वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 24 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 24
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
चतुर्विंशः सर्गः (सर्ग 24)
सुग्रीव का शोकमग्न होकर श्रीराम से प्राणत्याग के लिये आज्ञा माँगना, तारा का श्रीराम से अपने वध के लिये प्रार्थना करना और श्रीराम का उसे समझाना
तामाशु वेगेन दुरासदेन त्वभिप्लुतां शोकमहार्णवेन।
पश्यंस्तदा वाल्यनुजस्तरस्वी भ्रातुर्वधेनाप्रतिमेन तेपे॥१॥
अत्यन्त वेगशाली और दुःसह शोकसमुद्र में डूबी हुई तारा की ओर दृष्टिपात करके वाली के छोटे भाई वेगवान् सुग्रीव को उस समय अपने भाई के वध से बड़ा संताप हुआ॥
स बाष्पपूर्णेन मुखेन पश्यन् क्षणेन निर्विण्णमना मनस्वी।
जगाम रामस्य शनैः समीपं भृत्यैर्वृतः सम्परिदूयमानः॥२॥
उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली। उनका मन खिन्न हो गया और वे भीतर-ही-भीतर कष्ट का अनुभव करते हुए अपने भृत्यों के साथ धीरे-धीरे श्रीरामचन्द्रजी के पास गये॥२॥
स तं समासाद्य गृहीतचापमुदात्तमाशीविषतुल्यबाणम्।
यशस्विनं लक्षणलक्षिताङ्ग मवस्थितं राघवमित्युवाच॥३॥
जिन्होंने धनुष ले रखा था, जिनमें धीरोदात्त नायक का स्वभाव विद्यमान था, जिनके बाण विषधर सर्प के समान भयंकर थे, जिनका प्रत्येक अङ्ग सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार उत्तम लक्षणों से लक्षित था तथा जो परम यशस्वी थे, वहाँ खड़े हुए उन श्रीरघुनाथजी के पास जाकर सुग्रीव इस प्रकार बोले – ॥३॥
यथा प्रतिज्ञातमिदं नरेन्द्र कृतं त्वया दृष्टफलं च कर्म।
ममाद्य भोगेषु नरेन्द्रसूनो मनो निवृत्तं हतजीवितेन॥४॥
‘नरेन्द्र! आपने जैसी प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार यह काम कर दिखाया। इस कर्म का राज्यलाभ रूप फल भी प्रत्यक्ष ही है। किंतु राजकुमार! इससे मेरा जीवन निन्दनीय हो गया है। अतः अब मेरा मन सभी भोगों से निवृत्त हो गया॥४॥
अस्यां महिष्यां तु भृशं रुदत्यां पुरेऽतिविक्रोशति दुःखतप्ते।
हते नृपे संशयितेऽङ्गदे च न राम राज्ये रमते मनो मे॥५॥
‘श्रीराम! राजा वाली के मारे जाने से ये महारानी तारा अत्यन्त विलाप कर रही हैं। सारा नगर दुःख से संतप्त होकर चीख रहा है तथा कुमार अङ्गद का जीवन भी संशयमें पड़ गया है। इन सब कारणों से अब राज्य में मेरा मन नहीं लगता है॥५॥
क्रोधादमर्षादतिविप्रधर्षाद भ्रातुर्वधो मेऽनुमतः पुरस्तात्।
हते त्विदानीं हरियूथपेऽस्मिन् सुतीक्ष्णमिक्ष्वाकुवर प्रतप्स्ये॥६॥
‘इक्ष्वाकुकुल के गौरव श्रीरघुनाथजी! भाईने मेरा बहुत अधिक तिरस्कार किया था, इसलिये क्रोध और अमर्ष के कारण पहले मैंने उसके वध के लिये अनुमति दे दी थी; परंतु अब वानर-यूथपति वाली के मारे जाने पर मुझे बड़ा संताप हो रहा है। सम्भवतः जीवन भर यह संताप बना ही रहेगा॥६॥
श्रेयोऽद्य मन्ये मम शैलमुख्ये तस्मिन् हि वासश्चिरमृष्यमूके।
यथा तथा वर्तयतः स्ववृत्त्या नेमं निहत्य त्रिदिवस्य लाभः॥७॥
‘अपनी जातीय वृत्ति के अनुसार जैसे-तैसे जीवननिर्वाह करते हुए उस श्रेष्ठ पर्वत ऋष्यमूक पर चिरकाल तक रहना ही आज मैं अपने लिये कल्याणकारी समझता हूँ; किंतु अपने इस भाई का वध कराकर अब मुझे स्वर्ग का भी राज्य मिल जाय तो मैं उसे अपने लिये श्रेयस्कर नहीं मानता हूँ॥७॥
न त्वा जिघांसामि चरेति यन्मा मयं महात्मा मतिमानुवाच ।
तस्यैव तद् राम वचोऽनुरूपमिदं वचः कर्म च मेऽनुरूपम्॥८॥
‘बुद्धिमान् महात्मा वाली ने युद्ध के समय मुझसे कहा था कि ‘तुम चले जाओ, मैं तुम्हारे प्राण लेना नहीं चाहता’। श्रीराम! उनकी यह बात उन्हीं के योग्य थी और मैंने जो आपसे कहकर उनका वध कराया, मेरा वह क्रूरतापूर्ण वचन और कर्म मेरे ही अनुरूप है॥८॥
भ्राता कथं नाम महागुणस्य भ्रातुर्वधं राम विरोचयेत।
राज्यस्य दुःखस्य च वीर सारं विचिन्तयन् कामपुरस्कृतोऽपि॥९॥
‘वीर रघुनन्दन! कोई कितना ही स्वार्थी क्यों न हो? यदि राज्य के सुख तथा भ्रातृ-वध से होने वाले दुःख की प्रबलता पर विचार करेगा तो वह भाई होकर अपने महान् गुणवान् भाई का वध कैसे अच्छा समझेगा? ॥९॥
वधो हि मे मतो नासीत् स्वमाहात्म्यव्यतिक्रमात्।
ममासीद् बुद्धिदौरात्म्यात् प्राणहारी व्यतिक्रमः॥ १०॥
‘वाली के मन में मेरे वध का विचार नहीं था, क्योंकि इससे उन्हें अपनी मान-प्रतिष्ठा में बट्टा लगने का डर था। मेरी ही बुद्धि में दुष्टता भरी थी, जिसके कारण मैंने अपने भाई के प्रति ऐसा अपराध कर डाला, जो उनके लिये घातक सिद्ध हुआ॥ १०॥
द्रुमशाखावभग्नोऽहं मुहूर्तं परिनिष्टनन्।
सान्त्वयित्वा त्वनेनोक्तो न पुनः कर्तुमर्हसि॥ ११॥
‘जब वाली ने मुझे एक वृक्ष की शाखा से घायल कर दिया और मैं दो घड़ी तक कराहता रहा, तब उन्होंने मुझे सान्त्वना देकर कहा—’जाओ, फिर मेरे साथ युद्ध करने की इच्छा न करना’ ॥ ११ ॥
भ्रातृत्वमार्यभावश्च धर्मश्चानेन रक्षितः।
मया क्रोधश्च कामश्च कपित्वं च प्रदर्शितम्॥ १२॥
‘उन्होंने भ्रातृभाव, आर्यभाव और धर्म की भी रक्षा की है; परंतु मैंने केवल काम, क्रोध और वानरोचित चपलता का ही परिचय दिया है॥ १२॥
अचिन्तनीयं परिवर्जनीयमनीप्सनीयं स्वनवेक्षणीयम्।
प्राप्तोऽस्मि पाप्मानमिदं वयस्य भ्रातुर्वधात् त्वाष्ट्रवधादिवेन्द्रः॥१३॥
‘मित्र! जैसे वृत्रासुर का वध करने से इन्द्र पाप के भागी हुए थे, उसी प्रकार मैं भाई का वध कराकर ऐसे पाप का भागी हुआ हूँ, जिसको करना तो दूर रहा, सोचना भी अनुचित है। श्रेष्ठ पुरुषों के लिये जो सर्वथा त्याज्य, अवाञ्छनीय तथा देखने के भी अयोग्य है॥ १३॥
पाप्मानमिन्द्रस्य मही जलं च वृक्षाश्च कामं जगृहुः स्त्रियश्च।
को नाम पाप्मानमिमं सहेत शाखामृगस्य प्रतिपत्तुमिच्छेत्॥१४॥
‘इन्द्र के पाप को तो पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों ने स्वेच्छा से ग्रहण कर लिया था; परंतु मुझ-जैसे वानर के इस पाप को कौन लेना चाहेगा? अथवा कौन ले सकेगा?॥ १४॥
नार्हामि सम्मानमिमं प्रजानां न यौवराज्यं कुत एव राज्यम्।
अधर्मयुक्तं कुलनाशयुक्तमेवंविधं राघव कर्म कृत्वा॥१५॥
‘रघुनाथजी! अपने कुल का नाश करने वाला ऐसा पापपूर्ण कर्म करके मैं प्रजा के सम्मान का पात्र नहीं रहा। राज्य पाना तो दूर की बात है, मुझमें युवराज होने की भी योग्यता नहीं है॥ १५॥
पापस्य कर्तास्मि विगर्हितस्य क्षुद्रस्य लोकापकृतस्य लोके।
शोको महान् मामभिवर्ततेऽयं वृष्टेर्यथा निम्नमिवाम्बुवेगः॥१६॥
‘मैंने वह लोकनिन्दित पापकर्म किया है, जो नीच पुरुषों के योग्य तथा सम्पूर्ण जगत् को हानि पहुँचाने वाला है। जैसे वर्षा के जल का वेग नीची भूमि की ओर जाता है, उसी प्रकार यह भ्रातृवधजनित महान् शोक सब ओर से मुझ पर ही आक्रमण कर रहा है॥ १६॥
सोदर्यघातापरगात्रवालः संतापहस्ताक्षिशिरोविषाणः।
एनोमयो मामभिहन्ति हस्ती दृप्तो नदीकूलमिव प्रवृद्धः॥१७॥
‘भाई का वध ही जिसके शरीर का पिछला भाग और पुच्छ है तथा उससे होने वाला संताप ही जिसकी लँड, नेत्र, मस्तक और दाँत हैं, वह पापरूपी महान् मदमत्त गजराज नदीतट की भाँति मुझ पर ही आघात कर रहा है॥ १७॥
अंहो बतेदं नवराविषह्यं निवर्तते मे हृदि साधुवृत्तम्।
अग्नौ विवर्णं परितप्यमानं किनॊ यथा राघव जातरूपम्॥१८॥
‘नरेश्वर ! रघुनन्दन ! मैंने जो दुःसह पाप किया है, यह मेरे हृदयस्थित सदाचार को भी नष्ट कर रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे आग में तपाया जाने वाला मलिन सुवर्ण अपने भीतर के मल को नष्ट कर देता है॥ १८ ॥
महाबलानां हरियूथपानामिदं कुलं राघव मन्निमित्तम्।
अस्याङ्गदस्यापि च शोकतापा दर्धस्थितप्राणमितीव मन्ये॥१९॥
‘रघुनाथजी! मेरे ही कारण वाली का वध हुआ, जिससे इस अङ्गद का भी शोक-संताप बढ़ गया और इसीलिये इन महाबली वानर-यूथपतियों का समुदाय अधमरा-सा जान पड़ता है॥ १९॥
सुतः सुलभ्यः सुजनः सुवश्यः कुतस्तु पुत्रः सदृशोऽङ्गदेन।
न चापि विद्येत स वीर देशो यस्मिन् भवेत् सोदरसंनिकर्षः॥२०॥
‘वीरवर! सुजन और वश में रहने वाला पुत्र तो मिल सकता है, परंतु अङ्गद के समान बेटा कहाँ मिलेगा? तथा ऐसा कोई देश नहीं है, जहाँ मुझे अपने भाई का सामीप्य मिल सके॥२०॥
अद्याङ्गदो वीरवरो न जीवेज्जीवेत माता परिपालनार्थम्।
विना तु पुत्रं परितापदीना सा नैव जीवेदिति निश्चितं मे॥२१॥
‘अब वीरवर अङ्गद भी जीवित नहीं रह सकता। यदि जी सकता तो उसकी रक्षा के लिये उसकी माता भी जीवन धारण करती। वह बेचारी तो यों ही संताप से दीन हो रही है, यदि पुत्र भी न रहा तो उसके जीवन का अन्त हो जायगा-यह बिलकुल निश्चित बात है॥ २१॥
सोऽहं प्रवेक्ष्याम्यतिदीप्तमग्निं भ्रात्रा च पुत्रेण च सख्यमिच्छन्।
इमे विचेष्यन्ति हरिप्रवीराः सीतां निदेशे परिवर्तमानाः॥२२॥
अतः मैं अपने भाई और पुत्र का साथ देने की इच्छा से प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश करूँगा। ये वानर वीर आपकी आज्ञा में रहकर सीता की खोज करेंगे। २२॥
कृत्स्नं तु ते सेत्स्यति कार्यमेतन्मय्यप्यतीते मनुजेन्द्रपुत्र।
कुलस्य हन्तारमजीवनाहँ रामानुजानीहि कृतागसं माम्॥२३॥
‘राजकुमार ! मेरी मृत्यु हो जाने पर भी आपका सारा कार्य सिद्ध हो जायगा। मैं कुल की हत्या करने वाला और अपराधी हूँ। अतः संसार में जीवन धारण करने के योग्य नहीं हूँ। इसलिये श्रीराम! मुझे प्राण त्याग करने की आज्ञा दीजिये’ ॥ २३॥
इत्येवमार्तस्य रघुप्रवीरः श्रुत्वा वचो वालिजघन्यजस्य।
संजातबाष्पः परवीरहन्ता रामो मुहूर्तं विमना बभूव॥ २४॥
दुःख से आतुर हुए सुग्रीव के, जो वाली के छोटे भाई थे, ऐसे वचन सुनकर शत्रुवीरों का संहार करने में समर्थ, रघुकुल के वीर भगवान् श्रीराम के नेत्रों से आँसू बहने लगे। वे दो घड़ी तक मन-ही-मन दुःख का अनुभव करते रहे ॥२४॥
तस्मिन् क्षणेऽभीक्ष्णमवेक्षमाणः क्षितिक्षमावान् भुवनस्य गोप्ता।
रामो रुदन्तीं व्यसने निमग्नां समुत्सुकः सोऽथ ददर्श ताराम्॥२५॥
श्रीरघुनाथजी पृथ्वी के समान क्षमाशील और सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करने वाले हैं। उन्होंने उस समय अधिक उत्सुक होकर जब इधर-उधर बारंबार दृष्टि दौड़ायी, तब शोकमग्ना तारा उन्हें दिखायी दी, जो अपने स्वामी के लिये रो रही थी॥२५॥
तां चारुनेत्रां कपिसिंहनाथां पतिं समाश्लिष्य तदा शयानाम्।
उत्थापयामासुरदीनसत्त्वां मन्त्रिप्रधानाः कपिराजपत्नीम्॥२६॥
कपियों में सिंह के समान वीर वाली जिसके स्वामी एवं संरक्षक थे, जो वानरराज वाली की रानी थी, जिसका हृदय उदार और नेत्र मनोहर थे, वह तारा उस समय अपने मृत पति का आलिङ्गन करके पड़ी थी। श्रीराम को आते देख प्रधान-प्रधान मन्त्रियों ने तारा को वहाँ से उठाया॥
सा विस्फुरन्ती परिरभ्यमाणा भर्तुः समीपादपनीयमाना।
ददर्श रामं शरचापपाणिं स्वतेजसा सूर्यमिव ज्वलन्तम्॥२७॥
तारा जब पति के समीप से हटायी जाने लगी, तब बारंबार उसका आलिङ्गन करती हुई वह अपने को छुड़ाने और छटपटाने लगी। इतने ही में उसने अपने सामने धनुष-बाण धारण किये श्रीराम को खड़ा देखा, जो अपने तेज से सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहे थे॥२७॥
सुसंवृतं पार्थिवलक्षणैश्च तं चारुनेत्रं मृगशावनेत्रा।
अदृष्टपूर्वं पुरुषप्रधानमयं स काकुत्स्थ इति प्रजज्ञे॥२८॥
वे राजोचित शुभ लक्षणों से सम्पन्न थे। उनके नेत्र बड़े मनोहर थे। उन पुरुषप्रवर श्रीराम को, जो पहले कभी देखने में नहीं आये थे, देखकर मृगशावकनयनी तारा समझ गयी कि ये ही ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णं व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती॥२९॥
उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोकपीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्रतुल्य दुर्जय वीर महानुभाव भगवान् श्रीराम के समीप गयी॥ २९॥
तं सा समासाद्य विशुद्धसत्त्वं शोकेन सम्भ्रान्तशरीरभावा।
मनस्विनी वाक्यमुवाच तारा रामं रणोत्कर्षणलब्धलक्ष्यम्॥३०॥
शोक के कारण वह अपने शरीर की भी सुध-बुध खो बैठी थी। भगवान् श्रीराम विशुद्ध अन्तःकरण वाले तथा युद्धस्थल में सबसे अधिक निपुणता के कारण लक्ष्य बेधने में अचूक थे, उनके पास पहुँचकर वह मनस्विनी तारा इस प्रकार बोली- ॥३०॥
त्वमप्रमेयश्च दुरासदश्च जितेन्द्रियश्चोत्तमधर्मकश्च।
अक्षीणकीर्तिश्च विचक्षणश्च क्षितिक्षमावान् क्षतजोपमाक्षः॥३१॥
‘रघुनन्दन! आप अप्रमेय (देश, काल और वस्तुकी सीमासे रहित) हैं। आपको पाना बहुत कठिन है। आप जितेन्द्रिय तथा उत्तम धर्म का पालन करने वाले हैं। आपकी कीर्ति कभी नष्ट नहीं होती। आप दूरदर्शी एवं पृथ्वी के समान क्षमाशील हैं। आपकी आँखें कुछ-कुछ लाल हैं ॥ ३१॥
त्वमात्तबाणासनबाणपाणिमहाबलः संहननोपपन्नः।
मनुष्यदेहाभ्युदयं विहाय दिव्येन देहाभ्युदयेन युक्तः॥३२॥
‘आपके हाथमें धनुष और बाण शोभा पा रहे हैं। आपका बल महान् है। आप सुदृढ़ शरीर से सम्पन्न हैं और मनुष्य-शरीर से प्राप्त होने वाले लौकिक सुख का परित्याग करके भी दिव्य शरीर के ऐश्वर्य से युक्त हैं। ३२॥
येनैव बाणेन हतः प्रियो मे तेनैव बाणेन हि मां जहीहि।
हता गमिष्यामि समीपमस्य न मां विना वीर रमेत वाली॥३३॥
(‘अतः मैं प्रार्थना करती हूँ कि) आपने जिस बाण से मेरे प्रियतम पति का वध किया है, उसी बाण से आप मुझे भी मार डालिये। मैं मरकर उनके समीप चली जाऊँगी। वीर! मेरे बिना वाली कहीं भी सुखी नहीं रह सकेंगे॥ ३३॥
स्वर्गेऽपि पद्मामलपत्रनेत्र समेत्य सम्प्रेक्ष्य च मामपश्यन्।
न ह्येष उच्चावचताम्रचूडा विचित्रवेषाप्सरसोऽभजिष्यत्॥३३॥
‘अमलकमलदललोचन राम! स्वर्ग में जाकर भी जब वाली सब ओर दृष्टि डालने पर मुझे नहीं देखेंगे, तब उनका मन वहाँ कदापि नहीं लगेगा; नाना प्रकार के लाल फूलों से विभूषित चोटी धारण करने वाली तथा विचित्र वेशभूषा से मनोहर प्रतीत होने वाली स्वर्ग की अप्सराओं को वे कभी स्वीकार नहीं करेंगे॥ ३४॥
स्वर्गेऽपि शोकं च विवर्णतां च मया विना प्राप्स्यति वीर वाली।
रम्ये नगेन्द्रस्य तटावकाशे विदेहकन्यारहितो यथा त्वम्॥ ३५॥
‘वीरवर! स्वर्ग में भी वाली मेरे बिना शोक का अनुभव करेंगे और उनके शरीर की कान्ति फीकी पड़ जायगी। वे उसी तरह दुःखी रहेंगे जैसे गिरिराज ऋष्यमूक के सुरम्य तट-प्रान्त में विदेहनन्दिनी सीता के बिना आप कष्ट का अनुभव करते हैं॥ ३५ ॥
त्वं वेत्थ तावद् वनिताविहीनः प्राप्नोति दुःखं पुरुषः कुमारः।
तत् त्वं प्रजानञ्जहि मां न वाली दुःखं ममादर्शनजं भजेत॥३६॥
‘स्त्री के बिना युवा पुरुष को जो दुःख उठाना पड़ता है, उसे आप अच्छी तरह जानते हैं। इस तत्त्व को समझकर आप मेरा वध करिये, जिससे वाली को मेरे विरह का दुःख न भोगना पड़े॥ ३६॥
यच्चापि मन्येत भवान् महात्मा स्त्रीघातदोषस्तु भवेन्न मह्यम्।
आत्मेयमस्येति हि मां जहि त्वं न स्त्रीवधः स्यान्मनुजेन्द्रपुत्र ॥ ३७॥
‘महाराजकुमार! आप महात्मा हैं, इसलिये यदि ऐसा चाहते हों कि मुझे स्त्री-हत्या का पाप न लगे तो ‘यह वाली की आत्मा है’ ऐसा समझकर मेरा वध कीजिये। इससे आपको स्त्री-हत्या का पाप नहीं लगेगा॥ ३७॥
शास्त्रप्रयोगाद् विविधाश्च वेदादनन्यरूपाः पुरुषस्य दाराः।
दारप्रदानाद्धि न दानमन्यत् प्रदृश्यते ज्ञानवतां हि लोके ॥ ३८॥
‘शास्त्रोक्त यज्ञ-यागादि कर्मों में पति और पत्नी दोनों का संयुक्त अधिकार होता है—पत्नी को साथ लिये बिना पुरुष यज्ञकर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता। इसके सिवा नाना प्रकार की वैदिक श्रुतियाँ भी पत्नी को पति का आधा शरीर बतलाती हैं। दूसरे स्त्रियों का अपने पति से अभिन्न होना सिद्ध होता है। (अतः मुझे मारने से आपको स्त्रीवध का दोष नहीं लग सकता और वाली को स्त्री की प्राप्ति हो जायगी; क्योंकि) संसार में ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में स्त्रीदान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है॥ ३८॥
त्वं चापि मां तस्य मम प्रियस्य प्रदास्यसे धर्ममवेक्ष्य वीर।
अनेन दानेन न लप्स्यसे त्वमधर्मयोगं मम वीर घातात्॥३९॥
‘वीरशिरोमणे! यदि धर्म की ओर दृष्टि रखते हुए आप भी मुझे मेरे प्रियतम वाली को समर्पित कर देंगे तो इस दान के प्रभाव से मेरी हत्या करने पर भी आपको पाप नहीं लगेगा॥ ३९॥
आर्तामनाथामपनीयमानामेवंगतां नार्हसि मामहन्तुम्।
अहं हि मातङ्गविलासगामिना प्लवंगमानामृषभेण धीमता।
विना वराहॊत्तमहेममालिना चिरं न शक्ष्यामि नरेन्द्र जीवितुम्॥४०॥
‘मैं दुःखिनी और अनाथा हूँ। पति से दूर कर दी गयी हूँ। ऐसी दशा में मुझे जीवित छोड़ना आपके लिये उचित नहीं है। नरेन्द्र! मैं सुन्दर एवं बहुमूल्य श्रेष्ठ सुवर्णमाला से अलंकृत तथा गजराज के समान विलासयुक्त गति से चलने वाले बुद्धिमान् वानरश्रेष्ठ वाली के बिना अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकूँगी’ ॥ ४०॥
इत्येवमुक्तस्तु विभुर्महात्मा तारां समाश्वास्य हितं बभाषे।
मा वीरभार्ये विमतिं कुरुष्व लोको हि सर्वो विहितो विधात्रा॥४१॥
तारा के ऐसा कहने पर महात्मा भगवान् श्रीराम ने उसे आश्वासन देकर हित की बात कही—’वीरपत्नी! तुम मृत्यु-विषयक विपरीत विचार का त्याग करो; क्योंकि विधाता ने इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि की है। ४१॥
तं चैव सर्वं सुखदुःखयोगं लोकोऽब्रवीत् तेन कृतं विधात्रा।
त्रयोऽपि लोका विहितं विधानं नातिक्रमन्ते वशगा हि तस्य॥४२॥
‘विधाता ने ही इस सारे जगत् को सुख-दुःख से संयुक्त किया है। यह बात साधारण लोग भी कहते और जानते हैं। तीनों लोकों के प्राणी विधाता के विधान का उल्लङ्घन नहीं कर सकते; क्योंकि सभी उसके अधीन हैं॥४२॥
प्रीतिं परां प्राप्स्यसि तां तथैव पुत्रश्च ते प्राप्स्यति यौवराज्यम्।
धात्रा विधानं विहितं तथैव न शूरपत्न्यः परिदेवयन्ति॥४३॥
‘तुम्हें पहले की ही भाँति अत्यन्त सुख एवं आनन्द की प्राप्ति होगी तथा तुम्हारा पुत्र युवराज पद प्राप्त करेगा। विधाता का ऐसा ही विधान है। शूरवीरों की स्त्रियाँ इस प्रकार विलाप नहीं करती हैं। (अतः तुम भी शोक छोड़कर शान्त हो जाओ)’॥
आश्वासिता तेन महात्मना तु प्रभावयुक्तेन परंतपेन।
सा वीरपत्नी ध्वनता मुखेन सुवेषरूपा विरराम तारा॥४४॥
शत्रुओं को संताप देने वाले परम प्रभावशाली महात्मा श्रीराम के इस प्रकार सान्त्वना देने पर सुन्दर वेश और रूपवाली वीरपत्नी तारा, जिसके मुख से विलाप की ध्वनि निकलती रहती थी, चुप हो गयी— उसने रोना-धोना छोड़ दिया॥ ४४ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे चतुर्विंशः सर्गः ॥२४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२४॥
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