वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 71 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 71
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
एकसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 71)
(राजा जनक का अपने कल का परिचय देते हुए श्रीराम और लक्ष्मण के लिये क्रमशः सीता और ऊर्मिला को देने की प्रतिज्ञा करना)
एवं ब्रुवाणं जनकः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः।
श्रोतुमर्हसि भद्रं ते कुलं नः परिकीर्तितम्॥१॥
प्रदाने हि मुनिश्रेष्ठ कुलं निरवशेषतः।
वक्तव्यं कुलजातेन तन्निबोध महामते॥२॥
महर्षि वसिष्ठ जब इस प्रकार इक्ष्वाकुवंश का परिचय दे चुके, तब राजा जनक ने हाथ जोड़कर उनसे कहा—’मुनिश्रेष्ठ! आपका भला हो। अब हम भी अपने कुल का परिचय दे रहे हैं, सुनिये। महामते! कुलीन पुरुष के लिये कन्यादान के समय अपने कुल का पूर्ण रूपेण परिचय देना आवश्यक है; अतः आप सुनने की कृपा करें॥ १-२॥
राजाभूत् त्रिषु लोकेषु विश्रुतः स्वेन कर्मणा।
निमिः परमधर्मात्मा सर्वसत्त्ववतां वरः॥३॥
‘प्राचीन काल में निमि नामक एक परम धर्मात्मा राजा हुए हैं, जो सम्पूर्ण धैर्यशाली महापुरुषों में श्रेष्ठ तथा अपने पराक्रम से तीनों लोकों में विख्यात थे॥३॥
तस्य पुत्रो मिथिर्नाम जनको मिथिपुत्रकः।।
प्रथमो जनको राजा जनकादप्युदावसुः॥४॥
‘उनके मिथि नामक एक पुत्र हुआ। मिथि के पुत्र का नाम जनक हुआ। ये ही हमारे कुल में पहले जनक हुए हैं (इन्हीं के नाम पर हमारे वंश का प्रत्येक राजा ‘जनक’ कहलाता है)। जनक से उदावसु का जन्म हुआ॥४॥
उदावसोस्तु धर्मात्मा जातो वै नन्दिवर्धनः।
नन्दिवर्धसुतः शूरः सुकेतुर्नाम नामतः॥५॥
‘उदावसुसे धर्मात्मा नन्दिवर्धन उत्पन्न हुए।
नन्दिवर्धनके शूरवीर पुत्रका नाम सुकेतु हुआ॥ ५॥
सुकेतोरपि धर्मात्मा देवरातो महाबलः।
देवरातस्य राजर्षे—हद्रथ इति स्मृतः॥६॥
‘सुकेतु के भी देवरात नामक पुत्र हुआ। देवरात महान् बलवान् और धर्मात्मा थे। राजर्षि देवरात के बृहद्रथ नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र हुआ॥६॥
बृहद्रथस्य शूरोऽभून्महावीरः प्रतापवान्।
महावीरस्य धृतिमान् सुधृतिः सत्यविक्रमः॥७॥
‘बृहद्रथके पुत्र महावीर हुए, जो शूर और प्रतापी थे। महावीर के सुधृति हुए, जो धैर्यवान् और सत्यपराक्रमी थे॥७॥
सुधृतेरपि धर्मात्मा धृष्टकेतुः सुधार्मिकः।
धृष्टकेतोश्च राजर्षेर्हर्यश्व इति विश्रुतः॥८॥
‘सुधृति के भी धर्मात्मा धृष्टकेतु हुए, जो परम धार्मिक थे।राजर्षि धृष्टकेतु का पुत्र हर्यश्व नाम से विख्यात हुआ॥ ८॥
हर्यश्वस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रतीन्धकः।
प्रतीन्धकस्य धर्मात्मा राजा कीर्तिरथः सुतः॥९॥
‘हर्यश्व के पुत्र मरु, मरु के पुत्र प्रतीन्धक तथा प्रतीन्धक के पुत्र धर्मात्मा राजा कीर्तिरथ हुए॥९॥
पुत्रः कीर्तिरथस्यापि देवमीढ इति स्मृतः।
देवमीढस्य विबुधो विबुधस्य महीध्रकः॥१०॥
‘कीर्तिरथ के पुत्र देवमीढ नाम से विख्यात हुए। देवमीढ के विबुध और विबुध के पुत्र महीध्रक हुए॥ १०॥
महीध्रकसुतो राजा कीर्तिरातो महाबलः।
कीर्तिरातस्य राजर्षेर्महारोमा व्यजायत॥११॥
‘महीध्रक के पुत्र महाबली राजा कीर्तिरात हुए। राजर्षि कीर्तिरात के महारोमा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥
महारोम्णस्तु धर्मात्मा स्वर्णरोमा व्यजायत।
स्वर्णरोम्णस्तु राजर्षेईस्वरोमा व्यजायत॥१२॥
‘महारोमा से धर्मात्मा स्वर्णरोमा का जन्म हुआ। राजर्षि स्वर्णरोमा से ह्रस्वरोमा उत्पन्न हुए॥ १२ ॥
तस्य पुत्रद्वयं राज्ञो धर्मज्ञस्य महात्मनः।
ज्येष्ठोऽहमनुजो भ्राता मम वीरः कुशध्वजः॥ १३॥
‘धर्मज्ञ महात्मा राजा ह्रस्वरोमा के दो पुत्र उत्पन्न हए, जिनमें ज्येष्ठ तो मैं ही हूँ और कनिष्ठ मेरा छोटा भाई वीर कुशध्वज है॥१३॥
मां तु ज्येष्ठं पिता राज्ये सोऽभिषिच्य पिता मम।
कुशध्वजं समावेश्य भारं मयि वनं गतः॥१४॥
‘मेरे पिता मुझ ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर अभिषिक्त करके कुशध्वज का सारा भार मुझे सौंपकर वन में चले गये॥
वृद्धे पितरि स्वर्याते धर्मेण धुरमावहम्।
भ्रातरं देवसंकाशं स्नेहात् पश्यन् कुशध्वजम्॥
‘वृद्ध पिता के स्वर्गगामी हो जानेपर अपने देवतुल्य भाई कुशध्वज को स्नेह-दृष्टि से देखता हुआ मैं इस राज्यका भार धर्म के अनुसार वहन करने लगा॥ १५ ॥
कस्यचित्त्वथ कालस्य सांकाश्यादागतः पुरात्।
सुधन्वा वीर्यवान् राजा मिथिलामवरोधकः॥
‘कुछ काल के अनन्तर पराक्रमी राजा सुधन्वा ने सांकाश्य नगर से आकर मिथिला को चारों ओर से घेर लिया॥१६॥
स च मे प्रेषयामास शैवं धनुरनुत्तमम्।
सीता च कन्या पद्माक्षी मह्यं वै दीयतामिति॥ १७॥
‘उसने मेरे पास दूत भेजकर कहलाया कि ‘तुम शिवजी के परम उत्तम धनुष तथा अपनी कमलनयनी कन्या सीता को मेरे हवाले कर दो’ ॥ १७ ॥
तस्याप्रदानान्महर्षे युद्धमासीन्मया सह।
स हतोऽभिमुखो राजा सुधन्वा तु मया रणे॥ १८॥
‘महर्षे! मैंने उसकी माँग पूरी नहीं की इसलिये मेरे साथ उसका युद्ध हुआ। उस संग्राम में सम्मुखयुद्ध करता हुआ राजा सुधन्वा मेरे हाथ से मारा गया। १८॥
निहत्य तं मुनिश्रेष्ठ सुधन्वानं नराधिपम्।
सांकाश्ये भ्रातरं शूरमभ्यषिञ्चं कुशध्वजम्॥
‘मुनिश्रेष्ठ! राजा सुधन्वा का वध करके मैंने सांकाश्य नगर के राज्य पर अपने शूरवीर भ्राता कुशध्वज को अभिषिक्त कर दिया। १९॥
कनीयानेष मे भ्राता अहं ज्येष्ठो महामुने।
ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते मुनिपुंगव॥२०॥
‘महामुने! ये मेरे छोटे भाई कुशध्वज हैं और मैं इनका बड़ा भाई हूँ। मुनिवर! मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपको दो बहुएँ प्रदान करता हूँ॥ २० ॥
सीतां रामाय भद्रं ते ऊर्मिलां लक्ष्मणाय वै।
वीर्यशुल्कां मम सुतां सीतां सुरसुतोपमाम्॥२१॥
द्वितीयामूर्मिलां चैव त्रिर्वदामि न संशयः।
ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते मुनिपुंगव॥ २२॥
‘आपका भला हो ! मैं सीता को श्रीराम के लिये और ऊर्मिला को लक्ष्मणके लिये समर्पित करता हूँ। पराक्रम ही जिसको पाने का शुल्क (शर्त) था, उस देवकन्या के समान सुन्दरी अपनी प्रथम पुत्री सीता को श्रीराम के लिये तथा दूसरी पुत्री ऊर्मिला को लक्ष्मण के लिये दे रहा हूँ। मैं इस बात को तीन बार दुहराता हूँ, इसमें संशय नहीं है। मुनिप्रवर ! मैं परम प्रसन्न होकर आपको दो बहुएँ दे रहा हूँ’ ॥ २१-२२ ॥
रामलक्ष्मणयो राजन् गोदानं कारयस्व ह।
पितृकार्यं च भद्रं ते ततो वैवाहिकं कुरु॥२३॥
(वसिष्ठजीसे ऐसा कहकर राजा जनक ने महाराज दशरथ से कहा-) ‘राजन्! अब आप श्रीराम और लक्ष्मण के मंगल के लिये इनसे गोदान करवाइये, आपका कल्याण हो। नान्दीमुख श्राद्ध का कार्य भी सम्पन्न कीजिये। इसके बाद विवाह का कार्य आरम्भ कीजियेगा॥ २३॥
मघा ह्यद्य महाबाहो तृतीयदिवसे प्रभो।
फल्गुन्यामुत्तरे राजेस्तस्मिन् वैवाहिकं कुरु।
रामलक्ष्मणयोरर्थे दानं कार्यं सुखोदयम्॥२४॥
‘महाबाहो! प्रभो! आज मघा नक्षत्र है राजन् ! आज के तीसरे दिन उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र में वैवाहिक कार्य कीजियेगा। आज श्रीराम और लक्ष्मण के अभ्युदय के लिये (गो, भूमि, तिल और सुवर्ण आदि का) दान कराना चाहिये; क्योंकि वह भविष्य में सुख देने वाला होता है’ ॥ २४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकसप्ततितमः सर्गः ॥७१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में इकहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ।७१॥
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All as before. No difference.