RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 15 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 15

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
पञ्चदशः सर्गः (सर्ग 15)

सुग्रीव की गर्जना सुनकर वाली का युद्ध के लिये निकलना और तारा का उसे रोककर सुग्रीव और श्रीराम के साथ मैत्री कर लेने के लिये समझाना

 

अथ तस्य निनादं तं सुग्रीवस्य महात्मनः।
शुश्रावान्तःपुरगतो वाली भ्रातुरमर्षणः॥१॥

उस समय अमर्षशील वाली अपने अन्तःपुर में था। उसने अपने भाई महामना सुग्रीव का वह सिंहनाद वहीं से सुना॥१॥

श्रुत्वा तु तस्य निनदं सर्वभूतप्रकम्पनम्।
मदश्चैकपदे नष्टः क्रोधश्चापादितो महान्॥२॥

समस्त प्राणियों को कम्पित कर देने वाली उनकी वह गर्जना सुनकर उसका सारा मद सहसा उतर गया और उसे महान् क्रोध उत्पन्न हुआ॥२॥

ततो रोषपरीताङ्गो वाली स कनकप्रभः।
उपरक्त इवादित्यः सद्यो निष्प्रभतां गतः॥३॥

फिर तो सुवर्ण के समान पीले रंग वाले वाली का सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। वह राहुग्रस्त सूर्य के समान तत्काल श्रीहीन दिखायी देने लगा॥३॥

वाली दंष्ट्राकरालस्तु क्रोधाद् दीप्ताग्निलोचनः।
भात्युत्पतितपद्माभः समृणाल इव ह्रदः॥४॥

वाली की दाढ़ें विकराल थीं, नेत्र क्रोध के कारण प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रहे थे। वह उस तालाब के समान श्रीहीन दिखायी देता था, जिसमें कमलपुष्पों की शोभा तो नष्ट हो गयी हो और केवल मृणाल रह गये हों॥

शब्दं दुर्मर्षणं श्रुत्वा निष्पपात ततो हरिः।
वेगेन च पदन्यासैर्दारयन्निव मेदिनीम्॥५॥

वह दुःसह शब्द सुनकर वाली अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को विदीर्ण-सी करता हुआ बड़े वेग से निकला॥५॥

तं तु तारा परिष्वज्य स्नेहाद् दर्शितसौहृदा।
उवाच त्रस्तसम्भ्रान्ता हितोदर्कमिदं वचः॥६॥

उस समय वाली की पत्नी तारा भयभीत हो घबरा उठी। उसने वाली को अपनी दोनों भुजाओं में भर लिया और स्नेह से सौहार्द का परिचय देते हुए परिणाम में हित करने वाली यह बात कही- ॥६॥

साधु क्रोधमिमं वीर नदीवेगमिवागतम्।
शयनादुत्थितः काल्यं त्यज भुक्तामिव स्रजम्॥ ७॥

‘वीर! मेरी अच्छी बात सुनिये और सहसा आये हुए नदी के वेग की भाँति इस बढ़े हुए क्रोध को त्याग दीजिये। जैसे प्रातःकाल शय्या से उठा हुआ पुरुष रात को उपभोग में लायी गयी पुष्पमाला का त्याग कर देता है; उसी प्रकार इस क्रोध का परित्याग कीजिये।७॥

काल्यमेतेन संग्रामं करिष्यसि च वानर।
वीर ते शत्रुबाहुल्यं फल्गुता वा न विद्यते॥८॥
सहसा तव निष्क्रामो मम तावन्न रोचते।
श्रूयतामभिधास्यामि यन्निमित्तं निवार्यते॥९॥

‘वानरवीर! कल प्रातःकाल सुग्रीव के साथ युद्ध कीजियेगा (इस समय रुक जाइये) यद्यपि युद्ध में कोई शत्रु आपसे बढ़कर नहीं है और आप किसी से छोटे नहीं हैं। तथापि इस समय सहसा आपका घर से बाहर निकलना मुझे अच्छा नहीं लगता है, आपको रोकने का एक विशेष कारण भी है। उसे बताती हूँ, सुनिये॥८-९॥

पूर्वमापतितः क्रोधात् स त्वामाह्वयते युधि।
निष्पत्य च निरस्तस्ते हन्यमानो दिशो गतः॥ १०॥

‘सुग्रीव पहले भी यहाँ आये थे और क्रोधपूर्वक उन्होंने आपको युद्ध के लिये ललकारा था। उस समय आपने नगर से निकलकर उन्हें परास्त किया और वे आपकी मार खाकर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भागते हुए मतङ्ग वन में चले गये थे॥ १० ॥

त्वया तस्य निरस्तस्य पीडितस्य विशेषतः।
इहैत्य पुनराह्वानं शङ्कां जनयतीव मे॥११॥

‘इस प्रकार आपके द्वारा पराजित और विशेष पीड़ित होने पर भी वे पुनः यहाँ आकर आपको युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। उनका यह पुनरागमन मेरे मन में शङ्का-सी उत्पन्न कर रहा है॥ ११॥

दर्पश्च व्यवसायश्च यादृशस्तस्य नर्दतः।
निनादस्य च संरम्भो नैतदल्पं हि कारणम्॥ १२॥

‘इस समय गर्जते हुए सुग्रीव का दर्प और उद्योग जैसा दिखायी देता है तथा उनकी गर्जना में जो उत्तेजना जान पड़ती है, इसका कोई छोटा-मोटा कारण नहीं होना चाहिये॥ १२॥ ।

नासहायमहं मन्ये सुग्रीवं तमिहागतम्।
अवष्टब्धसहायश्च यमाश्रित्यैष गर्जति॥१३॥

‘मैं समझती हूँ सुग्रीव किसी प्रबल सहायक के बिना अबकी बार यहाँ नहीं आये हैं। किसी सबल सहायक को साथ लेकर ही आये हैं, जिसके बल पर ये इस तरह गरज रहे हैं॥ १३॥

प्रकृत्या निपुणश्चैव बुद्धिमांश्चैव वानरः ।
नापरीक्षितवीर्येण सुग्रीवः सख्यमेष्यति॥१४॥

‘वानर सुग्रीव स्वभाव से ही कार्यकुशल और बुद्धिमान् हैं। वे किसी ऐसे पुरुष के साथ मैत्री नहीं करेंगे, जिसके बल और पराक्रम को अच्छी तरह परख न लिया हो॥ १४॥

पूर्वमेव मया वीर श्रुतं कथयतो वचः।
अङ्गदस्य कुमारस्य वक्ष्याम्यद्य हितं वचः॥१५॥

‘वीर! मैंने पहले ही कुमार अङ्गद के मुँह से यह बात सुन ली है। इसलिये आज मैं आपके हित की बात बताती हूँ॥

अङ्गदस्तु कुमारोऽयं वनान्तमुपनिर्गतः।
प्रवृत्तिस्तेन कथिता चारैरासीन्निवेदिता॥१६॥

‘एक दिन कुमार अङ्गद वन में गये थे। वहाँ गुप्तचरों ने उन्हें एक समाचार बताया, जो उन्होंने यहाँ आकर मुझसे भी कहा था॥ १६॥

अयोध्याधिपतेः पुत्रौ शूरौ समरदुर्जयौ।
इक्ष्वाकूणां कुले जातौ प्रथितौ रामलक्ष्मणौ ॥ १७॥

‘वह समाचार इस प्रकार है-अयोध्यानरेश के दो शूर-वीर पुत्र, जिन्हें युद्ध में जीतना अत्यन्त कठिन है, जिनका जन्म इक्ष्वाकुकुल में हुआ है तथा जो श्रीराम और लक्ष्मण के नाम से प्रसिद्ध हैं, यहाँ वन में आये हुए हैं ॥ १७॥

सुग्रीवप्रियकामार्थं प्राप्तौ तत्र दुरासदौ।
स ते भ्रातुर्हि विख्यातः सहायो रणकर्मणि॥ १८॥
रामः परबलामर्दी युगान्ताग्निरिवोत्थितः।
निवासवृक्षः साधूनामापन्नानां परा गतिः॥१९॥

‘वे दोनों दुर्जय वीर सुग्रीव का प्रिय करने के लिये उनके पास पहुँच गये हैं। उन दोनों में से जो आपके भाई के युद्ध-कर्म में सहायक बताये गये हैं, वे श्रीराम शत्रुसेना का संहार करने वाले तथा प्रलयकाल में प्रज्वलित हुई अग्नि के समान तेजस्वी हैं। वे साधु पुरुषों के आश्रयदाता कल्पवृक्ष हैं और संकट में पड़े हुए प्राणियों के लिये सबसे बड़ा सहारा हैं॥ १८-१९ ॥

आर्तानां संश्रयश्चैव यशसश्चैकभाजनम्।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो निदेशे निरतः पितुः॥२०॥

‘आर्त पुरुषों के आश्रय, यश के एकमात्र भाजन, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तथा पिता की आज्ञा में स्थित रहने वाले हैं॥ २०॥

धातूनामिव शैलेन्द्रो गुणानामाकरो महान्।
तत् क्षमो न विरोधस्ते सह तेन महात्मना॥२१॥
दुर्जयेनाप्रमेयेण रामेण रणकर्मसु।

‘जैसे गिरिराज हिमालय नाना धातुओं की खान है, उसी प्रकार श्रीराम उत्तम गुणों के बहुत बड़े भंडार हैं। अतः उन महात्मा राम के साथ आपका विरोध करना कदापि उचित नहीं है। क्योंकि वे युद्ध की कला में अपना सानी नहीं रखते हैं। उनपर विजय पाना अत्यन्त कठिन है॥ २१ १/२॥

शूर वक्ष्यामि ते किंचिन्न चेच्छाम्यभ्यसूयितुम्॥ २२॥
श्रूयतां क्रियतां चैव तव वक्ष्यामि यद्धितम्।

‘शूरवीर! मैं आपके गुणों में दोष देखना नहीं चाहती। अतः आपसे कुछ कहती हूँ। आपके लिये जो हितकर है, वही बता रही हूँ। आप उसे सुनिये और वैसा ही कीजिये॥

यौवराज्येन सुग्रीवं तूर्णं साध्वभिषेचय॥२३॥
विग्रहं मा कृथा वीर भ्रात्रा राजन् यवीयसा।

‘अच्छा यही होगा कि आप सुग्रीव का शीघ्र ही युवराज के पद पर अभिषेक कर दीजिये। वीर वानरराज! सुग्रीव आपके छोटे भाई हैं, उनके साथ युद्ध न कीजिये॥

अहं हि ते क्षमं मन्ये तेन रामेण सौहृदम्॥२४॥
सुग्रीवेण च सम्प्रीतिं वैरमुत्सृज्य दूरतः।

‘मैं आपके लिये यही उचित समझती हूँ कि आप वैरभाव को दूर हटाकर श्रीराम के साथ सौहार्द और सुग्रीव के साथ प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कीजिये॥ २४ १/२॥

लालनीयो हि ते भ्राता यवीयानेष वानरः॥२५॥
तत्र वा सन्निहस्थो वा सर्वथा बन्धुरेव ते।
नहि तेन समं बन्धुं भुवि पश्यामि कंचन॥२६॥

‘वानर सुग्रीव आपके छोटे भाई हैं। अतः आपका लाड़-प्यार पाने के योग्य हैं। वे ऋष्यमूक पर रहें या किष्किन्धा में सर्वथा आपके बन्धु ही हैं। मैं इस भूतल पर उनके समान बन्धु और किसी को नहीं देखती हूँ॥

दानमानादिसत्कारैः कुरुष्व प्रत्यनन्तरम्।
वैरमेतत् समुत्सृज्य तव पार्वे स तिष्ठतु ॥२७॥

‘आप दान-मान आदि सत्कारों के द्वारा उन्हें अपना अत्यन्त अन्तरङ्ग बना लीजिये, जिससे वे इस वैरभाव को छोड़कर आपके पास रह सकें॥२७॥

सुग्रीवो विपुलग्रीवो महाबन्धुर्मतस्तव।
भ्रातृसौहृदमालम्ब्य नान्या गतिरिहास्ति ते॥२८॥

‘पुष्ट ग्रीवावाले सुग्रीव आपके अत्यन्त प्रेमी बन्धु हैं, ऐसा मेरा मत है। इस समय भ्रातृप्रेम का सहारा लेने के सिवा आपके लिये यहाँ दूसरी कोई गति नहीं है॥२८॥

यदि ते मत्प्रियं कार्यं यदि चावैषि मां हिताम्।
याच्यमानः प्रियत्वेन साधु वाक्यं कुरुष्व मे॥ २९॥

‘यदि आपको मेरा प्रिय करना हो तथा आप मुझे अपनी हितकारिणी समझते हों तो मैं प्रेमपूर्वक याचना करती हूँ, आप मेरी यह नेक सलाह मान लीजिये॥ २९॥

प्रसीद पथ्यं शृणु जल्पितं हि मे न रोषमेवानुविधातुमर्हसि।
क्षमो हि ते कोशलराजसूनुना न विग्रहः शक्रसमानतेजसा॥३०॥

‘स्वामिन् ! आप प्रसन्न होइये। मैं आपके हित की बात कहती हूँ। आप इसे ध्यान देकर सुनिये। केवल रोष का ही अनुसरण न कीजिये। कोसलराजकुमार श्रीराम इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। उनके साथ वैर बाँधना या युद्ध छेड़ना आपके लिये कदापि उचित नहीं है’।

तदा हि तारा हितमेव वाक्यं तं वालिनं पथ्यमिदं बभाषे।
न रोचते तद् वचनं हि तस्य कालाभिपन्नस्य विनाशकाले॥३१॥

उस समय तारा ने वाली से उसके हित की ही बात कही थी और यह लाभदायक भी थी। किंतु उसकी बात उसे नहीं रुची। क्योंकि उसके विनाश का समय निकट था और वह काल के पाश में बँध चुका था। ३१॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे पञ्चदशः सर्गः॥१५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१५॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 15 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 15

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: