वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 21 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 21
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकविंशः सर्गः (सर्ग 21)
हनुमान जी का तारा को समझाना और तारा का पति के अनुगमन का ही निश्चय करना
ततो निपतितां तारां च्युतां तारामिवाम्बरात्।
शनैराश्वासयामास हनुमान् हरियूथपः॥१॥
तारा को आकाश से टूटकर गिरी हुई तारिका के समान पृथ्वी पर पड़ी देख वानरयूथपति हनुमान् ने धीरे-धीरे समझाना आरम्भ किया— ॥ १॥
गुणदोषकृतं जन्तुः स्वकर्म फलहेतुकम्।
अव्यग्रस्तदवाप्नोति सर्वं प्रेत्य शुभाशुभम्॥२॥
‘देवि! जीव के द्वारा गुणबुद्धि से अथवा दोषबुद्धि से किये हुए जो अपने कर्म हैं, वे ही सुख-दुःखरूप फल की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। परलोक में जाकर प्रत्येक जीव शान्तभाव से रहकर अपने शुभ और अशुभ–सभी कर्मों का फल भोगता है॥२॥
शोच्या शोचसि कं शोच्यं दीनं दीनानुकम्पसे ।
कश्च कस्यानुशोच्योऽस्ति देहेऽस्मिन् बुबुदोपमे॥३॥
‘तुम स्वयं शोचनीया हो; फिर दूसरे किसको शोचनीय समझकर शोक कर रही हो? स्वयं दीन होकर दूसरे किस दीन पर दया करती हो? पानी के बुलबुले के समान इस शरीर में रहकर कौन जीव किस जीव के लिये शोचनीय है? ॥ ३॥
अङ्गदस्तु कुमारोऽयं द्रष्टव्यो जीवपुत्रया।
आयत्यां च विधेयानि समर्थान्यस्य चिन्तय॥४॥
‘तुम्हारे पुत्र कुमार अङ्गद जीवित हैं। अब तुम्हें इन्हीं की ओर देखना चाहिये और इनके लिये भविष्य में जो उन्नति के साधक श्रेष्ठ कार्य हों, उनका विचार करना चाहिये॥४॥
जानास्यनियतामेवं भूतानामागतिं गतिम्।
तस्माच्छभं हि कर्तव्यं पण्डिते नेह लौकिकम्॥
देवि! तुम विदुषी हो, अतः जानती ही हो कि प्राणियों के जन्म और मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिये शुभ (परलोक के लिये सुखद) कर्म ही करना चाहिये। अधिक रोना-धोना आदि जो
लौकिक कर्म (व्यवहार) है, उसे नहीं करना चाहिये॥५॥
यस्मिन् हरिसहस्राणि शतानि नियुतानि च।
वर्तयन्ति कृताशानि सोऽयं दिष्टान्तमागतः॥६॥
‘सैकड़ों, हजारों और लाखों वानर जिन पर आशा लगाये जीवन-निर्वाह करते थे, वे ही ये वानरराज आज अपनी प्रारब्ध निर्मित आयु की अवधि पूरी कर चुके॥६॥
यदयं न्यायदृष्टार्थः सामदानक्षमापरः।
गतो धर्मजितां भूमिं नैनं शोचितुमर्हसि॥७॥
‘इन्होंने नीतिशास्त्र के अनुसार अर्थ का साधनराज्य-कार्य का संचालन किया है। ये उपयुक्त समयपर साम, दान और क्षमा का व्यवहार करते आये हैं। अतः धर्मानुसार प्राप्त होने वाले लोक में गये हैं। इनके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये॥७॥
सर्वे च हरिशार्दूलाः पुत्रश्चायं तवाङ्गदः।
हयृक्षपतिराज्यं च त्वत्सनाथमनिन्दिते॥८॥
‘सती साध्वी देवि! ये सभी श्रेष्ठ वानर, ये तुम्हारे पुत्र अङ्गद तथा वानर और भालुओं का यह राज्य– सब तुमसे ही सनाथ हैं—तुम्हीं इन सबकी स्वामिनी हो॥८॥
ताविमौ शोकसंतप्तौ शनैः प्रेरय भामिनि।
त्वया परिगृहीतोऽयमङ्गदः शास्तु मेदिनीम्॥९॥
‘भामिनि! ये अङ्गद और सुग्रीव दोनों ही शोक से संतप्त हो रहे हैं। तुम इन्हें भावी कार्य के लिये प्रेरित करो। तुम्हारे अधीन रहकर अङ्गद इस पृथ्वी का शासन करें॥९॥
संततिश्च यथा दृष्टा कृत्यं यच्चापि साम्प्रतम्।
राज्ञस्तत् क्रियतां सर्वमेष कालस्य निश्चयः॥ १०॥
‘शास्त्र में संतान होने का जो प्रयोजन बतलाया गया है तथा इस समय राजा वाली के पारलौकिक कल्याण के लिये जो कुछ कर्तव्य है, वही करो— यही समय की निश्चित प्रेरणा है॥१०॥
संस्कार्यो हरिराजस्तु अङ्गदश्चाभिषिच्यताम्।
सिंहासनगतं पुत्रं पश्यन्ती शान्तिमेष्यसि॥११॥
‘वानरराज का अन्त्येष्टि-संस्कार और कुमार अङ्गद का राज्याभिषेक किया जाय। बेटे को राजसिंहासन पर बैठा देखकर तुम्हें शान्ति मिलेगी’।११॥
सा तस्य वचनं श्रुत्वा भर्तृव्यसनपीडिता।
अब्रवीदुत्तरं तारा हनूमन्तमवस्थितम्॥१२॥
तारा अपने स्वामी के विरह-शोक से पीड़ित थी। वह उपर्युक्त वचन सुनकर सामने खड़े हुए हनुमान् जी से बोली
अङ्गदप्रतिरूपाणां पुत्राणामेकतः शतम्।
हतस्याप्यस्य वीरस्य गात्रसंश्लेषणं वरम्॥१३॥
‘अङ्गद के समान सौ पुत्र एक ओर और मरे होने पर भी इस वीरवर स्वामी का आलिङ्गन करके सती होना दूसरी ओर-इन दोनों में से अपने वीर पति के शरीर का आलिङ्गन ही मुझे श्रेष्ठ जान पड़ता है॥ १३॥
न चाहं हरिराज्यस्य प्रभवाम्यङ्गदस्य वा।
पितृव्यस्तस्य सुग्रीवः सर्वकार्येष्वनन्तरः॥१४॥
‘मैं न तो वानरों के राज्य की स्वामिनी हूँ और न मुझे अङ्गद के लिये ही कुछ करने का अधिकार है। इसके चाचा सुग्रीव ही समस्त कार्यों के लिये समर्थ हैं और वे ही मेरी अपेक्षा इसके निकटवर्ती भी हैं। १४॥
नह्येषा बुद्धिरास्थेया हनूमन्नङ्गदं प्रति।
पिता हि बन्धुः पुत्रस्य न माता हरिसत्तम॥१५॥
‘कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ! अङ्गद के विषय में आपकी यह सलाह मेरे लिये काम में लाने योग्य नहीं है। आपको यह समझना चाहिये कि पुत्र के वास्तविक बन्धु (सहायक) पिता और चाचा ही हैं माता नहीं। १५॥
नहि मम हरिराजसंश्रयात् क्षमतरमस्ति परत्र चेह वा।
अभिमुखहतवीरसेवितं शयनमिदं मम सेवितुं क्षमम्॥१६॥
मेरे लिये वानरराज वाली का अनुगमन करने से बढ़कर इस लोक या परलोक में कोई भी कार्य उचित नहीं है। युद्ध में शत्रु से जूझकर मरे हुए अपने वीर स्वामी के द्वारा सेवित चिता आदि की शय्यापर शयन करना ही मेरे लिये सर्वथा योग्य है’॥ १६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकविंशः सर्गः॥२१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में इक्कीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२१॥
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