RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 14 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 14

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
चतुर्दशः सर्गः (सर्ग 14)

वाली-वध के लिये श्रीराम का आश्वासन पाकर सुग्रीव की विकट गर्जना

 

सर्वे ते त्वरितं गत्वा किष्किन्धां वालिनः पुरीम्।
वृक्षरात्मानमावृत्य व्यतिष्ठन् गहने वने॥१॥

वे सब लोग शीघ्रतापूर्वक वाली की किष्किन्धापुरी में पहुँचकर एक गहन वन में वृक्षोंकी ओटमें अपने-आपको छिपाकर खड़े हो गये॥१॥

विसार्य सर्वतो दृष्टिं कानने काननप्रियः।
सुग्रीवो विपुलग्रीवः क्रोधमाहारयद् भृशम्॥२॥

वन के प्रेमी विशाल ग्रीवावाले सुग्रीव ने उस वन में चारों ओर दृष्टि दौड़ायी और अपने मन में अत्यन्त क्रोध का संचय किया॥२॥

ततस्तु निनदं घोरं कृत्वा युद्धाय चाह्वयत्।
परिवारैः परिवृतो नादैभिन्दन्निवाम्बरम्॥३॥

तदनन्तर अपने सहायकों से घिरे हुए उन्होंने अपने सिंहनाद से आकाश को फाड़ते हुए-से घोर गर्जना की और वाली को युद्ध के लिये ललकारा ॥३॥

गर्जन्निव महामेघो वायुवेगपुरःसरः।
अथ बालार्कसदृशो दृप्तसिंहगतिस्ततः॥४॥

उस समय सुग्रीव वायु के वेग के साथ गर्जते हुए महामेघ के समान जान पड़ते थे। अपनी अङ्गकान्ति और प्रताप के द्वारा प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होते थे। उनकी चाल दर्पभरे सिंह के समान प्रतीत होती थी॥४॥

दृष्ट्वा रामं क्रियादक्षं सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत्।
हरिवागुरया व्याप्तां तप्तकाञ्चनतोरणाम्॥५॥
प्राप्ताः स्म ध्वजयन्त्राढ्यां किष्किन्धां वालिनः
पुरीम्। प्रतिज्ञा या कृता वीर त्वया वालिवधे पुरा॥६॥
सफलां कुरु तां क्षिप्रं लतां काल इवागतः।

कार्यकुशल श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखकर सुग्रीव ने कहा—’भगवन्! वाली की यह किष्किन्धापुरी तपाये हुए सुवर्ण के द्वारा निर्मित नगर द्वार से सुशोभित है। इसमें सब ओर वानरों का जाल-सा बिछा हुआ है तथा यह ध्वजों और यन्त्रों से सम्पन्न है। हम सब लोग इस पुरी में आ पहुँचे हैं। वीर! आपने पहले वाली-वध के लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अब शीघ्र सफल कीजिये। ठीक उसी तरह जैसे आया हुआ अनुकूल समय लता को फल-फूल से सम्पन्न कर देता है’॥ ५-६ १/२॥

एवमुक्तस्तु धर्मात्मा सुग्रीवेण स राघवः॥७॥
तमेवोवाच वचनं सुग्रीवं शत्रुसूदनः।

सुग्रीव के ऐसा कहने पर शत्रुसूदन धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी ने फिर अपनी पूर्वोक्त बात को दुहराते हुए ही सुग्रीव से कहा- ॥ ७ १/२॥

कृताभिज्ञानचिह्नस्त्वमनया गजसाह्वया॥८॥
लक्ष्मणेन समुत्पाट्य एषा कण्ठे कृता तव।
शोभसेऽप्यधिकं वीर लतया कण्ठसक्तया॥९॥
विपरीत इवाकाशे सूर्यो नक्षत्रमालया।

‘वीर! अब तो इस गजपुष्पी लता के द्वारा तुमने अपनी पहचान के लिये चिह्न धारण कर ही लिया है। लक्ष्मण ने इसे उखाड़कर तुम्हारे कण्ठ में पहना ही दिया है। तुम कण्ठ में धारण की हुई इस लता के द्वारा बड़ी शोभा पा रहे हो। जिस प्रकार सूर्यमंडल आकाश में नक्षत्रमाला से घिरकर सुशोभित होता है उसी प्रकार इस कण्ठ-लम्बिनी लता से सुशोभित होने वाले तुम्हारी उस सूर्य से तुलना हो सकती है। ८-९ १/२॥

अद्य वालिसमुत्थं ते भयं वैरं च वानर ॥१०॥
एकेनाहं प्रमोक्ष्यामि बाणमोक्षेण संयुगे।

‘वानरराज! आज मैं वाली से उत्पन्न हुए तुम्हारे भय और वैर दोनों को युद्धस्थल में एक ही बार बाण छोड़कर मिटा दूंगा॥ १० १/२॥

मम दर्शय सुग्रीव वैरिणं भ्रातृरूपिणम्॥११॥
वाली विनिहतो यावदने पांसुषु चेष्टते।

‘सुग्रीव! तुम मुझे अपने उस भ्रातारूपी शत्रु को दिखा तो दो। फिर वाली मारा जाकर वन के भीतर धूल में लोटता दिखायी देगा॥ ११॥

यदि दृष्टिपथं प्राप्तो जीवन् स विनिवर्तते॥१२॥
ततो दोषेण मागच्छेत् सद्यो गर्हेच्च मां भवान्।

‘यदि मेरी दृष्टि में पड़ जाने पर भी वह जीवित लौट जाय तो तुम मुझे दोषी समझना और तत्काल जी भरकर मेरी निन्दा करना॥ १२ १/२॥

प्रत्यक्षं सप्त ते साला मया बाणेन दारिताः॥ १३॥
तेनावेहि बलेनाद्य वालिनं निहतं रणे।

‘तुम्हारी आँखों के सामने मैंने अपने एक ही बाण से सात साल के वृक्ष विदीर्ण किये थे, मेरे उसी बल से आज समराङ्गण में (एक बाण से ही) तुम वाली को मारा गया समझो॥ १३ १/२॥

अनृतं नोक्तपूर्वं मे चिरं कृच्छ्रेऽपि तिष्ठता॥१४॥
धर्मलोभपरीतेन न च वक्ष्ये कथंचन।
सफलां च करिष्यामि प्रतिज्ञा जहि संभ्रमम्॥ १५॥

‘बहुत समय से संकट झेलते रहने पर भी मैं कभी झूठ नहीं बोला हूँ। मेरे मन में धर्म का लोभ है। इसलिये किसी तरह मैं झूठ तो बोलूँगा ही नहीं। साथ ही अपनी प्रतिज्ञा को भी अवश्य सफल करूँगा। अतः तुम भय और घबराहट को अपने हृदय से निकाल दो॥१४-१५॥

प्रसूतं कलमक्षेत्रं वर्षेणेव शतक्रतुः।
तदाह्वाननिमित्तं च वालिनो हेममालिनः॥१६॥
सुग्रीव कुरु तं शब्दं निष्पतेद् येन वानरः।

‘जैसे इन्द्र वर्षा करके उगे हुए धान के खेत को फल से सम्पन्न करते हैं, उसी तरह मैं भी बाण का प्रयोग करके वाली के वध द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा। इसलिये सुग्रीव! तुम सुवर्णमालाधारी वाली को बुलाने के लिये इस समय ऐसी गर्जना करो, जिससे तुम्हारा सामना करने के लिये वह वानर नगर से बाहर निकल आये॥ १६ १/२॥

जितकाशी जयश्लाघी त्वया चाधर्षितः पुरात्॥ १७॥
निष्पतिष्यत्यसक्रेन वाली स प्रियसंयुगः।

‘वह अनेक युद्धों में विजय पाकर विजयश्री से सुशोभित हुआ है। सबपर विजय पाने की इच्छा रखता है और उसने कभी तुमसे हार नहीं खायी है। इसके अलावे युद्ध से उसका बड़ा प्रेम है, अतः वाली कहीं भी आसक्त न होकर नगर के बाहर अवश्य निकलेगा।

रिपूणां धर्षितं श्रुत्वा मर्षयन्ति न संयुगे॥१८॥
जानन्तस्तु स्वकं वीर्यं स्त्रीसमक्षं विशेषतः।

‘क्योंकि अपने पराक्रम को जानने वाले वीर पुरुष, विशेषतः स्त्रियों के सामने, युद्ध के लिये शत्रुओं के तिरस्कारपूर्ण शब्द सुनकर कदापि सहन नहीं करते

स तु रामवचः श्रुत्वा सुग्रीवो हेमपिङ्गलः॥१९॥
ननर्द क्रूरनादेन विनिर्भिन्दन्निवाम्बरम्।

श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर सुवर्ण के समान पिङ्गलवर्ण वाले सुग्रीव ने आकाश को विदीर्ण-सा करते हुए कठोर स्वर में बड़ी भयंकर गर्जना की॥ १९१/२॥

तत्र शब्देन वित्रस्ता गावो यान्ति हतप्रभाः॥ २०॥
राजदोषपरामृष्टाः कुलस्त्रिय इवाकुलाः।

उस सिंहनाद से भयभीत हो बड़े-बड़े बैल शक्तिहीन हो राजा के दोष से परपुरुषों द्वारा पकड़ी जाने वाली कुलाङ्गनाओं के समान व्याकुलचित्त हो सब ओर भाग चले॥

द्रवन्ति च मृगाः शीघ्रं भग्ना इव रणे हयाः।
पतन्ति च खगा भूमौ क्षीणपुण्या इव ग्रहाः॥ २१॥

मृग युद्धस्थल में अस्त्र-शस्त्रों की चोट खाकर भागे हुए घोड़ों के समान तीव्र गति से भागने लगे और पक्षी जिनके पुण्य नष्ट हो गये हैं, ऐसे ग्रहों के समान आकाश से पृथ्वी पर गिरने लगे॥२१॥

ततः स जीमूतकृतप्रणादो नादं ह्यमुञ्चत् त्वरया प्रतीतः।
सूर्यात्मजः शौर्यविवृद्धतेजाः सरित्पतिर्वाऽनिलचञ्चलोर्मिः॥ २२॥

तदनन्तर जिनका सिंहनाद मेघ की गर्जना के समान गम्भीर था और शौर्य के द्वारा जिनका तेज बढ़ा हुआ था, वे सुविख्यात सूर्यकुमार सुग्रीव बड़ी उतावली के साथ बारंबार गर्जना करने लगे, मानो वायु के वेग से चञ्चल हुई उत्ताल तरङ्ग-मालाओं से सुशोभित सरिताओं का स्वामी समुद्र कोलाहल कर रहा हो। २२॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे चतुर्दशः सर्गः॥१४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१४॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 14 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 14

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: