वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 11 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 11
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकादशः सर्गः (सर्ग 11)
वाली का दुन्दुभि दैत्य को मारकर उसकी लाश को मतङ्ग वन में फेंकना, मतङ्गमुनि का वाली को शाप देना, सुग्रीव का राम से साल-भेदन के लिये आग्रह करना
रामस्य वचनं श्रुत्वा हर्षपौरुषवर्धनम्।
सुग्रीवः पूजयांचक्रे राघवं प्रशशंस च॥१॥
श्रीरामचन्द्रजी का वचन हर्ष और पुरुषार्थ को बढ़ाने वाला था, उसे सुनकर सुग्रीव ने उसके प्रति अपना आदर प्रकट किया और श्रीरघुनाथजी की इस प्रकार प्रशंसा की— ॥१॥
असंशयं प्रज्वलितैस्तीक्ष्णैर्मर्मातिगैः शरैः।
त्वं दहेः कुपितो लोकान् युगान्त इव भास्करः॥ २॥
‘प्रभो! आपके बाण प्रज्वलित, तीक्ष्ण एवं मर्मभेदी हैं। यदि आप कुपित हो जायँ तो इनके द्वारा प्रलयकाल के सूर्य की भाँति समस्त लोकों को भस्म कर सकते हैं। इसमें संशय की बात नहीं है॥२॥
वालिनः पौरुषं यत्तद् यच्च वीर्यं धृतिश्च या।
तन्ममैकमनाः श्रुत्वा विधत्स्व यदनन्तरम्॥३॥
‘परंतु वाली का जैसा पुरुषार्थ है, जो बल है और जैसा धैर्य है, वह सब एकचित्त होकर सुन लीजिये। उसके बाद जैसा उचित हो, कीजियेगा॥३॥
समुद्रात् पश्चिमात् पूर्वं दक्षिणादपि चोत्तरम्।
क्रामत्यनुदिते सूर्ये वाली व्यपगतक्लमः॥४॥
‘वाली सूर्योदय के पहले ही पश्चिम समुद्र से पूर्व समुद्रतक और दक्षिण सागर से उत्तर तक घूम आता है; फिर भी वह थकता नहीं है॥४॥
अग्राण्यारुह्य शैलानां शिखराणि महान्त्यपि।
ऊर्ध्वमुत्पात्य तरसा प्रतिगृह्णाति वीर्यवान्॥५॥
‘पराक्रमी वाली पर्वतों की चोटियों पर चढ़कर बड़े बड़े शिखरों को बलपूर्वक उठा लेता और ऊपर को उछालकर फिर उन्हें हाथों से थाम लेता है॥५॥
बहवः सारवन्तश्च वनेषु विविधा द्रुमाः।
वालिना तरसा भग्ना बलं प्रथयताऽऽत्मनः॥६॥
‘वनों में नाना प्रकार के जो बहुत-से सुदृढ़ वृक्ष थे, उन्हें अपने बल को प्रकट करते हुए वाली ने वेगपूर्वक तोड़ डाला है॥६॥
महिषो दुन्दुभिर्नाम कैलासशिखरप्रभः।
बलं नागसहस्रस्य धारयामास वीर्यवान्॥७॥
‘पहले की बात है यहाँ एक दुन्दुभि नाम का असुर रहता था, जो भैंसे के रूप में दिखायी देता था। वह ऊँचाई में कैलास पर्वत के समान जान पड़ता था। पराक्रमी दुन्दुभि अपने शरीर में एक हजार हाथियों का बल रखता था॥
स वीर्योत्सेकदुष्टात्मा वरदानेन मोहितः।
जगाम स महाकायः समुद्रं सरितां पतिम्॥८॥
‘बल के घमंड में भरा हुआ वह विशालकाय दुष्टात्मा दानव अपने को मिले हुए वरदान से मोहित हो सरिताओं के स्वामी समुद्र के पास गया॥८॥
ऊर्मिमन्तमतिक्रम्य सागरं रत्नसंचयम्।
मम युद्धं प्रयच्छेति तमुवाच महार्णवम्॥९॥
‘जिसमें उत्ताल तरङ्गे उठ रही थीं तथा जो रत्नों की निधि हैं, उस महान् जलराशि से परिपूर्ण समुद्र को लाँघकर—उसे कुछ भी न समझकर दुन्दुभि ने उसके अधिष्ठाता देवता से कहा—’मुझे अपने साथ युद्ध का अवसर दो’ ॥ ९॥
ततः समुद्रो धर्मात्मा समुत्थाय महाबलः।
अब्रवीद् वचनं राजन्नसुरं कालचोदितम्॥१०॥
‘राजन् ! उस समय महान् बलशाली धर्मात्मा समुद्र उस कालप्रेरित असुर से इस प्रकार बोला- ॥ १० ॥
समर्थो नास्मि ते दातुं युद्धं युद्धविशारद।
श्रूयतां त्वभिधास्यामि यस्ते युद्धं प्रदास्यति॥ ११॥
“युद्धविशारद वीर! मैं तुम्हें युद्ध का अवसर देने– तुम्हारे साथ युद्ध करने में असमर्थ हूँ। जो तुम्हें युद्ध प्रदान करेगा, उसका नाम बतलाता हूँ, सुनो॥ ११॥
शैलराजो महारण्ये तपस्विशरणं परम्।
शंकरश्वशुरो नाम्ना हिमवानिति विश्रुतः॥१२॥
महाप्रस्रवणोपेतो बहुकन्दरनिर्झरः।
स समर्थस्तव प्रीतिमतुलां कर्तुमर्हति॥१३॥
‘विशाल वन में जो पर्वतों का राजा और भगवान् शंकर का श्वशुर है, तपस्वी जनों का सबसे बड़ा आश्रय और संसार में हिमवान् नाम से विख्यात है, जहाँ से जल के बड़े-बड़े स्रोत प्रकट हुए हैं। तथा जहाँ बहुत-सी कन्दराएँ और झरने हैं, वह गिरिराज हिमालय ही तुम्हारे साथ युद्ध करने में समर्थ है। वह तुम्हें अनुपम प्रीति प्रदान कर सकता है॥ १२-१३॥
तं भीतमिति विज्ञाय समुद्रमसुरोत्तमः।
हिमवदनमागम्य शरश्चापादिव च्युतः॥१४॥
ततस्तस्य गिरेः श्वेता गजेन्द्रप्रतिमाः शिलाः।
चिक्षेप बहुधा भूमौ दुन्दुभिर्विननाद च॥१५॥
‘यह सुनकर असुरशिरोमणि दुन्दुभि समुद्र को डरा हुआ जान धनुष से छूटे हुए बाण की भाँति तुरंत हिमालय के वन में जा पहुँचा और उस पर्वत की गजराजों के समान विशाल श्वेत शिलाओं को बारंबार भूमि पर फेंकने और गर्जना करने लगा॥ १४-१५ ॥
ततः श्वेताम्बुदाकारः सौम्यः प्रीतिकराकृतिः।
हिमवानब्रवीद् वाक्यं स्व एव शिखरे स्थितः॥ १६॥
‘तब श्वेत बादल के समान आकार धारण किये सौम्य स्वभाव वाले हिमवान् वहाँ प्रकट हुए। उनकी आकृति प्रसन्नता को बढ़ाने वाली थी। वे अपने ही शिखर पर खड़े होकर बोले- ॥ १६॥
क्लेष्टुमर्हसि मां न त्वं दुन्दुभे धर्मवत्सल।
रणकर्मस्वकुशलस्तपस्विशरणो ह्यहम्॥१७॥
“धर्मवत्सल दुन्दुभे! तुम मुझे क्लेश न दो। मैं युद्धकर्म में कुशल नहीं हूँ। मैं तो केवल तपस्वी जनों का निवासस्थान हूँ॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा गिरिराजस्य धीमतः।
उवाच दुन्दुभिर्वाक्यं क्रोधात् संरक्तलोचनः॥ १८॥
‘बुद्धिमान् गिरिराज हिमालय की यह बात सुनकर दुन्दुभि के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वह इस प्रकार बोला— ॥ १८॥
यदि युद्धेऽसमर्थस्त्वं मद्भयाद् वा निरुद्यमः।
तमाचक्ष्व प्रदद्यान्मे यो हि युद्धं युयुत्सतः॥१९॥
‘यदि तुम युद्ध करने में असमर्थ हो अथवा मेरे भय से ही युद्ध की चेष्टा से विरत हो गये हो तो मुझे उस वीर का नाम बताओ, जो युद्ध की इच्छा रखने वाले मुझको अपने साथ युद्ध करने का अवसर दे’ ॥ १९॥
हिमवानब्रवीद् वाक्यं श्रुत्वा वाक्यविशारदः।
अनुक्तपूर्वं धर्मात्मा क्रोधात् तमसुरोत्तमम्॥२०॥
“उसकी यह बात सुनकर बातचीत में कुशल धर्मात्मा हिमवान् ने श्रेष्ठ असुर से, जिसके लिये पहले किसी ने किसी प्रतिद्वन्द्वी योद्धा का नाम नहीं बताया था, क्रोधपूर्वक कहा- ॥ २०॥
वाली नाम महाप्राज्ञ शक्रपुत्रः प्रतापवान्।
अध्यास्ते वानरः श्रीमान् किष्किन्धामतुलप्रभाम्॥ २१॥
“महाप्राज्ञ दानवराज! वाली नाम से प्रसिद्ध एक परम तेजस्वी और प्रतापी वानर हैं, जो देवराज इन्द्र के पुत्र हैं और अनुपम शोभा से पूर्ण किष्किन्धा नामक पुरी में निवास करते हैं॥२१॥
स समर्थो महाप्राज्ञस्तव युद्धविशारदः।
द्वन्द्वयुद्धं स दातुं ते नमुचेरिव वासवः॥२२॥
“वे बड़े बुद्धिमान् और युद्ध की कला में निपुण हैं। वे ही तुमसे जूझने में समर्थ हैं। जैसे इन्द्र ने नमुचि को युद्ध का अवसर दिया था, उसी प्रकार वाली तुम्हें द्वन्द्वयुद्ध प्रदान कर सकते हैं॥ २२॥
तं शीघ्रमभिगच्छ त्वं यदि युद्धमिहेच्छसि।
स हि दुर्मर्षणो नित्यं शूरः समरकर्मणि॥२३॥
“यदि तुम यहाँ युद्ध चाहते हो तो शीघ्र चले जाओ; क्योंकि वाली के लिये किसी शत्रु की ललकार को सह सकना बहुत कठिन है। वे युद्ध कर्म में सदा शूरता प्रकट करने वाले हैं’ ॥ २३॥
श्रुत्वा हिमवतो वाक्यं कोपाविष्टः स दुन्दुभिः।
जगाम तां पुरीं तस्य किष्किन्धां वालिनस्तदा॥ २४॥
‘हिमवान् की बात सुनकर क्रोध से भरा हुआ दुन्दुभि तत्काल वाली की किष्किन्धापुरी में जा पहुँचा॥ २४ ॥
धारयन् माहिषं रूपं तीक्ष्णशृङ्गो भयावहः।
प्रावृषीव महामेघस्तोयपूर्णो नभस्तले ॥२५॥
‘उसने भैंसे का-सा रूप धारण कर रखा था। उसके सींग बड़े तीखे थे। वह बड़ा भयंकर था और वर्षाकाल के आकाश में छाये हुए जल से भरे महान् मेघ के समान जान पड़ता था॥ २५ ॥
ततस्तु द्वारमागम्य किष्किन्धाया महाबलः।
ननर्द कम्पयन् भूमिं दुन्दुभिर्दुन्दुभिर्यथा॥२६॥
‘वह महाबली दुन्दुभि किष्किन्धापुरी के द्वार पर आकर भूमि को कँपाता हुआ जोर-जोर से गर्जना करने लगा, मानो दुन्दुभि का गम्भीर नाद हो रहा हो ॥ २६ ॥
समीपजान् द्रुमान् भञ्जन् वसुधां दारयन् खुरैः।
विषाणेनोल्लिखन् दर्पात् तद्वारं द्विरदो यथा॥ २७॥
‘वह आसपास के वृक्षों को तोड़ता, धरती को खुरों से खोदता और घमंड में आकर पुरी के दरवाजे को सींगों से खरोंचता हुआ युद्ध के लिये डट गया॥ २७॥
अन्तःपुरगतो वाली श्रुत्वा शब्दममर्षणः।
निष्पपात सह स्त्रीभिस्ताराभिरिव चन्द्रमा॥ २८॥
‘वाली उस समय अन्तःपुर में था। उस दानव की गर्जना सुनकर वह अमर्ष से भर गया और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति स्त्रियों से घिरा हुआ नगर के बाहर निकल आया॥२८॥
मितं व्यक्ताक्षरपदं तमुवाच स दुन्दुभिम्।
हरीणामीश्वरो वाली सर्वेषां वनचारिणाम्॥ २९॥
‘समस्त वनचारी वानरों के राजा वाली ने वहाँ सुस्पष्ट अक्षरों तथा पदों से युक्त परिमित वाणी में उस दुन्दुभि से कहा- ॥२९॥
किमर्थं नगरद्वारमिदं रुद्ध्वा विनर्दसे।
दुन्दुभे विदितो मेऽसि रक्ष प्राणान् महाबल॥ ३०॥
“महाबली दुन्दुभे! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम इस नगरद्वार को रोककर क्यों गरज रहे हो? अपने प्राणों की रक्षा करो’ ॥ ३० ॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा वानरेन्द्रस्य धीमतः।
उवाच दुन्दुभिर्वाक्यं क्रोधात् संरक्तलोचनः॥ ३१॥
‘बुद्धिमान् वानराज वाली का यह वचन सुनकर दुन्दुभि की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। वह उससे इस प्रकार बोला— ॥३१॥
न त्वं स्त्रीसंनिधौ वीर वचनं वक्तुमर्हसि।
मम युद्धं प्रयच्छाद्य ततो ज्ञास्यामि ते बलम्॥ ३२॥
“वीर तुम्हें स्त्रियों के समीप ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। मुझे युद्ध का अवसर दो, तब मैं तुम्हारा बल समशृंगा॥ ३२॥
अथवा धारयिष्यामि क्रोधमद्य निशामिमाम्।
गृह्यतामुदयः स्वैरं कामभोगेषु वानर ॥ ३३॥
“अथवा वानर ! मैं आज की रात में अपने क्रोध को रोके रहूँगा। तुम स्वेच्छानुसार कामभोग के लिये सूर्योदय तक समय मुझसे ले लो॥ ३३॥
दीयतां सम्प्रदानं च परिष्वज्य च वानरान्।
सर्वशाखामृगेन्द्रस्त्वं संसादय सुहृज्जनम्॥३४॥
“वानरों को हृदय से लगाकर जिसे जो कुछ देना हो दे दो; तुम समस्त कपियों के राजा हो न! अपने सुहृदों से मिल लो, सलाह कर लो॥३४॥
सुदृष्टां कुरु किष्किन्धां कुरुष्वात्मसमं पुरे।
क्रीडस्व च समं स्त्रीभिरहं ते दर्पशासनः॥ ३५॥
“किष्किन्धापुरी को अच्छी तरह देख लो। अपने समान पुत्र आदि को इस नगरी के राज्य पर अभिषिक्त कर दो और स्त्रियों के साथ आज जी भरकर क्रीडा कर लो। इसके बाद मैं तुम्हारा घमंड चूर कर दूंगा। ३५॥
यो हि मत्तं प्रमत्तं वा भग्नं वा रहितं कृशम्।
हन्यात् स भ्रूणहा लोके त्वद्विधं मदमोहितम्॥ ३६॥
“जो मधुपान से मत्त, प्रमत्त (असावधान), युद्ध से भगे हुए, अस्त्ररहित, दुर्बल, तुम्हारे-जैसे स्त्रियों से घिरे हुए तथा मदमोहित पुरुष का वध करता है, वह जगत् में गर्भ-हत्यारा कहा जाता है’॥ ३६॥
स प्रहस्याब्रवीन्मन्दं क्रोधात् तमसुरेश्वरम्।
विसृज्य ताः स्त्रियः सर्वास्ताराप्रभृतिकास्तदा॥ ३७॥
‘यह सुनकर वाली मन्द-मन्द मुसकराकर उन तारा आदि सब स्त्रियों को दूर हटा उस असुरराज से क्रोधपूर्वक बोला— ॥ ३७॥
मत्तोऽयमिति मा मंस्था यद्यभीतोऽसि संयुगे।
मदोऽयं सम्प्रहारेऽस्मिन् वीरपानं समर्थ्यताम्॥ ३८॥
“यदि तुम युद्ध के लिये निर्भय होकर खड़े हो तो यह न समझो कि यह वाली मधु पीकर मतवाला हो गया है। मेरे इस मद को तुम युद्धस्थल में उत्साहवृद्धि के लिये वीरों द्वारा किया जाने वाला औषधविशेष का पान समझो’॥
तमेवमुक्त्वा संक्रुद्धो मालामुत्क्षिप्य काञ्चनीम्।
पित्रा दत्तां महेन्द्रेण युद्धाय व्यवतिष्ठत॥३९॥
‘उससे ऐसा कहकर पिता इन्द्र की दी हुई विजयदायिनी सुवर्णमाला को गले में डालकर वालीकुपित हो युद्ध के लिये खड़ा हो गया॥ ३९ ॥
विषाणयोर्गृहीत्वा तं दुन्दुभिं गिरिसंनिभम्।
आविध्यत तथा वाली विनदन् कपिकुञ्जरः॥ ४०॥
‘कपिश्रेष्ठ वालीने पर्वताकार दुन्दुभि के दोनों सींग पकड़कर उस समय गर्जना करते हुए उसे बारंबार घुमाया॥
बलाद् व्यापादयांचक्रे ननदं च महास्वनम्।
श्रोत्राभ्यामथ रक्तं तु तस्य सुस्राव पात्यतः॥ ४१॥
‘फिर बलपूर्वक उसे धरती पर दे मारा और बड़े जोर से सिंहनाद किया। पृथ्वी पर गिराये जाते समय उसके दोनों कानों से खून की धाराएँ बहने लगीं।४१॥
तयोस्तु क्रोधसंरम्भात् परस्परजयैषिणोः।
युद्धं समभवद् घोरं दुन्दुभेलिनस्तथा॥४२॥
‘क्रोध के आवेश से युक्त हो एक-दूसरे को जीतने की इच्छावाले उन दोनों दुन्दुभि और वाली में घोर युद्ध होने लगा॥ ४२॥
अयुध्यत तदा वाली शक्रतुल्यपराक्रमः।
मुष्टिभिर्जानुभिः पद्भिः शिलाभिः पादपैस्तथा॥ ४३॥
‘उस समय इन्द्र के तुल्य पराक्रमी वाली दुन्दुभिपर मुक्कों, लातों, घुटनों, शिलाओं तथा वृक्षों से प्रहार करने लगा।
परस्परं जतोस्तत्र वानरासुरयोस्तदा।
आसीद्धीनोऽसुरो युद्धे शक्रसूनुर्व्यवर्धत॥४४॥
‘उस युद्धस्थल में परस्पर प्रहार करते हुए वानर और असुर दोनों योद्धाओं में से असुरकी शक्ति तो घटने लगी और इन्द्रकुमार वाली का बल बढ़ने लगा॥४४॥
तं तु दुन्दुभिमुद्यम्य धरण्यामभ्यपातयत्।
युद्धे प्राणहरे तस्मिन्निष्पिष्टो दुन्दुभिस्तदा॥४५॥
‘उन दोनों में वहाँ प्राणान्तकारी युद्ध छिड़ गया। उस समय वाली ने दुन्दुभि को उठाकर पृथ्वी पर दे मारा, साथ ही अपने शरीर से उसको दबा दिया, जिससे दुन्दुभि पिस गया॥
स्रोतोभ्यो बहु रक्तं तु तस्य सुस्राव पात्यतः।
पपात च महाबाहुः क्षितौ पञ्चत्वमागतः॥४६॥
‘गिरते समय उसके शरीर के समस्त छिद्रों से बहुत सा रक्त बहने लगा। वह महाबाहु असुर पृथ्वी पर गिरा और मर गया॥ ४६॥
तं तोलयित्वा बाहुभ्यां गतसत्त्वमचेतनम्।
चिक्षेप वेगवान् वाली वेगेनैकेन योजनम्॥४७॥
‘जब उसके प्राण निकल गये और चेतना लुप्त हो गयी, तब वेगवान् वाली ने उसे दोनों हाथों से उठाकर एक साधारण वेग से एक योजन दूर फेंक दिया। ४७॥
तस्य वेगप्रविद्धस्य वक्त्रात् क्षतजबिन्दवः।
प्रपेतुर्मारुतोत्क्षिप्ता मतङ्गस्याश्रमं प्रति॥४८॥
‘वेगपूर्वक फेंके गये उस असुर के मुख से निकली हुई रक्त की बहुत-सी बूंदें हवा के साथ उड़कर मतंगमुनि के आश्रम में पड़ गयीं॥४८॥
तान् दृष्ट्वा पतितांस्तत्र मुनिः शोणितविपुषः।
क्रुद्धस्तस्य महाभाग चिन्तयामास को न्वयम्॥ ४९॥
‘महाभाग! वहाँ पड़े हुए उन रक्त-बिन्दुओं को देखकर मतंगमुनि कुपित हो उठे और इस विचार में पड़ गये कि ‘यह कौन है, जो यहाँ रक्त के छींटे डाल गया है?॥४९॥
येनाहं सहसा स्पृष्टः शोणितेन दुरात्मना।
कोऽयं दुरात्मा दुर्बुद्धिरकृतात्मा च बालिशः॥ ५०॥
“जिस दुष्टने सहसा मेरे शरीर से रक्त का स्पर्श करा दिया, यह दुरात्मा दुर्बुद्धि, अजितात्मा और मूर्ख कौन है?’॥
इत्युक्त्वा स विनिष्क्रम्य ददृशे मुनिसत्तमः।
महिषं पर्वताकारं गतासुं पतितं भुवि॥५१॥
‘ऐसा कहकर मुनिवर मतंग ने बाहर निकलकर देखा तो उन्हें एक पर्वताकार भैंसा पृथ्वी पर प्राणहीन होकर पड़ा दिखायी दिया॥५१॥
स तु विज्ञाय तपसा वानरेण कृतं हि तत्।
उत्ससर्ज महाशापं क्षेप्तारं वानरं प्रति॥५२॥
‘उन्होंने अपने तपोबल से यह जान लिया कि यह एक वानर की करतूत है। अतः उस लाश को फेंकने वाले वानर के प्रति उन्होंने बड़ा भारी शाप दिया – ॥५२॥
इह तेनाप्रवेष्टव्यं प्रविष्टस्य वधो भवेत्।
वनं मत्संश्रयं येन दूषितं रुधिरस्रवैः॥५३॥
“जिसने खून के छींटे डालकर मेरे निवासस्थान इस वन को अपवित्र कर दिया है, वह आज से इस वन में प्रवेश न करे। यदि इसमें प्रवेश करेगा तो उसका वध हो जायगा॥ ५३॥
क्षिपता पादपाश्चेमे सम्भग्नाश्चासुरीं तनुम्।
समन्तादाश्रमं पूर्णं योजनं मामकं यदि॥५४॥
आगमिष्यति दुर्बुद्धिर्व्यक्तं स न भविष्यति।
“इस असुर के शरीर को इधर फेंककर जिसने इन वृक्षों को तोड़ डाला है, वह दुर्बुद्धि यदि मेरे आश्रम के चारों ओर पूरे एक योजनतक की भूमि में पैर रखेगा तो अवश्य ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा॥५४ १/२॥
ये चास्य सचिवाः केचित् संश्रिता मामकं वनम्॥ ५५॥
न च तैरिह वस्तव्यं श्रुत्वा यान्तु यथासुखम्।
तेऽपि वा यदि तिष्ठन्ति शपिष्ये तानपि ध्रुवम्॥ ५६॥
“उस वाली के जो कोई सचिव भी मेरे इस वन में रहते हों, उन्हें अब यहाँ का निवास त्याग देना चाहिये। वे मेरी आज्ञा सुनकर सुखपूर्वक यहाँ से चले जायें। यदि वे रहेंगे तो उन्हें भी निश्चय ही शाप दे दूंगा॥ ५५-५६॥
वनेऽस्मिन् मामके नित्यं पुत्रवत् परिरक्षिते।
पत्राङ्करविनाशाय फलमूलाभवाय च॥५७॥
“मैंने अपने इस वन की सदा पुत्र की भाँति रक्षा की है। जो इसके पत्र और अङ्कर का विनाश तथा फलमूल का अभाव करने के लिये यहाँ रहेंगे, वे अवश्य शाप के भागी होंगे॥ ५७॥
दिवसश्चाद्य मर्यादा यं द्रष्टा श्वोऽस्मि वानरम्।
बहुवर्षसहस्राणि स वै शैलो भविष्यति॥५८॥
“आज का दिन उन सबके आने-जाने या रहने की अन्तिम अवधि है—आजभर के लिये मैं उन सबको छुट्टी देता हूँ। कल से जो कोई वानर यहाँ मेरी दृष्टि में पड़ जायगा, वह कई हजार वर्षों के लिये पत्थर हो जायगा’॥
ततस्ते वानराः श्रुत्वा गिरं मुनिसमीरिताम्।
निश्चक्रमुर्वनात् तस्मात् तान् दृष्ट्वा वालिरब्रवीत्॥५९॥
‘मुनि के इस वचन को सुनकर वे सभी वानर मतंगवन से निकल गये। उन्हें देखकर वाली ने पूछा
किं भवन्तः समस्ताश्च मतङ्गवनवासिनः।
मत्समीपमनुप्राप्ता अपि स्वस्ति वनौकसाम्॥ ६०॥
“मतंगवन में निवास करने वाले आप सभी वानर मेरे पास क्यों चले आये? वनवासियों की कुशल तो है न?”॥
ततस्ते कारणं सर्वं तथा शापं च वालिनः।
शशंसुर्वानराः सर्वे वालिने हेममालिने॥६१॥
‘तब उन सभी वानरों ने सुवर्णमालाधारी वाली से अपने आने का सब कारण बताया तथा जो वाली को शाप हुआ था, उसे भी कह सुनाया॥ ६१॥
एतच्छ्रुत्वा तदा वाली वचनं वानरेरितम्।
स महर्षि समासाद्य याचते स्म कृताञ्जलिः॥ ६२॥
‘वानरों की कही हुई यह बात सुनकर वाली महर्षि मतंग के पास गया और हाथ जोड़कर क्षमा-याचना करने लगा॥६२॥
महर्षिस्तमनादृत्य प्रविवेशाश्रमं प्रति।
शापधारणभीतस्तु वाली विह्वलतां गतः॥६३॥
‘किंतु महर्षि ने उसका आदर नहीं किया। वे चुपचाप अपने आश्रम में चले गये। इधर वाली शाप प्राप्त होने से भयभीत हो बहुत ही व्याकुल हो गया। ६३॥
ततः शापभयाद् भीतो ऋष्यमूकं महागिरिम्।
प्रवेष्टुं नेच्छति हरिद्रष्टुं वापि नरेश्वर ॥६४॥
‘नरेश्वर! तबसे उस शाप के भय से डरा हुआ वाली इस महान् पर्वत ऋष्यमूक के स्थानों में न तो कभी प्रवेश करना चाहता है और न इस पर्वतको देखना ही चाहता है॥
तस्याप्रवेशं ज्ञात्वाहमिदं राम महावनम्।
विचरामि सहामात्यो विषादेन विवर्जितः॥६५॥
‘श्रीराम! यहाँ उसका प्रवेश होना असम्भव है, यह जानकर मैं अपने मन्त्रियों के साथ इस महान् वन में विषाद-शून्य होकर विचरता हूँ॥६५॥
एषोऽस्थिनिचयस्तस्य दुन्दुभेः सम्प्रकाशते।
वीर्योत्सेकान्निरस्तस्य गिरिकूटनिभो महान्॥ ६६॥
‘यह रहा दुन्दुभि की हड्डियों का ढेर, जो एक महान् पर्वतशिखर के समान जान पड़ता है। वाली ने अपने बल के घमंड में आकर दुन्दुभि के शरीर को इतनी दूर फेंका था॥६६॥
इमे च विपुलाः सालाः सप्त शाखावलम्बिनः।
यत्रैकं घटते वाली निष्पत्रयितुमोजसा॥६७॥
‘ये सात साल के विशाल एवं मोटे वृक्ष हैं, जो अनेक उत्तम शाखाओं से सुशोभित होते हैं। वाली इनमें से एक-एक को बलपूर्वक हिलाकर पत्रहीन कर सकता है॥६७॥
एतदस्यासमं वीर्यं मया राम प्रकाशितम्।
कथं तं वालिनं हन्तुं समरे शक्ष्यसे नृप॥६८॥
‘श्रीराम! यह मैंने वाली के अनुपम पराक्रम को प्रकाशित किया है। नरेश्वर! आप उस वाली को समराङ्गण में कैसे मार सकेंगे’॥ ६८॥
तथा ब्रुवाणं सुग्रीवं प्रहसँल्लक्ष्मणोऽब्रवीत् ।
कस्मिन् कर्मणि निर्वृत्ते श्रद्दध्या वालिनो वधम्॥ ६९॥
सुग्रीव के ऐसा कहने पर लक्ष्मण को बड़ी हँसी आयी। वे हँसते हुए ही बोले—’कौन-सा काम कर देने पर तुम्हें विश्वास होगा कि श्रीरामचन्द्रजी वाली का वध कर सकेंगे’।
तमुवाचाथ सुग्रीवः सप्त सालानिमान् पुरा।
एवमेकैकशो वाली विव्याधाथ स चासकृत्॥ ७०॥
रामो निर्दारयेदेषां बाणेनैकेन च द्रुमम्।
वालिनं निहतं मन्ये दृष्ट्वा रामस्य विक्रमम्॥ ७१॥
तब सुग्रीव ने उनसे कहा- ‘पूर्वकाल में वाली ने साल के इन सातों वृक्षों को एक-एक करके कई बार बींध डाला है। अतः श्रीरामचन्द्रजी भी यदि इनमें से किसी एक वृक्ष को एक ही बाण से छेद डालेंगे तो इनका पराक्रम देखकर मुझे वाली के मारे जाने का विश्वास हो जायगा॥ ७०-७१॥
हतस्य महिषस्यास्थि पादेनैकेन लक्ष्मण।
उद्यम्य प्रक्षिपेच्चापि तरसा द्वे धनुःशते॥७२॥
‘लक्ष्मण! यदि इस महिषरूपधारी दुन्दुभि की हड्डी को एक ही पैर से उठाकर बलपूर्वक दो सौ धनुष की दूरीपर फेंक सकें तो भी मैं यह मान लूँगा कि इनके हाथ से वाली का वध हो सकता है’ ॥७२॥
एवमुक्त्वा तु सुग्रीवो रामं रक्तान्तलोचनम्।
ध्यात्वा मुहूर्तं काकुत्स्थं पुनरेव वचोऽब्रवीत्॥ ७३॥
जिनके नेत्रप्रान्त कुछ-कुछ लाल थे, उन श्रीराम से ऐसा कहकर सुग्रीव दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार में पड़े रहे। इसके बाद वे ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम से फिर बोले
शूरश्च शूरमानी च प्रख्यातबलपौरुषः ।
बलवान् वानरो वाली संयुगेष्वपराजितः॥७४॥
‘वाली शूर है और स्वयं भी उसे अपने शौर्य पर अभिमान है। उसके बल और पुरुषार्थ विख्यात हैं। वह बलवान् वानर अबतक के युद्धों में कभी पराजित नहीं हुआ है। ७४॥
दृश्यन्ते चास्य कर्माणि दुष्कराणि सुरैरपि।
यानि संचिन्त्य भीतोऽहमृष्यमूकमुपाश्रितः॥ ७५॥
‘इसके ऐसे-ऐसे कर्म देखे जाते हैं, जो देवताओं के लिये दुष्कर हैं और जिनका चिन्तन करके भयभीत हो मैंने इस ऋष्यमूक पर्वत की शरण ली है॥ ७५ ॥
तमजय्यमधृष्यं च वानरेन्द्रममर्षणम्।
विचिन्तयन्न मुञ्चापि ऋष्यमूकममुं त्वहम्॥ ७६॥
‘वानरराज वाली को जीतना दूसरों के लिये असम्भव है। उस पर आक्रमण अथवा उसका तिरस्कार भी नहीं किया जा सकता। वह शत्रु की ललकार को नहीं सह सकता। जब मैं उसके प्रभाव का चिन्तन करता हूँ, तब इस ऋष्यमूक पर्वत को एक क्षण के लिये भी छोड़ नहीं पाता हूँ॥७६॥
उद्विग्नः शङ्कितश्चाहं विचरामि महावने।
अनुरक्तैः सहामात्यैर्हनुमत्प्रमुखैर्वरैः॥ ७७॥
‘ये हनुमान् आदि मेरे श्रेष्ठ सचिव मुझमें अनुराग रखने वाले हैं। इनके साथ रहकर भी मैं इस विशाल वन में वाली से उद्विग्न और शङ्कित होकर ही विचरता हूँ॥ ७७॥
उपलब्धं च मे श्लाघ्यं सन्मित्रं मित्रवत्सल।
त्वामहं पुरुषव्याघ्र हिमवन्तमिवाश्रितः॥७८॥
‘मित्रवत्सल! आप मुझे परम स्पृहणीय श्रेष्ठ मित्र मिल गये हैं। पुरुषसिंह! आप मेरे लिये हिमालय के समान हैं और मैं आपका आश्रय ले चुका हूँ। (इसलिये अब मुझे निर्भय हो जाना चाहिये) ॥ ७८ ॥
किं तु तस्य बलज्ञोऽहं दुर्घातुर्बलशालिनः।
अप्रत्यक्षं तु मे वीर्यं समरे तव राघव॥७९॥
‘किंतु रघुनन्दन! मैं उस बलशाली दुष्ट भ्राता के बल-पराक्रमको जानता हूँ और समरभूमिमें आपका पराक्रम मैंने प्रत्यक्ष नहीं देखा है॥ ७९ ॥
न खल्वहं त्वां तुलये नावमन्ये न भीषये।
कर्मभिस्तस्य भीमैश्च कातर्यं जनितं मम॥८०॥
‘प्रभो! अवश्य ही मैं वाली से आपकी तुलना नहीं करता हूँ। न तो आपको डराता हूँ और न आपका अपमान ही करता हूँ। वाली के भयानक कर्मों ने ही मेरे हृदय में कातरता उत्पन्न कर दी है। ८० ॥
कामं राघव ते वाणी प्रमाणं धैर्यमाकृतिः।
सूचयन्ति परं तेजो भस्मच्छन्नमिवानलम्॥८१॥
‘रघुनन्दन! निश्चय ही आपकी वाणी मेरे लिये प्रमाणभूत है—विश्वसनीय है; क्योंकि आपका धैर्य और आपकी यह दिव्य आकृति आदि गुण राख से ढकी हुई आग के समान आपके उत्कृष्ट तेज को सूचित कर रहे हैं’॥ ८१॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य महात्मनः।
स्मितपूर्वमथो रामः प्रत्युवाच हरिं प्रति॥८२॥
महात्मा सुग्रीव की यह बात सुनकर भगवान् श्रीराम पहले तो मुसकराये। फिर उस वानर की बात का उत्तर देते हुए उससे बोले- ॥ ८२॥
यदि न प्रत्ययोऽस्मासु विक्रमे तव वानर।
प्रत्ययं समरे श्लाघ्यमहमुत्पादयामि ते॥८३॥
‘वानर! यदि तुम्हें इस समय पराक्रम के विषय में हम लोगों पर विश्वास नहीं होता तो युद्धके समय हम तुम्हें उसका उत्तम विश्वास करा देंगे’। ८३॥
एवमुक्त्वा तु सुग्रीवं सान्त्वयँल्लक्ष्मणाग्रजः।
राघवो दुन्दुभेः कायं पादाङ्गष्ठेन लीलया॥८४॥
तोलयित्वा महाबाहुश्चिक्षेप दशयोजनम्।
असुरस्य तनुं शुष्कां पादाङ्गुष्ठेन वीर्यवान्॥८५॥
ऐसा कहकर सुग्रीव को सान्त्वना देते हुएलक्ष्मण के बड़े भाई महाबाहु बलवान् श्रीरघुनाथजी ने खिलवाड़ में ही दुन्दुभि के शरीर को अपने पैर के अंगूठे से टाँग लिया और उस असुर के उस सूखे हुए कङ्काल को पैर के अँगूठे से ही दस योजन दूर फेंक दिया॥ ८४-८५॥
क्षिप्तं दृष्ट्वा ततः कायं सुग्रीवः पुनरब्रवीत्।
लक्ष्मणस्याग्रतो रामं तपन्तमिव भास्करम्।
हरीणामग्रतो वीरमिदं वचनमर्थवत्॥८६॥
उसके शररी को फेंका गया देख सुग्रीव ने लक्ष्मण और वानरों के सामने ही तपते हुए सूर्य के समान तेजस्वी वीर श्रीरामचन्द्रजी से पुनः यह अर्थ भरी बात कही— ॥८६॥
आर्द्रः समांसः प्रत्यग्रः क्षिप्तः कायः पुरा सखे।
परिश्रान्तेन मत्तेन भ्रात्रा मे वालिना तदा॥८७॥
‘सखे! मेरा भाई वाली उस समय मदमत्त और युद्ध से थका हुआ था और दुन्दुभि का यह शरीर खून से भीगा हुआ, मांसयुक्त तथा नया था। इस दशा में उसने इस शरीर को पूर्वकाल में दूर फेंका था॥ ८७॥
लघुः सम्प्रति निर्मांसस्तृणभूतश्च राघव।
क्षिप्त एवं प्रहर्षेण भवता रघुनन्दन॥८८॥
‘परंतु रघुनन्दन! इस समय यह मांसहीन होने के कारण तिनके के समान हलका हो गया है और आपने हर्ष एवं उत्साह से युक्त होकर इसे फेंका है। ८८॥
नात्र शक्यं बलं ज्ञातुं तव वा तस्य वाधिकम्।
आर्द्र शुष्कमिति ह्येतत् सुमहद् राघवान्तरम्॥ ८९॥
‘अतः श्रीराम ! इस लाश को फेंकने पर भी यह नहीं जाना जा सकता कि आपका बल अधिक है या उसका; क्योंकि वह गीला था और यह सूखा। यह इन दोनों अवस्थाओं में महान् अन्तर है॥ ८९॥
स एव संशयस्तात तव तस्य च यद्बलम्।
सालमेकं विनिर्भिद्य भवेद् व्यक्तिर्बलाबले॥ ९०॥
“तात! आपके और उसके बल में वही संशय अब तक बना रह गया। अब इस एक साल वृक्ष को विदीर्ण कर देने पर दोनों के बलाबल का स्पष्टीकरण हो जायगा॥९०॥
कृत्वैतत् कार्मुकं सज्यं हस्तिहस्तमिवाततम्।
आकर्णपूर्णमायम्य विसृजस्व महाशरम्॥९१॥
‘आपका यह धनुष हाथी की फैली हुई सँड़ के समान विशाल है। आप इस पर प्रत्यञ्चा चढ़ाइये और इसे कान तक खींचकर साल वृक्ष को लक्ष्य करके एक विशाल बाण छोड़िये॥
इमं हि सालं प्रहितस्त्वया शरोन संशयोऽत्रास्ति विदारयिष्यति।
अलं विमर्शेन मम प्रियं ध्रुवं कुरुष्व राजन् प्रतिशापितो मया॥९२॥
‘इसमें संदेह नहीं कि आपका छोड़ा हुआ बाण इस साल वृक्ष को विदीर्ण कर देगा। राजन्! अब विचार करने की आवश्यकता नहीं है। मैं अपनी शपथ दिलाकर कहता हूँ, आप मेरा यह प्रिय कार्य अवश्य कीजिये॥ ९२॥
यथा हि तेजःसु वरः सदारविर्यथा हि शैलो हिमवान् महाद्रिषु।
यथा चतुष्पात्सु च केसरी वरस्तथा नराणामसि विक्रमे वरः॥९३॥
‘जैसे सम्पूर्ण तेजों में सदा सूर्यदेव ही श्रेष्ठ हैं, जैसे बड़े-बड़े पर्वतों में गिरिराज हिमवान् श्रेष्ठ हैं और जैसे चौपायों में सिंह श्रेष्ठ है, उसी प्रकार पराक्रम के विषय में सब मनुष्यों में आप ही श्रेष्ठ हैं’॥ ९३॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीय आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकादशः सर्गः॥११॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥११॥
Pingback: वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ valmiki ramayana Kiskindhakand in hindi