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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 1 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 1

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
प्रथमः सर्गः (सर्ग 1)

पम्पासरोवर के दर्शन से श्रीराम की व्याकुलता, दोनों भाइयों को ऋष्यमूक की ओर आते देख सुग्रीव तथा अन्य वानरों का भयभीत होना

 

स तां पुष्करिणीं गत्वा पद्मोत्पलझषाकुलाम्।
रामः सौमित्रिसहितो विललापाकुलेन्द्रियः॥१॥

कमल, उत्पल तथा मत्स्यों से भरी हुई उस पम्पा नामक पुष्करिणी के पास पहुँचकर सीता की सुधि आ जाने के कारण श्रीराम की इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। वे विलाप करने लगे उस समय सुमित्राकुमार लक्ष्मण उनके साथ थे॥१॥

तत्र दृष्ट्वैव तां हर्षादिन्द्रियाणि चकम्पिरे।
स कामवशमापन्नः सौमित्रिमिदमब्रवीत्॥२॥

वहाँ पम्पापर दृष्टि पड़ते ही (कमल-पुष्पों में सीता के नेत्रमुख आदि का किञ्चित् सादृश्य पाकर) हर्षोल्लास से श्रीराम की सारी इन्द्रियाँ चञ्चल हो उठीं। उनके मन में सीता के दर्शन की प्रबल इच्छा जाग उठी। उस इच्छा के अधीन-से होकर वे सुमित्राकुमार लक्ष्मण से इस प्रकार बोले- ॥२॥

सौमित्रे शोभते पम्पा वैदूर्यविमलोदका।
फुल्लपद्मोत्पलवती शोभिता विविधैर्दुमैः॥३॥

‘सुमित्रानन्दन! यह पम्पा कैसी शोभा पा रही है? इसका जल वैदूर्यमणि के समान स्वच्छ एवं श्याम है। इसमें बहुत-से पद्म और उत्पल खिले हुए हैं। तट  पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के वृक्षों से इसकी शोभा और भी बढ़ गयी है॥३॥

सौमित्रे पश्य पम्पायाः काननं शुभदर्शनम्।
यत्र राजन्ति शैला वा द्रुमाः सशिखरा इव॥४॥

‘सुमित्राकुमार! देखो तो सही, पम्पा के किनारे का वन कितना सुन्दर दिखायी दे रहा है। यहाँ के ऊँचे ऊँचे वृक्ष अपनी फैली हुई शाखाओं के कारण अनेक शिखरों से युक्त पर्वतों के समान सुशोभित होते हैं॥४॥

मां तु शोकाभिसंतप्तमाधयः पीडयन्ति वै।
भरतस्य च दुःखेन वैदेह्या हरणेन च ॥५॥

‘परंतु मैं इस समय भरत के दुःख और सीताहरण की चिन्ता के शोक से संतप्त हो रहा हूँ। मानसिक वेदनाएँ मुझे बहुत कष्ट पहुँचा रही हैं॥५॥

शोकार्तस्यापि मे पम्पा शोभते चित्रकानना।
व्यवकीर्णा बहुविधैः पुष्पैः शीतोदका शिवा॥

‘यद्यपि मैं शोक से पीड़ित हूँ तो भी मुझे यह पम्पा बड़ी सुहावनी लग रही है। इसके निकटवर्ती वन बड़े विचित्र दिखायी देते हैं। यह नाना प्रकार के फूलों से व्याप्त है। इसका जल बहुत शीतल है और यह बहुत सुखदायिनी प्रतीत होती है॥६॥

नलिनैरपि संछन्ना ह्यत्यर्थशुभदर्शना।
सर्पयालानुचरितामृगजिसमाकुला॥॥

‘कमलों से यह सारी पुष्करिणी ढकी हुई है। इसलिये बड़ी सुन्दर दिखायी देती है। इसके आसपास सर्प तथा हिंसक जन्तु विचर रहे हैं। मृग आदि पशु और पक्षी भी सब ओर छा रहे हैं॥७॥

अधिकं प्रविभात्येतन्नीलपीतं तु शाबलम्।
द्रमाणां विविधैः पुष्पैः परिस्तोमैरिवार्पितम्॥८॥

‘नयी-नयी घासों से ढका हुआ यह स्थान अपनी नीली-पीली आभा के कारण अधिक शोभा पा रहा है। यहाँ वृक्षों के नाना प्रकार के पुष्प सब ओर बिखरे हुए हैं। इससे ऐसा जान पड़ता है मानो यहाँ बहुत-से गलीचे बिछा दिये गये हों॥८॥

पुष्पभारसमृद्धानि शिखराणि समन्ततः।
लताभिः पुष्पिताग्राभिरुपगूढानि सर्वतः॥९॥

‘चारों ओर वृक्षों के अग्रभाग फूलों के भार से लदे होने के कारण समृद्धिशाली प्रतीत होते हैं। ऊपर से खिली हुई लताएँ उनमें सब ओर से लिपटी हुई हैं। ९॥

सुखानिलोऽयं सौमित्रे कालः प्रचुरमन्मथः।
गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः॥१०॥

‘सुमित्रानन्दन! इस समय मन्द-मन्द सुखदायिनी हवा चल रही है, जिससे कामना का उद्दीपन हो रहा है (सीता को देखने की इच्छा प्रबल हो उठी है)। यह चैत्र का महीना है। वृक्षों में फूल और फल लग गये हैं और सब ओर मनोहर सुगन्ध छा रही है॥ १०॥

पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम्।
सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्षं तोयमुचामिव॥११॥

‘लक्ष्मण! फूलों से सुशोभित होने वाले इन वनों के रूप तो देखो। ये उसी तरह फूलों की वर्षा कर रहे हैं जैसे मेघ जल की वृष्टि करते हैं॥ ११॥

प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधाः काननद्रुमाः।
वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति गाम्॥१२॥

‘वन के ये विविध वृक्ष वायु के वेग से झूम-झूमकर रमणीय शिलाओं पर फूल बरसा रहे हैं और यहाँ की भूमि को ढक देते हैं ॥ १२ ॥

पतितैः पतमानैश्च पादपस्थैश्च मारुतः।
कुसुमैः पश्य सौमित्रे क्रीडतीव समन्ततः॥१३॥

‘सुमित्राकुमार! उधर तो देखो, जो वृक्षों से झड़ गये हैं, झड़ रहे हैं तथा जो अभी डालियों में ही लगे हुए हैं, उन सभी फूलों के साथ सब ओर वायु खेल-सा कर रही है॥ १३॥

विक्षिपन् विविधाः शाखां नगानां कुसुमोत्कटाः।
मारुतश्चलितस्थानैः षट्पदैरनुगीयते॥१४॥

‘फूलों से भरी हुई वृक्षों की विभिन्न शाखाओं को झकझोरती हुई वायु जब आगे को बढ़ती है, तब अपने-अपने स्थान से विचलित हुए भ्रमर मानो उसका यशोगान करते हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगते हैं॥ १४॥

मत्तकोकिलसंनादैर्तयन्निव पादपान्।
शैलकंदर निष्क्रान्तः प्रगीत इव चानिलः॥१५॥

‘पर्वत की कन्दरा से विशेष ध्वनि के साथ निकली हुई वायु मानो उच्च स्वर से गीत गा रही है। मतवाले कोकिलों के कलनाद वाद्य का काम देते हैं और उन वाद्यों की ध्वनि के साथ वह वायु इन झूमते हुए वृक्षों को मानो नृत्य की शिक्षा-सी दे रही है।॥ १५ ॥

तेन विक्षिपतात्यर्थं पवनेन समन्ततः।
अमी संसक्तशाखाग्रा ग्रथिता इव पादपाः॥ १६॥

‘वायु के वेगपूर्वक हिलाने से जिनकी शाखाओं के अग्रभाग सब ओर से परस्पर सट गये हैं, वे वृक्ष एक-दूसरे से गुंथे हुए की भाँति जान पड़ते हैं॥ १६॥

स एव सुखसंस्पर्शो वाति चन्दनशीतलः।
गन्धमभ्यवहन् पुण्यं श्रमापनयनोऽनिलः॥१७॥

‘मलयचन्दन का स्पर्श करके बहने वाली यह शीतलवायु शरीर से छू जाने पर कितनी सुखद जान पड़ती है। यह थकावट दूर करती हुई बह रही है और सर्वत्र पवित्र सुगन्ध फैला रही है॥ १७ ॥

अमी पवनविक्षिप्ता विनदन्तीव पादपाः।
षट्पदैरनुकूजद्भिर्वनेषु मधुगन्धिषु॥१८॥

‘मधुर मकरन्द और सुगन्ध से भरे हुए इन वनों में गुनगुनाते हुए भ्रमरों के व्याज से ये वायु द्वारा हिलाये गये वृक्ष मानो नृत्य के साथ गान कर रहे हैं॥ १८ ॥

गिरिप्रस्थेषु रम्येषु पुष्पवद्भिर्मनोरमैः।
संसक्तशिखराः शैला विराजन्ति महाद्रुमैः॥१९॥

‘अपने रमणीय पृष्ठभागों पर उत्पन्न फूलों से सम्पन्न तथा मन को लुभाने वाले विशाल वृक्षों से सटे हुए शिखर वाले पर्वत अद्भुत शोभा पा रहे हैं॥ १९॥

पुष्पसंछन्नशिखरा मारुतोत्क्षेपचञ्चलाः।
अमी मधुकरोत्तंसाः प्रगीता इव पादपाः॥२०॥

‘जिनकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से ढके हैं, जो वायु के झोंके से हिल रहे हैं तथा भ्रमरों को पगड़ी के रूप में सिर पर धारण किये हुए हैं, वे वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो इन्होंने नाचना-गाना आरम्भ कर दिया है॥२०॥

सुपुष्पितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान् समन्ततः।
हाटकप्रतिसंछन्नान् नरान् पीताम्बरानिव॥२१॥

‘देखो, सब ओर सुन्दर फूलों से भरे हुए ये कनेर सोने के आभूषणों से विभूषित पीताम्बरधारी मनुष्यों के समान शोभा पा रहे हैं॥ २१॥

अयं वसन्तः सौमित्रे नानाविहगनादितः।।
सीतया विप्रहीणस्य शोकसंदीपनो मम॥२२॥

‘सुमित्रानन्दन! नाना प्रकार के विहङ्गमों के कलरवों से गूंजता हुआ यह वसन्त का समय सीता से बिछुड़े हुए मेरे लिये शोक को बढ़ाने वाला हो गया है॥२२॥

मां हि शोकसमाक्रान्तं संतापयति मन्मथः।
हृष्टं प्रवदमानश्च समाह्वयति कोकिलः॥२३॥

‘वियोग के शोक से तो मैं पीड़ित हूँ ही, यह कामदेव (सीता-विषयक अनुराग) मुझे और भी संताप दे रहा है। कोकिल बड़े हर्ष के साथ कलनाद करता हुआ मानो मुझे ललकार रहा है॥२३॥

एष दात्यूहको हृष्टो रम्ये मां वननिर्झरे।
प्रणदन्मन्मथाविष्टं शोचयिष्यति लक्ष्मण॥२४॥

‘लक्ष्मण! वन के रमणीय झरने के निकट बड़े हर्ष के साथ बोलता हुआ यह जलकुक्कुट सीता से मिलने की इच्छावाले मुझ राम को शोकमग्न किये देता है। २४॥

श्रुत्वैतस्य पुरा शब्दमाश्रमस्था मम प्रिया।
मामाहूय प्रमुदिताः परमं प्रत्यनन्दत॥२५॥

‘पहले मेरी प्रिया जब आश्रम में रहती थी, उन दिनों इसका शब्द सुनकर आनन्दमग्न हो जाती थी और मुझे भी निकट बुलाकर अत्यन्त आनन्दित कर देती थी॥ २५॥

एवं विचित्राः पतगा नानारावविराविणः।
वृक्षगुल्मलताः पश्य सम्पतन्ति समन्ततः॥२६॥

‘देखो, इस प्रकार भाँति-भाँति की बोली बोलने वाले विचित्र पक्षी चारों ओर वृक्षों, झाड़ियों और लताओं की ओर उड़ रहे हैं॥२६॥

विमिश्रा विहगाः पुंभिरात्मव्यूहाभिनन्दिताः।
भृङ्गराजप्रमुदिताः सौमित्रे मधुरस्वराः॥२७॥

‘सुमित्रानन्दन! देखो, ये पक्षिणियाँ नर पक्षियों से संयुक्त हो अपने झुंड में आनन्द का अनुभव कर रहीहैं, भौंरों का गुञ्जारव सुनकर प्रसन्न हो रही हैं और स्वयं भी मीठी बोली बोल रही हैं॥२७॥

अस्याः कूले प्रमुदिताः सङ्घशः शकुनास्त्विह।
दात्यूहरतिविक्रन्दैः पुंस्कोकिलरुतैरपि॥२८॥
स्वनन्ति पादपाश्चेमे ममानङ्गप्रदीपकाः।

‘इस पम्पा के तट पर यहाँ झुंड-के-झुंड पक्षी आनन्दमग्न होकर चहक रहे हैं। जलकुक्कुटों के रतिसम्बन्धी कूजन तथा नर कोकिलों के कलनाद के व्याज से मानो ये वृक्ष ही मधुर बोली बोलते हैं और मेरी अनङ्ग वेदना को उद्दीप्त कर रहे हैं॥ २८ १/२॥

अशोकस्तबकाङ्गारः षट्पदस्वननिःस्वनः॥ २९॥
मां हि पल्लवताम्रार्चिर्वसन्ताग्निः प्रधक्ष्यति।

‘जान पड़ता है, यह वसन्तरूपी आग मुझे जलाकर भस्म कर देगी। अशोक पुष्प के लाल-लाल गुच्छे ही इस अग्नि के अङ्गार हैं, नूतन पल्लव ही इसकी लाल-लाल लपटें हैं तथा भ्रमरों का गुञ्जारव ही इस जलती आगका ‘चट-चट’ शब्द है॥ २९ १/२॥

नहि तां सूक्ष्मपक्ष्माक्षीं सुकेशी मृदुभाषिणीम्॥ ३०॥
अपश्यतो मे सौमित्रे जीवितेऽस्ति प्रयोजनम्।

‘सुमित्रानन्दन ! यदि मैं सूक्ष्म बरौनियों और सुन्दर केशोंवाली मधुरभाषिणी सीता को न देख सका तो मुझे इस जीवन से कोई प्रयोजन नहीं है॥ ३० १/२॥

अयं हि रुचिरस्तस्याः कालो रुचिरकाननः॥ ३१॥
कोकिलाकुलसीमान्तो दयिताया ममानघ।

‘निष्पाप लक्ष्मण! वसन्त ऋतु में वन की शोभा बड़ी मनोहर हो जाती है, इसकी सीमा में सब ओर कोयल की मधुर कूक सुनायी पड़ती है। मेरी प्रिया सीता को यह समय बड़ा ही प्रिय लगता था॥ ३१ १/२॥

मन्मथायाससम्भूतो वसन्तगुणवर्धितः॥३२॥
अयं मां धक्ष्यति क्षिप्रं शोकाग्निर्नचिरादिव।

‘अनङ्गवेदना से उत्पन्न हुई शोकाग्नि वसन्तऋतु के गुणों का* ईंधन पाकर बढ़ गयी है; जान पड़ता है, यह मुझे शीघ्र ही अविलम्ब जला देगी॥ ३२ १/२॥
* मन्द-मन्द मलयानिल का चलना, वन के वृक्षों का नूतन पल्लवों और फूलों से सज जाना, कोकिलों का कूकना, कमलों का खिल जाना तथा सब ओर मधुर सुगन्ध का छा जाना आदि वसन्त के गुण हैं, जो विरही की शोकाग्नि को उद्दीप्त करते हैं।

अपश्यतस्तां वनितां पश्यतो रुचिरान् द्रुमान्॥
ममायमात्मप्रभवो भूयस्त्वमुपयास्यति।

‘अपनी उस प्रियतमा पत्नी को मैं नहीं देख पाता हूँ और इन मनोहर वृक्षों को देख रहा हूँ, इसलिये मेरा यह अनङ्गज्वर अब और बढ़ जायगा॥ ३३ १/२ ॥

अदृश्यमाना वैदेही शोकं वर्धयतीह मे॥३४॥
दृश्यमानो वसन्तश्च स्वेदसंसर्गदूषकः।

‘विदेहनन्दिनी सीता यहाँ मुझे नहीं दिखायी दे रही है, इसलिये मेरा शोक बढ़ाती है तथा मन्द मलयानिल के द्वारा स्वेदसंसर्ग का निवारण करने वाला यह वसन्त भी मेरे शोक की वृद्धि कर रहा है॥ ३४ १/२॥

मां हि सा मृगशावाक्षी चिन्ताशोकबलात्कृतम्॥ ३५॥
संतापयति सौमित्रे क्रूरश्चैत्रवनानिलः।

‘सुमित्राकुमार! मृगनयनी सीता चिन्ता और शोक से बलपूर्वक पीडित किये गये मुझ राम को और भी संताप दे रही है। साथ ही यह वन में बहने वाली चैत्रमास की वायु भी मुझे पीड़ा दे रही है॥ ३५ १/२ ॥

अमी मयूराः शोभन्ते प्रनृत्यन्तस्ततस्ततः॥३६॥
स्वैः पक्षैः पवनोद्धृतैर्गवाक्षैः स्फाटिकैरिव।

‘ये मोर स्फटिकमणि के बने हुए गवाक्षों (झरोखों) के समान प्रतीत होने वाले अपने फैले हुए पंखों से, जो वायु से कम्पित हो रहे हैं, इधर-उधर नाचते हुए कैसी शोभा पा रहे हैं? ॥ ३६ १/२॥

शिखिनीभिः परिवृतास्त एते मदमूर्च्छिताः॥ ३७॥
मन्मथाभिपरीतस्य मम मन्मथवर्धनाः।

‘मयूरियों से घिरे हुए ये मदमत्त मयूर अनङ्गवेदना से संतप्त हुए मेरी इस काम पीडा को और भी बढ़ा रहे हैं।

पश्य लक्ष्मण नृत्यन्तं मयूरमुपनृत्यति॥३८॥
शिखिनी मन्मथातॆषा भर्तारं गिरिसानुनि।

‘लक्ष्मण! वह देखो, पर्वतशिखर पर नाचते हुए अपने स्वामी मयूर के साथ-साथ वह मोरनी भी कामपीड़ित होकर नाच रही है॥ ३८ १/२ ॥

तामेव मनसा रामां मयूरोऽप्यनुधावति॥३९॥
वितत्य रुचिरौ पक्षौ रुतैरुपहसन्निव।

‘मयूर भी अपने दोनों सुन्दर पंखों को फैलाकर मन-ही-मन अपनी उसी रामा (प्रिया) का अनुसरण कर रहा है तथा अपने मधुर स्वरों से मेरा उपहास करता-सा जान पड़ता है॥ ३९ १/२॥

मयूरस्य वने नूनं रक्षसा न हृता प्रिया॥४०॥
तस्मान्नृत्यति रम्येषु वनेषु सह कान्तया।

‘निश्चय ही वन में किसी राक्षस ने मोर की प्रिया का अपहरण नहीं किया है, इसीलिये यह रमणीय वनों में अपनी वल्लभा के साथ नृत्य कर रहा है* ॥ ४० १/२॥
* रामायणशिरोमणिकार इस श्लोक के पूर्वार्ध का अर्थ यों लिखते हैं—निश्चय ही इस मोर के निवासभूत वन में उस राक्षस ने मेरी प्रिया सीता का अपहरण नहीं किया; नहीं तो यह भी उसी के शोक में डूबा रहता।

मम त्वयं विना वासः पुष्पमासे सुदुःसहः॥४१॥
पश्य लक्ष्मण संरागस्तिर्यग्योनिगतेष्वपि।
यदेषा शिखिनी कामाद भर्तारमभिवर्तते॥४२॥

‘फूलों से भरे हुए इस चैत्रमास में सीता के बिना यहाँ निवास करना मेरे लिये अत्यन्त दुःसह है। लक्ष्मण ! देखो तो सही, तिर्यग्योनि में पड़े हुए प्राणियों में भी परस्पर कितना अधिक अनुराग है। इस समय यह मोरनी कामभाव से अपने स्वामी के सामने उपस्थित हुई है॥ ४१-४२॥

ममाप्येवं विशालाक्षी जानकी जातसम्भ्रमा।
मदनेनाभिवर्तेत यदि नापहृता भवेत्॥४३॥

‘यदि विशाल नेत्रोंवाली सीता का अपहरण न हुआ होता तो वह भी इसी प्रकार बड़े प्रेम से वेगपूर्वक मेरे पास आती॥ ४३॥

पश्य लक्ष्मण पुष्पाणि निष्फलानि भवन्ति मे।
पुष्पभारसमृद्धानां वनानां शिशिरात्यये॥४४॥

‘लक्ष्मण! इस वसन्त ऋतु में फूलों के भार से सम्पन्न हुए इन वनों के ये सारे फूल मेरे लिये निष्फल हो रहे हैं। प्रिया सीता के यहाँ न होने से इनका मेरे लिये कोई प्रयोजन नहीं रह गया है। ४४ ॥

रुचिराण्यपि पुष्पाणि पादपानामतिश्रिया।
निष्फलानि महीं यान्ति समं मधुकरोत्करैः॥ ४५॥

‘अत्यन्त शोभा से मनोहर प्रतीत होने वाले ये वृक्षों के फूल भी निष्फल होकर भ्रमरसमूहों के साथ ही पृथ्वी पर गिर जाते हैं॥ ४५ ॥

नदन्ति कामं शकुना मुदिताः सङ्घशः कलम्।
आह्वयन्त इवान्योन्यं कामोन्मादकरा मम॥ ४६॥

‘हर्ष में भरे हुए ये झुंड-के-झुंड पक्षी एक-दूसरे को बुलाते हुए-से इच्छानुसार कलरव कर रहे हैं और मेरे मन में प्रेमोन्माद उत्पन्न किये देते हैं॥ ४६॥

वसन्तो यदि तत्रापि यत्र मे वसति प्रिया।
नूनं परवशा सीता सापि शोचत्यहं यथा॥४७॥

‘जहाँ मेरी प्रिया सीता निवास करती है, वहाँ भी यदि इसी तरह वसन्त छा रहा हो तो उसकी क्या दशा होगी? निश्चय ही वहाँ पराधीन हुई सीता मेरी ही तरह शोक कर रही होगी॥४७॥

नूनं न तु वसन्तस्तं देशं स्पृशति यत्र सा।
कथं ह्यसितपद्माक्षी वर्तयेत् सा मया विना॥ ४८॥

‘अवश्य ही जहाँ सीता है, उस एकान्त स्थान में वसन्त का प्रवेश नहीं है तो भी मेरे बिना वह कजरारे नेत्रोंवाली कमलनयनी सीता कैसे जीवित रह सकेगी॥४८॥

अथवा वर्तते तत्र वसन्तो यत्र मे प्रिया।
किं करिष्यति सुश्रोणी सा तु निर्भसिता परैः॥ ४९॥

‘अथवा सम्भव है जहाँ मेरी प्रिया है वहाँ भी इसी तरह वसन्त छा रहा हो, परंतु उसे तो शत्रुओं की डाँटफटकार सुननी पड़ती होगी; अतः वह बेचारी सुन्दरी सीता क्या कर सकेगी॥४९॥

श्यामा पद्मपलाशाक्षी मृदुभाषा च मे प्रिया।
नूनं वसन्तमासाद्य परित्यक्ष्यति जीवितम्॥५०॥

‘जिसकी अभी नयी-नयी अवस्था है और प्रफुल्ल कमलदल के समान मनोहर नेत्र हैं, वह मीठी बोली बोलने वाली मेरी प्राणवल्लभा जानकी निश्चय ही इस वसन्त ऋतु को पाकर अपने प्राण त्याग देगी॥ ५० ॥

दृढं हि हृदये बुद्धिर्मम सम्परिवर्तते।
नालं वर्तयितुं सीता साध्वी मदिरहं गता॥५१॥

‘मेरे हृदय में यह विचार दृढ़ होता जा रहा है कि साध्वी सीता मुझसे अलग होकर अधिक कालतक जीवित नहीं रह सकती॥५१॥

मयि भावो हि वैदेह्यास्तत्त्वतो विनिवेशितः।
ममापि भावः सीतायां सर्वथा विनिवेशितः॥ ५२॥

‘वास्तव में विदेहकुमारीका हार्दिक अनुराग मुझमें और मेरा सम्पूर्ण प्रेम सर्वथा विदेहनन्दिनी सीता में ही प्रतिष्ठित है॥५२॥

एष पुष्पवहो वायुः सुखस्पर्शो हिमावहः।
तां विचिन्तयतः कान्तां पावकप्रतिमो मम॥ ५३॥

‘फूलों की सुगन्ध लेकर बहने वाली यह शीतलवायु, जिसका स्पर्श बहुत ही सुखद है, प्राणवल्लभा सीता की याद आने पर मुझे आग की भाँति तपाने लगती है॥ ५३॥

सदा सुखमहं मन्ये यं पुरा सह सीतया।
मारुतः स विना सीतां शोकसंजननो मम॥५४॥

‘पहले जानकी के साथ रहने पर जो मुझे सदा सुखद जान पड़ती थी, वही वायु आज सीता के विरह में मेरे लिये शोकजनक हो गयी है॥ ५४॥

तां विनाथ विहङ्गोऽसौ पक्षी प्रणदितस्तदा।
वायसः पादपगतः प्रहृष्टमभिकूजति॥५५॥

‘जब सीता मेरे साथ थी उन दिनों जो पक्षी कौआ आकाश में जाकर काँव-काँव करता था, वह उसके भावी वियोग को सूचित करने वाला था। अब सीता के वियोगकाल में वह कौआ वृक्ष पर बैठकर बड़े हर्ष के साथ अपनी बोली बोल रहा है (इससे सूचित हो रहा है कि सीता का संयोग शीघ्र ही सुलभ होगा) ॥ ५५ ॥

एष वै तत्र वैदेह्या विहगः प्रतिहारकः।
पक्षी मां तु विशालाक्ष्याः समीपमुपनेष्यति॥ ५६॥

‘यही वह पक्षी है, जो आकाश में स्थित होकर बोलने पर वैदेही के अपहरण का सूचक हुआ; किंतु आज यह जैसी बोली बोल रहा है, उससे जान पड़ता है कि यह मुझे विशाललोचना सीता के समीप ले जायगा॥५६॥

पश्य लक्ष्मण संनादं वने मदविवर्धनम्।
पुष्पिताग्रेषु वृक्षेषु द्विजानामवकूजताम्॥५७॥

‘लक्ष्मण! देखो, जिनकी ऊपरी डालियाँ फूलों से लदी हैं, वन में उन वृक्षों पर कलरव करने वाले पक्षियों का यह मधुर शब्द विरहीजनों के मदनोन्माद को बढ़ानेवाला है।

विक्षिप्तां पवनेनैतामसौ तिलकमञ्जरीम्।
षट्पदः सहसाभ्येति मदोद्धृतामिव प्रियाम्॥ ५८॥

‘वायु के द्वारा हिलायी जाती हुई उस तिलक वृक्ष की मंजरी पर भ्रमर सहसा जा बैठा है। मानो कोई प्रेमी काममद से कम्पित हई प्रेयसी से मिल रहा हो। ५८॥

कामिनामयमत्यन्तमशोकः शोकवर्धनः।
स्तबकैः पवनोत्क्षिप्तैस्तर्जयन्निव मां स्थितः॥ ५९॥

‘यह अशोक प्रियाविरही कामी पुरुषों के लिये अत्यन्त शोक बढ़ाने वाला है। यह वायु के झोंके से कम्पित हुए पुष्पगुच्छों द्वारा मुझे डाँट बताता हुआ-सा खड़ा है॥ ५९॥

अमी लक्ष्मण दृश्यन्ते चूताः कुसुमशालिनः।
 विभ्रमोत्सिक्तमनसः साङ्गरागा नरा इव॥६०॥

‘लक्ष्मण! ये मञ्जरियों से सुशोभित होने वाले आम के वृक्ष शृङ्गार-विलास से मदमत्तहृदय होकर चन्दन आदि अङ्गराग धारण करने वाले मनुष्यों के समान दिखायी देते हैं। ६० ॥

सौमित्रे पश्य पम्पायाश्चित्रासु वनराजिषु।
किंनरा नरशार्दूल विचरन्ति यतस्ततः॥६१॥

‘नरश्रेष्ठ सुमित्राकुमार! देखो, पम्पा की विचित्र वनश्रेणियों में इधर-उधर किन्नर विचर रहे हैं॥ ६१॥

इमानि शुभगन्धीनि पश्य लक्ष्मण सर्वशः।
नलिनानि प्रकाशन्ते जले तरुणसूर्यवत्॥६२॥

‘लक्ष्मण! देखो, पम्पा के जल में सब ओर खिले हुए ये सुगन्धित कमल प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं। ६२॥

एषा प्रसन्नसलिला पद्मनीलोत्पलायुता।
हंसकारण्डवाकीर्णा पम्पा सौगन्धिकायुता॥ ६३॥

‘पम्पाका जल बड़ा ही स्वच्छ है। इसमें लालकमल और नील कमल खिले हुए हैं। हंस और कारण्डव आदि पक्षी सब ओर फैले हुए हैं तथा सौगन्धिक कमल इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। ६३॥

जले तरुणसूर्याभैः षट्पदाहतकेसरैः।
पङ्कजैः शोभते पम्पा समन्तादभिसंवृता॥६४॥

‘जल में प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होने वाले कमलों के द्वारा सब ओर से घिरी हुई पम्पाबड़ी शोभा पा रही है। उन कमलों के केसरों को भ्रमरों ने चूस लिया है॥ ६४॥

चक्रवाकयुता नित्यं चित्रप्रस्थवनान्तरा।
मातङ्गमृगयूथैश्च शोभते सलिलार्थिभिः॥६५॥

‘इसमें चक्रवाक सदा निवास करते हैं। यहाँ के वनों में विचित्र-विचित्र स्थान हैं तथा पानी पीने के लिये आये हुए हाथियों और मृगों के समूहों से इस पम्पा की शोभा और भी बढ़ जाती है॥६५॥

पवनाहतवेगाभिरूर्मिभिर्विमलेऽम्भसि।
पङ्कजानि विराजन्ते ताड्यमानानि लक्ष्मण॥ ६६॥

‘लक्ष्मण ! वायु के थपेड़े से जिनमें वेग पैदा होता है, उन लहरों से ताड़ित होने वाले कमल पम्पा के निर्मल जल में बड़ी शोभा पाते हैं॥६६॥

पद्मपत्रविशालाक्षीं सततं प्रियपङ्कजाम्।
अपश्यतो मे वैदेहीं जीवितं नाभिरोचते॥६७॥

‘प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल नेत्रोंवाली विदेहराजकुमारी सीता को कमल सदा ही प्रिय रहे हैं। उसे न देखने के कारण मुझे जीवित रहना अच्छा नहीं लगता है॥६७॥

अहो कामस्य वामत्वं यो गतामपि दुर्लभाम्।
स्मारयिष्यति कल्याणी कल्याणतरवादिनीम्॥ ६८॥

‘अहो! काम कितना कुटिल है, जो अन्यत्र गयी हुई एवं परम दुर्लभ होने पर भी कल्याणमय वचन बोलने वाली उस कल्याणस्वरूपा सीता का बारंबार स्मरण दिला रहा है॥ ६८॥

शक्यो धारयितुं कामो भवेदभ्यागतो मया।
यदि भूयो वसन्तो मां न हन्यात् पुष्पितद्रुमः॥ ६९॥

‘यदि खिले हुए वृक्षों वाला यह वसन्त मुझ पर पुनः प्रहार न करे तो प्राप्त हुई कामवेदना को मैं किसी तरह मन में ही रोके रह सकता हूँ॥ ६९॥

यानि स्म रमणीयानि तया सह भवन्ति मे।
तान्येवारमणीयानि जायन्ते मे तया विना॥७०॥

‘सीता के साथ रहने पर जो-जो वस्तुएँ मुझे रमणीय प्रतीत होती थीं, वे ही आज उसके बिना असुन्दर जान पड़ती हैं। ७०॥

पद्मकोशपलाशानि द्रष्टं दृष्टिर्हि मन्यते।
सीताया नेत्रकोशाभ्यां सदृशानीति लक्ष्मण॥ ७१॥

‘लक्ष्मण! ये कमलकोशों के दल सीता के नेत्रकोशों के समान हैं। इसलिये मेरी आँखें इन्हें ही देखना चाहती हैं।

पद्मकेसरसंसृष्टो वृक्षान्तरविनिःसृतः।
निःश्वास इव सीताया वाति वायुर्मनोहरः॥७२॥

‘कमलकेसरों का स्पर्श करके दूसरे वृक्षों के बीच से निकली हुई यह सौरभयुक्त मनोहर वायु सीता के निःश्वास की भाँति चल रही है॥७२॥

सौमित्रे पश्य पम्पाया दक्षिणे गिरिसानुषु।
पुष्पितां कर्णिकारस्य यष्टिं परमशोभिताम्॥ ७३॥

‘सुमित्रानन्दन! वह देखो, पम्पाके दक्षिण भाग में पर्वत-शिखरों पर खिली हुई कनेर की डाल कितनी अधिक शोभा पा रही है। ७३ ॥

अधिकं शैलराजोऽयं धातुभिस्तु विभूषितः।
विचित्रं सृजते रेणुं वायुवेगविघट्टितम्॥७४॥

‘विभिन्न धातुओं से विभूषित हुआ यह पर्वतराज ऋष्यमूक वायु के वेग से लायी हुई विचित्र धूलि की सृष्टि कर रहा है।। ७४॥

गिरिप्रस्थास्तु सौमित्रे सर्वतः सम्प्रपुष्पितैः।
निष्पत्रैः सर्वतो रम्यैः प्रदीप्ता इव किंशुकैः॥ ७५॥

‘सुमित्राकुमार! चारों ओर खिले हुए और सब ओर से रमणीय प्रतीत होने वाले पत्रहीन पलाश वृक्षों से उपलक्षित इस पर्वत के पृष्ठभाग आग में जलते हुए-से जान पड़ते हैं। ७५॥

पम्पातीररुहाश्चेमे संसिक्ता मधुगन्धिनः।
मालतीमल्लिकापद्मकरवीराश्च पुष्पिताः॥७६॥

‘पम्पा के तट पर उत्पन्न हुए ये वृक्ष इसी के जल से अभिषिक्त हो बढ़े हैं और मधुर मकरन्द एवं गन्ध से सम्पन्न हुए हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं—मालती, मल्लिका, पद्म और करवीर। ये सब-के-सब फूलों से सुशोभित हैं॥ ७६॥

केतक्यः सिन्दुवाराश्च वासन्त्यश्च सुपुष्पिताः।
माधव्यो गन्धपूर्णाश्च कुन्दगुल्माश्च सर्वशः॥ ७७॥

‘केतकी (केवड़े), सिन्दुवार तथा वासन्ती लताएँ भी सुन्दर फूलों से भरी हुई हैं! गन्धभरी माधवी लता तथा कुन्द-कुसुमों की झाड़ियाँ सब ओर शोभा पा रही हैं॥ ७७॥

चिरिबिल्वा मधूकाश्च वञ्जुला बकुलास्तथा।
चम्पकास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः॥ ७८॥

‘चिरिबिल्व (चिलबिल), महुआ, बेंत, मौलसिरी, चम्पा, तिलक और नागकेसर भी खिले दिखायी देते

पद्मकाश्चैव शोभन्ते नीलाशोकाश्च पुष्पिताः।
लोध्राश्च गिरिपृष्ठेषु सिंहकेसरपिञ्जराः॥७९॥

‘पर्वत के पृष्ठभागों पर पद्मक और खिले हुए नील अशोक भी शोभा पाते हैं। वहीं सिंह के अयाल की भाँति पिङ्गल वर्णवाले लोध्र भी सुशोभित हो रहे हैं। ७९॥

अङ्कोलाश्च कुरण्टाश्च चूर्णकाः पारिभद्रकाः।
चूताः पाटलयश्चापि कोविदाराश्च पुष्पिताः॥ ८०॥
मुचुकुन्दार्जुनाश्चैव दृश्यन्ते गिरिसानुषु।

‘अङ्कोल, कुरंट, चूर्णक (सेमल), पारिभद्रक(नीम या मदार), आम, पाटलि, कोविदार, मुचुकुन्द (नारङ्ग) और अर्जुन नामक वृक्ष भी पर्वत-शिखरों पर फूलों से लदे दिखायी देते हैं। ८० १/२॥

केतकोद्दालकाश्चैव शिरीषाः शिंशपा धवाः॥ ८१॥
शाल्मल्यः किंशुकाश्चैव रक्ताः कुरबकास्तथा।
तिनिशा नक्तमालाश्च चन्दनाः स्यन्दनास्तथा॥ ८२॥
हिन्तालास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः।

‘केतक, उद्दालक (लसोड़ा), शिरीष, शीशम, धव, सेमल, पलाश, लाल कुरबक, तिनिश, नक्तमाल, चन्दन, स्यन्दन, हिन्ताल, तिलक तथा नागकेसर के पेड़ भी फूलों से  भरे दिखायी देते हैं। ८१-८२ १/२॥

पुष्पितान् पुष्पिताग्राभिलताभिः परिवेष्टितान्॥ ८३॥
द्रमान् पश्येह सौमित्रे पम्पाया रुचिरान् बहून्।

सुमित्रानन्दन! जिनके अग्रभाग फूलों से भरे हुए हैं, उन लता-वल्लरियों से लिपटे हुए पम्पा के इन मनोहर और बहुसंख्यक वृक्षों को तो देखो। वे सब-के-सब यहाँ फूलों के भार से लदे हुए हैं। ८३ १/२ ॥

वातविक्षिप्तविटपान् यथासन्नान् द्रुमानिमान्॥ ८४॥
लताः समनुवर्तन्ते मत्ता इव वरस्त्रियः।

‘हवा के झोंके खाकर जिनकी डालें हिल रही हैं, वे ये वृक्ष झुककर इतने निकट आ जाते हैं कि हाथ से इनकी डालियों का स्पर्श किया जा सके। सलोनी लताएँ मदमत्त सुन्दरियों की भाँति इनका अनुसरण करती हैं। ८४ १/२॥

पादपात् पादपं गच्छन् शैलाच्छैलं वनाद् वनम्॥ ८५॥
वाति नैकरसास्वादसम्मोदित इवानिलः।

‘एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर, एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर तथा एक वन से दूसरे वन में जाती हुई वायु अनेक रसों के आस्वादन से आनन्दित-सी होकर बह रही है॥ ८५ १/२॥

केचित् पर्याप्तकुसुमाः पादपा मधुगन्धिनः॥ ८६॥
केचिन्मुकुलसंवीताः श्यामवर्णा इवाबभुः।

‘कुछ वृक्ष प्रचुर पुष्पों से भरे हुए हैं और मधु एवं सुगन्ध से सम्पन्न हैं। कुछ मुकुलों से आवेष्टित होश्यामवर्ण-से प्रतीत हो रहे हैं। ८६ १/२॥

इदं मृष्टमिदं स्वादु प्रफुल्लमिदमित्यपि॥ ८७॥
रागरक्तो मधुकरः कुसुमेष्वेव लीयते।

‘वह भ्रमर राग से रँगा हुआ है और यह मधुर है, यह स्वादिष्ट है तथा यह अधिक खिला हुआ है’ इत्यादि बातें सोचता हुआ फूलों में ही लीन हो रहा है॥ ८७ १/२॥

निलीय पुनरुत्पत्य सहसान्यत्र गच्छति।
मधुलुब्धो मधुकरः पम्पातीरद्रुमेष्वसौ॥८८॥

‘पुष्पों में छिपकर फिर ऊपर को उड़ जाता है और सहसा अन्यत्र चल देता है। इस प्रकार मधु का लोभी भ्रमर पम्पातीरवर्ती वृक्षों पर विचर रहा है। ८८ ॥

इयं कुसुमसंघातैरुपस्तीर्णा सुखाकृता।
स्वयं निपतितैर्भूमिः शयनप्रस्तरैरिव॥८९॥

‘स्वयं झड़कर गिरे हुए पुष्पसमूहों से आच्छादित हुई यह भूमि ऐसी सुखदायिनी हो गयी है, मानो इसपर शयन करने के लिये मुलायम बिछौने बिछा दिये गये हों॥ ८९॥

विविधा विविधैः पुष्पैस्तैरेव नगसानुषु।
विस्तीर्णाः पीतरक्ताभाः सौमित्रे प्रस्तराः कृताः॥ ९०॥

‘सुमित्रानन्दन! पर्वत के शिखरों पर जो नानाप्रकार की विशाल शिलाएँ हैं, उनपर झड़े हुए भाँति-भाँति के फूलों ने उन्हें लाल-पीले रंग की शय्याओं के समान बना दिया है॥९०॥

हिमान्ते पश्य सौमित्रे वृक्षाणां पुष्पसम्भवम्।
पुष्पमासे हि तरवः संघर्षादिव पुष्पिताः॥९१॥

‘सुमित्राकुमार! वसन्त ऋतु में वृक्षों के फूलों का यह वैभव तो देखो। इस चैत्र मास में ये वृक्ष मानो परस्पर होड़ लगाकर फूले हुए हैं॥९१॥

आह्वयन्त इवान्योन्यं नगाः षट्पदनादिताः।
कुसुमोत्तंसविटपाः शोभन्ते बहु लक्ष्मण॥ ९२॥

‘लक्ष्मण! वृक्ष अपनी ऊपरी डालियों पर फूलों का मुकुट धारण करके बड़ी शोभा पा रहे हैं तथा वे भ्रमरों के गुञ्जारव से इस तरह कोलाहलपूर्ण हो रहे हैं, मानो एक-दूसरे का आह्वान कर रहे हों। ९२॥

एष कारण्डवः पक्षी विगाह्य सलिलं शुभम्।
रमते कान्तया सार्धं काममुद्दीपयन्निव॥९३॥

‘यह कारण्डव पक्षी पम्पा के स्वच्छ जल में प्रवेश करके अपनी प्रियतमा के साथ रमण करता हुआ काम का उद्दीपन-सा कर रहा है। ९३॥

मन्दाकिन्यास्तु यदिदं रूपमेतन्मनोरमम्।
स्थाने जगति विख्याता गुणास्तस्या मनोरमाः॥ ९४॥

‘मन्दाकिनी के समान प्रतीत होने वाली इस पम्पा का जब ऐसा मनोरम रूप है, तब संसार में उसके जो मनोरम गुण विख्यात हैं, वे उचित ही हैं॥ ९४॥

यदि दृश्येत सा साध्वी यदि चेह वसेमहि।
स्पृहयेयं न शक्राय नायोध्यायै रघूत्तम ॥ ९५॥

‘रघुश्रेष्ठ लक्ष्मण! यदि साध्वी सीता दीख जाय और यदि उसके साथ हम यहाँ निवास करने लगें तो हमें न इन्द्रलोक में जाने की इच्छा होगी और न अयोध्या लौटने की ही॥९५ ॥

न ह्येवं रमणीयेषु शाहलेषु तया सह।
रमतो मे भवेच्चिन्ता न स्पृहान्येषु वा भवेत्॥ ९६॥

‘हरी-हरी घासों से सुशोभित ऐसे रमणीय प्रदेशों में सीता के साथ सानन्द विचरने का अवसर मिले तो मुझे(अयोध्या का राज्य न मिलने के कारण) कोई चिन्ता नहीं होगी और न दूसरे ही दिव्य भोगों की अभिलाषा हो सकेगी॥ ९६॥

अमी हि विविधैः पुष्पैस्तरवो विविधच्छदाः।
काननेऽस्मिन् विना कान्तां चिन्तामुत्पादयन्ति मे॥९७॥

‘इस वन में भाँति-भाँति के पल्लवों से सुशोभित और नाना प्रकार के फूलों से उपलक्षित ये वृक्ष प्राणवल्लभा सीता के बिना मेरे मन में चिन्ता उत्पन्न कर देते हैं।

पश्य शीतजलां चेमां सौमित्रे पुष्करायुताम्।
चक्रवाकानुचरितां कारण्डवनिषेविताम्॥९८॥
प्लवैः क्रौञ्चैश्च सम्पूर्णां महामृगनिषेविताम्।

‘सुमित्राकुमार! देखो, इस पम्पा का जल कितना शीतल है। इसमें असंख्य कमल खिले हुए हैं। चकवे विचरते हैं और कारण्डव निवास करते हैं। इतना ही नहीं, जलकुक्कुट तथा क्रौञ्च भरे हुए हैं एवं बड़े-बड़े मृग इसका सेवन करते हैं। ९८ १/२॥

अधिकं शोभते पम्पा विकूजद्भिर्विहंगमैः॥९९॥
दीपयन्तीव मे कामं विविधा मुदिता द्विजाः।
श्यामां चन्द्रमुखीं स्मृत्वा प्रियां पद्मनिभेक्षणाम्॥ १००॥

‘चहकते हुए पक्षियों से इस पम्पा की बड़ी शोभा हो रही है। आनन्द में निमग्न हुए ये नाना प्रकार के पक्षी मेरे सीताविषयक अनुराग को उद्दीप्त कर देते हैं; क्योंकि इनकी बोली सुनकर मुझे नूतन अवस्थावाली कमलनयनी चन्द्रमुखी प्रियतमा सीता का स्मरण हो आता है॥ ९९-१०० ॥

पश्य सानुषु चित्रेषु मृगीभिः सहितान् मृगान्।
मां पुनर्मूगशावाक्ष्या वैदेह्या विरहीकृतम्।
व्यथयन्तीव मे चित्तं संचरन्तस्ततस्ततः॥१०१॥

‘लक्ष्मण! देखो, पर्वत के विचित्र शिखरों पर ये हरिण अपनी हरिणियों के साथ विचर रहे हैं और मैं मृगनयनी सीता से बिछुड़ गया हूँ। इधर-उधर विचरते हुए ये मृग मेरे चित्त को व्यथित किये देते हैं॥१०१॥

अस्मिन् सानुनि रम्ये हि मत्तद्विजगणाकुले।
पश्येयं यदि तां कान्तां ततः स्वस्ति भवेन्मम॥ १०२॥

‘मतवाले पक्षियों से भरे हुए इस पर्वत के रमणीय शिखर पर यदि प्राणवल्लभा सीता का दर्शन पा सकूँ तभी मेरा कल्याण होगा॥ १०२॥

जीवेयं खलु सौमित्रे मया सह सुमध्यमा।
सेवेत यदि वैदेही पम्पायाः पवनं शुभम्॥१०३॥

‘सुमित्रानन्दन! यदि सुमध्यमा सीता मेरे साथ रहकर इस पम्पासरोवर के तट पर सुखद समीर का सेवन कर सके तो मैं निश्चय ही जीवित रह सकता हूँ॥ १०३॥

पद्मसौगन्धिकवहं शिवं शोकविनाशनम्।
धन्या लक्ष्मण सेवन्ते पम्पाया वनमारुतम्॥ १०४॥

‘लक्ष्मण! जो लोग अपनी प्रियतमा के साथ रहकर पद्म और सौगन्धिक कमलों की सुगन्ध लेकर बहने वाली शीतल, मन्द एवं शोकनाशन पम्पा-वन की वायु का सेवन करते हैं, वे धन्य हैं॥ १०४॥

श्यामा पद्मपलाशाक्षी प्रिया विरहिता मया।
कथं धारयति प्राणान् विवशा जनकात्मजा॥ १०५॥

‘हाय! वह नयी अवस्थावाली कमललोचना जनकनन्दिनी प्रिया सीता मुझसे बिछुड़कर बेबसी की दशा में अपने प्राणों को कैसे धारण करती होगी। १०५॥

किं नु वक्ष्यामि धर्मज्ञं राजानं सत्यवादिनम्।
जनकं पृष्टसीतं तं कुशलं जनसंसदि॥१०६॥

‘लक्ष्मण! धर्म के जानने वाले सत्यवादी राजा जनक जब जन-समुदाय में बैठकर मुझसे सीता का कुशल समाचार पूछेगे, उस समय मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा। १०६॥

या मामनुगता मन्दं पित्रा प्रस्थापितं वनम्।
सीता धर्मं समास्थाय क्व नु सा वर्तते प्रिया॥ १०७॥

‘हाय! पिता के द्वारा वन में भेजे जाने पर जो धर्म का आश्रय ले मेरे पीछे-पीछे यहाँ चली आयी, वह मेरी प्रिया इस समय कहाँ है ? ॥ १०७॥

तया विहीनः कृपणः कथं लक्ष्मण धारये।
या मामनुगता राज्याद् भ्रष्टं विहतचेतसम्॥ १०८॥

‘लक्ष्मण! जिसने राज्य से वञ्चित और हताश हो जाने पर भी मेरा साथ नहीं छोड़ा-मेरा ही अनुसरण किया, उसके बिना अत्यन्त दीन होकर मैं कैसे जीवन धारण करूँगा॥ १०८॥

तच्चाञ्चितपद्माक्षं सुगन्धि शुभमव्रणम्।
अपश्यतो मुखं तस्याः सीदतीव मतिर्मम॥ १०९॥

‘जो कमलदल के समान सुन्दर, मनोहर एवं प्रशंसनीय नेत्रों से सुशोभित है, जिससे मीठी-मीठी सुगन्ध निकलती रहती है, जो निर्मल तथा चेचक आदि के चिह्नसे रहित है, जनककिशोरी के उस दर्शनीय मुख को देखे बिना मेरी सुध-बुध खोयी जा रही है॥ १०९॥

स्मितहास्यान्तरयुतं गुणवन्मधुरं हितम्।
वैदेह्या वाक्यमतुलं कदा श्रोष्यामि लक्ष्मण॥ ११०॥

‘लक्ष्मण! वैदेही के द्वारा कभी हँसकर और कभी मुसकराकर कही हुई वे मधुर, हितकर एवं लाभदायक बातें जिनकी कहीं तुलना नहीं है, मुझे अब कब सुनने को मिलेंगी? ॥ ११०॥

प्राप्य दुःखं वने श्यामा मां मन्मथविकर्शितम्।
नष्टदुःखेव हृष्टेव साध्वी साध्वभ्यभाषत॥१११॥

‘सोलह वर्ष की-सी अवस्था वाली साध्वी सीता यद्यपि वन में आकर कष्ट उठा रही थी, तथापि जब मुझे अनङ्गवेदना या मानसिक कष्ट से पीड़ित देखती, तब मानो उसका अपना सारा दुःख नष्ट हो गया हो, इस प्रकार प्रसन्न-सी होकर मेरी पीड़ा दूर करने के लिये अच्छी-अच्छी बातें करने लगती थी॥ १११॥

किं नु वक्ष्याम्ययोध्यायां कौसल्यां हि नृपात्मज।
क्व सा स्नुषेति पृच्छन्तीं कथं चापि मनस्विनीम्॥ ११२॥

‘राजकुमार! अयोध्या में चलने पर जब मनस्विनी माता कौसल्या पूछेगी कि ‘मेरी बहूरानी कहाँ है?’ तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा? ॥ ११२॥

गच्छ लक्ष्मण पश्य त्वं भरतं भ्रातृवत्सलम्।
नह्यहं जीवितुं शक्तस्तामृते जनकात्मजाम्॥ ११३॥
इति रामं महात्मानं विलपन्तमनाथवत्।
उवाच लक्ष्मणो भ्राता वचनं युक्तमव्ययम्॥ ११४॥

‘लक्ष्मण! तुम जाओ, भ्रातृवत्सल भरत से मिलो। मैं तो जनकनन्दिनी सीता के बिना जीवित नहीं रह सकता।’ इस प्रकार महात्मा श्रीराम को अनाथ की भाँति विलाप करते देख भाई लक्ष्मण ने युक्तियुक्त एवं निर्दोष वाणी में कहा- ॥ ११२-११४॥

संस्तम्भ राम भद्रं ते मा शुचः पुरुषोत्तम।
नेदृशानां मतिर्मन्दा भवत्यकलुषात्मनाम्॥११५॥

‘पुरुषोत्तम श्रीराम! आपका भला हो। आप अपने को सँभालिये। शोक न कीजिये। आप-जैसे पुण्यात्मा पुरुषों की बुद्धि उत्साहशून्य नहीं होती। ११५॥

स्मृत्वा वियोगजं दुःखं त्यज स्नेहं प्रिये जने।
अतिस्नेहपरिष्वङ्गाद् वर्तिरार्द्रापि दह्यते॥११६॥

‘स्वजनों के अवश्यम्भावी वियोग का दुःख सभी को सहना पड़ता है, इस बात को स्मरण करके अपने प्रिय जनों के प्रति अधिक स्नेह (आसक्ति) को त्याग दीजिये; क्योंकि जल आदि से भीगी हुई बत्ती भी अधिक स्नेह (तेल) में डुबो दी जाने पर जलने लगती है॥ ११६॥

यदि गच्छति पातालं ततोऽभ्यधिकमेव वा।
सर्वथा रावणस्तात न भविष्यति राघव॥११७॥

‘तात रघुनन्दन ! यदि रावण पाताल में या उससे भी अधिक दूर चला जाय तो भी वह अब किसी तरह जीवित नहीं रह सकता॥ ११७ ॥

प्रवृत्तिर्लभ्यतां तावत् तस्य पापस्य रक्षसः।
ततो हास्यति वा सीतां निधनं वा गमिष्यति॥ ११८॥

‘पहले उस पापी राक्षस का पता लगाइये। फिर या तो वह सीता को वापस करेगा या अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा॥ ११८॥

यदि याति दितेर्गर्भं रावणं सह सीतया।
तत्राप्येनं हनिष्यामि न चेद् दास्यति मैथिलीम्॥ ११९॥

‘रावण यदि सीता को साथ लेकर दिति के गर्भ में जाकर छिप जाय तो भी यदि मिथिलेशकुमारी को लौटा न देगा तो मैं वहाँ भी उसे मार डालूँगा॥ ११९ ॥

स्वास्थ्यं भद्रं भजस्वार्य त्यज्यतां कृपणा मतिः।
अर्थो हि नष्टकार्याथै रयत्नेनाधिगम्यते॥१२०॥

‘अतः आर्य! आप कल्याणकारी धैर्य को अपनाइये। वह दीनतापूर्ण विचार त्याग दीजिये। जिनका प्रयत्न और धन नष्ट हो गया है, वे पुरुष यदिउत्साहपूर्वक उद्योग न करें तो उन्हें उस अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती॥ १२० ॥

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात् परं बलम्।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥ १२१॥

‘भैया! उत्साह ही बलवान् होता है। उत्साह से बढ़कर दूसरा कोई बल नहीं है। उत्साही पुरुष के लिये संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। १२१ ॥

उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु।
उत्साहमात्रमाश्रित्य प्रतिलप्स्याम जानकीम्॥ १२२॥

‘जिनके हृदय में उत्साह होता है वे पुरुष कठिन-से कठिन कार्य आ पड़ने पर हिम्मत नहीं हारते। हमलोग केवल उत्साह का आश्रय लेकर ही जनकनन्दिनी को प्राप्त कर सकते हैं॥ १२२॥

त्यजतां कामवृत्तत्वं शोकं संन्यस्य पृष्ठतः।
महात्मानं कृतात्मानमात्मानं नावबुध्यसे॥१२३॥

‘शोक को पीछे छोड़कर कामी के-से व्यवहार का त्याग कीजिये। आप महात्मा एवं कृतात्मा (पवित्र अन्तःकरण वाले) हैं, किंतु इस समय अपने-आपको भूल गये हैं अपने स्वरूप का स्मरण नहीं कर रहे हैं’॥ १२३॥

एवं सम्बोधितस्तेन शोकोपहतचेतनः।
त्यज्य शोकं च मोहं च रामो धैर्यमुपागमत्॥ १२४॥

लक्ष्मण के इस प्रकार समझाने पर शोक से संतप्तचित्त हुए श्रीराम ने शोक और मोह का परित्याग करके धैर्य धारण किया॥ १२४॥

सोऽभ्यतिक्रामदव्यग्रस्तामचिन्त्यपराक्रमः।
रामः पम्पां सुरुचिरां रम्यां पारिप्लवद्रुमाम्॥ १२५॥

तदनन्तर व्यग्रतारहित (शान्तस्वरूप) अचिन्त्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी जिसके तटवर्ती वृक्ष वायु के झोंके खाकर झूम रहे थे, उस परम सुन्दर रमणीय पम्पासरोवर को लाँघकर आगे बढ़े॥ १२५ ॥

निरीक्षमाणः सहसा महात्मा सर्वं वनं निर्झरकन्दरं च।
उद्विग्नचेताः सह लक्ष्मणेन विचार्य दुःखोपहतः प्रतस्थे॥१२६॥

सीता के स्मरण से जिनका चित्त उद्विग्न हो गया था, अत एव जो दुःख में डूबे हुए थे, वे महात्मा श्रीरामलक्ष्मण की कही हुई बातों पर विचार करके सहसा सावधान हो गये और झरनों तथा कन्दराओंसहित उस सम्पूर्ण वन का निरीक्षण करते हुए वहाँ से आगे को प्रस्थित हुए॥ १२६॥

तं मत्तमातङ्गविलासगामी गच्छन्तमव्यग्रमना महात्मा।
स लक्ष्मणो राघवमिष्टचेष्टो ररक्ष धर्मेण बलेन चैव॥१२७॥

मतवाले हाथी के समान विलासपूर्ण गति से चलने वाले शान्तचित्त महात्मा लक्ष्मण आगे-आगे चलते हुए श्रीरघुनाथजी की उनके अनुकूल चेष्टा करते धर्म और बल के द्वारा रक्षा करने लगे॥ १२७॥

तावृष्यमूकस्य समीपचारी चरन् ददर्शाद्भुतदर्शनीयौ।
शाखामृगाणामधिपस्तरस्वी वितत्रसे नैव विचेष्ट चेष्टाम्॥१२८॥

ऋष्यमूक पर्वत के समीप विचरने वाले बलवान् वानरराज सुग्रीव पम्पा के निकट घूम रहे थे। उसी समय उन्होंने उन अद्भुत दर्शनीय वीर श्रीराम और लक्ष्मण को देखा। देखते ही उनके मन में यह भय हो गया कि हो न हो इन्हें मेरे शत्रु वाली ने ही भेजा होगा, फिर तो वे इतने डर गये कि खाने-पीने आदि की भी चेष्टा न कर सके॥ १२८॥

स तौ महात्मा गजमन्दगामी शाखामृगस्तत्र चरंश्चरन्तौ।
दृष्ट्वा विषादं परमं जगाम चिन्तापरीतो भयभारभग्नः॥१२९॥

हाथी के समान मन्दगति से  चलने वाले महामना वानरराज सुग्रीव जो वहाँ विचर रहे थे, उस समय एक साथ आगे बढ़ते हुए उन दोनों भाइयों को देखकर चिन्तित हो उठे। भय के भारी भार से उनका उत्साह नष्ट हो गया। वे महान् दुःख में पड़ गये। १२९॥

तमाश्रमं पुण्यसुखं शरण्यं सदैव शाखामृगसेवितान्तम्।
त्रस्ताश्च दृष्ट्वा हरयोऽभिजग्मुमहौजसौ राघवलक्ष्मणौ तौ॥ १३०॥

मतङ्ग मुनि का वह आश्रम परम पवित्र एवं सुखदायक था। मुनि के शाप से उसमें वाली का प्रवेश होना कठिन था, इसलिये वह दूसरे वानरों का आश्रय बना हुआ था। उस आश्रम या वन के भीतर सदा ही अनेकानेक शाखामृग निवास करते थे। उस दिन उन महातेजस्वी श्रीराम और लक्ष्मण को देखकर दूसरे दूसरे वानर भी भयभीत हो आश्रम के भीतर चले गये॥ १३०॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे प्रथमः सर्गः॥१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ।१॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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