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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 8 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 8

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
अष्टमः सर्गः (सर्ग 8)

(राजा दशरथ का पुत्र के लिये अश्वमेधयज्ञ करने का प्रस्ताव और मन्त्रियों तथा ब्राह्मणों द्वारा उनका अनुमोदन)

 

तस्य चैवंप्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः।
सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद् वंशकरः सुतः॥१॥

सम्पूर्ण धर्मोको जाननेवाले महात्मा राजा दशरथ ऐसे प्रभावशाली होते हुए भी पुत्रके लिये सदा चिन्तित रहते थे। उनके वंशको चलानेवाला कोई पुत्र नहीं था॥१॥

चिन्तयानस्य तस्यैवं बुद्धिरासीन्महात्मनः।
सुतार्थं वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम्॥२॥

उसके लिये चिन्ता करते-करते एक दिन उन महामनस्वी नरेशके मनमें यह विचार हुआ कि मैं पुत्रप्राप्तिके लिये अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान क्यों न करूँ? ॥

स निश्चितां मतिं कृत्वा यष्टव्यमिति बुद्धिमान्।
मन्त्रिभिः सह धर्मात्मा सर्वैरपि कृतात्मभिः॥३॥

अपने समस्त शुद्ध बुद्धिवाले मन्त्रियोंके साथ परामर्शपूर्वक यज्ञ करने का ही निश्चित विचार करके-

ततोऽब्रवीन्महातेजाः सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तम।
शीघ्रमानय मे सर्वान् गुरूंस्तान् सपुरोहितान्॥४॥

उन महातेजस्वी, बुद्धिमान् एवं धर्मात्मा राजा ने सुमन्त्र से कहा—’मन्त्रिवर! तुम मेरे समस्त गुरुजनों एवं पुरोहितोंको यहाँ शीघ्र बुला ले आओ’ ॥ ४॥

ततः सुमन्त्रस्त्वरितं गत्वा त्वरितविक्रमः।
समानयत् स तान् सर्वान् समस्तान् वेदपारगान्॥५॥

तब शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले सुमन्त्र तुरंत जाकर उन समस्त वेदविद्याके पारंगत मुनियोंको वहाँ बुला लाये।

सुयज्ञं वामदेवं च जाबालिमथ काश्यपम्।
परोहितं वसिष्ठं च ये चाप्यन्ये द्विजोत्तमाः॥६॥
तान् पूजयित्वा धर्मात्मा राजा दशरथस्तदा।
इदं धर्मार्थसहितं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत्॥७॥

सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप, कुलपुरोहित वसिष्ठ तथा और भी जो श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, उन सबकी पूजा करके धर्मात्मा राजा दशरथ ने धर्म और अर्थ से युक्त यह मधुर वचन कहा- ॥६-७॥

मम लालप्यमानस्य सुतार्थं नास्ति वै सुखम्।
तदर्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम॥८॥

‘महर्षियो! मैं सदा पुत्रके लिये विलाप करता रहता हूँ। उसके बिना इस राज्य आदिसे मुझे सुख नहीं मिलता; अतः मैंने यह निश्चय किया है कि मैं पुत्रप्राप्तिके लिये अश्वमेधद्वारा भगवान् का यजन करूँ॥८॥

तदहं यष्टुमिच्छामि शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
कथं प्राप्स्याम्यहं कामं बुद्धिरत्रविचिन्त्यताम्॥९॥

‘मेरी इच्छा है कि शास्त्रोक्त विधिसे इस यज्ञका अनुष्ठान करूँ; अतः किस प्रकार मुझे मेरी मनोवाञ्छित वस्तु प्राप्त होगी? इसका विचार आपलोग यहाँ करें’। ९॥

ततः साध्विति तद्वाक्यं ब्राह्मणाः प्रत्यपूजयन्।
वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे पार्थिवस्य मुखेरितम्॥१०॥

राजाके ऐसा कहनेपर वसिष्ठ आदि सब ब्राह्मणोंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनके मुखसे कहे गये पूर्वोक्त वचनकी प्रशंसा की॥१०॥

ऊचुश्च परमप्रीताः सर्वे दशरथं वचः।
सम्भाराः सम्भियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम्॥११॥

फिर वे सभी अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा दशरथसे बोले—’महाराज! यज्ञ-सामग्रीका संग्रह किया जाय। भूमण्डलमें भ्रमणके लिये यज्ञसम्बन्धी अश्व छोड़ा जाय तथा-

सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम्।
सर्वथा प्राप्स्यसे पुत्रानभिप्रेतांश्च पार्थिव॥१२॥
यस्य ते धार्मिकी बुद्धिरियं पत्रार्थमागता।

सरयू के उत्तर तटपर यज्ञभूमि का निर्माण किया जाय। तुम यज्ञ द्वारा सर्वथा अपनी इच्छा के अनुरूप पुत्र प्राप्त कर लोगे; क्यों कि पुत्रके लिये तुम्हारे हृदय में ऐसी धार्मिक बुद्धि का उदय हुआ है’।

ततस्तुष्टोऽभवद् राजा श्रुत्वैतद् द्विजभाषितम्॥१३॥
अमात्यानब्रवीद् राजा हर्षव्याकुललोचनः।
सम्भाराः सम्भ्रियन्तां मे गुरूणां वचनादिह ॥१४॥

ब्राह्मणोंका यह कथन सुनकर राजा बहुत संतुष्ट हुए। हर्षसे उनके नेत्र चञ्चल हो उठे। वे अपने मन्त्रियोंसे
बोले— ‘गुरुजनोंकी आज्ञाके अनुसार यज्ञकी सामग्री यहाँ एकत्र की जाय।

समर्थाधिष्ठितश्चाश्वः सोपाध्यायो विमुच्यताम्।
सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम्॥१५॥

शक्तिशाली वीरों के संरक्षण में उपाध्याय सहित अश्व को छोड़ा जाय। सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण हो।

शान्तयश्चापि वर्धन्तां यथाकल्पं यथाविधि।
शक्यः प्राप्तुमयं यज्ञः सर्वेणापि महीक्षिता॥१६॥

शास्त्रोक्त विधि के अनुसार क्रमशः शान्तिकर्म का विस्तार किया जाय (जिससे विघ्नोंका निवारण हो)। सभी राजा इसका सम्पादन कर सकते हैं;-

नापराधो भवेत् कष्टो यद्यस्मिन् क्रतुसत्तमे।
छिद्रं हि मृगयन्ते स्म विद्वांसो ब्रह्मराक्षसाः॥१७॥

यदि इस श्रेष्ठ यज्ञमें कष्टप्रद अपराध बन जानेका भय न हो; परंतु ऐसा होना कठिन है; क्योंकि विद्वान् ब्रह्मराक्षस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये छिद्र ढूँढ़ा करते हैं ।

विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति।
तद्यथा विधिपूर्वं मे क्रतुरेष समाप्यते॥१८॥
तथा विधानं क्रियतां समर्थाः साधनेष्विति।

‘विधिहीन यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला यजमान तत्काल नष्ट हो जाता है; अतः मेरा यह यज्ञ जिस तरह विधिपूर्वक सम्पन्न हो सके, वैसा उपाय किया जाय। तुम सब लोग ऐसे साधन प्रस्तुत करने में समर्थ हो’।

तथेति चाब्रुवन् सर्वे मन्त्रिणः प्रतिपूजिताः॥१९॥
पार्थिवेन्द्रस्य तद् वाक्यं यथापूर्वं निशम्य ते।

राजाके द्वारा सम्मानित हुए समस्त मन्त्री पूर्ववत् उनके वचनोंको सुनकर बोले-‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा’

तथा द्विजास्ते धर्मज्ञा वर्धयन्तो नृपोत्तमम्॥२०॥
अनुज्ञातास्ततः सर्वे पुनर्जग्मुर्यथागतम्।

इसी प्रकार वे सभी धर्मज्ञ ब्राह्मण भी नृपश्रेष्ठ दशरथको बधाई देते हुए उनकी आज्ञा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही फिर लौट गये॥

विसर्जयित्वा तान् विप्रान् सचिवानिदमब्रवीत्॥२१॥
ऋत्विग्भिरुपसंदिष्टो यथावत् क्रतुराप्यताम्।

उन ब्राह्मणोंको विदा करके राजाने मन्त्रियोंसे कहा —’पुरोहितोंके उपदेशके अनुसार इस यज्ञको विधिवत् पूर्ण करना चाहिये’

इत्युक्त्वा नृपशार्दूलः सचिवान् समुपस्थितान्॥२२॥
विसर्जयित्वा स्वं वेश्म प्रविवेश महामतिः।

वहाँ उपस्थित हुए मन्त्रियोंसे ऐसा कहकर परम बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ दशरथ उन्हें विदा करके अपने महलमें चले गये।

ततः स गत्वा ताः पत्नीनरेन्द्रो हृदयंगमाः॥२३॥
उवाच दीक्षां विशत यक्ष्येऽहं सुतकारणात्।

वहाँ जाकर नरेशने अपनी प्यारी पत्नियोंसे कहा –’देवियो! दीक्षा ग्रहण करो। मैं पुत्रके लिये यज्ञ करूँगा’।

तासां तेनातिकान्तेन वचनेन सुवर्चसाम्।
मुखपद्मान्यशोभन्त पद्मानीव हिमात्यये॥२४॥

उस मनोहर वचनसे उन सुन्दर कान्तिवाली रानियोंके मुखकमल वसन्तऋतुमें विकसित होनेवाले पङ्कजोंके समान खिल उठे और अत्यन्त शोभा पाने लगे।

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥८॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में आठवाँ सर्ग पूरा हुआ।


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Shiv

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