वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 74 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 74
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
चतुःसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 74)
(राजा जनक का कन्याओं को भारी दहेज देकर राजा दशरथ आदि को विदा करना, मार्ग में शुभाशुभ शकुन और परशुरामजी का आगमन)
अथ रात्र्यां व्यतीतायां विश्वामित्रो महामुनिः।
आपृष्ट्वा तौ च राजानौ जगामोत्तरपर्वतम्॥१॥
तदनन्तर जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब महामुनि विश्वामित्र राजा जनक और महाराज दशरथ दोनों राजाओं से पूछकर उनकी स्वीकृति ले उत्तरपर्वतपर (हिमालय की शाखाभूत पर्वतपर, जहाँ कौशिकी के तटपर उनका आश्रम था, वहाँ) चले गये॥१॥
विश्वामित्रे गते राजा वैदेहं मिथिलाधिपम्।
आपृष्ट्वैव जगामाशु राजा दशरथः पुरीम्॥२॥
विश्वामित्रजी के चले जाने पर महाराज दशरथ भी विदेहराज मिथिला नरेश से अनुमति लेकर ही शीघ्र अपनी पुरी अयोध्या को जाने के लिये तैयार हो गये। २॥
अथ राजा विदेहानां ददौ कन्याधनं बहु।
गवां शतसहस्राणि बहूनि मिथिलेश्वरः॥३॥
कम्बलानां च मुख्यानां क्षौमान् कोट्यम्बराणि च।
हस्त्यश्वरथपादातं दिव्यरूपं स्वलंकृतम्॥४॥
उस समय विदेहराज जनक ने अपनी कन्याओं के निमित्त दहेज में बहुत अधिक धन दिया। उन मिथिला-नरेश ने कई लाख गौएँ, कितनी ही अच्छी अच्छी कालीने तथा करोड़ों की संख्या में रेशमी और सूती वस्त्र दिये, भाँति-भाँति के गहनों से सजे हुए बहुत-से दिव्य हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक भेंट किये॥३-४॥
ददौ कन्याशतं तासां दासीदासमनुत्तमम्।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य मुक्तानां विद्रुमस्य च॥५॥
अपनी पुत्रियों के लिये सहेली के रूप में उन्होंने सौ सौ कन्याएँ तथा उत्तम दास-दासियाँ अर्पित की। इन सबके अतिरिक्त राजा ने उन सबके लिये एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रजतमुद्रा, मोती तथा मूंगे भी दिये॥५॥
ददौ राजा सुसंहृष्टः कन्याधनमनुत्तमम्।
दत्त्वा बहुविधं राजा समनुज्ञाप्य पार्थिवम्॥६॥
प्रविवेश स्वनिलयं मिथिलां मिथिलेश्वरः।
राजाप्ययोध्याधिपतिः सह पुत्रैर्महात्मभिः॥७॥
ऋषीन् सर्वान् पुरस्कृत्य जगाम सबलानुगः।
इस प्रकार मिथिलापति राजा जनक ने बड़े हर्ष के साथ उत्तमोत्तम कन्याधन (दहेज) दिया। नाना प्रकार की वस्तुएँ दहेज में देकर महाराज दशरथ की आज्ञा ले वे पुनः मिथिलानगर के भीतर अपने महल में लौट आये। उधर अयोध्यानरेश राजा दशरथ भी सम्पूर्ण महर्षियों को आगे करके अपने महात्मा पुत्रों, सैनिकों तथा सेवकों के साथ अपनी राजधानी की ओर प्रस्थित हुए॥६-७ १/२॥
गच्छन्तं तु नरव्याघ्रं सर्षिसङ्गं सराघवम्॥८॥
घोरास्त पक्षिणो वाचो व्याहरन्ति समन्ततः।
भौमाश्चैव मृगाः सर्वे गच्छन्ति स्म प्रदक्षिणम्॥
उस समय ऋषि-समूह तथा श्रीरामचन्द्रजी के साथ यात्रा करते हुए पुरुषसिंह महाराज दशरथके चारों ओर भयंकर बोली बोलने वाले पक्षी चहचहाने लगे और भूमिपर विचरने वाले समस्त मृग उन्हें दाहिने रखकर जाने लगे॥ ८-९॥
तान् दृष्ट्वा राजशार्दूलो वसिष्ठं पर्यपृच्छत।
असौम्याः पक्षिणो घोरा मृगाश्चापि प्रदक्षिणाः॥ १०॥
किमिदं हृदयोत्कम्पि मनो मम विषीदति।
उन सबको देखकर राजसिंह दशरथने वसिष्ठजी से पूछा-‘मुनिवर ! एक ओर तो ये भयंकर पक्षी घोर शब्द कर रहे हैं और दूसरी ओर ये मृग हमें दाहिनी ओर करके जा रहे हैं; यह अशुभ और शुभ दो प्रकार का शकुन कैसा? यह मेरे हृदय को कम्पित किये देता है मेरा मन विषाद में डूबा जाता है’ ॥ १० १/२॥
राज्ञो दशरथस्यैतच्छ्रुत्वा वाक्यं महानृषिः॥११॥
उवाच मधुरां वाणीं श्रूयतामस्य यत् फलम्।
उपस्थितं भयं घोरं दिव्यं पक्षिमुखाच्च्युतम्॥ १२॥
मृगाः प्रशमयन्त्येते संतापस्त्यज्यतामयम्।
राजा दशरथ का यह वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठ ने । मधुर वाणी में कहा—’राजन्! इस शकुन का जो फल है, उसे सुनिये-आकाश में पक्षियों के मुख से जो बात निकल रही है, वह बताती है कि इस समय कोई घोर भय उपस्थित होने वाला है, परंतु हमें दाहिने रखकर जाने वाले ये मृग उस भय के शान्त हो जाने की सूचना दे रहे हैं; इसलिये आप यह चिन्ता छोड़िये’ ॥ ११-१२ १/२॥
तेषां संवदतां तत्र वायुः प्रादुर्बभूव ह॥१३॥
कम्पयन् मेदिनी सर्वां पातयंश्च महाद्रुमान्।
तमसा संवृतः सूर्यः सर्वे नावेदिषुर्दिशः॥१४॥
भस्मना चावृतं सर्वं सम्मूढमिव तबलम्।
इन लोगों में इस प्रकार बातें हो ही रही थीं कि वहाँ बड़े जोरों की आँधी उठी, वह सारी पृथ्वी को कँपाती हुई बड़े-बड़े वृक्षों को धराशायी करने लगी,सूर्य अन्धकार से आच्छन्न हो गये। किसी को दिशाओं का भान न रहा धूल से ढक जाने के कारण वह सारी सेना मूर्च्छित-सी हो गयी॥ १३-१४ १/२ ॥
वसिष्ठ ऋषयश्चान्ये राजा च ससुतस्तदा ॥ १५॥
ससंज्ञा इव तत्रासन् सर्वमन्यद्विचेतनम्।
तस्मिंस्तमसि घोरे तु भस्मच्छन्नेव सा चमूः॥ १६॥
उस समय केवल वसिष्ठ मुनि, अन्यान्य ऋषियों तथा पुत्रों सहित राजा दशरथ को ही चेत रह गया था, शेष सभी लोग अचेत हो गये थे। उस घोर अन्धकार में राजा की वह सेना धूल से आच्छादित-सी हो गयी थी॥ १५-१६॥
ददर्श भीमसंकाशं जटामण्डलधारिणम्।
भार्गवं जामदग्नयेयं राजा राजविमर्दनम्॥१७॥
कैलासमिव दुर्धर्षं कालाग्निमिव दुःसहम्।
ज्वलन्तमिव तेजोभिर्दुर्निरीक्ष्यं पृथग्जनैः॥ १८॥
स्कन्धे चासज्ज्य परशुं धनुर्विद्युद्गणोपमम्।
प्रगृह्य शरमुग्रं च त्रिपुरनं यथा शिवम्॥१९॥
उस समय राजा दशरथ ने देखा क्षत्रिय राजाओं का मान-मर्दन करने वाले भृगुकुलनन्दन जमदग्नि कुमार परशुराम सामने से आ रहे हैं। वे बडे भयानक-से दिखायी देते थे। उन्होंने मस्तक पर बड़ी बड़ी जटाएँ धारण कर रखी थीं। वे कैलास के समान दुर्जय और कालाग्नि के समान दुःसह प्रतीत होते थे। तेजोमण्डल द्वारा जाज्वल्यमान-से हो रहे थे। साधारण लोगों के लिये उनकी ओर देखना भी कठिन था। वे कंधे पर फरसा रखे और हाथ में विद्युद्गणों के समान दीप्तिमान् धनुष एवं भयंकर बाण लिये त्रिपुरविनाशक भगवान् शिव के समान जान पड़ते थे॥ १७–१९॥
तं दृष्ट्वा भीमसंकाशं ज्वलन्तमिव पावकम्।
वसिष्ठप्रमुखा विप्रा जपहोमपरायणाः॥२०॥
संगता मुनयः सर्वे संजजल्पुरथो मिथः।
प्रज्वलित अग्नि के समान भयानक-से प्रतीत होने वाले परशुराम को उपस्थित देख जप और होम में तत्पर रहने वाले वसिष्ठ आदि सभी ब्रह्मर्षि एकत्र हो परस्पर इस प्रकार बातें करने लगे— ॥ २० १/२॥
कच्चित् पितृवधामर्षी क्षत्रं नोत्सादयिष्यति॥ २१॥
पूर्वं क्षत्रवधं कृत्वा गतमन्युर्गतज्वरः।
क्षत्रस्योत्सादनं भूयो न खल्वस्य चिकीर्षितम्॥ २२॥
‘क्या अपने पिता के वध से अमर्ष के वशीभूत हो ये क्षत्रियों का संहार नहीं कर डालेंगे? पूर्वकाल में क्षत्रियों का वध करके इन्होंने अपना क्रोध उतार लिया है, अब इनकी बदला लेने की चिन्ता दूर हो चुकी है। अतः फिर क्षत्रियों का संहार करना इनके लिये अभीष्ट नहीं है, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है’। २१-२२॥
एवमुक्त्वाय॑मादाय भार्गवं भीमदर्शनम्।
ऋषयो राम रामेति मधुरं वाक्यमब्रुवन्॥२३॥
ऐसा कहकर ऋषियों ने भयंकर दिखायी देने वाले भृगुनन्दन परशुराम को अर्घ्य लेकर दिया और ‘राम! राम!’ कहकर उनसे मधुर वाणी में बातचीत की। २३॥
प्रतिगृह्य तु तां पूजामृषिदत्तां प्रतापवान्।
रामं दाशरथिं रामो जामदग्नयोऽभ्यभाषत। २४॥
ऋषियों की दी हुई उस पूजा को स्वीकार करके प्रतापी जमदग्निपुत्र परशुरामने दशरथनन्दन श्रीराम से इस प्रकार कहा॥२४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे चतुःसप्ततितमः सर्गः॥ ७४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।७४॥