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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 70 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 70

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
सप्ततितमः सर्गः (सर्ग 70)

(राजा जनक का अपने भाई कुशध्वज को सांकाश्या नगरी से बुलवाना,वसिष्ठजी का श्रीराम और लक्ष्मण के लिये सीता तथा ऊर्मिला को वरण करना)

 

ततः प्रभाते जनकः कृतकर्मा महर्षिभिः ।
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञः शतानन्दं पुरोहितम्॥१॥

तदनन्तर जब सबेरा हुआ और राजा जनक महर्षियों के सहयोग से अपना यज्ञ-कार्य सम्पन्न कर चुके, तब वे वाक्यमर्मज्ञ नरेश अपने पुरोहित शतानन्दजी से इस प्रकार बोले- ॥१॥ ।

भ्राता मम महातेजा वीर्यवानतिधार्मिकः।
कुशध्वज इति ख्यातः पुरीमध्यवसच्छुभाम्॥२॥
वार्याफलकपर्यन्तां पिबन्निक्षुमती नदीम्।
सांकाश्यां पुण्यसंकाशां विमानमिव पुष्पकम्॥ ३॥

‘ब्रह्मन्! मेरे महातेजस्वी और पराक्रमी भाई कुशध्वज जो अत्यन्त धर्मात्मा हैं, इस समय इक्षुमती नदी का जल पीते हुए उसके किनारे बसी हुई कल्याणमयी सांकाश्या नगरी में निवास करते हैं। उसके चारों ओर के परकोटों की रक्षा के लिये शत्रुओं के निवारण में समर्थ बड़े-बड़े यन्त्र लगाये गये हैं। वह पुरी पुष्पक विमान के समान विस्तृत तथा पुण्य से उपलब्ध होने वाले स्वर्गलोक के सदृश सुन्दर है॥२-३॥

तमहं द्रष्टुमिच्छामि यज्ञगोप्ता स मे मतः।
प्रीतिं सोऽपि महातेजा इमां भोक्ता मया सह॥ ४॥

‘वहाँ रहने वाले अपने भाई को इस शुभ अवसरपर मैं यहाँ उपस्थित देखना चाहता हूँ; क्योंकि मेरी दृष्टि में वे मेरे इस यज्ञ के संरक्षक हैं। महातेजस्वी कुशध्वज भी मेरे साथ श्रीसीताराम के विवाह सम्बन्धी इस मंगल समारोह का सुख उठावेंगे’॥ ४॥

एवमुक्ते तु वचने शतानन्दस्य संनिधौ।
आगताः केचिदव्यग्रा जनकस्तान् समादिशत्॥

राजा के इस प्रकार कहने पर शतानन्दजी के समीप कुछ धीर स्वभाव के पुरुष आये और राजा जनक ने उन्हें पूर्वोक्त आदेश सुनाया॥५॥

शासनात् तु नरेन्द्रस्य प्रययुः शीघ्रवाजिभिः।
समानेतुं नरव्याघ्रं विष्णुमिन्द्राज्ञया यथा॥६॥

राजा की आज्ञा से वे श्रेष्ठ दूत तेज चलने वाले घोड़ों पर सवार हो पुरुषसिंह कुशध्वज को बुला लाने के लिये चल दिये। मानो इन्द्र की आज्ञा से उनके दूत भगवान् विष्णु को बुलाने जा रहे हों॥६॥

सांकाश्यां ते समागम्य ददृशुश्च कुशध्वजम्।
न्यवेदयन् यथावृत्तं जनकस्य च चिन्तितम्॥७॥

सांकाश्यामें पहुँचकर उन्होंने कुशध्वजसे भेंट की और मिथिलाका यथार्थ समाचार एवं जनकका अभिप्राय भी निवेदन किया॥७॥

तवृत्तं नृपतिः श्रुत्वा दूतश्रेष्ठैर्महाजवैः।
आज्ञया तु नरेन्द्रस्य आजगाम कुशध्वजः॥८॥

उन महावेगशाली श्रेष्ठ दूतों के मुख से मिथिला का सारा वृत्तान्त सुनकर राजा कुशध्वज महाराज जनक की आज्ञा के अनुसार मिथिला में आये॥८॥

स ददर्श महात्मानं जनकं धर्मवत्सलम्।
सोऽभिवाद्य शतानन्दं जनकं चातिधार्मिकम्॥
राजाहँ परमं दिव्यमासनं सोऽध्यरोहत।

वहाँ उन्होंने धर्मवत्सल महात्मा जनक का दर्शन किया फिर शतानन्दजी तथा अत्यन्त धार्मिक जनक को प्रणाम करके वे राजा के योग्य परम दिव्य सिंहासन पर विराजमान हुए ॥ ९ १/२ ॥

उपविष्टावुभौ तौ तु भ्रातरावमितद्युती॥१०॥
प्रेषयामासतुर्वीरौ मन्त्रि श्रेष्ठं सुदामनम्।।
गच्छ मन्त्रिपते शीघ्रमिक्ष्वाकुममितप्रभम्॥११॥
आत्मजैः सह दुर्धर्षमानयस्व समन्त्रिणम्।

 सिंहासन पर बैठे हुए उन दोनों अमिततेजस्वी वीरबन्धुओं ने मन्त्रिप्रवर सुदामन को भेजा और कहा —’मन्त्रिवर! आप शीघ्र ही अमिततेजस्वी इक्ष्वाकु कुलभूषण महाराज दशरथ के पास जाइये और पुत्रों तथा मन्त्रियों सहित उन दुर्जय नरेश को यहाँ बुला लाइये’ ॥ १०-११ १/२॥

औपकार्यां स गत्वा तु रघूणां कुलवर्धनम्॥ १२॥
ददर्श शिरसा चैनमभिवाद्येदमब्रवीत्।

आज्ञा पाकर मन्त्री सुदामन महाराज दशरथ के खेमे में जाकर रघुकुलकी कीर्ति बढ़ाने वाले उननरेश से मिले और मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् इस प्रकार बोले- ॥ १२ १/२॥

अयोध्याधिपते वीर वैदेहो मिथिलाधिपः॥१३॥
स त्वां द्रष्टं व्यवसितः सोपाध्यायपुरोहितम्।

‘वीर अयोध्यानरेश! मिथिलापति विदेहराज जनक इस समय उपाध्याय और पुरोहित सहित आपका दर्शन करना चाहते हैं ॥ १३ १/२ ॥

मन्त्रि श्रेष्ठवचः श्रुत्वा राजा सर्षिगणस्तथा॥१४॥
सबन्धुरगमत् तत्र जनको यत्र वर्तते।

मन्त्रिवर सुदामन की बात सुनकर राजा दशरथ ऋषियों और बन्धु-बान्धवों के साथ उस स्थानपर गये जहाँ राजा जनक विद्यमान थे॥ १४ १/२॥

राजा च मन्त्रिसहितः सोपाध्यायः सबान्धवः॥ १५॥
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो वैदेहमिदमब्रवीत्।

मन्त्री, उपाध्याय और भाई-बन्धुओं सहित राजा दशरथ, जो बोलने की कला जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठथे, विदेहराज जनक से इस प्रकार बोले- ॥ १५ १/२॥

विदितं ते महाराज इक्ष्वाकुकुलदैवतम्॥१६॥
वक्ता सर्वेषु कृत्येषु वसिष्ठो भगवानृषिः।

‘महाराज! आपको तो विदित ही होगा कि इक्ष्वाकुकुल के देवता ये महर्षि वसिष्ठजी हैं। हमारे यहाँ सभी कार्यों में ये भगवान् वसिष्ठ मुनि ही कर्तव्य का उपदेश करते हैं और इन्हीं की आज्ञा का पालन किया जाता है। १६ १/२ ।।

विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः सह सर्वैर्महर्षिभिः॥१७॥
एष वक्ष्यति धर्मात्मा वसिष्ठो मे यथाक्रमम्।

‘यदि सम्पूर्ण महर्षियों सहित विश्वामित्रजी की आज्ञा हो तो ये धर्मात्मा वसिष्ठ ही पहले मेरी कुल परम्परा का क्रमशः परिचय देंगे’ ।। १७ १/२॥

तूष्णीभूते दशरथे वसिष्ठो भगवानृषिः॥१८॥
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो वैदेहं सपुरोधसम्।

यों कहकर जब राजा दशरथ चुप हो गये, तब वाक्यवेत्ता भगवान् वसिष्ठ मुनि पुरोहित सहित विदेहराज से इस प्रकार बोले- ॥ १८ १/२॥

अव्यक्तप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः॥
तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः।
विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्मृतः॥ २०॥

‘ब्रह्माजी की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त है—ये स्वयम्भू हैं, नित्य, शाश्वत और अविनाशी हैं। उनसे मरीचि की उत्पत्ति हुई मरीचि के पुत्र कश्यप हैं, कश्यप से विवस्वान् का और विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ॥ १९-२० ॥

मनुः प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुश्च मनोः सुतः।
तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम्॥ २१॥

‘मनु पहले प्रजापति थे, उनसे इक्ष्वाकु नामक पुत्र हुआ। उन इक्ष्वाकु को ही आप अयोध्याके प्रथम राजा समझें॥ २१॥

इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान् कुक्षिरित्येव विश्रुतः।
कुक्षेरथात्मजः श्रीमान् विकक्षिरुदपद्यत॥२२॥

‘इक्ष्वाकु के पुत्र का नाम कुक्षि था। वे बड़े तेजस्वी थे। कुक्षि से विकुक्षि नामक कान्तिमान् पुत्र का जन्म हुआ॥ २२॥

विकुक्षेस्तु महातेजा बाणः पुत्रः प्रतापवान्।
बाणस्य तु महातेजा अनरण्यः प्रतापवान्॥२३॥

‘विकुक्षि के पुत्र महातेजस्वी और प्रतापी बाण हुए। बाण के पुत्र का नाम अनरण्य था। वे भी बड़े तेजस्वी और प्रतापी थे॥ २३॥

अनरण्यात् पृथुर्जज्ञे त्रिशङ्कस्तु पृथोरपि।
त्रिशङ्कोरभवत् पुत्रो धुन्धुमारो महायशाः॥२४॥
‘अनरण्यसे पृथु और पृथुसे त्रिशंकुका जन्म हुआ।
त्रिशंकुके पुत्र महायशस्वी धुन्धुमार थे॥२४॥
धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो महारथः।
युवनाश्वसुतश्चासीन्मान्धाता पृथिवीपतिः॥ २५॥

‘धुन्धुमार से महातेजस्वी महारथी युवनाश्व का जन्म हुआ। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए, जो समस्त भूमण्डल के स्वामी थे॥ २५ ॥

मान्धातुस्तु सुतः श्रीमान् सुसन्धिरुदपद्यत।
सुसन्धेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसन्धिः प्रसेनजित्॥२६॥

‘मान्धाता से सुसन्धि नामक कान्तिमान् पुत्र का जन्म हुआ। सुसन्धि के भी दो पुत्र हुए-ध्रुवसन्धि और प्रसेनजित्॥ २६॥

यशस्वी ध्रुवसन्धेस्तु भरतो नाम नामतः।
भरतात् तु महातेजा असितो नाम जायत॥२७॥

‘ध्रुवसन्धि से भरत नामक यशस्वी पुत्र का जन्म हुआ। भरत से महातेजस्वी असित की उत्पत्ति हुई। २७॥

यस्यैते प्रतिराजान उदपद्यन्त शत्रवः।
हैहयास्तालजङ्घाश्च शूराश्च शशबिन्दवः॥ २८॥

‘राजा असित के साथ हैहय, तालजङ्घ और शशबिन्दु-इन तीन राजवंशों के लोग शत्रुता रखने लगे थे॥२८॥

तांश्च स प्रतियुध्यन् वै युद्धे राजा प्रवासितः।
हिमवन्तमुपागम्य भार्याभ्यां सहितस्तदा ॥२९॥

‘युद्ध में इन तीनों शत्रुओं का सामना करते हुए राजा असित प्रवासी हो गये। वे अपनी दो रानियों के साथ हिमालय पर आकर रहने लगे॥ २९ ॥

असितोऽल्पबलो राजा कालधर्ममुपेयिवान्।
ढे चास्य भार्ये गर्भिण्यौ बभूवतुरिति श्रुतिः॥ ३०॥

‘राजा असित के पास बहुत थोड़ी सेना शेष रह गयी थी। वे हिमालय पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गये। उस समय उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थीं, ऐसा सुना गया है॥ ३०॥

एका गर्भविनाशार्थं सपत्न्यै सगरं ददौ।।

‘उनमें से एक रानी ने अपनी सौत का गर्भ नष्ट करने के लिये उसे विष युक्त भोजन दे दिया। ३० १/२॥

ततः शैलवरे रम्ये बभूवाभिरतो मुनिः॥३१॥
भार्गवश्च्यवनो नाम हिमवन्तमुपाश्रितः।
तत्र चैका महाभागा भार्गवं देववर्चसम्॥ ३२॥
ववन्दे पद्मपत्राक्षी कांक्षन्ती सुतमुत्तमम्।
तमृषिं साभ्युपागम्य कालिन्दी चाभ्यवादयत्॥

‘उस समय उस रमणीय एवं श्रेष्ठ पर्वत पर भृगुकुल में उत्पन्न हुए महामुनि च्यवन तपस्या में लगे हुए थे। हिमालय पर ही उनका आश्रम था। उन दोनों रानियों में से एक (जिसे जहर दिया गया था)
कालिन्दी नाम से प्रसिद्ध थी। विकसित कमलदल के समान नेत्रों वाली महाभागा कालिन्दी एक उत्तम पुत्र पाने की इच्छा रखती थी। उसने देवतुल्य तेजस्वी भृगुनन्दन च्यवन के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। ३१-३३॥

स तामभ्यवदद् विप्रः पुत्रेप्सुं पुत्रजन्मनि।
तव कुक्षौ महाभागे सुपुत्रः सुमहाबलः॥३४॥
महावीर्यो महातेजा अचिरात् संजनिष्यति।
गरेण सहितः श्रीमान् मा शुचः कमलेक्षणे॥ ३५॥

‘उस समय ब्रह्मर्षि च्यवन ने पुत्रकी अभिलाषा रखने वाली कालिन्दी से पुत्र-जन्म के विषयमें कहा’महाभागे! तुम्हारे उदर में एक महान् बलवान्, महातेजस्वी और महापराक्रमी उत्तम पुत्र है, वह कान्तिमान् बालक थोड़े ही दिनों में गर (जहर) के साथ उत्पन्न होगा। अतः कमललोचने! तुम पुत्र के लिये चिन्ता न करो’॥

च्यवनं च नमस्कृत्य राजपुत्री पतिव्रता।
पत्या विरहिता तस्मात् पुत्रं देवी व्यजायत॥३६॥

‘वह विधवा राजकुमारी कालिन्दी बड़ी पतिव्रता थी। महर्षि च्यवन को नमस्कार करके वह देवी अपने आश्रम पर लौट आयी। फिर समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया॥ ३६॥

सपत्न्या तु गरस्तस्यै दत्तो गर्भजिघांसया।
सह तेन गरेणैव संजातः सगरोऽभवत्॥३७॥

‘उसकी सौत ने उसके गर्भ को नष्ट कर देने के लिये जो गर (विष) दिया था, उसके साथ ही उत्पन्न होने के कारण वह राजकुमार ‘सगर’ नाम से विख्यात हुआ॥ ३७॥

सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादथांशुमान्।
दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः॥ ३८॥

‘सगर के पुत्र असमंज और असमंज के पुत्र अंशुमान् हुए। अंशुमान् के पुत्र दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए॥ ३८॥

भगीरथात् ककुत्स्थश्च ककुत्स्थाच्च रघुस्तथा।
रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः॥३९॥

‘भगीरथ से ककुत्स्थ और ककुत्स्थ से रघु का जन्म हुआ। रघु के तेजस्वी पुत्र प्रवृद्ध हुए, जो शाप से राक्षस हो गये थे॥ ३९॥

कल्माषपादोऽप्यभवत् तस्माज्जातस्तु शङ्खणः।
सुदर्शनः शङ्खणस्य अग्निवर्णः सुदर्शनात्॥ ४०॥

‘वे ही कल्माषपाद नाम से भी प्रसिद्ध हुए थे। उनसे शङ्खण नामक पुत्र का जन्म हुआ था। शङ्खण के पुत्र सुदर्शन और सुदर्शन के अग्निवर्ण हुए॥ ४०॥

शीघ्रगस्त्वग्निवर्णस्य शीघ्रगस्य मरुः सुतः।
मरोः प्रशुश्रुकस्त्वासीदम्बरीषः प्रशुश्रुकात्॥ ४१॥

‘अग्निवर्ण के शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु थे। मरु से प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक से अम्बरीष की उत्पत्ति हुई॥

अम्बरीषस्य पुत्रोऽभून्नहुषश्च महीपतिः।
नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययातिजः॥४२॥
नाभागस्य बभूवाज अजाद् दशरथोऽभवत्।
अस्माद् दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥ ४३॥

‘अम्बरीष के पुत्र राजा नहुष हुए। नहुष के ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग थे। नाभाग के अज हुए,अज से दशरथका जन्म हुआ। इन्हीं महाराज दशरथ से ये दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उत्पन्न हुए हैं। ४२-४३॥

आदिवंशविशुद्धानां राज्ञां परमधर्मिणाम्।
इक्ष्वाकुकुलजातानां वीराणां सत्यवादिनाम्॥ ४४॥

‘इक्ष्वाकुकुल में उत्पन्न हुए राजाओं का वंश आदि काल से ही शुद्ध रहा है। ये सब-के-सब परम धर्मात्मा, वीर और सत्यवादी होते आये हैं। ४४ ॥

रामलक्ष्मणयोरर्थे त्वत्सुते वरये नृप।
सदृशाभ्यां नरश्रेष्ठ सदृशे दातुमर्हसि ॥४५॥

‘नरश्रेष्ठ ! नरेश्वर ! इसी इक्ष्वाकुकुल में उत्पन्न हुए श्रीराम और लक्ष्मण के लिये मैं आपकी दो कन्याओं का वरण करता हूँ। ये आपकी कन्याओं के योग्य हैं और आपकी कन्याएँ इनके योग्य। अतः आप इन्हें कन्यादान करें’॥ ४५ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्ततितमः सर्गः॥७०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।७०॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 70 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 70

  • Dr. Bharat Sharma

    Same as previously presented.

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