्या करते समय देवताओं और इन्द्र के मन में बड़ा भारी संताप हुआ॥

रम्भामप्सरसं शक्रः सर्वैः सह मरुद्गणैः।
उवाचात्महितं वाक्यमहितं कौशिकस्य च॥ २६॥

समस्त मरुद्गणों सहित इन्द्र ने उस समय रम्भा अप्सरा से ऐसी बात कही, जो अपने लिये हितकर और विश्वामित्र के लिये अहितकर थी॥ २६ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः॥६३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ। ६३॥


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Shivangi

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