वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 18 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 18
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
अष्टादशः सर्गः (सर्ग 18)
श्रीराम का वाली की बात का उत्तर देते हुए उसे दिये गये दण्ड का औचित्य बताना,वाली का अपने अपराध के लिये क्षमा माँगते हुए अङ्गद की रक्षा के लिये प्रार्थना करना
इत्युक्तः प्रश्रितं वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम्।
परुषं वालिना रामो निहतेन विचेतसा॥१॥
तं निष्प्रभमिवादित्यं मुक्ततोयमिवाम्बुदम्।
उक्तवाक्यं हरिश्रेष्ठमुपशान्तमिवानलम्॥२॥
धर्मार्थगुणसम्पन्नं हरीश्वरमनुत्तमम्।।
अधिक्षिप्तस्तदा रामः पश्चाद् वालिनमब्रवीत्॥ ३॥
वहाँ मारे जाकर अचेत हुए वाली ने जब इस प्रकार विनयाभास, धर्माभास, अर्थाभास और हिताभास से युक्त कठोर बातें कहीं, आक्षेप किया, तब उन बातों को कहकर मौन हुए वानरश्रेष्ठ वाली से श्रीरामचन्द्रजी ने धर्म, अर्थ और श्रेष्ठ गुणों से युक्त परम उत्तम बात कही। उस समय वाली प्रभाहीन सूर्य, जलहीन बादल और बुझी हुई आग के समान श्रीहीन प्रतीत होता था॥ १-३॥
धर्ममर्थं च कामं च समयं चापि लौकिकम्।
अविज्ञाय कथं बाल्यान्मामिहाद्य विगर्हसे॥४॥
(श्रीराम बोले-) ‘वानर! धर्म, अर्थ, काम और लौकिक सदाचार को तो तुम स्वयं ही नहीं जानते हो। फिर बालोचित अविवेक के कारण आज यहाँ मेरी निन्दा क्यों करते हो? ॥ ४॥
अपृष्ट्वा बुद्धिसम्पन्नान् वृद्धानाचार्यसम्मतान्।
सौम्य वानरचापल्यात् त्वं मां वक्तुमिहेच्छसि॥
‘सौम्य ! तुम आचार्यों द्वारा सम्मानित बुद्धिमान् वृद्ध पुरुषों से पूछे बिना ही उनसे धर्म के स्वरूप को ठीक-ठीक समझे बिना ही वानरोचित चपलतावश मुझे यहाँ उपदेश देना चाहते हो? अथवा मुझ पर आक्षेप करने की इच्छा रखते हो॥५॥
इक्ष्वाकूणामियं भूमिः सशैलवनकानना।
मृगपक्षिमनुष्याणां निग्रहानुग्रहेष्वपि॥६॥
‘पर्वत, वन और काननों से युक्त यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की है; अतः वे यहाँ के पशु-पक्षी और मनुष्यों पर दया करने और उन्हें दण्ड देने के भी अधिकारी हैं॥६॥
तां पालयति धर्मात्मा भरतः सत्यवानृजुः ।
धर्मकामार्थतत्त्वज्ञो निग्रहानुग्रहे रतः॥७॥
‘धर्मात्मा राजा भरत इस पृथ्वी का पालन करते हैं। वे सत्यवादी, सरल तथा धर्म, अर्थ और काम के तत्त्व को जानने वाले हैं; अतः दुष्टों के निग्रह तथा साधु पुरुषों के प्रति अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं॥७॥
नयश्च विनयश्चोभौ यस्मिन् सत्यं च सुस्थितम्।
विक्रमश्च यथा दृष्टः स राजा देशकालवित्॥८
‘जिसमें नीति, विनय, सत्य और पराक्रम आदि सभी राजोचित गुण यथावत्-रूपसे स्थित देखे जायँ, वही देश-काल-तत्त्व को जानने वाला राजा होता है (भरत में ये सभी गुण विद्यमान हैं)॥८॥
तस्य धर्मकृतादेशा वयमन्ये च पार्थिवाः।
चरामो वसुधां कृत्स्नां धर्मसंतानमिच्छवः॥९॥
‘भरत की ओर से हमें तथा दूसरे राजाओं को यह आदेश प्राप्त है कि जगत् में धर्म के पालन और प्रसार के लिये यत्न किया जाय। इसलिये हमलोग धर्म का प्रचार करने की इच्छा से सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं॥९॥
तस्मिन् नृपतिशार्दूले भरते धर्मवत्सले।
पालयत्यखिलां पृथ्वी कश्चरेद् धर्मविप्रियम्॥ १०॥
‘राजाओं में श्रेष्ठ भरत धर्म पर अनुराग रखने वाले हैं। वे समूची पृथ्वी का पालन कर रहे हैं। उनके रहते हुए इस पृथ्वी पर कौन प्राणी धर्म के विरुद्ध आचरण कर सकता है ? ॥ १०॥
ते वयं मार्गविभ्रष्टं स्वधर्मे परमे स्थिताः।
भरताज्ञां पुरस्कृत्य निगृह्णीमो यथाविधि॥११॥
‘हम सब लोग अपने श्रेष्ठ धर्म में दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर भरत की आज्ञा को सामने रखते हुए धर्ममार्ग से भ्रष्ट पुरुष को विधिपूर्वक दण्ड देते हैं।॥ ११॥
त्वं तु संक्लिष्टधर्मश्च कर्मणा च विगर्हितः।
कामतन्त्रप्रधानश्च न स्थितो राजवर्त्मनि॥१२॥
‘तुमने अपने जीवन में काम को ही प्रधानता दे रखी थी। राजोचित मार्ग पर तुम कभी स्थिर नहीं रहे। तुमने सदा ही धर्म को बाधा पहुँचायी और बुरे कर्मों के कारण सत्पुरुषों द्वारा सदा तुम्हारी निन्दा की गयी। १२॥
ज्येष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति।
त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धर्मे च पथि वर्तिनः॥१३॥
‘बड़ा भाई, पिता तथा जो विद्या देता है, वह गुरु —ये तीनों धर्ममार्ग पर स्थित रहने वाले पुरुषों के लिये पिता के तुल्य माननीय हैं, ऐसा समझना चाहिये। १३॥
यवीयानात्मनः पुत्रः शिष्यश्चापि गुणोदितः।
पुत्रवत्ते त्रयश्चिन्त्या धर्मश्चैवात्र कारणम्॥१४॥
‘इसी प्रकार छोटा भाई, पुत्र और गुणवान् शिष्य —ये तीन पुत्र के तुल्य समझे जाने योग्य हैं। उनके प्रति ऐसा भाव रखने में धर्म ही कारण है।॥ १४ ॥
सूक्ष्मः परमदुर्जेयः सतां धर्मः प्लवङ्गम।
हृदिस्थः सर्वभूतानामात्मा वेद शुभाशुभम्॥ १५॥
‘वानर ! सज्जनों का धर्म सूक्ष्म होता है, वह परम दुर्जेय है-उसे समझना अत्यन्त कठिन है। समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में विराजमान जो परमात्मा हैं, वे ही सबके शुभ और अशुभ को जानते हैं ॥ १५॥
चपलश्चपलैः सार्धं वानरैरकृतात्मभिः।
जात्यन्ध इव जात्यन्धैर्मन्त्रयन् प्रेक्षसे नु किम्॥१६॥
‘तुम स्वयं भी चपल हो और चञ्चल चित्तवाले अजितात्मा वानरों के साथ रहते हो; अतः जैसे कोई जन्मान्ध पुरुष जन्मान्धों से ही रास्ता पूछे, उसी प्रकार तुम उन चपल वानरों के साथ परामर्श करते हो, फिर तुम धर्म का विचार क्या कर सकते हो?—उसके स्वरूप को कैसे समझ सकते हो? ॥ १६॥
अहं तु व्यक्ततामस्य वचनस्य ब्रवीमि ते।
नहि मां केवलं रोषात् त्वं विगर्हितुमर्हसि ॥१७॥
‘मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, उसका अभिप्राय तुम्हें स्पष्ट करके बताता हूँ। तुम्हें केवल रोषवश मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये॥ १७ ॥
तदेतत् कारणं पश्य यदर्थं त्वं मया हतः।
भ्रातुर्वर्तसि भार्यायां त्यक्त्वा धर्मं सनातनम्॥१८॥
‘मैंने तुम्हें क्यों मारा है? उसका कारण सुनो और समझो। तुम सनातन धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की स्त्री से सहवास करते हो ॥ १८॥
अस्य त्वं धरमाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः।
रुमायां वर्तसे कामात् स्नुषायां पापकर्मकृत्॥१९॥
‘इस महामना सुग्रीव के जीते-जी इसकी पत्नी रुमा का, जो तुम्हारी पुत्रवधू के समान है, कामवश उपभोग करते हो अतः पापाचारी हो॥ १९॥
तद् व्यतीतस्य ते धर्मात् कामवृत्तस्य वानर।
भ्रातृभार्याभिमशेऽस्मिन् दण्डोऽयं प्रतिपादितः॥२०॥
‘वानर ! इस तरह तुम धर्म से भ्रष्ट हो स्वेच्छाचारी हो गये हो और अपने भाई की स्त्री को गले लगाते हो। तुम्हारे इसी अपराध के कारण तुम्हें यह दण्ड दिया गया है।
नहि लोकविरुद्धस्य लोकवृत्तादपेयुषः।
दण्डादन्यत्र पश्यामि निग्रहं हरियूथप॥२१॥
वानरराज! जो लोकाचार से भ्रष्ट होकर लोकविरुद्ध आचरण करता है, उसे रोकने या राह पर लाने के लिये मैं दण्ड के सिवा और कोई उपाय नहीं देखता॥२१॥
न च ते मर्षये पापं क्षत्रियोऽहं कुलोद्गतः।
औरसीं भगिनीं वापि भार्यां वाप्यनुजस्य यः॥२२॥
प्रचरेत नरः कामात् तस्य दण्डो वधः स्मृतः।
‘मैं उत्तम कुल में उत्पन्न क्षत्रिय हूँ; अतः मैं तुम्हारे पाप को क्षमा नहीं कर सकता। जो पुरुष अपनी कन्या, बहिन अथवा छोटे भाई की स्त्री के पास कामबुद्धि से जाता है, उसका वध करना ही उसके लिये उपयुक्त दण्ड माना गया है॥ २२ १/२॥
भरतस्तु महीपालो वयं त्वादेशवर्तिनः॥२३॥
त्वं च धर्मादतिक्रान्तः कथं शक्यमुपेक्षितुम्।
‘हमारे राजा भरत हैं। हमलोग तो केवल उनके आदेश का पालन करने वाले हैं। तुम धर्म से गिर गये हो; अतः तुम्हारी उपेक्षा कैसे की जा सकती थी॥ २३ १/२॥
गुरुधर्मव्यतिक्रान्तं प्राज्ञो धर्मेण पालयन्॥२४॥
भरतः कामयुक्तानां निग्रहे पर्यवस्थितः ।
‘विद्वान् राजा भरत महान् धर्म से भ्रष्ट हुए पुरुष को दण्ड देते और धर्मात्मा पुरुष का धर्मपूर्वक पालन करते हुए कामासक्त स्वेच्छाचारी पुरुषों के निग्रह में तत्पर रहते हैं।
वयं तु भरतादेशावधिं कृत्वा हरीश्वर।
त्वद्विधान् भिन्नमर्यादान् निग्रहीतुं व्यवस्थिताः॥ २५॥
‘हरीश्वर! हमलोग तो भरत की आज्ञा को ही प्रमाण मानकर धर्ममर्यादा का उल्लङ्घन करने वाले तुम्हारे जैसे लोगों को दण्ड देने के लिये सदा उद्यत रहते हैं। २५॥
सुग्रीवेण च मे सख्यं लक्ष्मणेन यथा तथा।
दारराज्यनिमित्तं च निःश्रेयस्करः स मे॥२६॥
प्रतिज्ञा च मया दत्ता तदा वानरसंनिधौ।
प्रतिज्ञा च कथं शक्या मद्विधेनानवेक्षितुम्॥ २७॥
सुग्रीव के साथ मेरी मित्रता हो चुकी है। उनके प्रति मेरा वही भाव है, जो लक्ष्मण के प्रति है। वे अपनी स्त्री और राज्य की प्राप्ति के लिये मेरी भलाई करने के लिये भी कटिबद्ध हैं। मैंने वानरों के समीप इन्हें स्त्री और राज्य दिलाने के लिये प्रतिज्ञा भी कर ली है। ऐसी दशा में मेरे-जैसा मनुष्य अपनी प्रतिज्ञा की ओर से कैसे दृष्टि हटा सकता है॥ २६-२७॥
तदेभिः कारणैः सर्वैर्महद्भिर्धर्मसंश्रितैः।
शासनं तव यद् युक्तं तद् भवाननुमन्यताम्॥ २८॥
ये सभी धर्मानुकूल महान् कारण एक साथ उपस्थित हो गये, जिनसे विवश होकर तुम्हें उचित दण्ड देना पड़ा है। तुम भी इसका अनुमोदन करो॥ २८॥
सर्वथा धर्म इत्येव द्रष्टव्यस्तव निग्रहः।
वयस्यस्योपकर्तव्यं धर्ममेवानुपश्यता॥२९॥
‘धर्मपर दृष्टि रखने वाले मनुष्य के लिये मित्र का उपकार करना धर्म ही माना गया है; अतः तुम्हें जो यह दण्ड दिया गया है, वह धर्म के अनुकूल है। ऐसा ही तुम्हें समझना चाहिये॥ २९॥
शक्यं त्वयापि तत्कार्यं धर्ममेवानुवर्तता।
श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्रवत्सलौ।
गृहीतौ धर्मकुशलैस्तथा तच्चरितं मया॥३०॥
‘यदि राजा होकर तुम धर्म का अनुसरण करते तो तुम्हें भी वही काम करना पड़ता, जो मैंने किया है। मनु ने राजोचित सदाचार का प्रतिपादन करने वाले दो श्लोक कहे हैं, जो स्मृतियों में सुने जाते हैं और जिन्हें धर्मपालन में कुशल पुरुषों ने सादर स्वीकार किया। उन्हीं के अनुसार इस समय यह मेरा बर्ताव हुआ है (वे श्लोक इस प्रकार हैं-)॥ ३० ॥
राजभिधृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवाः।
निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥ ३१॥
शासनाद् वापि मोक्षाद् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते।
राजा त्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्बिषम॥३२॥
‘मनुष्य पाप करके यदि राजा के दिये हुए दण्ड को भोग लेते हैं तो वे शुद्ध होकर पुण्यात्मा साधुपुरुषों की भाँति स्वर्गलोक में जाते हैं। (चोर आदि पापी जब राजा के सामने उपस्थित हों उस समय उन्हें) राजा दण्ड दे अथवा दया करके छोड़ दे। चोर आदि पापी पुरुष अपने पाप से मुक्त हो जाता है; किंतु यदि राजा पापी को उचित दण्ड नहीं देता तो उसे स्वयं उसके पाप का फल भोगना पड़ता है* ।।
* मनुस्मृति में ये दोनों श्लोक किंचित् पाठान्तर के साथ इस प्रकार मिलते हैं
राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः।
निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥
शासनाद् वा विमोक्षाद् वा स्तेनःस्तेयाद् विमुच्यते।
अशासित्वा तु तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम्॥(८।३१८,३१६)
आर्येण मम मान्धात्रा व्यसनं घोरमीप्सितम्।
श्रमणेन कृते पापे यथा पापं कृतं त्वया॥३३॥
“तुमने जैसा पाप किया है, वैसा ही पाप प्राचीन काल में एक श्रमण ने किया था। उसे मेरे पूर्वज महाराज मान्धाता ने बड़ा कठोर दण्ड दिया था, जो शास्त्र के अनुसार अभीष्ट था॥ ३३॥
अन्यैरपि कृतं पापं प्रमत्तैर्वसुधाधिपैः।
प्रायश्चित्तं च कुर्वन्ति तेन तच्छाम्यते रजः॥ ३४॥
‘यदि राजा दण्ड देने में प्रमाद कर जायँ तो उन्हें दूसरों के किये हुए पाप भी भोगने पड़ते हैं तथा उसके लिये जब वे प्रायश्चित्त करते हैं तभी उनका दोष शान्त होता है॥ ३४॥
तदलं परितापेन धर्मतः परिकल्पितः।
वधो वानरशार्दूल न वयं स्ववशे स्थिताः॥३५॥
‘अतः वानरश्रेष्ठ! पश्चात्ताप करने से कोई लाभ नहीं है। सर्वथा धर्म के अनुसार ही तुम्हारा वध किया गया है; क्योंकि हमलोग अपने वश में नहीं हैं (शास्त्र के ही अधीन हैं)॥ ३५ ॥
शृणु चाप्यपरं भूयः कारणं हरिपुंगव।
तच्छ्रुत्वा हि महद् वीर न मन्युं कर्तुमर्हसि ॥३६॥
‘वानरशिरोमणे! तुम्हारे वध का जो दूसरा कारण है, उसे भी सुन लो। वीर! उस महान् कारण को सुनकर तुम्हें मेरे प्रति क्रोध नहीं करना चाहिये। ३६॥
न मे तत्र मनस्तापो न मन्युर्हरिपुंगव।
वागुराभिश्च पाशैश्च कूटैश्च विविधैर्नराः॥ ३७॥
प्रतिच्छन्नाश्च दृश्याश्च गृह्णन्ति सुबहून् मृगान्।
प्रधावितान् वा वित्रस्तान् विस्रब्धानतिविष्ठितान्॥ ३८॥
वानरश्रेष्ठ! इस कार्य के लिये मेरे मन में न तो संताप होता है और न खेद ही। मनुष्य (राजा आदि)बड़े-बड़े जाल बिछाकर फंदे फैलाकर और नाना प्रकार के कूट उपाय (गुप्त गड्ढों के निर्माण आदि) करके छिपे रहकर सामने आकर बहुत-से मृगों को पकड़ लेते हैं; भले ही वे भयभीत होकर भागते हों या विश्वस्त होकर अत्यन्त निकट बैठे हों॥ ३८॥
प्रमत्तानप्रमत्तान् वा नरा मांसाशिनो भृशम्।
विध्यन्ति विमुखांश्चापि न च दोषोऽत्र विद्यते॥३९॥
‘मांसाहारी मनुष्य (क्षत्रिय) सावधान, असावधान अथवा विमुख होकर भागने वाले पशुओं को भी अत्यन्त घायल कर देते हैं; किंतु उनके लिये इस मृगया में दोष नहीं होता॥ ३९॥ ।
यान्ति राजर्षयश्चात्र मृगयां धर्मकोविदाः।
तस्मात् त्वं निहतो युद्धे मया बाणेन वानर।
अयुध्यन् प्रतियुध्यन् वा यस्माच्छाखामृगो ह्यसि॥४०॥
‘वानर! धर्मज्ञ राजर्षि भी इस जगत् में मृगया के लिये जाते हैं और विविध जन्तुओं का वध करते हैं। इसलिये मैंने तुम्हें युद्ध में अपने बाण का निशाना बनाया है। तुम मुझसे युद्ध करते थे या नहीं करते थे, तुम्हारी वध्यता में कोई अन्तर नहीं आता; क्योंकि तुम शाखामृग हो (और मृगया करने का क्षत्रिय को अधिकार है) ॥ ४०॥
दुर्लभस्य च धर्मस्य जीवितस्य शुभस्य च।
राजानो वानरश्रेष्ठ प्रदातारो न संशयः॥४१॥
‘वानरश्रेष्ठ! राजा लोग दुर्लभ धर्म, जीवन और लौकिक अभ्युदय के देने वाले होते हैं। इसमें संशय नहीं है॥ ४१॥
तान् न हिंस्यान्न चाक्रोशेन्नाक्षिपेन्नाप्रियं वदेत्।
देवा मानुषरूपेण चरन्त्येते महीतले॥४२॥
‘अतः उनकी हिंसा न करे, उनकी निन्दा न करे, उनके प्रति आक्षेप भी न करे और न उनसे अप्रिय वचन ही बोले; क्योंकि वे वास्तव में देवता हैं, जो मनुष्य रूप से इस पृथ्वी पर विचरते रहते हैं॥ ४२ ॥
त्वं तु धर्ममविज्ञाय केवलं रोषमास्थितः।
विदूषयसि मां धर्मे पितृपैतामहे स्थितम्॥४३॥
‘तुम तो धर्म के स्वरूप को न समझकर केवल रोष के वशीभूत हो गये हो, इसलिये पिता-पितामहों के धर्म पर स्थित रहने वाले मेरी निन्दा कर रहे हो’। ४३॥
एवमुक्तस्तु रामेण वाली प्रव्यथितो भृशम्।
न दोषं राघवे दध्यौ धर्मेऽधिगतनिश्चयः॥४४॥
श्रीराम के ऐसा कहने पर वाली के मन में बड़ी व्यथा हुई। इसे धर्म के तत्त्व का निश्चय हो गया। उसने श्रीरामचन्द्रजी के दोष का चिन्तन त्याग दिया॥४४॥
प्रत्युवाच ततो रामं प्राञ्जलिर्वानरेश्वरः।
यत् त्वमात्थ नरश्रेष्ठ तत् तथैव न संशयः॥ ४५ ॥
इसके बाद वानरराज वाली ने श्रीरामचन्द्रजी से हाथ जोड़कर कहा—’नरश्रेष्ठ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है; इसमें संशय नहीं है॥ ४५ ॥
प्रतिवक्तुं प्रकृष्ट हि नापकृष्टस्तु शक्नुयात्।
यदयुक्तं मया पूर्वं प्रमादाद् वाक्यमप्रियम्॥४६॥
तत्रापि खलु मे दोषं कर्तुं नार्हसि राघव।
त्वं हि दृष्टार्थतत्त्वज्ञः प्रजानां च हिते रतः।
कार्यकारणसिद्धौ च प्रसन्ना बुद्धिरव्यया॥४७॥
‘आप-जैसे श्रेष्ठ पुरुषको मुझ-जैसा निम्न श्रेणी का प्राणी उचित उत्तर नहीं दे सकता; अतः मैंने प्रमादवश पहले जो अनुचित बात कह डाली है, उसमें भी आपको मेरा अपराध नहीं मानना चाहिये। रघुनन्दन! आप परमार्थतत्त्व के यथार्थ ज्ञाता और प्रजाजनों के हित में तत्पर रहने वाले हैं। आपकी बुद्धि कार्य-कारण के निश्चयमें निर्धान्त एवं निर्मल है।
मामप्यवगतं धर्माद् व्यतिक्रान्तपुरस्कृतम्।
धर्मसंहितया वाचा धर्मज्ञ परिपालय॥४८॥
‘धर्मज्ञ! मैं धर्मभ्रष्ट प्राणियों में अग्रगण्य हूँ और इसी रूप में मेरी सर्वत्र प्रसिद्धि है तो भी आज आपकी शरण में आया हूँ। अपनी धर्मतत्त्व की वाणी से आज मेरी भी रक्षा कीजिये’ ॥४८॥
बाष्पसंरुद्धकण्ठस्तु वाली सार्तरवः शनैः।
उवाच रामं सम्प्रेक्ष्य पङ्कलग्न इव द्विपः॥४९॥
इतना कहते-कहते आँसुओं से वाली का गला भर आया और वह कीचड़ में फँसे हुए हाथी की तरह ‘ आर्तनाद करके श्रीराम की ओर देखता हुआ धीरे-धीरे बोला॥ ४९॥
न चात्मानमहं शोचे न तारां नापि बान्धवान्।
यथा पुत्रं गुणज्येष्ठमङ्गदं कनकाङ्गदम्॥५०॥
‘भगवन्! मुझे अपने लिये, तारा के लिये तथा बन्धु-बान्धवों के लिये भी उतना शोक नहीं होता है, जितना सुवर्ण का अङ्गद धारण करने वाले श्रेष्ठ गुणसम्पन्न पुत्र अङ्गद के लिये हो रहा है।॥५०॥
स ममादर्शनाद् दीनो बाल्यात् प्रभृति लालितः।
तटाक इव पीताम्बुरुपशोषं गमिष्यति॥५१॥
‘मैंने बचपन से ही उसका बड़ा दुलार किया है; अब मुझे न देखकर वह बहुत दुःखी होगा और जिसका जल पी लिया गया हो, उस तालाब की तरह सूख जायगा॥
बालश्चाकृतबुद्धिश्च एकपुत्रश्च मे प्रियः।
तारेयो राम भवता रक्षणीयो महाबलः॥५२॥
‘श्रीराम! वह अभी बालक है। उसकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है। मेरा इकलौता बेटा होने के कारण ताराकुमार अङ्गद मुझे बड़ा प्रिय है। आप मेरे उस महाबली पुत्र की रक्षा कीजियेगा॥५२॥
सुग्रीवे चाङ्गदे चैव विधत्स्व मतिमुत्तमाम्।
त्वं हि गोप्ता च शास्ता च कार्याकार्यविधौ स्थितः॥५३॥
‘सुग्रीव और अङ्गद दोनों के प्रति आप सद्भाव रखें। अब आप ही इन लोगों के रक्षक तथा इन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य की शिक्षा देने वाले हैं।। ५३॥
या ते नरपते वृत्तिर्भरते लक्ष्मणे च या।
सुग्रीवे चाङ्गदे राजस्तां चिन्तयितुमर्हसि॥५४॥
‘राजन्! नरेश्वर! भरत और लक्ष्मण के प्रति आपका जैसा बर्ताव है, वही सुग्रीव तथा अङ्गद के प्रति भी होना चाहिये। आप उसी भाव से इन दोनों का स्मरण करें॥ ५४॥
मद्दोषकृतदोषां तां यथा तारां तपस्विनीम्।
सुग्रीवो नावमन्येत तथावस्थातुमर्हसि ॥५५॥
‘बेचारी तारा की बड़ी शोचनीय अवस्था हो गयी है। मेरे ही अपराध से उसे भी अपराधिनी समझकर सुग्रीव उसका तिरस्कार न करे, इस बात की भी व्यवस्था कीजियेगा॥
त्वया ह्यनुगृहीतेन शक्यं राज्यमुपासितुम्।
त्वदशे वर्तमानेन तव चित्तानुवर्तिना॥५६॥
शक्यं दिवं चार्जयितुं वसुधां चापि शासितुम्।
‘सुग्रीव आपका कृपापात्र होकर ही इस राज्य का यथार्थ रूप से पालन कर सकता है। आपके अधीन होकर आपके चित्त का अनुसरण करने वाला पुरुष स्वर्ग और पृथ्वी का भी राज्य पा सकता और उसका अच्छी तरह पालन कर सकता है ।। ५६ १/२॥
त्वत्तोऽहं वधमाकांक्षन् वार्यमाणोऽपि तारया॥ ५७॥
सुग्रीवेण सह भ्रात्रा द्वन्द्वयुद्धमुपागतः।
‘मैं चाहता था कि आपके हाथ से मेरा वध हो; इसीलिये तारा के मना करने पर भी मैं अपने भाई सुग्रीव के साथ द्वन्द्वयुद्ध करने के लिये चला आया’। ५७ १/२॥
इत्युक्त्वा वानरो रामं विरराम हरीश्वरः॥५८॥
स तमाश्वासयद् रामो वालिनं व्यक्तदर्शनम्।
साधुसम्मतया वाचा धर्मतत्त्वार्थयुक्तया॥ ५९॥
न संतापस्त्वया कार्य एतदर्थं प्लवङ्गम।
न वयं भवता चिन्त्या नाप्यात्मा हरिसत्तम।
वयं भवद्विशेषेण धर्मतः कृतनिश्चयाः॥६०॥
श्रीरामचन्द्रजी से ऐसा कहकर वानरराज वाली चुप हो गया। उस समय उसकी ज्ञानशक्ति का विकास हो गया था। श्रीरामचन्द्रजी ने धर्म के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाली साधु पुरुषों द्वारा प्रशंसित वाणी में उससे कहा—’वानरश्रेष्ठ! तुम्हें इसके लिये संताप नहीं करना चाहिये। कपिप्रवर! तुम्हें हमारे और अपने लिये भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि हमलोग तुम्हारी अपेक्षा विशेषज्ञ हैं, इसलिये हमने धर्मानुकूल कार्य करने का ही निश्चय कर रखा
दण्ड्ये यः पातयेद् दण्डं दण्ड्यो यश्चापि दण्ड्य ते।
कार्यकारणसिद्धार्थावुभौ तौ नावसीदतः॥६१॥
‘जो दण्डनीय पुरुष को दण्ड देता है तथा जो दण्ड का अधिकारी होकर दण्ड भोगता है, उनमें से दण्डनीय व्यक्ति अपने अपराध के फलरूप में शासक का दिया हुआ दण्ड भोगकर तथा दण्ड देने वाला शासक उसके उस फलभोग में कारणनिमित्त बनकर कृतार्थ हो जाते हैं—अपना-अपना कर्तव्य पूरा कर लेने के कारण कर्मरूप ऋण से मुक्त हो जाते हैं। अतः वे दुःखी नहीं होते॥६१॥
तद् भवान् दण्डसंयोगादस्माद विगतकल्मषः।
गतः स्वां प्रकृतिं धां दण्डदिष्टेन वर्त्मना॥ ६२॥
‘तुम इस दण्ड को पाकर पापरहित हुए और इस दण्ड का विधान करने वाले शास्त्र द्वारा कथित दण्डग्रहण रूप मार्ग से ही चलकर तुम्हें धर्मानुकूल शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हो गयी। ६२ ।।
त्यज शोकं च मोहं च भयं च हृदये स्थितम्।
त्वया विधानं हर्यग्रय न शक्यमतिवर्तितुम्॥६३॥
‘अब तुम अपने हृदय में स्थित शोक, मोह और भय का त्याग कर दो। वानरश्रेष्ठ! तुम दैव के विधान को नहीं लाँघ सकते॥ ६३॥
यथा त्वय्यङ्गदो नित्यं वर्तते वानरेश्वर।
तथा वर्तेत सुग्रीवे मयि चापि न संशयः॥६४॥
‘वानरेश्वर! कुमार अङ्गद तुम्हारे जीवित रहने पर जैसा था, उसी प्रकार सुग्रीव के और मेरे पास भी सुख से रहेगा, इसमें संशय नहीं है’॥ ६४॥
स तस्य वाक्यं मधुरं महात्मनः समाहितं धर्मपथानुवर्तितम्।
निशम्य रामस्य रणावमर्दिनो वचः सुयुक्तं निजगाद वानरः॥६५॥
युद्ध में शत्रु का मानमर्दन करने वाले महात्मा श्रीरामचन्द्रजी का धर्ममार्ग के अनुकूल और मानसिक शङ्काओं का समाधान करने वाला मधुर वचन सुनकर वानर वाली ने यह सुन्दर युक्तियुक्त वचन कहा-॥ ६५॥
शराभितप्तेन विचेतसा मया प्रभाषितस्त्वं यदजानता विभो।
इदं महेन्द्रोपमभीमविक्रम प्रसादितस्त्वं क्षम मे नरेश्वर॥६६॥
‘प्रभो! देवराज इन्द्र के समान भयंकर पराक्रम प्रकट करने वाले नरेश्वर! मैं आपके बाण से पीड़ित होने के कारण अचेत हो गया था। इसलिये अनजान में मैंने जो आपके प्रति कठोर बात कह डाली है, उसे आप क्षमा कीजियेगा। इसके लिये मैं प्रार्थनापूर्वक आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ’॥६६॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डेऽष्टादशः सर्गः॥१८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१८॥
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