वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 26 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 26
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
षड्विंशः सर्गः (सर्ग 26)
हनुमान जी का सुग्रीव के अभिषेक के लिये श्रीरामचन्द्रजी से किष्किन्धा में पधारने की प्रार्थना, तत्पश्चात् सुग्रीव और अङ्गद का अभिषेक
ततः शोकाभिसंतप्तं सुग्रीवं क्लिन्नवाससम्।
शाखामृगमहामात्राः परिवार्योपतस्थिरे ॥१॥
अभिगम्य महाबाहुं राममक्लिष्टकारिणम्।
स्थिताः प्राञ्जलयः सर्वे पितामहमिवर्षयः॥२॥
तदनन्तर वानरसेना के प्रधान-प्रधान वीर (हनुमान् आदि) भीगे वस्त्रवाले शोक-संतप्त सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर उन्हें साथ लिये अनायास ही महान् कर्म करने वाले महाबाहु श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुए। श्रीराम के पास आकर वे सभी वानर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये, जैसे ब्रह्माजी के सम्मुख महर्षिगण खड़े रहते हैं।
ततः काञ्चनशैलाभस्तरुणार्कनिभाननः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं हनूमान् मारुतात्मजः॥३॥
तत्पश्चात् सुवर्णमय मेरु पर्वत के समान सुन्दर एवं विशाल शरीर वाले वायुपुत्र हनुमान् जी , जिनका मुख प्रातःकाल के सूर्य की भाँति अरुण प्रभा से प्रकाशित हो रहा था, दोनों हाथ जोड़कर बोले- ॥३॥
भवत्प्रसादात् काकुत्स्थ पितृपैतामहं महत्।
वानराणां सुदंष्ट्राणां सम्पन्नबलशालिनाम्॥४॥
महात्मनां सुदुष्प्रापं प्राप्तं राज्यमिदं प्रभो।
भवता समनुज्ञातः प्रविश्य नगरं शुभम्॥५॥
संविधास्यति कार्याणि सर्वाणि ससुहृद्गणः।
‘ककुत्स्थकुलनन्दन! आपकी कृपा से सुग्रीव को सुन्दर दाढ़वाले पूर्ण बलशाली और महामनस्वी वानरों का यह विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ, जो इनके बाप-दादों के समय से चला आ रहा है। प्रभो! यद्यपि इसका मिलना बहुत ही कठिन था तो भी आपके प्रसाद से यह इन्हें सुलभ हो गया। अब यदि आप आज्ञा दें तो ये अपने सुन्दर नगर में प्रवेश करके सुहृदों के साथ अपना सब राजकार्य सँभालें।
स्नातोऽयं विविधैर्गन्धैरौषधैश्च यथाविधि॥६॥
अर्चयिष्यति माल्यैश्च रत्नैश्च त्वां विशेषतः।
इमां गिरिगुहां रम्यामभिगन्तुं त्वमर्हसि ॥७॥
कुरुष्व स्वामिसम्बन्धं वानरान् सम्प्रहर्षय।
‘ये शास्त्रविधि के अनुसार नाना प्रकार के सुगन्धित पदार्थों और ओषधियों सहित जल से राज्यपर अभिषिक्त होकर मालाओं तथा रत्नों द्वारा आपकी विशेष पूजा करेंगे। अतः आप इस रमणीय पर्वतगुफा किष्किन्धा में पधारने की कृपा करें और इन्हें इस राज्य का स्वामी बनाकर वानरों का हर्ष बढ़ावें ॥६-७ १/२॥
एवमुक्तो हनुमता राघवः परवीरहा॥८॥
प्रत्युवाच हनूमन्तं बुद्धिमान् वाक्यकोविदः।
हनुमान जी के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले तथा बातचीत में कुशल बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजी ने उन्हें यों उत्तर दिया- ॥ ८ १/२ ॥
चतुर्दश समाः सौम्य ग्रामं वा यदि वा पुरम्॥
न प्रवेक्ष्यामि हनुमन् पितुर्निर्देशपालकः।
‘हनुमन् ! सौम्य! मैं पिता की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, अतः चौदह वर्षों के पूर्ण होने तक किसी ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं करूँगा॥ ९ १/२॥
सुसमृद्धां गुहां दिव्यां सुग्रीवो वानरर्षभः॥१०॥
प्रविष्टो विधिवद् वीरः क्षिप्रं राज्येऽभिषिच्यताम्।
‘वानरश्रेष्ठ वीर सुग्रीव इस समृद्धिशालिनी दिव्य गुफा में प्रवेश करें और वहाँ शीघ्र ही इनका विधिपूर्वक राज्याभिषेक कर दिया जाय’ ॥ १० १/२ ।।
एवमुक्त्वा हनूमन्तं रामः सुग्रीवमब्रवीत्॥११॥
वृत्तज्ञो वृत्तसम्पन्नमुदारबलविक्रमम्।
इममप्यङ्गदं वीरं यौवराज्येऽभिषेचय॥१२॥
हनुमान् से ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी सुग्रीव से बोले- ‘मित्र! तुम लौकिक और शास्त्रीय सभी व्यवहार जानते हो। कुमार अङ्गद सदाचारसम्पन्न तथा महान् बल-पराक्रम से परिपूर्ण हैं। इनमें वीरता कूट-कूटकर भरी है, अतः तुम इनको भी युवराज के पद पर अभिषिक्त करो॥ ११-१२॥
ज्येष्ठस्य हि सुतो ज्येष्ठः सदृशो विक्रमेण च।
अङ्गदोऽयमदीनात्मा यौवराज्यस्य भाजनम्॥१३॥
ये तुम्हारे बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र हैं। पराक्रम में भी उन्हीं के समान हैं तथा इनका हृदय उदार है। अतः अङ्गद युवराजपद के सर्वथा अधिकारी हैं॥ १३॥
पूर्वोऽयं वार्षिको मासः श्रावणः सलिलागमः।
प्रवृत्ताः सौम्य चत्वारो मासा वार्षिक संज्ञिताः॥ १४॥
‘सौम्य! वर्षा कहलाने वाले चार मास या चौमासे आ गये। इनमें पहला मास यह श्रावण, जो जल की प्राप्ति कराने वाला है, आरम्भ हो गया॥ १४ ॥
नायमुद्योगसमयः प्रविश त्वं पुरीं शुभाम्।
अस्मिन् वत्स्याम्यहं सौम्य पर्वते सहलक्ष्मणः॥
‘सौम्य! यह किसी पर चढ़ाई करने का समय नहीं है इसलिये तुम अपनी सुन्दर नगरी में जाओ। मैं लक्ष्मण के साथ इस पर्वत पर निवास करूँगा॥ १५ ॥
इयं गिरिगुहा रम्या विशाला युक्तमारुता।
प्रभूतसलिला सौम्य प्रभूतकमलोत्पला॥१६॥
‘सौम्य सुग्रीव! यह पर्वतीय गुफा बड़ी रमणीय और विशाल है। इसमें आवश्यकताके अनुरूप हवा भी मिल जाती है। यहाँ पर्याप्त जल भी सुलभ है और कमल तथा उत्पल भी बहुत हैं ॥ १६ ॥
कार्तिके समनुप्राप्ते त्वं रावणवधे यत।
एष नः समयः सौम्य प्रविश त्वं स्वमालयम्॥ १७॥
अभिषिञ्चस्व राज्ये च सुहृदः सम्प्रहर्षय।
‘सखे! कार्तिक आने पर तुम रावण के वध के लिये प्रयत्न करना। यही हमलोगों का निश्चय रहा। अब तुम अपने महल में प्रवेश करो और राज्यपर अभिषिक्त होकर सुहृदों को आनन्दित करो’ ॥ १७
१/२॥
इति रामाभ्यनुज्ञातः सुग्रीवो वानरर्षभः॥१८॥
प्रविवेश पुरी रम्यां किष्किन्धां वालिपालिताम्।
श्रीरामचन्द्रजी की यह आज्ञा पाकर वानरश्रेष्ठ सुग्रीव उस रमणीय किष्किन्धापुरी में गये, जिसकी रक्षा वाली ने की थी॥ १८ १/२॥
तं वानरसहस्राणि प्रविष्टं वानरेश्वरम्॥१९॥
अभिवार्य प्रविष्टानि सर्वतः प्लवगेश्वरम्।
उस समय गुफा में प्रविष्ट हुए उन वानरराज को चारों ओर से घेरकर हजारों वानर उनके साथ ही गुहा में घुसे॥ १९ १/२॥
ततः प्रकृतयः सर्वा दृष्ट्वा हरिगणेश्वरम्॥२०॥
प्रणम्य मूर्ना पतिता वसुधायं समाहिताः।
वानरराज को देखकर प्रजा आदि समस्त प्रकृतियों ने एकाग्रचित्त हो पृथ्वी पर माथा टेककर उन्हें प्रणाम किया।
सुग्रीवः प्रकृतीः सर्वाः सम्भाष्योत्थाप्य वीर्यवान्॥२१॥
भ्रातुरन्तःपुरं सौम्यं प्रविवेश महाबलः।
महाबली पराक्रमी सुग्रीव ने उन सबको उठने की आज्ञा दी और उन सबसे बातचीत करके वे भाई के सौम्य अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए॥ २१ १/२॥
प्रविष्टं भीमविक्रान्तं सुग्रीवं वानरर्षभम्॥२२॥
अभ्यषिञ्चन्त सुहृदः सहस्राक्षमिवामराः।
भयंकर पराक्रम प्रकट करने वाले वानरश्रेष्ठ सुग्रीव को अन्तःपुर में आया देख उनके सुहृदों ने उनका उसी प्रकार अभिषेक किया, जैसे देवताओं ने सहस्र नेत्रधारी इन्द्र का किया था॥ २२ १/२॥
तस्य पाण्डुरमाजह्वश्छत्रं हेमपरिष्कृतम्॥ २३॥
शुक्ले च वालव्यजने हेमदण्डे यशस्करे।
तथा रत्नानि सर्वाणि सर्वबीजौषधानि च ॥२४॥
सक्षीराणां च वृक्षाणां प्ररोहान् कुसुमानि च।
शुक्लानि चैव वस्त्राणि श्वेतं चैवानुलेपनम्॥ २५॥
सुगन्धीनि च माल्यानि स्थलजान्यम्बुजानि च।
चन्दनानि च दिव्यानि गन्धांश्च विविधान् बहून्॥ २६॥
अक्षतं जातरूपं च प्रियङ्गं मधुसर्पिषी।
दधि चर्म च वैयाघ्रं परायौ चाप्युपानहौ ॥२७॥
समालम्भनमादाय गोरोचनमनःशिलाम्।
आजग्मुस्तत्र मुदिता वराः कन्याश्च षोडश॥ २८॥
पहले तो वे सब लोग उनके लिये सुवर्णभूषित श्वेत छत्र, सोनेकी डाँड़ीवाले दो सफेद चँवर, सब प्रकार के रत्न, बीज और ओषधियाँ, दूध वाले वृक्षों की नीचे लटकने वाली जटाएँ, श्वेत पुष्प, श्वेत वस्त्र, श्वेत अनुलेपन, जल और थल में होने वाले सुगन्धित फूलों की मालाएँ, दिव्य चन्दन, नाना प्रकार के बहुतसे सुगन्धित पदार्थ, अक्षत, सोना, प्रियङ्ग (कगनी) मधु, घी, दही, व्याघ्रचर्म, सुन्दर एवं बहुमूल्य जूते, अङ्गराग, गोरोचन और मैनसिल आदि सामग्री लेकर वहाँ उपस्थित हुए, साथ ही हर्ष से भरी हुई सोलह सुन्दरी कन्याएँ भी सुग्रीव के पास आयीं॥ २३–२८॥
ततस्ते वानरश्रेष्ठमभिषेक्तुं यथाविधि।
रत्नैर्वस्त्रैश्च भक्ष्यैश्च तोषयित्वा द्विजर्षभान्॥ २९॥
तदनन्तर उन सबने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को नाना प्रकार के रत्न, वस्त्र और भक्ष्य पदार्थों से संतुष्ट करके वानर श्रेष्ठ सुग्रीव का विधिपूर्वक अभिषेक-कार्य आरम्भ किया। २९॥
ततः कुशपरिस्तीर्णं समिद्धं जातवेदसम्।
मन्त्रपूतेन हविषा हुत्वा मन्त्रविदो जनाः॥३०॥
मन्त्रवेत्ता पुरुषों ने वेदी पर अग्नि की स्थापना करके उसे प्रज्वलित किया और अग्निवेदी के चारों ओर कुश बिछाये। फिर अग्नि का संस्कार करके मन्त्रपूत हविष्य के द्वारा प्रज्वलित अग्नि में आहुति दी॥ ३०॥
ततो हेमप्रतिष्ठाने वरास्तरणसंवृते।
प्रासादशिखरे रम्ये चित्रमाल्योपशोभिते॥३१॥
प्रामुखं विधिवन्मन्त्रैः स्थापयित्वा वरासने।
तत्पश्चात् रंग-बिरंगी पुष्पमालाओं से सुशोभित रमणीय अट्टालिका पर एक सोने का सिंहासन रखा गया और उसपर सुन्दर बिछौना बिछाकर उसके ऊपर सुग्रीव को पूर्वाभिमुख करके विधिवत् मन्त्रोच्चारण करते हुए बिठाया गया। ३१ १/२॥
नदीनदेभ्यः संहृत्य तीर्थेभ्यश्च समन्ततः॥ ३२॥
आहृत्य च समुद्रेभ्यः सर्वेभ्यो वानरर्षभाः।
अपः कनककुम्भेषु निधाय विमलं जलम्॥३३॥
शुभैर्ऋषभशृङ्गैश्च कलशैश्चैव काञ्चनैः।
शास्त्रदृष्टेन विधिना महर्षिविहितेन च॥३४॥
गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः।
मैन्दश्च द्विविदश्चैव हनूमाजाम्बवांस्तथा॥ ३५॥
अभ्यषिञ्चत सुग्रीवं प्रसन्नेन सुगन्धिना।
सलिलेन सहस्राक्षं वसवो वासवं यथा॥३६॥
इसके बाद श्रेष्ठ वानरों ने नदियों, नदों, सम्पूर्ण दिशाओं के तीर्थों और समस्त समुद्रों से लाये हुए निर्मल जल को एकत्र करके उसे सोने के कलशों में रखा फिर गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन, मैन्द, द्विविद, हनुमान् और जाम्बवान् ने महर्षियों की बतायी हुई शास्त्रोक्त विधि के अनुसार सुवर्णमय कलशों में रखे हुए स्वच्छ और सुगन्धित जल से साँड के सींगों द्वारा सुग्रीव का उसी प्रकार अभिषेक किया, जैसे वसुओं ने इन्द्र का अभिषेक किया था।
अभिषिक्ते तु सुग्रीवे सर्वे वानरपुङ्गवाः।
प्रचुक्रुशुर्महात्मानो हृष्टाः शतसहस्रशः॥ ३७॥
सुग्रीव का अभिषेक हो जाने पर वहाँ लाखों की संख्या में एकत्र हुए समस्त महामनस्वी श्रेष्ठ वानर हर्ष से भरकर जयघोष करने लगे॥ ३७॥
रामस्य तु वचः कुर्वन् सुग्रीवो वानरेश्वरः।
अङ्गदं सम्परिष्वज्य यौवराज्येऽभ्यषेचयत्॥ ३८॥
श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा का पालन करते हुए वानरराज सुग्रीव ने अङ्गद को हृदय से लगाकर उन्हें भी युवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया॥३८॥
अङ्गदे चाभिषिक्ते तु सानुक्रोशाः प्लवंगमाः।
साधु साध्विति सुग्रीवं महात्मानो ह्यपूजयन्॥३९॥
अङ्गद का अभिषेक हो जाने पर महामनस्वी दयालु वानर ‘साधु-साधु’ कहकर सुग्रीव की सराहना करने लगे॥
रामं चैव महात्मानं लक्ष्मणं च पुनः पुनः।
प्रीताश्च तुष्टवुः सर्वे तादृशे तत्र वर्तिनि॥४०॥
इस प्रकार अभिषेक होकर किष्किन्धा में सुग्रीव और अङ्गद के विराजमान होने पर समस्त वानर परम प्रसन्न हो महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण की बारंबार स्तुति करने लगे॥ ४०॥
हृष्टपुष्टजनाकीर्णा पताकाध्वजशोभिता।
बभूव नगरी रम्या किष्किन्धा गिरिगह्वरे॥४१॥
उस समय पर्वत की गुफा में बसी हुई किष्किन्धापुरी हृष्ट-पुष्ट पुरवासियों से व्याप्त तथा ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित होने के कारण बड़ी रमणीय प्रतीत होती थी॥
निवेद्य रामाय तदा महात्मने महाभिषेकं कपिवाहिनीपतिः।
रुमां च भार्यामुपलभ्य वीर्यवानवाप राज्यं त्रिदशाधिपो यथा॥४२॥
वानरसेना के स्वामी पराक्रमी सुग्रीव ने महात्मा श्रीरामचन्द्रजी के पास जाकर अपने महाभिषेक का समाचार निवेदन किया और अपनी पत्नी रुमा को पाकर उन्होंने उसी प्रकार वानरों का साम्राज्य प्राप्त किया, जैसे देवराज इन्द्र ने त्रिलोकी का॥ ४२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे षडविंशः सर्गः ॥२६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ २६॥