वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 16 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 16
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
षोडशः सर्गः (सर्ग 16)
वाली का तारा को डाँटकर लौटाना और सुग्रीव से जूझना तथा श्रीराम के बाण से घायल होकर पृथ्वी पर गिरना
तामेवं ब्रुवतीं तारां ताराधिपनिभाननाम्।
वाली निर्भर्त्सयामास वचनं चेदमब्रवीत्॥१॥
तारापति चन्द्रमा के समान मुखवाली तारा को ऐसी बातें करती देख वाली ने उसे फटकारा और इस प्रकार कहा
गर्जतोऽस्य सुसंरब्धं भ्रातुः शत्रोर्विशेषतः।
मर्षयिष्यामि केनापि कारणेन वरानने॥२॥
‘वरानने ! इस गर्जते हुए भाई की, जो विशेषतः मेरा शत्रु है, यह उत्तेजनापूर्ण चेष्टा मैं किस कारण से सहन करूँगा॥२॥
अधर्षितानां शूराणां समरेष्वनिवर्तिनाम्।
धर्षणामर्षणं भीरु मरणादतिरिच्यते॥३॥
‘भीरु! जो कभी परास्त नहीं हए और जिन्होंने युद्ध के अवसरों पर कभी पीठ नहीं दिखायी, उनशूरवीरों के लिये शत्रु की ललकार सह लेना मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी होता है॥३॥
सोढुं न च समर्थोऽहं युद्धकामस्य संयुगे।
सुग्रीवस्य च संरम्भं हीनग्रीवस्य गर्जितम्॥४॥
‘यह हीन ग्रीवा वाला सुग्रीव संग्रामभूमि में मेरे साथ युद्ध की इच्छा रखता है। मैं इसके रोषावेश और गर्जन-तर्जन को सहन करने में असमर्थ हूँ॥४॥
न च कार्यो विषादस्ते राघवं प्रति मत्कृते।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च कथं पापं करिष्यति ॥५॥
‘श्रीरामचन्द्रजी की बात सोचकर भी तुम्हें मेरे लिये विषाद नहीं करना चाहिये। क्योंकि वे धर्म के ज्ञाता तथा कर्तव्याकर्तव्य को समझने वाले हैं अतः पाप कैसे करेंगे॥
निवर्तस्व सह स्त्रीभिः कथं भूयोऽनुगच्छसि।
सौहृदं दर्शितं तावन्मयि भक्तिस्त्वया कृता॥६॥
प्रतियोत्स्याम्यहं गत्वा सुग्रीवं जहि सम्भ्रमम्।
दर्पं चास्य विनेष्यामि न च प्राणैर्वियोक्ष्यते॥७॥
‘तुम इन स्त्रियों के साथ लौट जाओ। क्यों मेरे पीछे बार-बार आ रही हो। तुमने मेरे प्रति अपना स्नेह दिखाया। भक्ति का भी परिचय दे दिया। अब जाओ, घबराहट छोड़ो। मैं आगे बढ़कर सुग्रीव का सामना करूँगा। उसके घमण्ड को चूर-चूर कर डालूँगा। किंतु प्राण नहीं लूंगा॥६—॥
अहं ह्याजिस्थितस्यास्य करिष्यामि यदीप्सितम्।
वृक्षैर्मुष्टिप्रहारैश्च पीडितः प्रतियास्यति॥८॥
‘युद्ध के मैदान में खड़े हुए सुग्रीव की जो-जो इच्छा है, उसे मैं पूर्ण करूँगा। वृक्षों और मुक्कों की मार से पीड़ित होकर वह स्वयं ही भाग जायगा॥ ८॥
न मे गर्वितमायस्तं सहिष्यति दुरात्मवान्।
कृतं तारे सहायत्वं दर्शितं सौहृदं मयि॥९॥
‘तारे! दुरात्मा सुग्रीव मेरे युद्धविषयक दर्प और आयास (उद्योग) को नहीं सह सकेगा। तुमने मेरी बौद्धिक सहायता अच्छी तरह कर दी और मेरे प्रति अपना सौहार्द भी दिखा दिया॥९॥
शापितासि मम प्राणैर्निवर्तस्व जनेन च।
अलं जित्वा निवर्तिष्ये तमहं भ्रातरं रणे॥१०॥
‘अब मैं प्राणों की सौगन्ध दिलाकर कहता हूँ कि अब तुम इन स्त्रियों के साथ लौट जाओ। अब अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, मैं युद्ध में अपने उस भाई को जीतकर लौट आऊँगा’ ॥ १० ॥
तं तु तारा परिष्वज्य वालिनं प्रियवादिनी।
चकार रुदती मन्दं दक्षिणा सा प्रदक्षिणम्॥ ११॥
यह सुनकर अत्यन्त उदार स्वभाववाली तारा ने वाली का आलिङ्गन करके मन्द स्वर में रोते-रोते उसकी परिक्रमा की॥ ११॥
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता॥ १२॥
वह पति की विजय चाहती थी और उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिये उसने वाली की मङ्गलकामना से स्वस्तिवाचन किया और शोक से मोहित हो वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गयी॥
१२॥
प्रविष्टायां तु तारायां सह स्त्रीभिः स्वमालयम्।
नगर्या निर्ययौ क्रुद्धो महासर्प इव श्वसन्॥१३॥
स्त्रियोंसहित तारा के अपने महल में चले जाने पर वाली क्रोध से भरे हुए महान् सर्प की भाँति लम्बी साँस खींचता हुआ नगर से बाहर निकला॥१३॥
स निःश्वस्य महारोषो वाली परमवेगवान्।
सर्वतश्चारयन् दृष्टिं शत्रुदर्शनकांक्षया॥१४॥
महान् रोष से युक्त और अत्यन्त वेगशाली वाली लम्बी साँस छोड़कर शत्रु को देखने की इच्छा से चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाने लगा॥ १४ ॥
स ददर्श ततः श्रीमान् सुग्रीवं हेमपिङ्गलम्।
सुसंवीतमवष्टब्धं दीप्यमानमिवानलम्॥१५॥
इतने ही में श्रीमान् वाली ने सुवर्ण के समान पिङ्गल वर्ण वाले सुग्रीव को देखा, जो लँगोट बाँधकर युद्ध के लिये डटकर खड़े थे और प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे॥ १५ ॥
तं स दृष्ट्वा महाबाहः सुग्रीवं पर्यवस्थितम।
गाढं परिदधे वासो वाली परमकोपनः॥१६॥
सुग्रीव को खड़ा देख महाबाहु वाली अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने अपना लँगोट भी दृढ़ता के साथ बाँध लिया॥
स वाली गाढसंवीतो मुष्टिमुद्यम्य वीर्यवान्।
सुग्रीवमेवाभिमुखो ययौ योद्धं कृतक्षणः॥१७॥
लँगोट को मजबूती के साथ कसकर पराक्रमी वाली प्रहार का अवसर देखता हुआ मुक्का तानकर सुग्रीव की ओर चला॥ १७॥
श्लिष्टं मुष्टिं समुद्यम्य संरब्धतरमागतः।
सुग्रीवोऽपि समुद्दिश्य वालिनं हेममालिनम्॥ १८॥
सुग्रीव भी सुवर्णमालाधारी वाली के उद्देश्य से बँधा हुआ मुक्का ताने बड़े आवेश के साथ उसकी ओर बढ़े॥
तं वाली क्रोधताम्राक्षः सुग्रीवं रणकोविदम्।
आपतन्तं महावेगमिदं वचनमब्रवीत्॥१९॥
युद्धकला के पण्डित महावेगशाली सुग्रीव को अपनी ओर आते देख वाली की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं और वह इस प्रकार बोला— ॥१९॥
एष मुष्टिर्महान् बद्धो गाढः सुनियताङ्गुलिः।
मया वेगविमुक्तस्ते प्राणानादाय यास्यति॥२०॥
‘सुग्रीव! देख ले यह बड़ा भारी मुक्का खूब कसकर बँधा हुआ है। इसमें सारी अङ्गुलियाँ सुनियन्त्रित रूप से परस्पर सटी हुई हैं। मेरे द्वारा वेगपूर्वक चलाया हुआ यह मुक्का तेरे प्राण लेकर ही जायगा’ ॥ २०॥
एवमुक्तस्तु सुग्रीवः क्रुद्धो वालिनमब्रवीत्।
तव चैष हरन् प्राणान् मुष्टिः पततु मूर्धनि॥२१॥
वाली के ऐसा कहने पर सुग्रीव क्रोधपूर्वक उससे बोले—’मेरा यह मुक्का भी तेरे प्राण लेने के लिये तेरे मस्तक पर गिरे’॥ २१॥
ताडितस्तेन तं क्रुद्धः समभिक्रम्य वेगतः।
अभवच्छोणितोद्गारी सापीड इव पर्वतः॥२२॥
इतने ही में वाली ने वेगपूर्वक आक्रमण करके सुग्रीव पर मुक्के का प्रहार किया। उस चोट से घायल एवं कुपित हुए सुग्रीव झरनों से युक्त पर्वत की भाँति मुँह से रक्त वमन करने लगे। २२ ।।
सुग्रीवेण तु निःशङ्कं सालमुत्पाट्य तेजसा।
गात्रेष्वभिहतो वाली वज्रेणेव महागिरिः॥२३॥
तत्पश्चात् सुग्रीव ने भी निःशङ्क होकर बलपूर्वक एक साल वृक्ष को उखाड़ लिया और उसे वाली के शरीर पर दे मारा, मानो इन्द्रने किसी विशाल पर्वत पर वज्रका प्रहार किया हो॥ २३॥
स तु वृक्षेण निर्भग्नः सालताडनविह्वलः।
गुरुभारभराक्रान्ता नौः ससार्थेव सागरे॥२४॥
उस वृक्ष की चोट से वाली के शरीर में घाव हो गया। उस आघात से विह्वल हुआ वाली व्यापारियों के समूह के चढ़ने से भारी भार के द्वारा दबकर समुद्र में डगमगाती हुई नौका के समान काँपने लगा॥ २४॥
तौ भीमबलविक्रान्तौ सुपर्णसमवेगितौ।
प्रवृद्धौ घोरवपुषौ चन्द्रसूर्याविवाम्बरे ॥२५॥
उन दोनों भाइयों का बल और पराक्रम भयंकर था। दोनों के ही वेग गरुड़ के समान थे। वे दोनों भयंकर रूप धारण करके बड़े जोर से जूझ रहे थे और पूर्णिमा के आकाश में चन्द्रमा और सूर्य के समान दिखायी देते थे॥
परस्परममित्रघ्नौ छिद्रान्वेषणतत्परौ।
ततोऽवर्धत वाली तु बलवीर्यसमन्वितः॥२६॥
सूर्यपुत्रो महावीर्यः सुग्रीवः परिहीयत।
वे शत्रुसूदन वीर अपने विपक्षी को मार डालने की इच्छा से एक-दूसरे की दुर्बलता ढूँढ़ रहे थे; परंतु उस युद्ध में बल-विक्रमसम्पन्न वाली बढ़ने लगा और महापराक्रमी सूर्यपुत्र सुग्रीव की शक्ति क्षीण होने लगी॥
वालिना भग्नदर्पस्तु सुग्रीवो मन्दविक्रमः॥२७॥
वालिनं प्रति सामर्षो दर्शयामास राघवम्।
वालीने सुग्रीवका घमण्ड चूर्ण कर दिया।
उनका पराक्रम मन्द पड़ने लगा। तब वाली के प्रति अमर्ष में भरे हुए सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्रजी को अपनी अवस्था का लक्ष्य कराया॥ २७ १/२॥
वृक्षैः सशाखैः शिखरैर्वज्रकोटिनिभै खैः ॥ २८॥
मुष्टिभिर्जानुभिः पद्भिर्बाहुभिश्च पुनः पुनः।
तयोर्युद्धमभूद्घोरं वृत्रवासवयोरिव॥२९॥
इसके बाद डालियों सहित वृक्षों, पर्वत के शिखरों, वज्र के समान भयंकर नखों, मुक्कों, घुटनों, लातों और हाथों की मार से उन दोनों में इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति भयंकर संग्राम होने लगा॥२९॥
तौ शोणिताक्तौ युध्येतां वानरौ वनचारिणौ।
मेघाविव महाशब्देस्तर्जमानौ परस्परम्॥३०॥
वे दोनों वनचारी वानर लहूलुहान होकर लड़ रहे थे और दो बादलों की तरह अत्यन्त भयंकर गर्जना करते हुए एक-दूसरे को डाँट रहे थे॥ ३० ॥
हीयमानमथापश्यत् सुग्रीवं वानरेश्वरम्।
प्रेक्षमाणं दिशश्चैव राघवः स मुहुर्मुहुः॥३१॥
श्रीरघुनाथजी ने देखा, वानरराज सुग्रीव कमजोर पड़ रहे हैं और बारंबार इधर-उधर दृष्टि दौड़ा रहे हैं। ३१॥
ततो रामो महातेजा आर्तं दृष्ट्वा हरीश्वरम्।
स शरं वीक्षते वीरो वालिनो वधकांक्षया॥३२॥
वानरराज को पीड़ित देख महातेजस्वी श्रीराम ने वाली के वध की इच्छा से अपने बाण पर दृष्टिपात किया॥
ततो धनुषि संधाय शरमाशीविषोपमम्।
पूरयामास तच्चापं कालचक्रमिवान्तकः॥३३॥
उन्होंने अपने धनुष पर विषधर सर्प के समान भयंकर बाण रखा और उसे जोर से खींचा, मानो यमराज ने कालचक्र उठा लिया हो॥३३॥
तस्य ज्यातलघोषेण त्रस्ताः पत्ररथेश्वराः।
प्रदुद्रुवुर्मुगाश्चैव युगान्त इव मोहिताः॥ ३४॥
उसकी प्रत्यञ्चा की टङ्कारध्वनि से भयभीत हो बड़े-बड़े पक्षी और मृग भाग खड़े हुए। वे प्रलयकाल के समय मोहित हुए जीवों के समान किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये॥ ३४॥
मुक्तस्तु वज्रनिर्घोषः प्रदीप्ताशनिसंनिभः।
राघवेण महाबाणो वालिवक्षसि पातितः॥ ३५॥
श्रीरघुनाथजी ने वज्र की भाँति गड़गड़ाहट और प्रज्वलित अशनि की भाँति प्रकाश पैदा करने वाला वह महान् बाण छोड़ दिया तथा उसके द्वारा वाली के वक्षःस्थल पर चोट पहुँचायी॥ ३५ ॥
ततस्तेन महातेजा वीर्ययुक्तः कपीश्वरः।
वेगेनाभिहतो वाली निपपात महीतले॥३६॥
उस बाण से वेगपूर्वक आहत हो महातेजस्वी पराक्रमी वानरराज वाली तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ३६॥
इन्द्रध्वज इवोधूतः पौर्णमास्यां महीतले।
आश्वयुक्समये मासि गतश्रीको विचेतनः।
बाष्पसंरुद्धकण्ठस्तु वाली चार्तस्वरः शनैः॥ ३७॥
आश्विन की पूर्णिमा के दिन इन्द्रध्वजोत्सव के अन्त में ऊपर फेंका गया इन्द्रध्वज जैसे पृथ्वी पर गिर पड़ता है, उसी प्रकार वाली ग्रीष्मऋतु के अन्त में श्रीहीन, अचेत और आँसुओं से गद्गदकण्ठ हो धराशायी हो गया और धीरे-धीरे आर्तनाद करने लगा॥ ३७॥
नरोत्तमः कालयुगान्तकोपमं शरोत्तमं काञ्चनरूप्यभूषितम्।
ससर्ज दीप्तं तममित्रमर्दनं सधूममग्निं मुखतो यथा हरः॥ ३८॥
श्रीराम का वह उत्तम बाण युगान्तकाल के समान भयंकर तथा सोने-चाँदी से विभूषित था। पूर्वकाल में महादेवजी ने जैसे अपने मुख से (मुख-मण्डल के अन्तर्गत ललाटवर्ती नेत्र से) शत्रुभूत कामदेव का नाश करने के लिये धूमयुक्त अग्नि की सृष्टि की थी, उसी प्रकार पुरुषोत्तम श्रीराम ने सुग्रीवशत्रु वाली का मर्दन करने के लिये उस प्रज्वलित बाण को छोड़ा था। ३८॥
अथोक्षितः शोणिततोयविस्रवैः सुपुष्पिताशोक इवानिलोद्धतः।
विचेतनो वासवसूनुराहवे प्रभ्रंशितेन्द्रध्वजवत् क्षितिं गतः॥ ३९॥
इन्द्रकुमार वाली के शरीर से पानी के समान रक्त की धारा बहने लगी। वह उससे नहा गया और अचेत हो वायु के उखाड़े हुए पुष्पित अशोक वृक्ष एवं आकाश से नीचे गिरे हुए इन्द्रध्वज के समान समराङ्गण में पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ३९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे षोडशः सर्गः ॥१६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१६॥
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