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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 64 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 64

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
चतुःषष्टितमः सर्गः (सर्ग 64)

(विश्वामित्र का रम्भा को शाप देकर पुनः घोर तपस्या के लिये दीक्षा लेना)

 

सुरकार्यमिदं रम्भे कर्तव्यं सुमहत् त्वया।
लोभनं कौशिकस्येह काममोहसमन्वितम्॥१॥

(इन्द्र बोले-) रम्भे! देवताओं का एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है। इसे तुम्हें ही पूरा करना है। तू महर्षि विश्वामित्र को इस प्रकार लुभा, जिससे वे काम और मोह के वशीभूत हो जायँ ॥ १॥

तथोक्ता साप्सरा राम सहस्राक्षेण धीमता।
वीडिता प्राञ्जलिर्वाक्यं प्रत्युवाच सुरेश्वरम्॥ २॥

श्रीराम! बुद्धिमान् इन्द्र के ऐसा कहनेपर वह अप्सरा लज्जित हो हाथ जोड़कर देवेश्वर इन्द्र से बोली- ॥२॥

अयं सुरपते घोरो विश्वामित्रो महामुनिः।
क्रोधमत्स्रक्ष्यते घोरं मयि देव न संशयः॥३॥

‘सुरपते! ये महामुनि विश्वामित्र बड़े भयंकर हैं। देव! इसमें संदेह नहीं कि ये मुझपर भयानक क्रोध का प्रयोग करेंगे॥ ३॥

ततो हि मे भयं देव प्रसादं कर्तुमर्हसि।
एवमुक्तस्तया राम सभयं भीतया तदा॥४॥
तामुवाच सहस्राक्षो वेपमानां कृताञ्जलिम्।
मा भैषी रम्भे भद्रं ते कुरुष्व मम शासनम्॥५॥

‘अतः देवेश्वर! मुझे उनसे बड़ा डर लगता है,आप मुझपर कृपा करें।’ श्रीराम! डरी हुई रम्भा के इस प्रकार भयपूर्वक कहने पर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र हाथ जोड़कर खड़ी और थर-थर काँपती हुई रम्भा से
इस प्रकार बोले—’रम्भे! तू भय न कर, तेरा भला हो, तू मेरी आज्ञा मान ले॥४-५॥

कोकिलो हृदयग्राही माधवे रुचिरद्रुमे।
अहं कन्दर्पसहितः स्थास्यामि तव पार्श्वतः॥६॥

‘वैशाख मास में जब कि प्रत्येक वृक्ष नवपल्लवों से परम सुन्दर शोभा धारण कर लेता है, अपनी मधुर काकली से सबके हृदय को खींचने वाले कोकिल और कामदेव के साथ मैं भी तेरे पास रहूँगा॥६॥

त्वं हि रूपं बहुगुणं कृत्वा परमभास्वरम्।
तमृर्षि कौशिकं भद्रे भेदयस्व तपस्विनम्॥७॥

‘भद्रे ! तू अपने परम कान्तिमान् रूप को हाव-भाव आदि विविध गुणों से सम्पन्न करके उसके द्वारा विश्वामित्र मुनि को तपस्या से विचलित कर दे’ ॥ ७॥

सा श्रुत्वा वचनं तस्य कृत्वा रूपमनुत्तमम्।
लोभयामास ललिता विश्वामित्रं शुचिस्मिता॥ ८॥

देवराज का यह वचन सुनकर उस मधुर मुसकान वाली सुन्दरी अप्सरा ने परम उत्तम रूप बनाकर विश्वामित्र को लुभाना आरम्भ किया॥ ८॥

कोकिलस्य तु शुश्राव वल्गु व्याहरतः स्वनम्।
सम्प्रहृष्टेन मनसा स चैनामन्ववैक्षत॥९॥

विश्वामित्र ने मीठी बोली बोलने वाले कोकिल की मधुर काकली सुनी। उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर जब उस ओर दृष्टिपात किया, तब सामने रम्भा खड़ी दिखायी दी॥९॥

अथ तस्य च शब्देन गीतेनाप्रतिमेन च।
दर्शनेन च रम्भाया मुनिः संदेहमागतः॥१०॥

कोकिल के कलरव, रम्भा के अनुपम गीत और अप्रत्याशित दर्शन से मुनि के मन में संदेह हो गया। १०॥

सहस्राक्षस्य तत्सर्वं विज्ञाय मुनिपुंगवः।
रम्भां क्रोधसमाविष्टः शशाप कुशिकात्मजः॥ ११॥

देवराज का वह सारा कुचक्र उनकी समझ में आ गया। फिर तो मुनिवर विश्वामित्र ने क्रोध में भरकर रम्भा को शाप देते हुए कहा- ॥ ११॥

यन्मां लोभयसे रम्भे कामक्रोधजयैषिणम्।
दशवर्षसहस्राणि शैली स्थास्यसि दुर्भगे॥१२॥

‘दुर्भगे रम्भे! मैं काम और क्रोध पर विजय पाना चाहता हूँ और तू आकर मुझे लुभाती है। अतः इस अपराध के कारण तू दस हजार वर्षां तक पत्थर की प्रतिमा बनकर खड़ी रहेगी॥ १२॥ ।

ब्राह्मणः सुमहातेजास्तपोबलसमन्वितः।
उद्धरिष्यति रम्भे त्वां मत्क्रोधकलुषीकृताम्॥ १३॥

‘रम्भे! शाप का समय पूरा हो जाने के बाद एक महान् तेजस्वी और तपोबलसम्पन्न ब्राह्मण (ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठ) मेरे क्रोध से कलुषित तेरा उद्धार करेंगे’।

एवमुक्त्वा महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः।
अशक्नुवन् धारयितुं कोपं संतापमात्मनः॥१४॥

ऐसा कहकर महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र अपना क्रोध न रोक सकने के कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे॥ १४॥

तस्य शापेन महता रम्भा शैली तदाभवत्।
वचः श्रुत्वा च कन्दर्पो महर्षेः स च निर्गतः॥

मुनि के उस महाशाप से रम्भा तत्काल पत्थर की प्रतिमा बन गयी। महर्षि का वह शापयुक्त वचन सुनकर कन्दर्प और इन्द्र वहाँ से खिसक गये॥ १५ ॥

कोपेन च महातेजास्तपोऽपहरणे कृते।
इन्द्रियैरजितै राम न लेभे शान्तिमात्मनः॥१६॥

श्रीराम! क्रोध से तपस्या का क्षय हो गया और इन्द्रियाँ अभी तक काबू में न आ सकीं, यह विचारकर उन महातेजस्वी मुनि के चित्त को शान्ति नहीं मिलती थी॥ १६॥

बभूवास्य मनश्चिन्ता तपोऽपहरणे कृते।
नैवं क्रोधं गमिष्यामि न च वक्ष्ये कथंचन॥१७॥

तपस्या का अपहरण हो जाने पर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि ‘अब से न तो क्रोध करूँगा और न किसी भी अवस्था में मुँह से कुछ बोलूँगा। १७॥

अथवा नोच्छ्वसिष्यामि संवत्सरशतान्यपि।
अहं हि शोषयिष्यामि आत्मानं विजितेन्द्रियः॥ १८॥

‘अथवा सौ वर्षों तक मैं श्वास भी न लूँगा। इन्द्रियों को जीतकर इस शरीर को सुखा डालूँगा॥१८॥

तावद् यावद्धि मे प्राप्तं ब्राह्मण्यं तपसार्जितम्।
अनुच्छ्वसन्नभुजानस्तिष्ठेयं शाश्वतीः समाः॥ १९॥

‘जब तक अपनी तपस्या से उपार्जित ब्राह्मणत्व मुझे प्राप्त न होगा, तब तक चाहे अनन्त वर्ष बीत जायँ, मैं बिना खाये-पीये खड़ा रहूँगा और साँस तक न लूँगा। १९॥

नहि मे तप्यमानस्य क्षयं यास्यन्ति मूर्तयः।
एवं वर्षसहस्रस्य दीक्षां स मुनिपुंगवः।
चकाराप्रतिमां लोके प्रतिज्ञां रघुनन्दन॥२०॥

‘तपस्या करते समय मेरे शरीर के अवयव कदापि नष्ट नहीं होंगे।’ रघुनन्दन! ऐसा निश्चय करके मुनिवर विश्वामित्र ने पुनः एक हजार वर्षां तक तपस्या करने के लिये दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी संसार में कहीं तुलना नहीं है।॥ २०॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे चतुःषष्टितमः सर्गः॥६४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६४॥


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Shivangi

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