वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 72 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 72
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
द्विसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 72)
(विश्वामित्र द्वारा भरत और शत्रुज के लिये कुशध्वज की कन्याओं का वरण,राजा दशरथ का अपने पुत्रों के मंगल के लिये नान्दीश्राद्ध एवं गोदान करना)
तमुक्तवन्तं वैदेहं विश्वामित्रो महामुनिः।
उवाच वचनं वीरं वसिष्ठसहितो नृपम्॥१॥
विदेहराज जनक जब अपनी बात समाप्त कर चुके, तब वसिष्ठ सहित महामुनि विश्वामित्र उन वीर नरेश से इस प्रकार बोले- ॥१॥
अचिन्त्यान्यप्रमेयाणि कुलानि नरपुंगव।
इक्ष्वाकूणां विदेहानां नैषां तुल्योऽस्ति कश्चन॥ २॥
‘नरश्रेष्ठ ! इक्ष्वाकु और विदेह दोनों ही राजाओं के वंश अचिन्तनीय हैं। दोनों के ही प्रभाव की कोई सीमा नहीं है। इन दोनों की समानता करने वाला दूसरा कोई राजवंश नहीं है॥२॥
सदृशो धर्मसम्बन्धः सदृशो रूपसम्पदा।
रामलक्ष्मणयो राजन् सीता चोर्मिलया सह॥३॥
‘राजन्! इन दोनों कुलों में जो यह धर्म-सम्बन्ध स्थापित होने जा रहा है, सर्वथा एक-दूसरे के योग्य है। रूप-वैभव की दृष्टि से भी समान योग्यता का है; क्योंकि ऊर्मिला सहित सीता श्रीराम और लक्ष्मण के अनुरूप है॥३॥
वक्तव्यं च नरश्रेष्ठ श्रूयतां वचनं मम।
भ्राता यवीयान् धर्मज्ञ एष राजा कुशध्वजः॥४॥
अस्य धर्मात्मनो राजन् रूपेणाप्रतिमं भुवि।
सुताद्वयं नरश्रेष्ठ पत्न्यर्थं वरयामहे ॥५॥
भरतस्य कुमारस्य शत्रुघ्नस्य च धीमतः।
वरये ते सुते राजंस्तयोरर्थे महात्मनोः॥६॥
‘नरश्रेष्ठ! इसके बाद मुझे भी कुछ कहना है; आप मेरी बात सुनिये। राजन्! आपके छोटे भाई जो ये धर्मज्ञ राजा कुशध्वज बैठे हैं, इन धर्मात्मा नरेश के भी दो कन्याएँ हैं, जो इस भूमण्डल में अनुपम सुन्दरी हैं। नरश्रेष्ठ! भूपाल! मैं आपकी उन दोनों कन्याओं का कुमार भरत और बुद्धिमान् शत्रुघ्न इन दोनों महामनस्वी राजकुमारों के लिये इनकी धर्मपत्नी बनाने के उद्देश्य से वरण करता हूँ॥ ४–६॥
पुत्रा दशरथस्येमे रूपयौवनशालिनः।
लोकपालसमाः सर्वे देवतुल्यपराक्रमाः॥७॥
‘राजा दशरथ के ये सभी पुत्र रूप और यौवन से सुशोभित, लोकपालों के समान तेजस्वी तथा देवताओं के तुल्य पराक्रमी हैं।॥ ७॥
उभयोरपि राजेन्द्र सम्बन्धेनानुबध्यताम्।
इक्ष्वाकुकुलमव्यग्रं भवतः पुण्यकर्मणः॥८॥
‘राजेन्द्र ! इन दोनों भाइयों (भरत और शत्रुघ्न) को भी कन्यादान करके आप इस समस्त इक्ष्वाकुकुल को अपने सम्बन्ध से बाँध लीजिये। आप पुण्यकर्मा पुरुष हैं; आपके चित्त में व्यग्रता नहीं आनी चाहिये (अर्थात् आप यह सोचकर व्यग्र न हों कि ऐसे महान् सम्राट् के साथ मैं एक ही समय चार वैवाहिक सम्बन्धों का निर्वाह कैसे कर सकता हूँ।)’ ॥ ८॥
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा वसिष्ठस्य मते तदा।
जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यमुवाच मुनिपुंगवौ॥९॥
वसिष्ठजी की सम्मति के अनुसार विश्वामित्रजी का यह वचन सुनकर उस समय राजा जनक ने हाथ जोड़कर उन दोनों मुनिवरों से कहा- ॥९॥
कुलं धन्यमिदं मन्ये येषां तौ मुनिपुंगवौ।
सदृशं कुलसम्बन्धं यदाज्ञापयतः स्वयम्॥१०॥
‘मुनिपुंगवो! मैं अपने इस कुल को धन्य मानता हूँ, जिसे आप दोनों इक्ष्वाकुवंश के योग्य समझकर इसके साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिये स्वयं आज्ञा दे रहे हैं।
एवं भवतु भद्रं वः कुशध्वजसुते इमे।
पत्न्यौ भजेतां सहितौ शत्रुघ्नभरतावुभौ ॥११॥
‘आपका कल्याण हो आप जैसा कहते हैं, ऐसा ही हो ये सदा साथ रहने वाले दोनों भाई भरत और शत्रुघ्न कुशध्वजकी इन दोनों कन्याओं (में से एकएक) को अपनी-अपनी धर्मपत्नी के रूपमें ग्रहण करें॥११॥
एकाला राजपुत्रीणां चतसृणां महामुने।
पाणीन् गृह्णन्तु चत्वारो राजपुत्रा महाबलाः॥ १२॥
‘महामुने! ये चारों महाबली राजकुमार एक ही दिन हमारी चारों राजकुमारियों का पाणिग्रहण करें। १२॥
उत्तरे दिवसे ब्रह्मन् फल्गुनीभ्यां मनीषिणः।
वैवाहिकं प्रशंसन्ति भगो यत्र प्रजापतिः॥१३॥
‘ब्रह्मन्! अगले दो दिन फाल्गुनी नामक नक्षत्रों से युक्त हैं। इनमें (पहले दिन तो पूर्वा फाल्गुनी है और) दूसरे दिन (अर्थात् परसों) उत्तरा फाल्गुनी नामक नक्षत्र होगा, जिसके देवता प्रजापति भग (तथा अर्यमा) हैं। मनीषी पुरुष उस नक्षत्र में वैवाहिक कार्य करना बहुत उत्तम बताते हैं ॥ १३॥
एवमुक्त्वा वचः सौम्यं प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः।
उभौ मुनिवरौ राजा जनको वाक्यमब्रवीत्॥ १४॥
इस प्रकार सौम्य (मनोहर) वचन कहकर राजा जनक उठकर खड़े हो गये और उन दोनों मुनिवरों से हाथ जोड़कर बोले- ॥ १४ ॥
परो धर्मः कृतो मह्यं शिष्योऽस्मि भवतोस्तथा।
इमान्यासनमुख्यानि आस्यतां मुनिपुंगवौ॥ १५॥
‘आपलोगोंने कन्याओं का विवाह निश्चित करके मेरे लिये महान् धर्मका सम्पादन कर दिया; मैं आप दोनों का शिष्य हूँ। मुनिवरो! इन श्रेष्ठ आसनों पर आप दोनों विराजमान हों॥ १५॥
यथा दशरथस्येयं तथायोध्या पुरी मम।
प्रभुत्वे नास्ति संदेहो यथार्ह कर्तुमर्हथ॥१६॥
‘आपके लिये जैसी राजा दशरथ की अयोध्या है, वैसी ही यह मेरी मिथिलापुरी भी है। आपका इस पर पूरा अधिकार है, इसमें संदेह नहीं; अतः आप हमें यथायोग्य आज्ञा प्रदान करते रहें’॥१६॥
तथा ब्रुवति वैदेहे जनके रघुनन्दनः।
राजा दशरथो हृष्टः प्रत्युवाच महीपतिम्॥१७॥
विदेहराज जनक के ऐसा कहने पर रघुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले राजा दशरथ ने प्रसन्न होकर उन मिथिला नरेश को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ १७ ॥
युवामसंख्येयगुणौ भ्रातरौ मिथिलेश्वरौ।
ऋषयो राजसङ्घाश्च भवद्भयामभिपूजिताः॥१८॥
‘मिथिलेश्वर! आप दोनों भाइयों के गुण असंख्य हैं; आप लोगों ने ऋषियों तथा राज समूहों का भलीभाँति सत्कार किया है॥ १८॥
स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गमिष्यामः स्वमालयम्।
श्राद्धकर्माणि विधिवद्विधास्य इति चाब्रवीत्॥ १९॥
‘आपका कल्याण हो, आप मंगल के भागी हों अब हम अपने विश्रामस्थान को जायँगे। वहाँ जाकर मैं विधिपूर्वक नान्दीमुखश्राद्ध का कार्य सम्पन्न करूँगा।’ यह बात भी राजा दशरथ ने कही॥ १९ ॥
तमापृष्ट्वा नरपतिं राजा दशरथस्तदा।
मुनीन्द्रौ तौ पुरस्कृत्य जगामाशु महायशाः॥ २०॥
तदनन्तर मिथिला नरेश की अनुमति ले महायशस्वी राजा दशरथ मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र और वसिष्ठ को आगे करके तुरंत अपने आवास स्थान पर चले गये॥ २० ॥
स गत्वा निलयं राजा श्राद्धं कृत्वा विधानतः।
प्रभाते काल्यमुत्थाय चक्रे गोदानमुत्तमम्॥ २१॥
डेरे पर जाकर राजा दशरथ ने (अपराह्नकालमें) विधिपूर्वक आभ्युदयिक श्राद्ध सम्पन्न किया। तत्पश्चात् (रात बीतने पर) प्रातःकाल उठकर राजा ने तत्कालोचित उत्तम गोदान-कर्म किया॥ २१॥
गवां शतसहस्रं च ब्राह्मणेभ्यो नराधिपः।
एकैकशो ददौ राजा पुत्रानुद्दिश्य धर्मतः॥ २२॥
राजा दशरथ ने अपने एक-एक पुत्र के मंगल के लिये धर्मानुसार एक-एक लाख गौएँ ब्राह्मणों को दान ‘आपका कल्याण हो, आप मंगल के भागी हों अब हम अपने विश्रामस्थान को जायँगे। वहाँ जाकर मैं विधिपूर्वक नान्दीमुखश्राद्ध का कार्य सम्पन्न करूँगा।’ यह बात भी राजा दशरथ ने कही॥ १९ ॥
तमापृष्ट्वा नरपतिं राजा दशरथस्तदा।
मुनीन्द्रौ तौ पुरस्कृत्य जगामाशु महायशाः॥ २०॥
तदनन्तर मिथिलानरेश की अनुमति ले महायशस्वी राजा दशरथ मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र और वसिष्ठ को आगे करके तुरंत अपने आवासस्थान पर चले गये॥ २० ॥
स गत्वा निलयं राजा श्राद्धं कृत्वा विधानतः।
प्रभाते काल्यमुत्थाय चक्रे गोदानमुत्तमम्॥ २१॥
डेरे पर जाकर राजा दशरथ ने (अपराह्नकाल में) विधिपूर्वक आभ्युदयिक श्राद्ध सम्पन्न किया। तत्पश्चात् (रात बीतनेपर) प्रातःकाल उठकर राजाने तत्कालोचित उत्तम गोदान-कर्म किया॥ २१॥
गवां शतसहस्रं च ब्राह्मणेभ्यो नराधिपः।
एकैकशो ददौ राजा पुत्रानुद्दिश्य धर्मतः॥ २२॥
राजा दशरथ ने अपने एक-एक पुत्र के मंगल के लिये धर्मानुसार एक-एक लाख गौएँ ब्राह्मणों को दान की॥ २२॥
सुवर्णशृङ्ग्यः सम्पन्नाः सवत्साः कांस्यदोहनाः।
गवां शतसहस्राणि चत्वारि पुरुषर्षभः॥२३॥
वित्तमन्यच्च सुबहु द्विजेभ्यो रघुनन्दनः।
ददौ गोदानमुद्दिश्य पुत्राणां पुत्रवत्सलः॥२४॥
उन सबके सींग सोने से मढ़े हुए थे। उन सबके साथ बछड़े और काँसे के दुग्धपात्र थे। इस प्रकार पुत्रवत्सल रघुकुलनन्दन पुरुषशिरोमणि राजा दशरथ ने चार लाख गौओं का दान किया तथा और भी बहुत-सा धन पुत्रों के लिये गोदान के उद्देश्य से ब्राह्मणों को दिया॥ २३-२४॥
स सुतैः कृतगोदानैर्वृतः सन्नृपतिस्तदा।
लोकपालैरिवाभाति वृतः सौम्यः प्रजापतिः॥ २५॥
गोदान-कर्म सम्पन्न करके आये हुए पुत्रों से घिरे हुए राजा दशरथ उस समय लोकपालों से घिरकर बैठे हुए शान्तस्वभाव प्रजापति ब्रह्मा के समान शोभा पा रहे थे॥ २५ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे द्विसप्ततितमः सर्गः ॥७२॥
श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ। ७२॥
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As before. Very enjoyable. Would like to finish reading the whole book.