वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 17 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 17
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
सप्तदशः सर्गः (सर्ग 17)
वाली का श्रीरामचन्द्रजी को फटकारना
ततः शरेणाभिहतो रामेण रणकर्कशः।
पपात सहसा वाली निकृत्त इव पादपः॥१॥
युद्ध में कठोरता दिखाने वाला वाली श्रीराम के बाण से घायल हो कटे वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा॥
स भूमौ न्यस्तसर्वाङ्गस्तप्तकाञ्चनभूषणः।
अपतद् देवराजस्य मुक्तरश्मिरिव ध्वजः॥२॥
उसका सारा शरीर पृथ्वी पर पड़ा हुआ था। तपाये हुए सुवर्ण के आभूषण अब भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह देवराज इन्द्र के बन्धनरहित ध्वज की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा था॥२॥
अस्मिन् निपतिते भूमौ हर्यक्षाणां गणेश्वरे।
नष्टचन्द्रमिव व्योम न व्यराजत मेदिनी॥३॥
वानरों और भालुओं के यूथपति वाली के धराशायी हो जाने पर यह पृथ्वी चन्द्ररहित आकाश की भाँति शोभाहीन हो गयी॥३॥
भूमौ निपतितस्यापि तस्य देहं महात्मनः।
न श्रीर्जहाति न प्राणा न तेजो न पराक्रमः॥४॥
पृथ्वी पर पड़े होने पर भी महामना वाली के शरीर को शोभा, प्राण, तेज और पराक्रम नहीं छोड़ सके थे। ४॥
शक्रदत्ता वरा माला काञ्चनी रत्नभूषिता।
दधार हरिमुख्यस्य प्राणांस्तेजः श्रियं च सा॥५॥
इन्द्र की दी हुई रत्नजटित श्रेष्ठ सुवर्णमाला उस वानरराज के प्राण, तेज और शोभा को धारण किये हुए थी॥
स तया मालया वीरो हैमया हरियथपः।
संध्यानुगतपर्यन्तः पयोधर इवाभवत्॥६॥
उस सुवर्णमाला से विभूषित हुआ वानरयूथपति वीर वाली संध्या की लाली से रँगे हुए प्रान्त भाग वाले मेघखण्ड के समान शोभा पा रहा था॥६॥
तस्य माला च देहश्च मर्मघाती च यः शरः।
त्रिधेव रचिता लक्ष्मीः पतितस्यापि शोभते॥७॥
पृथ्वीपर गिरे होने पर भी वाली की वह सुवर्णमाला, उसका शरीर तथा मर्मस्थल को विदीर्ण करने वाला वह बाण—ये तीनों पृथक्-पृथक् तीन भागों में विभक्त की हुई अङ्गलक्ष्मी के समान शोभा पा रहे थे॥७॥
तदस्त्रं तस्य वीरस्य स्वर्गमार्गप्रभावनम्।
रामबाणासनक्षिप्तमावहत् परमां गतिम्॥८॥
वीरवर श्रीराम के धनुष से चलाये गये उस अस्त्रने वाली के लिये स्वर्ग का मार्ग प्रकाशित कर दिया और उसे परमपद को पहुँचा दिया॥ ८॥
तं तथा पतितं संख्ये गतार्चिषमिवानलम्।
ययातिमिव पुण्यान्ते देवलोकादिह च्युतम्॥९॥
आदित्यमिव कालेन युगान्ते भुवि पातितम्।
महेन्द्रमिव दुर्धर्षमुपेन्द्रमिव दुःसहम्॥१०॥
महेन्द्रपुत्रं पतितं वालिनं हेममालिनम्।
व्यूढोरस्कं महाबाहुं दीप्तास्यं हरिलोचनम्॥ ११॥
इस प्रकार युद्धस्थल में गिरा हुआ इन्द्रपुत्र वाली ज्वालारहित अग्नि के समान, पुण्यों का क्षय होने पर पुण्यलोक से इस पृथ्वी पर गिरे हुए राजा ययाति के समान तथा महाप्रलय के समय काल द्वारा पृथ्वी पर गिराये गये सूर्य के समान जान पड़ता था। उसके गले में सोने की माला शोभा दे रही थी। वह महेन्द्र के समान दुर्जय और भगवान् विष्णु के समान दुस्सह था। उसकी छाती चौड़ी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, मुख दीप्तिमान् और नेत्र कपिलवर्ण के थे॥९–११॥
लक्ष्मणानुचरो रामो ददर्शोपससर्प च।
तं तथा पतितं वीरं गतार्चिषमिवानलम्॥१२॥
बहुमान्य च तं वीरं वीक्षमाणं शनैरिव।
उपयातौ महावीर्यौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१३॥
लक्ष्मण को साथ लिये श्रीराम ने वाली को इस अवस्था में देखा और वे उसके समीप गये। इस प्रकार ज्वालारहित अग्नि की भाँति वहाँ गिरा हुआ वह वीर धीरे-धीरे देख रहा था। महापराक्रमी दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उस वीर का विशेष सम्मान करते हुए उसके पास गये॥ १२-१३॥
तं दृष्ट्वा राघवं वाली लक्ष्मणं च महाबलम्।
अब्रवीत् परुषं वाक्यं प्रश्रितं धर्मसंहितम्॥१४॥
उन श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण को देखकर वाली धर्म और विनय से युक्त कठोर वाणी में बोला – || १४॥
स भूमावल्पतेजोऽसुर्निहतो नष्टचेतनः।
अर्थसंहितया वाचा गर्वितं रणगर्वितम्॥१५॥
अब उसमें तेज और प्राण स्वल्पमात्रा में ही रह गये थे। वह बाण से घायल होकर पृथ्वी पर पड़ा था और उसकी चेष्टा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी। उसने युद्ध में गर्वयुक्त पराक्रम प्रकट करने वाले गर्वीले श्रीराम से कठोर वाणी में इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥१५॥
त्वं नराधिपतेः पुत्रः प्रथितः प्रियदर्शनः।
परामखवधं कृत्वा कोऽत्र प्राप्तस्त्वया गुणः।
यदहं युद्धसंरब्धस्त्वत्कृते निधनं गतः॥१६॥
रघुनन्दन ! आप राजा दशरथ के सुविख्यात पुत्र हैं। आपका दर्शन सबको प्रिय है। मैं आपसे युद्ध करने नहीं आया था। मैं तो दूसरे के साथ युद्ध में उलझा हुआ था। उस दशा में आपने मेरा वध करके यहाँ कौन-सा गुण प्राप्त किया है—किस महान् यश का उपार्जन किया है? क्योंकि मैं युद्ध के लिये दूसरे पर रोष प्रकट कर रहा था, किंतु आपके कारण बीच में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ॥१६॥
कुलीनः सत्त्वसम्पन्नस्तेजस्वी चरितव्रतः।
रामः करुणवेदी च प्रजानां च हिते रतः॥१७॥
सानुक्रोशो महोत्साहः समयज्ञो दृढव्रतः।
इत्येतत् सर्वभूतानि कथयन्ति यशो भुवि॥१८॥
इस भूतल पर सब प्राणी आपके यश का वर्णन करते हुए कहते हैं-श्रीरामचन्द्रजी कुलीन, सत्त्वगुणसम्पन्न, तेजस्वी, उत्तम व्रत का आचरण करने वाले, करुणा का अनुभव करने वाले, प्रजा के हितैषी, दयालु, महान् उत्साही, समयोचित कार्य एवं सदाचार के ज्ञाता और दृढ़प्रतिज्ञ हैं॥ १७-१८॥
दमः शमः क्षमा धर्मो धृतिः सत्यं पराक्रमः।
पार्थिवानां गुणा राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु॥ १९॥
‘राजन् ! इन्द्रियनिग्रह, मन का संयम, क्षमा, धर्म, धैर्य, सत्य, पराक्रम तथा अपराधियों को दण्ड देना ये राजा के गुण हैं ॥ १९॥
तान् गुणान् सम्प्रधा हमग्रयं चाभिजनं तव।
तारया प्रतिषिद्धः सन् सुग्रीवेण समागतः॥२०॥
‘मैं आपमें इन सभी सद्गुणों का विश्वास करके आपके उत्तम कुल को यादकर तारा के मना करने पर भी सुग्रीव के साथ लड़ने आ गया॥ २० ॥
न मामन्येन संरब्धं प्रमत्तं वेधुमर्हसि।
इति मे बुद्धिरुत्पन्ना बभूवादर्शने तव॥२१॥
जबतक मैंने आपको नहीं देखा था, तब तक मेरे मन में यही विचार उठता था कि दूसरे के साथ रोषपूर्वक जुझते हुए मुझको आप असावधान अवस्था में अपने बाण से बेधना उचित नहीं समझेंगे।
२१॥
स त्वां विनिहतात्मानं धर्मध्वजमधार्मिकम्।
जाने पापसमाचारं तृणैः कूपमिवावृतम्॥२२॥
‘परंतु आज मुझे मालूम हुआ कि आपकी बुद्धि मारी गयी है। आप धर्मध्वजी हैं। दिखावे के लिये धर्म का चोला पहने हुए हैं। वास्तव में अधर्मी हैं। आपका आचार-व्यवहार पापपूर्ण है। आप घासफूस से ढके हुए कूप के समान धोखा देने वाले हैं। २२॥
सतां वेषधरं पापं प्रच्छन्नमिव पावकम्।
नाहं त्वामभिजानामि धर्मच्छद्माभिसंवृतम्॥२३॥
‘आपने साधु पुरुषोंका-सा वेश धारण कर रखा है; परंतु हैं पापी। राख से ढकी हुई आग के समान आपका असली रूप साधु-वेष में छिप गया है। मैं नहीं जानता था कि आपने लोगों को छलने के लिये ही धर्म की आड़ ली है॥ २३॥
विषये वा पुरे वा ते यदा पापं करोम्यहम्।
न च त्वामवजानेऽहं कस्मात् तं हंस्यकिल्बिषम्॥ २४॥
‘जब मैं आपके राज्य या नगर में कोई उपद्रव नहीं कर रहा था तथा आपका भी तिरस्कार नहीं करता था, तब आपने मुझ निरपराध को क्यों मारा? ॥ २४ ॥
फलमूलाशनं नित्यं वानरं वनगोचरम्।
मामिहाप्रतियुध्यन्तमन्येन च समागतम्॥२५॥
‘मैं सदा फल-मूल का भोजन करने वाला और वन में ही विचरने वाला वानर हूँ। मैं यहाँ आपसे युद्ध नहीं करता था, दूसरे के साथ मेरी लड़ाई हो रही थी। फिर बिना अपराध के आपने मुझे क्यों मारा ? ॥ २५ ॥
त्वं नराधिपतेः पुत्रः प्रतीतः प्रियदर्शनः।
लिङ्गमप्यस्ति ते राजन् दृश्यते धर्मसंहितम्॥२६॥
‘राजन्! आप एक सम्माननीय नरेश के पुत्र हैं। विश्वास के योग्य हैं और देखने में भी प्रिय हैं। आपमें धर्म का साधनभूत चिह्न (जटा) वल्कल धारण आदि भी प्रत्यक्ष दिखायी देता है॥२६॥
कः क्षत्रियकुले जातः श्रुतवान् नष्टसंशयः।
धर्मलिङ्गप्रतिच्छन्नः क्रूरं कर्म समाचरेत्॥२७॥
‘क्षत्रियकुल में उत्पन्न शास्त्र का ज्ञाता, संशयरहित तथा धार्मिक वेश-भूषा से आच्छन्न होकर भी कौन मनुष्य ऐसा क्रूरतापूर्ण कर्म कर सकता है॥ २७॥
त्वं राघवकुले जातो धर्मवानिति विश्रुतः।
अभव्यो भव्यरूपेण किमर्थं परिधावसे ॥२८॥
‘महाराज! रघु के कुल में आपका प्रादुर्भाव हुआ है। आप धर्मात्मा के रूप में प्रसिद्ध हैं तो भी इतने अभव्य (क्रूर) निकले! यदि यही आपका असली रूप है तो फिर किसलिये ऊपर से भव्य (विनीत एवं दयाल) साधु पुरुष का-सा रूप धारण करके चारों ओर दौड़ते-फिरते हैं? ॥ २८॥
साम दानं क्षमा धर्मः सत्यं धृतिपराक्रमौ।
पार्थिवानां गुणा राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु॥ २९॥
‘राजन्! साम, दान, क्षमा, धर्म, सत्य, धृति, पराक्रम और अपराधियों को दण्ड देना—ये भूपालों के गुण हैं॥ २९॥
वयं वनचरा राम मृगा मूलफलाशिनः।
एषा प्रकृतिरस्माकं पुरुषस्त्वं नरेश्वर ॥३०॥
धर्मलिङ्गप्रतिच्छन्नः क्रूरं कर्म समाचरेत्॥२७॥
‘क्षत्रियकुल में उत्पन्न शास्त्र का ज्ञाता, संशयरहित तथा धार्मिक वेश-भूषा से आच्छन्न होकर भी कौन मनुष्य ऐसा क्रूरतापूर्ण कर्म कर सकता है॥ २७॥
त्वं राघवकुले जातो धर्मवानिति विश्रुतः।
अभव्यो भव्यरूपेण किमर्थं परिधावसे ॥२८॥
‘महाराज! रघु के कुल में आपका प्रादुर्भाव हुआ है। आप धर्मात्मा के रूप में प्रसिद्ध हैं तो भी इतने अभव्य (क्रूर) निकले! यदि यही आपका असली रूप है तो फिर किसलिये ऊपर से भव्य (विनीत एवं दयाल) साधु पुरुष का-सा रूप धारण करके चारों ओर दौड़ते-फिरते हैं? ॥ २८॥
साम दानं क्षमा धर्मः सत्यं धृतिपराक्रमौ।
पार्थिवानां गुणा राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु॥ २९॥
‘राजन्! साम, दान, क्षमा, धर्म, सत्य, धृति, पराक्रम और अपराधियों को दण्ड देना—ये भूपालों के गुण हैं॥ २९॥
वयं वनचरा राम मृगा मूलफलाशिनः।
एषा प्रकृतिरस्माकं पुरुषस्त्वं नरेश्वर ॥३०॥
‘नरेश्वर राम! हम फल-मूल खाने वाले वनचारी मृग हैं। यही हमारी प्रकृति है; किंतु आप तो पुरुष (मनुष्य) हैं (अतः हमारे और आपमें वैर का कोई कारण नहीं है) ॥ ३०॥
भूमिर्हिरण्यं रूपं च विग्रहे कारणानि च।
तत्र कस्ते वने लोभो मदीयेषु फलेषु वा॥३१॥
‘पृथ्वी, सोना और चाँदी–इन्हीं वस्तुओं के लिये राजाओं में परस्पर युद्ध होते हैं। ये ही तीन कलह के मूल कारण हैं। परंतु यहाँ वे भी नहीं हैं। इस दिशा में इस वन में या हमारे फलों में आपका क्या लोभ हो सकता है॥३१॥
नयश्च विनयश्चोभौ निग्रहानुग्रहावपि।
राजवृत्तिरसंकीर्णा न नृपाः कामवृत्तयः॥३२॥
‘नीति और विनय, दण्ड और अनुग्रह-ये राजधर्म । हैं, किंतु इनके उपयोगके भिन्न-भिन्न अवसर हैं । (इनका अविवेकपूर्वक उपयोग करना उचित नहीं है)। राजाओं को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिये। ३२॥
त्वं तु कामप्रधानश्च कोपनश्चानवस्थितः।
राजवृत्तेषु संकीर्णः शरासनपरायणः॥३३॥
परंतु आप तो काम के गुलाम, क्रोधी और मर्यादा में स्थित न रहने वाले–चञ्चल हैं। नय-विनय आदि जो राजाओं के धर्म हैं, उनके अवसर का विचार किये बिना ही किसी का कहीं भी प्रयोग कर देते हैं। जहाँ कहीं भी बाण चलाते-फिरते हैं॥ ३३॥
न तेऽस्त्यपचितिर्धर्मे नार्थे बुद्धिरवस्थिता।
इन्द्रियैः कामवृत्तः सन् कृष्यसे मनुजेश्वर ॥ ३४॥
‘आपका धर्म के विषय में आदर नहीं है और न अर्थ साधन में ही आपकी बुद्धि स्थिर है। नरेश्वर! आप स्वेच्छाचारी हैं। इसलिये आपकी इन्द्रियाँ आपको कहीं भी खींच ले जाती हैं॥ ३४ ॥
हत्वा बाणेन काकुत्स्थ मामिहानपराधिनम्।
किं वक्ष्यसि सतां मध्ये कर्म कृत्वा जुगुप्सितम्॥ ३५॥
‘काकुत्स्थ! मैं सर्वथा निरपराध था तो भी यहाँ मुझे बाण से मारने का घृणित कर्म करके सत्पुरुषों के बीच में आप क्या कहेंगे॥ ३५॥
राजहा ब्रह्महा गोजश्चोरः प्राणिवधे रतः।
नास्तिकः परिवेत्ता च सर्वे निरयगामिनः॥३६॥
‘राजा का वध करने वाला, ब्रह्महत्यारा, गोघाती, चोर, प्राणियों की हिंसा में तत्पर रहने वाला, नास्तिक और परिवेत्ता (बड़े भाई के अविवाहित रहते अपना विवाह करने वाला छोटा भाई) ये सब-के-सब नरकगामी होते हैं॥ ३६॥
सूचकश्च कदर्यश्च मित्रघ्नो गुरुतल्पगः।
लोकं पापात्मनामेते गच्छन्ते नात्र संशयः॥ ३७॥
‘चुगली खाने वाला, लोभी, मित्र-हत्यारा तथा गुरुपत्नीगामी—ये पापात्माओं के लोक में जाते हैं इसमें संशय नहीं है॥ ३७॥
अधार्यं चर्म मे सद्भी रोमाण्यस्थि च वर्जितम्।
अभक्ष्याणि च मांसानि त्वद्विधैर्धर्मचारिभिः॥ ३८॥
‘हम वानरों का चमड़ा भी तो सत्पुरुषों के धारण करने योग्य नहीं होता। हमारे रोम और हड्डियाँ भी वर्जित हैं (छूने-योग्य नहीं हैं। आप-जैसे धर्माचारी पुरुषों के लिये मांस तो सदा ही अभक्ष्य है; फिर किस लोभ से आपने मुझ वानर को अपने बाणों का शिकार बनाया है ?) ॥ ३८॥
पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या ब्रह्मक्षत्रेण राघव।
शल्यकः श्वाविधो गोधा शशः कूर्मश्च पञ्चमः॥३९॥
‘रघुनन्दन! त्रैवर्णिकों में जिनकी किसी कारण से मांसाहार (जैसे निन्दनीय कर्म) में प्रवृत्ति हो गयी है, उनके लिये भी पाँच नखवाले जीवों में से पाँच ही भक्षण के योग्य बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं—गेंडा, साही, गोह, खरहा और पाँचवाँ कछुआ॥ ३९॥
चर्म चास्थि च मे राम न स्पृशन्ति मनीषिणः।
अभक्ष्याणि च मांसानि सोऽहं पञ्चनखो हतः॥ ४०॥
‘श्रीराम! मनीषी पुरुष मेरे (वानर के) चमड़े और हड्डी का स्पर्श नहीं करते हैं। वानर के मांस भी सभी के लिये अभक्ष्य होते हैं। इस तरह जिसका सब कुछ निषिद्ध है, ऐसा पाँच नखवाला मैं आज आपके हाथसे मारा गया हूँ॥ ४०॥
तारया वाक्यमुक्तोऽहं सत्यं सर्वज्ञया हितम्।
तदतिक्रम्य मोहेन कालस्य वशमागतः॥४१॥
‘मेरी स्त्री तारा सर्वज्ञ है। उसने मुझे सत्य और हित की बात बतायी थी। किंतु मोहवश उसका उल्लङ्घन करके मैं काल के अधीन हो गया। ४१ ॥
त्वया नाथेन काकुत्स्थ न सनाथा वसुंधरा।
प्रमदा शीलसम्पूर्णा पत्येव च विधर्मणा॥४२॥
‘काकुत्स्थ! जैसे सुशीला युवती पापात्मा पति से सुरक्षित नहीं हो पाती, उसी प्रकार आप-जैसे स्वामी को पाकर यह वसुधा सनाथ नहीं हो सकती॥ ४२॥
शठो नैकृतिकः क्षुद्रो मिथ्याप्रश्रितमानसः।
कथं दशरथेन त्वं जातः पापो महात्मना॥४३॥
‘आप शठ (छिपे रहकर दूसरों का अप्रिय करने वाले), अपकारी, क्षुद्र और झूठे ही शान्तचित्त बने रहने वाले हैं। महात्मा राजा दशरथ ने आप-जैसे पापी को कैसे उत्पन्न किया॥४३॥
छिन्नचारित्र्यकक्ष्येण सतां धर्मातिवर्तिना।
त्यक्तधर्माङ्कशेनाहं निहतो रामहस्तिना॥४४॥
‘हाय! जिसने सदाचार का रस्सा तोड़ डाला है, सत्पुरुषों के धर्म एवं मर्यादा का उल्लङ्घन किया है तथा जिसने धर्मरूपी अङ्कश की भी अवहेलना कर दी है, उस रामरूपी हाथी के द्वारा आज मैं मारा गया। ४४॥
अशुभं चाप्ययुक्तं च सतां चैव विगर्हितम्।
वक्ष्यसे चेदृशं कृत्वा सद्भिः सह समागतः॥४५॥
‘ऐसा अशुभ, अनुचित और सत्पुरुषों द्वारा निन्दित कर्म करके आप श्रेष्ठ पुरुषों से मिलने पर उनके सामने क्या कहेंगे॥४५॥
उदासीनेषु योऽस्मासु विक्रमोऽयं प्रकाशितः।
अपकारिषु ते राम नैवं पश्यामि विक्रमम्॥ ४६॥
‘श्रीराम! हम उदासीन प्राणियों पर आपने जो यह पराक्रम प्रकट किया है, ऐसा बल-पराक्रम आप अपना अपकार करने वालों पर प्रकट कर रहे हों, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता॥ ४६॥
दृश्यमानस्तु युध्येथा मया युधि नृपात्मज।
अद्य वैवस्वतं देवं पश्येस्त्वं निहतो मया॥४७॥
‘राजकुमार! यदि आप युद्धस्थल में मेरी दृष्टि के सामने आकर मेरे साथ युद्ध करते तो आज मेरे द्वारा मारे जाकर सूर्यपुत्र यम देवता का दर्शन करते होते॥ ४७॥
त्वयादृश्येन तु रणे निहतोऽहं दुरासदः।
प्रसुप्तः पन्नगेनैव नरः पापवशं गतः॥४८॥
‘जैसे किसी सोये हुए पुरुष को साँप आकर डंस ले और वह मर जाय उसी प्रकार रणभूमि में मुझ दुर्जय वीर को आपने छिपे रहकर मारा है तथा ऐसा करके आप पाप के भागी हुए हैं। ४८॥
सुग्रीवप्रियकामेन यदहं निहतस्त्वया।
मामेव यदि पूर्वं त्वमेतदर्थमचोदयः।
मैथिलीमहमेकाना तव चानीतवान् भवेः॥ ४९॥
‘जिस उद्देश्य को लेकर सुग्रीव का प्रिय करने की कामना से आपने मेरा वध किया है, उसी उद्देश्य की सिद्धि के लिये यदि आपने पहले मुझसे ही कहा होता तो मैं मिथिलेशकुमारी जानकी को एक ही दिन में ढूँढ़कर आपके पास ला देता॥ ४९॥
राक्षसं च दुरात्मानं तव भार्यापहारिणम्।
कण्ठे बद्ध्वा प्रदद्यां तेऽनिहतं रावणं रणे॥ ५०॥
‘आपकी पत्नी का अपहरण करने वाले दुरात्मा राक्षस रावण को मैं युद्ध में मारे बिना ही उसके गले में रस्सी बाँधकर पकड़ लाता और उसे आपके हवाले कर देता।
न्यस्तां सागरतोये वा पाताले वापि मैथिलीम्।
आनयेयं तवादेशाच्छ्वेतामश्वतरीमिव॥५१॥
‘जैसे मधुकैटभ द्वारा अपहृत हुई श्वेताश्वतरी श्रुति का भगवान् हयग्रीव ने उद्धार किया था, उसी प्रकार मैं आपके आदेश से मिथिलेशकुमारी सीता को यदि वे समुद्र के जल या पाताल में रखी गयी होती तो भी वहाँ से ला देता॥ ५१॥
युक्तं यत्प्राप्नुयाद् राज्यं सुग्रीवः स्वर्गते मयि।
अयुक्तं यदधर्मेण त्वयाहं निहतो रणे॥५२॥
‘मेरे स्वर्गवासी हो जाने पर सुग्रीव जो यह राज्य प्राप्त करेंगे, वह तो उचित ही है। अनुचित इतना ही हुआ है कि आपने मुझे रणभूमि में अधर्मपूर्वक मारा है॥५२॥
काममेवंविधो लोकः कालेन विनियुज्यते।
क्षमं चेद्भवता प्राप्तमुत्तरं साधु चिन्त्यताम्॥५३॥
‘यह जगत् कभी-न-कभी काल के अधीन होता ही है। इसका ऐसा स्वभाव ही है। अतः भले ही मेरी मृत्यु हो जाय, इसके लिये मुझे खेद नहीं है। परंतु मेरे इस तरह मारे जाने का यदि आपने उचित उत्तर ढूँढ़ निकाला हो तो उसे अच्छी तरह सोच-विचारकर कहिये’॥ ५३॥
इत्येवमुक्त्वा परिशुष्कवक्त्रः शराभिघाताद व्यथितो महात्मा।
समीक्ष्य रामं रविसंनिकाशं तूष्णीं बभौ वानरराजसूनुः॥५४॥
ऐसा कहकर महामनस्वी वानरराजकुमार वाली सूर्य के समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखकर चुप हो गया। उसका मुँह सूख गया था और बाण के आघात से उसको बड़ी पीड़ा हो रही थी॥ ५४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे सप्तदशः सर्गः ॥१७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१७॥
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