वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 2 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 2
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
द्वितीयः सर्गः (सर्ग 2)
सुग्रीव तथा वानरों की आशङ्का, हनुमान्जी द्वारा उसका निवारण तथा सुग्रीव का हनुमान जी को श्रीराम-लक्ष्मण के पास उनका भेद लेने के लिये भेजना
तौ तु दृष्ट्वा महात्मानौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
वरायुधधरौ वीरौ सुग्रीवः शङ्कितोऽभवत्॥१॥
महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को श्रेष्ठ आयुध धारण किये वीर वेश में आते देख (ऋष्यमूक पर्वत पर बैठे हुए) सुग्रीव के मन में बड़ी शङ्का हुई।१॥
उद्विग्नहृदयः सर्वा दिशः समवलोकयन्।
न व्यतिष्ठत कस्मिंश्चिद् देशे वानरपुंगवः॥२॥
वे उद्विग्नचित्त होकर चारों दिशाओं की ओर देखने लगे। उस समय वानरशिरोमणि सुग्रीव किसी एक स्थान पर स्थिर न रह सके॥२॥
नैव चक्रे मनः स्थातुं वीक्षमाणौ महाबलौ।
कपेः परमभीतस्य चित्तं व्यवससाद ह॥३॥
महाबली श्रीराम और लक्ष्मण को देखते हुए सुग्रीव अपने मन को स्थिर न रख सके। उस समय अत्यन्त भयभीत हुए उन वानरराज का चित्त बहुत दुःखी हो गया॥३॥
चिन्तयित्वा स धर्मात्मा विमृश्य गुरुलाघवम्।
सुग्रीवः परमोद्विग्नः सर्वैस्तैर्वानरैः सह॥४॥
सुग्रीव धर्मात्मा थे—उन्हें राजधर्म का ज्ञान था। उन्होंने मन्त्रियों के साथ विचारकर अपनी दुर्बलता और शत्रुपक्ष की प्रबलता का निश्चय किया। तत्पश्चात् वे समस्त वानरों के साथ अत्यन्त उद्विग्न हो उठे॥४॥
ततः स सचिवेभ्यस्तु सुग्रीवः प्लवगाधिपः।
शशंस परमोद्विग्नः पश्यंस्तौ रामलक्ष्मणौ॥५॥
वानरराज सुग्रीव के हृदय में बड़ा उद्वेग हो गया था। वे श्रीराम और लक्ष्मण की ओर देखते हुए अपने मन्त्रियों से इस प्रकार बोले- ॥५॥
एतौ वनमिदं दुर्गं वालिप्रणिहितौ ध्रुवम्।
छद्मना चीरवसनौ प्रचरन्ताविहागतौ॥६॥
‘निश्चय ही ये दोनों वीर वाली के भेजे हुए ही इस दुर्गम वन में विचरते हुए यहाँ आये हैं। इन्होंने छल से चीर वस्त्र धारण कर लिये हैं, जिससे हम इन्हें पहचान न सकें’॥६॥
ततः सुग्रीवसचिवा दृष्ट्वा परमधन्विनौ।
जग्मुर्गिरितटात् तस्मादन्यच्छिखरमुत्तमम्॥७॥
उधर सुग्रीव के सहायक दूसरे-दूसरे वानरों ने जब उन महाधनुर्धर श्रीराम और लक्ष्मण को देखा, तब वे उस पर्वततट से भागकर दूसरे उत्तम शिखर पर जा पहुँचे॥७॥
ते क्षिप्रमभिगम्याथ यूथपा यूथपर्षभम्।
हरयो वानरश्रेष्ठं परिवार्योपतस्थिरे॥८॥
वे यूथपति वानर शीघ्रतापूर्वक जाकर यूथपतियों के सरदार वानरशिरोमणि सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर उनके पास खड़े हो गये॥ ८॥
एवमेकायनगताः प्लवमाना गिरेगिरिम्।
प्रकम्पयन्तो वेगेन गिरीणां शिखराणि च॥९॥
ततः शाखामृगाः सर्वे प्लवमाना महाबलाः।
बभञ्जुश्च नगांस्तत्र पुष्पितान् दुर्गमाश्रितान्॥ १०॥
इस तरह एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर उछलते-कूदते और अपने वेग से उन पर्वत-शिखरों को प्रकम्पित करते हुए वे समस्त महाबली वानर एक मार्ग पर आ गये। उन सबने उछल-कूदकर उस समय वहाँ दुर्गम स्थानों में स्थित हुए पुष्पशोभित बहुसंख्यक वृक्षों को तोड़ डाला था॥९-१०॥
आप्लवन्तो हरिवराः सर्वतस्तं महागिरिम्।
मृगमार्जारशार्दूलांस्त्रासयन्तो ययुस्तदा॥११॥
उस बेला में चारों ओर से उस महान् पर्वत पर उछलकर आते हुए वे श्रेष्ठ वानर वहाँ रहने वाले मृगों, बिलावों तथा व्याघ्रों को भयभीत करते हुए जा रहे थे॥
ततः सुग्रीवसचिवाः पर्वतेन्द्रे समाहिताः।
संगम्य कपिमुख्येन सर्वे प्राञ्जलयः स्थिताः॥ १२॥
इस प्रकार सुग्रीव के सभी सचिव पर्वतराज ऋष्यमूक पर आ पहुँचे और एकाग्रचित्त हो उन वानरराज से मिलकर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ १२॥
ततस्तु भयसंत्रस्तं वालिकिल्बिषशङ्कितम्।
उवाच हनुमान् वाक्यं सुग्रीवं वाक्यकोविदः॥
तदनन्तर वाली से बुराई की आशङ्का करके सुग्रीव को भयभीत देख बातचीत करने में कुशल हनुमान जी बोले
सम्भ्रमस्त्यज्यतामेष सर्वैालिकृते महान्।
मलयोऽयं गिरिवरो भयं नेहास्ति वालिनः॥१४॥
‘आप सब लोग वाली के कारण होने वाली इस भारी घबराहट को छोड़ दीजिये। यह मलय नामक श्रेष्ठ पर्वत है। यहाँ वाली से कोई भय नहीं है॥ १४॥
यस्मादुद्विग्नचेतास्त्वं विद्रुतो हरिपुङ्गव।
तं क्रूरदर्शनं क्रूरं नेह पश्यामि वालिनम्॥१५॥
‘वानरशिरोमणे! जिससे उद्विग्नचित्त होकर आप भागे हैं, उस क्रूर दिखायी देने वाले निर्दय वाली को मैं यहाँ नहीं देखता हूँ॥ १५ ॥
यस्मात् तव भयं सौम्य पूर्वजात् पापकर्मणः।
स नेह वाली दुष्टात्मा न ते पश्याम्यहं भयम्॥
‘सौम्य! आपको अपने जिस पापाचारी बड़े भाई से भय प्राप्त हुआ है, वह दुष्टात्मा वाली यहाँ नहीं आ सकता; अतः मुझे आपके भय का कोई कारण नहीं दिखायी देता॥
अहो शाखामृगत्वं ते व्यक्तमेव प्लवङ्गम।
लघुचित्ततयाऽऽत्मानं न स्थापयसि यो मतौ॥ १७॥
‘आश्चर्य है कि इस समय आपने अपनी वानरोचित चपलता को ही प्रकट किया है। वानरप्रवर! आपका चित्त चञ्चल है। इसलिये आप अपने को विचार-मार्ग पर स्थिर नहीं रख पाते हैं। १७॥
बुद्धिविज्ञानसम्पन्न इङ्गितैः सर्वमाचर।
नह्यबुद्धिं गतो राजा सर्वभूतानि शास्ति हि॥ १८॥
‘बुद्धि और विज्ञान से सम्पन्न होकर आप दूसरों की चेष्टाओं के द्वारा उनका मनोभाव समझें और उसी के अनुसार सभी आवश्यक कार्य करें; क्योंकि जो राजा बुद्धि-बल का आश्रय नहीं लेता, वह सम्पूर्ण प्रजापर शासन नहीं कर सकता’ ॥ १८॥
सुग्रीवस्तु शुभं वाक्यं श्रुत्वा सर्वं हनूमतः।
ततः शुभतरं वाक्यं हनूमन्तमुवाच ह॥१९॥
हनुमान जी के मुख से निकले हुए इन सभी श्रेष्ठ वचनों को सुनकर सुग्रीव ने उनसे बहुत ही उत्तम बात कही
दीर्घबाहू विशालाक्षौ शरचापासिधारिणौ।
कस्य न स्याद् भयं दृष्ट्वा ह्येतौ सुरसुतोपमौ॥ २०॥
‘इन दोनों वीरों की भुजाएँ लंबी और नेत्र बड़े-बड़े हैं। ये धनुष, बाण और तलवार धारण किये देवकुमारों के समान शोभा पा रहे हैं। इन दोनों को देखकर किसके मन में भय का संचार न होगा॥२०॥
वालिप्रणिहितावेव शङ्केऽहं पुरुषोत्तमौ।
राजानो बहुमित्राश्च विश्वासो नात्र हि क्षमः॥ २१॥
‘मेरे मन में संदेह है कि ये दोनों श्रेष्ठ पुरुष वाली के ही भेजे हुए हैं; क्योंकि राजाओं के बहुत-से मित्र होते हैं। अतः उनपर विश्वास करना उचित नहीं है।॥ २१॥
अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छद्मचारिणः।
विश्वस्तानामविश्वस्ताश्छिद्रेषु प्रहरन्त्यपि॥२२॥
‘प्राणिमात्र को छद्मवेष में विचरने वाले शत्रुओं को विशेषरूप से पहचानने की चेष्टा करनी चाहिये; क्योंकि वे दूसरों पर अपना विश्वास जमा लेते हैं, परंतु स्वयं किसी का विश्वास नहीं करते और अवसर पाते ही उन विश्वासी पुरुषों पर ही प्रहार कर बैठते हैं ॥ २२॥
कृत्येषु वाली मेधावी राजानो बहुदर्शिनः।
भवन्त परहन्तारस्ते ज्ञेयाः प्राकृतैनरैः॥ २३॥
‘वाली इन सब कार्यों में बड़ा कुशल है। राजालोग बहुदर्शी होते हैं—वञ्चना के अनेक उपाय जानते हैं, इसीलिये शत्रुओं का विध्वंस कर डालते हैं। ऐसे शत्रुभूत राजाओं को प्राकृत वेशभूषावाले मनुष्यों (गुप्तचरों) द्वारा जानने का प्रयत्न करना चाहिये। २३॥
तौ त्वया प्राकृतेनेव गत्वा ज्ञेयौ प्लवंगम।
इङ्गितानां प्रकारैश्च रूपव्याभाषणेन च ॥२४॥
‘अतः कपिश्रेष्ठ! तुम भी एक साधारण पुरुष की भाँति यहाँ से जाओ और उनकी चेष्टाओं से, रूप से तथा बातचीत के तौर-तरीकों से उन दोनों का यथार्थ परिचय प्राप्त करो॥ २४॥
लक्षयस्व तयोर्भावं प्रहृष्टमनसौ यदि।
विश्वासयन् प्रशंसाभिरिङ्गितैश्च पुनः पुनः॥ २५॥
‘उनके मनोभावों को समझो। यदि वे प्रसन्नचित्त जान पड़ें तो बारंबार मेरी प्रशंसा करके तथा मेरे अभिप्राय को सूचित करने वाली चेष्टाओं द्वारा मेरे प्रति उनका विश्वास उत्पन्न करो॥ २५॥
ममैवाभिमुखं स्थित्वा पृच्छ त्वं हरिपुङ्गव।
प्रयोजनं प्रवेशस्य वनस्यास्य धनुर्धरौ॥२६॥
‘वानरशिरोमणे! तुम मेरी ही ओर मुँह करके खड़ा होना और उन धनुर्धर वीरों से इस वन में प्रवेश करने का कारण पूछना॥ २६॥
शुद्धात्मानौ यदि त्वेतौ जानीहि त्वं प्लवङ्गम।
व्याभाषितैर्वा रूपैर्वा विज्ञेया दुष्टतानयोः॥२७॥
‘यदि उनका हृदय शुद्ध जान पड़े तो भी तरहतरह की बातों और आकृति के द्वारा यह जानने की विशेष चेष्टा करनी चाहिये कि वे दोनों कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं’ ॥ २७॥
इत्येवं कपिराजेन संदिष्टो मारुतात्मजः।
चकार गमने बुद्धिं यत्र तौ रामलक्ष्मणौ ॥२८॥
वानरराज सुग्रीव के इस प्रकार आदेश देने पर पवनकुमार हनुमान जी ने उस स्थान पर जाने का विचार किया, जहाँ श्रीराम और लक्ष्मण विद्यमान थे॥ २८॥
तथेति सम्पूज्य वचस्तु तस्य कपेः सुभीतस्य दुरासदस्य।
महानुभावो हनुमान् ययौ तदा स यत्र रामोऽतिबली सलक्ष्मणः॥२९॥
अत्यन्त डरे हुए दुर्जय वानर सुग्रीव के उस वचन का आदर करके ‘बहुत अच्छा कहकर’ महानुभाव हनुमान जी जहाँ अत्यन्त बलशाली श्रीराम और लक्ष्मण थे, उस स्थान के लिये तत्काल चल दिये॥२९॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ।२॥
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