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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 68 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 68

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
अष्टषष्टितमः सर्गः (सर्ग 68)

(राजा जनक का संदेश पाकर मन्त्रियों सहित महाराज दशरथ का मिथिला जाने के लिये उद्यत होना)

 

जनकेन समादिष्टा दूतास्ते क्लान्तवाहनाः।
त्रिरात्रमुषिता मार्गे तेऽयोध्यां प्राविशन् पुरीम्॥

राजा जनक की आज्ञा पाकर उनके दूत अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए। रास्ते में वाहनों के थक जाने के कारण तीन रात विश्राम करके चौथे दिन वे अयोध्यापुरी में जा पहुँचे॥१॥

ते राजवचनाद् गत्वा राजवेश्म प्रवेशिताः।
ददृशुर्देवसंकाशं वृद्धं दशरथं नृपम्॥२॥

राजा की आज्ञा से उनका राजमहल में प्रवेश हुआ,वहाँ जाकर उन्होंने देवतुल्य तेजस्वी बूढ़े महाराज दशरथ का दर्शन किया॥२॥

बद्धाञ्जलिपुटाः सर्वे दूता विगतसाध्वसाः।
राजानं प्रश्रितं वाक्यमब्रुवन् मधुराक्षरम्॥३॥
मैथिलो जनको राजा साग्निहोत्रपुरस्कृतः।
मुहुर्मुहुर्मधुरया स्नेहसंरक्तया गिरा॥४॥
कुशलं चाव्ययं चैव सोपाध्यायपुरोहितम्।
जनकस्त्वां महाराज पृच्छते सपुरःसरम्॥५॥

उन सभी दूतों ने दोनों हाथ जोड़ निर्भय हो राजा से मधुर वाणी में यह विनययुक्त बात कही—’महाराज! मिथिलापति राजा जनक ने अग्निहोत्र की अग्नि को सामने रखकर स्नेहयुक्त मधुर वाणी में सेवकों सहित आपका तथा आपके उपाध्याय और पुरोहितों का बारम्बार कुशल-मंगल पूछा है॥ ३–५॥

पृष्ट्वा कुशलमव्यग्रं वैदेहो मिथिलाधिपः।
कौशिकानुमते वाक्यं भवन्तमिदमब्रवीत्॥६॥

‘इस प्रकार व्यग्रतारहित कुशल पूछकर मिथिलापति विदेहराजने महर्षि विश्वामित्रकी आज्ञासे आपको यह संदेश दिया है॥६॥

पूर्वं प्रतिज्ञा विदिता वीर्यशुल्का ममात्मजा।
राजानश्च कृतामर्षा निर्वीर्या विमुखीकृताः॥७॥

‘राजन् ! आपको मेरी पहले की हुई प्रतिज्ञाका हाल मालूम होगा। मैंने अपनी पुत्री के विवाह के लिये पराक्रम का ही शुल्क नियत किया था। उसे सुनकर कितने ही राजा अमर्ष में भरे हुए आये; किंतु यहाँ पराक्रमहीन सिद्ध हुए और विमुख होकर घर लौट गये॥७॥

सेयं मम सुता राजन् विश्वामित्रपुरस्कृतैः।
यदृच्छयागतै राजन् निर्जिता तव पुत्रकैः॥८॥

‘नरेश्वर! मेरी इस कन्या को विश्वामित्रजी के साथ अकस्मात् घूमते-फिरते आये हुए आपके पुत्र श्रीराम ने अपने पराक्रम से जीत लिया है॥८॥

तच्च रत्नं धनुर्दिव्यं मध्ये भग्नं महात्मना।
रामेण हि महाबाहो महत्यां जनसंसदि॥९॥

‘महाबाहो! महात्मा श्रीराम ने महान् जनसमुदाय के मध्य मेरे यहाँ रखे हुए रत्नस्वरूप दिव्य धनुष को बीच से तोड़ डाला है॥९॥

अस्मै देया मया सीता वीर्यशुल्का महात्मने।
प्रतिज्ञां तर्तुमिच्छामि तदनुज्ञातुमर्हसि॥१०॥

‘अतः मैं इन महात्मा श्रीरामचन्द्रजी को अपनी वीर्यशुल्का कन्या सीता प्रदान करूँगा। ऐसा करके मैं अपनी प्रतिज्ञा से पार होना चाहता हूँ। आप इसके लिये मुझे आज्ञा देने की कृपा करें॥ १० ॥

सोपाध्यायो महाराज पुरोहितपुरस्कृतः।
शीघ्रमागच्छ भद्रं ते द्रष्टुमर्हसि राघवौ॥११॥

‘महाराज! आप अपने गुरु एवं पुरोहित के साथ यहाँ शीघ्र पधारें और अपने दोनों पुत्र रघुकुलभूषण श्रीराम और लक्ष्मण को देखें। आपका भला हो॥ ११॥

प्रतिज्ञां मम राजेन्द्र निर्वर्तयितुमर्हसि।
पुत्रयोरुभयोरेव प्रीतिं त्वमुपलप्स्यसे॥१२॥

‘राजेन्द्र ! यहाँ पधार कर आप मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण करें। यहाँ आने से आपको अपने दोनों पुत्रों के विवाहजनित आनन्द की प्राप्ति होगी॥ १२ ॥

एवं विदेहाधिपतिर्मधुरं वाक्यमब्रवीत्।
विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः शतानन्दमते स्थितः॥१३॥

‘राजन्! इस तरह विदेहराज ने आपके पास यह मधुर संदेश भेजा था। इसके लिये उन्हें विश्वामित्रजी की आज्ञा और शतानन्दजी की सम्मति भी प्राप्त हुई थी’ ॥ १३॥

दूतवाक्यं तु तच्छ्रुत्वा राजा परमहर्षितः।
वसिष्ठं वामदेवं च मन्त्रिणश्चैवमब्रवीत्॥१४॥

संदेशवाहक मन्त्रियों का यह वचन सुनकर राजा दशरथ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने महर्षि वसिष्ठ, वामदेव तथा अन्य मन्त्रियों से कहा- ॥१४॥

गुप्तः कुशिकपुत्रेण कौसल्यानन्दवर्धनः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विदेहेषु वसत्यसौ॥ १५॥

‘कुशिकनन्दन विश्वामित्र से सुरक्षित हो कौसल्या का आनन्दवर्धन करने वाले श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ विदेह देश में निवास करते हैं।॥ १५॥

दृष्टवीर्यस्तु काकुत्स्थो जनकेन महात्मना।
सम्प्रदानं सुतायास्तु राघवे कर्तुमिच्छति॥१६॥

‘वहाँ महात्मा राजा जनकने ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामके पराक्रमको प्रत्यक्ष देखा है। इसलिये वे अपनी पुत्री सीताका विवाह रघुकुलरत्न रामके साथ करना चाहते हैं॥ १६॥

यदि वो रोचते वृत्तं जनकस्य महात्मनः।
पुरी गच्छामहे शीघ्रं मा भूत् कालस्य पर्ययः॥१७॥

‘यदि आप लोगों की रुचि एवं सम्मति हो तो हमलोग शीघ्र ही महात्मा जनक की मिथिलापुरी को चलें इसमें विलम्ब न हो’ ॥ १७ ॥

मन्त्रिणो बाढमित्याहुः सह सर्वैर्महर्षिभिः।
सुप्रीतश्चाब्रवीद् राजा श्वो यात्रेति च मन्त्रिणः॥ १८॥

यह सुनकर समस्त महर्षियों सहित मन्त्रियों ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर एक स्वर से चलने की सम्मति दी। राजा बड़े प्रसन्न हुए और मन्त्रियों से बोले—’कल सबेरे ही यात्रा कर देनी चाहिये’ ॥ १८ ॥

मन्त्रिणस्तु नरेन्द्रस्य रात्रिं परमसत्कृताः।
ऊषुः प्रमुदिताः सर्वे गुणैः सर्वैः समन्विताः॥ १९॥

महाराज दशरथ के सभी मन्त्री समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे। राजा ने उनका बड़ा सत्कार किया। अतः बारात चलने की बात सुनकर उन्होंने बड़े आनन्द से वह रात्रि व्यतीत की॥ १९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डेऽष्टषष्टितमः सर्गः॥ ६८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अड़सठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६८॥


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Shivangi

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