वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 28 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 28
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
अष्टाविंशः सर्गः (सर्ग 28)
श्रीराम के द्वारा वर्षा-ऋतु का वर्णन
स तदा वालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषिच्य च।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥१॥
इस प्रकार वाली का वध और सुग्रीव का राज्याभिषेक करने के अनन्तर माल्यवान् पर्वत के पृष्ठभाग में निवास करते हुए श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण से कहने लगे— ॥१॥
अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः।
सम्पश्य त्वं नभो मेघैः संवृतं गिरिसंनिभैः॥२॥
‘सुमित्रानन्दन! अब यह जल की प्राप्ति कराने वाला वह प्रसिद्ध वर्षाकाल आ गया। देखो, पर्वत के समान प्रतीत होने वाले मेघों से आकाशमण्डल आच्छन्न हो गया है॥२॥
नवमासधृतं गर्भं भास्करस्य गभस्तिभिः।
पीत्वा रसं समुद्राणां द्यौः प्रसूते रसायनम्॥३॥
‘यह आकाशस्वरूपा तरुणी सूर्य की किरणों द्वारा समुद्रों का रस पीकर कार्तिक आदि नौ मासों तक धारण किये हुए गर्भ के रूप में जलरूपी रसायन को जन्म दे रही है॥३॥
शक्यमम्बरमारुह्य मेघसोपानपंक्तिभिः।
कुटजार्जुनमालाभिरलंकर्तुं दिवाकरः॥४॥
‘इस समय मेघरूपी सोपानपंक्तियों (सीढ़ियों) द्वारा आकाश में चढ़कर गिरिमल्लिका और अर्जुनपुष्प की मालाओं से सूर्यदेव को अलंकृत करना सरल-सा हो गया है॥४॥
संध्यारागोत्थितैस्तानैरन्तेष्वपि च पाण्डुभिः।
स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैर्बद्धव्रणमिवाम्बरम्॥५॥
‘संध्याकाल की लाली प्रकट होने से बीच में लाल तथा किनारे के भागों में श्वेत एवं स्निग्ध प्रतीत होने वाले मेघखण्डों से आच्छादित हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता है, मानो उसने अपने घाव में रक्तरञ्जित सफेद कपड़ों की पट्टी बाँध रखी हो॥५॥
मन्दमारुतिनिःश्वासं संध्याचन्दनरञ्जितम्।
आपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम्॥६॥
‘मन्द-मन्द हवा निःश्वास-सी प्रतीत होती है, संध्याकाल की लाली लाल चन्दन बनकर ललाट आदि अङ्गों को अनुरञ्जित कर रही है तथा मेघरूपी कपोल कुछ-कुछ पाण्डुवर्ण का प्रतीत होता है। इस तरह यह आकाश कामातुर पुरुष के समान जान पड़ता है॥६॥
एषा घर्मपरिक्लिष्टा नववारिपरिप्लुता।
सीतेव शोकसंतप्ता मही बाष्पं विमुञ्चति॥७॥
‘जो ग्रीष्म-ऋतु में घाम से तप गयी थी, वह पृथ्वी वर्षाकाल में नूतन जल से भीगकर (सूर्य-किरणों से तपी और आँसुओं से भीगी हुई) शोकसंतप्त सीता की भाँति बाष्प विमोचन (उष्णता का त्याग अथवा अश्रुपात) कर रही है॥७॥
मेघोदरविनिर्मुक्ताः कर्पूरदलशीतलाः।
शक्यमञ्जलिभिः पातुं वाताः केतकगन्धिनः॥ ८॥
‘मेघ के उदर से निकली, कपूर की डली के समान ठंडी तथा केवड़े की सुगन्ध से भरी हुई इस बरसाती वायु को मानो अञ्जलियों में भरकर पीया जा सकता है।
एष फुल्लार्जुनः शैलः केतकैरभिवासितः।
सुग्रीव इव शान्तारिर्धाराभिरभिषिच्यते॥९॥
यह पर्वत, जिस पर अर्जुन के वृक्ष खिले हुए हैं तथा जो केवड़ों से सुवासित हो रहा है, शान्त हुए शत्रुवाले सुग्रीव की भाँति जल की धाराओं से अभिषिक्त हो रहा है॥९॥
मेघकृष्णाजिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः।
मारुतापूरितगुहाः प्राधीता इव पर्वताः॥१०॥
मेघरूपी काले मृगचर्म तथा वर्षा की धारारूप यज्ञोपवीत धारण किये वायु से पूरित गुफा (या हृदय) वाले ये पर्वत ब्रह्मचारियों की भाँति मानो वेदाध्ययन आरम्भ कर रहे हैं॥ १०॥
कशाभिरिव हैमीभिर्विद्युद्भिरभिताडितम्।
अन्तःस्तनितनिर्घोषं सवेदनमिवाम्बरम्॥११॥
‘ये बिजलियाँ सोने के बने हुए कोड़ों के समान जान पड़ती हैं। इनकी मार खाकर मानो व्यथित हुआ आकाश अपने भीतर व्यक्त हुई मेघों की गम्भीर गर्जना के रूप में आर्तनाद-सा कर रहा है॥ ११॥
नीलमेघाश्रिता विद्युत् स्फुरन्ती प्रतिभाति मे।
स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी॥१२॥
‘नील मेघ का आश्रय लेकर प्रकाशित होती हुई यह विद्युत् मुझे रावण के अङ्क में छटपटाती हुई तपस्विनी सीता के समान प्रतीत होती है॥ १२॥
इमास्ता मन्मथवतां हिताः प्रतिहता दिशः।
अनुलिप्ता इव घनैनष्टग्रहनिशाकराः॥१३॥
‘बादलों का लेप लग जाने से जिनमें ग्रह, नक्षत्र और चन्द्रमा अदृश्य हो गये हैं, अतएव जो नष्ट-सी हो गयी है जिनके पूर्व, पश्चिम आदि भेदों का विवेक लुप्त-सा हो गया है, वे दिशाएँ, उन कामियों को, जिन्हें प्रेयसी का संयोगसुख सुलभ है, हितकर प्रतीत होती हैं॥ १३॥
क्वचिद् बाष्पाभिसंरुद्धान् वर्षागमसमुत्सुकान्।
कुटजान् पश्य सौमित्रे पुष्पितान् गिरिसानुषु।
मम शोकाभिभूतस्य कामसंदीपनान् स्थितान्॥ १४॥
‘सुमित्रानन्दन ! देखो, इस पर्वत के शिखरों पर खिले हुए कुटज कैसी शोभा पाते हैं? कहीं तो पहली बार वर्षा होने पर भूमि से निकले हुए भाप से ये व्याप्त हो रहे हैं और कहीं वर्षा के आगमन से अत्यन्त उत्सुक (हर्षोत्फुल्ल) दिखायी देते हैं। मैं तो प्रिया-विरह के शोक से पीड़ित हूँ और ये कुटज पुष्प मेरी प्रेमाग्नि को उद्दीप्त कर रहे हैं॥ १४ ॥
रजः प्रशान्तं सहिमोऽद्य वायुनिदाघदोषप्रसराः प्रशान्ताः।
स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां प्रवासिनो यान्ति नराः स्वदेशान्॥१५॥
‘धरती की धूल शान्त हो गयी। अब वायु में शीतलता आ गयी। गर्मी के दोषों का प्रसार बंद हो गया। भूपालों की युद्ध यात्रा रुक गयी और परदेशी मनुष्य अपने-अपने देश को लौट रहे हैं॥ १५ ॥
सम्प्रस्थिता मानसवासलुब्धाः प्रियान्विताः सम्प्रति चक्रवाकाः।
अभीक्ष्णवर्षोदकविक्षतेषु यानानि मार्गेषु न सम्पतन्ति॥१६॥
‘मानसरोवर में निवास के लोभी हंस वहाँ के लिये प्रस्थित हो गये। इस समय चकवे अपनी प्रियाओं से मिल रहे हैं। निरन्तर होने वाली वर्षा के जल से मार्ग टूट-फूट गये हैं, इसलिये उन पर रथ आदि नहीं चल रहे हैं॥ १६॥
क्वचित् प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति।
क्वचित् क्वचित् पर्वतसंनिरुद्धंरूपं यथा शान्तमहार्णवस्य॥१७॥
‘आकाश में सब ओर बादल छिटके हुए हैं। कहीं तो उन बादलों से ढक जाने के कारण आकाश दिखायी नहीं देता है और कहीं उनके फट जाने पर वह स्पष्ट दिखायी देने लगता है। ठीक उसी तरह जैसे जिसकी तरङ्गमालाएँ शान्त हो गयी हों, उस महासागर का रूप कहीं तो पर्वतमालाओं से छिप जाने के कारण नहीं दिखायी देता है और कहीं पर्वतों का आवरण न होने से दिखायी देता है॥ १७॥
व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पैनवं जलं पर्वतधातुताम्रम्।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति॥१८॥
‘इस समय पहाड़ी नदियाँ वर्षा के नूतन जल को बड़े वेग से बहा रही हैं। वह जल सर्ज और कदम्ब के फूलों से मिश्रित है, पर्वत के गेरू आदि धातुओं से लाल रंग का हो गया है तथा मयूरों की केका ध्वनि उस जल के कलकलनाद का अनुसरण कर रही है॥ १८॥
रसाकुलं षट्पदसंनिकाशं प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम्।
अनेकवर्ण पवनावधूतं भूमौ पतत्याम्रफलं विपक्वम्॥१९॥
‘काले-काले भौंरों के समान प्रतीत होने वाले जामुन के सरस फल आजकल लोग जी भरकर खाते हैं और हवा के वेग से हिले हुए आम के पके हुए बहुरंगी फल पृथ्वी पर गिरते रहते है॥ १९॥
विद्युत्पताकाः सबलाकमालाः शैलेन्द्रकूटाकृतिसंनिकाशाः।
गर्जन्ति मेघाः समुदीर्णनादा मत्ता गजेन्द्रा इव संयुगस्थाः ॥२०॥
‘जैसे युद्धस्थल में खड़े हुए मतवाले गजराज उच्चस्वर से चिग्घाड़ते हैं, उसी प्रकार गिरिराज के शिखरों की-सी आकृति वाले मेघ जोर-जोर से गर्जना कर रहे हैं। चमकती हुई बिजलियाँ इन मेघरूपी गजराजों पर पताकाओं के समान फहरा रही हैं और बगुलों की पंक्तियाँ माला के समान शोभा देती हैं। २०॥
वर्षोदकाप्यायितशाबलानि प्रवृत्तनृत्तोत्सवबर्हिणानि।
वनानि निर्वृष्टबलाहकानिपश्यापराणेष्वधिकं विभान्ति॥२१॥
‘देखो, अपराह्नकाल में इन वनों की शोभा अधिक बढ़ जाती है। वर्षा के जल से इनमें हरी-हरी घासें बढ़ गयी हैं। झुंड-के-झुंड मोरों ने अपना नृत्योत्सव आरम्भ कर दिया है और मेघों ने इनमें निरन्तर जल बरसाया है।
समुदहन्तः सलिलातिभारं बलाकिनो वारिधरा नदन्तः।
महत्सु शृङ्गेषु महीधराणां विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति॥ २२॥
‘बक-पंक्तियों से सुशोभित ये जलधर मेघ जल का अधिक भार ढोते और गर्जते हुए बड़े-बड़े पर्वत शिखरों पर मानो विश्राम ले-लेकर आगे बढ़ते हैं।॥ २२॥
मेघाभिकामा परिसम्पतन्ती सम्मोदिता भाति बलाकपंक्तिः।
वातावधूता वरपौण्डरीकी लम्बेव माला रुचिराम्बरस्य॥२३॥
‘गर्भ धारण के लिये मेघों की कामना रखकर आकाश में उड़ती हुई आनन्दमग्न बलाकाओं की पंक्ति ऐसी जान पड़ती है, मानो आकाश के गले में हवा से हिलती हुई श्वेत कमलों की सुन्दर माला लटक रही हो॥२३॥
बालेन्द्रगोपान्तरचित्रितेन विभाति भूमिर्नवशाबलेन।
गात्रानुपृक्तेन शुकप्रभेण नारीव लाक्षोक्षितकम्बलेन॥२४॥
‘छोटे-छोटे इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ों से बीच-बीच में चित्रित हुई नूतन घास से आच्छादित भूमि उस नारी के समान शोभा पाती है, जिसने अपने अङ्गों पर तोते के समान रंगवाला एक ऐसा कम्बल ओढ रखा हो, जिसको बीच-बीच में महावर के रंग से रँगकर विचित्र शोभा से सम्पन्न कर दिया गया हो। २४॥
निद्रा शनैः केशवमभ्युपैति द्रुतं नदी सागरमभ्युपैति।
हृष्टा बलाका घनमभ्युपैति कान्ता सकामा प्रियमभ्युपैति॥२५॥
‘चौमासे के इस आरम्भकाल में निद्रा धीरे-धीरे भगवान् केशव के समीप जा रही है। नदी तीव्र वेगसेसमुद्र के निकट पहुँच रही है। हर्षभरी बला का उड़कर मेघ की ओर जा रही है और प्रियतमा कामभाव से अपने प्रियतम की सेवा में उपस्थित हो रही है॥२५॥
जाता वनान्ताः शिखिसुप्रनृत्ता जाताः कदम्बाः सकदम्बशाखाः।
जाता वृषा गोषु समानकामा जाता मही सस्यवनाभिरामा॥२६॥
‘वनप्रान्त मोरों के सुन्दर नृत्य से सुशोभित हो गये हैं। कदम्बवृक्ष फूलों और शाखाओं से सम्पन्न हो गये हैं। साँड़ गौओं के प्रति उन्हीं के समान कामभाव से आसक्त हैं और पृथ्वी हरी-हरी खेती तथा हरे-भरे वनों से अत्यन्त रमणीय प्रतीत होने लगी है॥ २६ ॥
वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति ध्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवंगमाः॥२७॥
‘नदियाँ बह रही हैं, बादल पानी बरसा रहे हैं, मतवाले हाथी चिग्घाड़ रहे हैं, वनप्रान्त शोभा पा रहे हैं, प्रियतमा के संयोग से वञ्चित हुए वियोगी प्राणीचिन्तामग्न हो रहे हैं, मोर नाच रहे हैं और वानर निश्चिन्त एवं सुखी हो रहे हैं॥२७॥
प्रहर्षिताः केतकिपुष्पगन्धमाघ्राय मत्ता वननिर्झरेषु।
प्रपातशब्दाकुलिता गजेन्द्राः सार्धं मयूरैः समदा नदन्ति॥२८॥
‘वन के झरनों के समीप क्रीडा से उल्लसित हुए मदवर्षी गजराज केवड़े के फूल की सुगन्ध को सूंघकर मतवाले हो उठे हैं और झरने के जल के गिरने से जो शब्द होता है, उससे आकुल हो ये मोरों के बोलने के साथ-साथ स्वयं भी गर्जना करते हैं॥२८॥
धारानिपातैरभिहन्यमानाः कदम्बशाखासु विलम्बमानाः।
क्षणार्जितं पुष्परसावगाढं शनैर्मदं षट्चरणास्त्यजन्ति॥ २९॥
‘जल की धारा गिरने से आहत होते और कदम्ब की डालियों पर लटकते हुए भ्रमर तत्काल ग्रहण किये पुष्परस से उत्पन्न गाढ़ मद को धीरे-धीरे त्याग रहे हैं।
अङ्गारचूर्णोत्करसंनिकाशैः फलैः सुपर्याप्तरसैः समृद्धैः।
जम्बूद्रुमाणां प्रविभान्ति शाखा निपीयमाना इव षट्पदौघैः॥३०॥
‘कोयलों की चूर्णराशि के समान काले और प्रचुर रस से भरे हुए बड़े-बड़े फलों से लदी हुई जामुनवृक्ष की शाखाएँ ऐसी जान पड़ती हैं, मानो भ्रमरों के समुदाय उनमें सटकर उनके रस पी रहे हैं॥ ३० ॥
तडित्पताकाभिरलंकृतानामुदीर्णगम्भीरमहारवाणाम्।
विभान्ति रूपाणि बलाहकानां रणोत्सुकानामिव वारणानाम्॥३१॥
‘विद्युत्-रूपी पताकाओं से अलंकृत एवं जोर-जोर से गम्भीर गर्जना करने वाले इन बादलों के रूपयुद्ध के लिये उत्सुक हुए गजराजों के समान प्रतीत होते हैं। ३१॥
मार्गानुगः शैलवनानुसारी सम्प्रस्थितो मेघरवं निशम्य।
युद्धाभिकामः प्रतिनादशङ्की मत्तो गजेन्द्रः प्रतिसंनिवृत्तः॥३२॥
‘पर्वतीय वनों में विचरण करने वाला तथा अपने प्रतिद्वन्द्वी के साथ युद्ध की इच्छा रखने वाला मदमत्तगजराज, जो अपने मार्ग का अनुसरण करके आगे बढ़ा जा रहा था, पीछे से मेघ की गर्जना सुनकर प्रतिपक्षी हाथी के गर्जने की आशङ्का करके सहसा पीछे को लौट पड़ा ॥ ३२॥
क्वचित् प्रगीता इव षट्पदौघैः क्वचित् प्रनृत्ता इव नीलकण्ठैः।
क्वचित् प्रमत्ता इव वारणेन्द्रविभान्त्यनेकाश्रयिणो वनान्ताः॥३३॥
‘कहीं भ्रमरों के समूह गीत गा रहे हैं, कहीं मोर नाच रहे हैं और कहीं गजराज मदमत्त होकर विचर रहे हैं। इस प्रकार ये वनप्रान्त अनेक भावों के आश्रय बनकर शोभा पा रहे हैं॥ ३३॥
कदम्बसर्जार्जुनकन्दलाढ्या वनान्तभूमिर्मधुवारिपूर्णा।
मयूरमत्ताभिरुतप्रनृत्तैरापानभूमिप्रतिमा विभाति॥३४॥
‘कदम्ब, सर्ज, अर्जुन और स्थल-कमल से सम्पन्न वन के भीतर की भूमि मधु-जल से परिपूर्ण हो मोरों के मदयुक्त कलरवों और नृत्यों से उपलक्षित होकर आपानभूमि (मधुशाला) के समान प्रतीत होती है। ३४॥
मुक्तासमाभं सलिलं पतद् वै सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम्।
हृष्टा विवर्णच्छदना विहंगाः सुरेन्द्रदत्तं तृषिताः पिबन्ति॥ ३५॥
‘आकाश से गिरता हुआ मोती के समान स्वच्छ एवं निर्मल जल पत्तों के दोनों में संचित हुआ देख प्यासे पक्षी पपीहे हर्ष से भरकर देवराज इन्द्र के दिये हुए उस जल को पीते हैं। वर्षा से भीग जाने के कारण उनकी पाँखें विविध रंग की दिखायी देती हैं॥ ३५॥
षट्पादतन्त्रीमधुराभिधानं प्लवंगमोदीरितकण्ठतालम्।
आविष्कृतं मेघमृदङ्गनादै वनेषु संगीतमिव प्रवृत्तम्॥३६॥
‘भ्रमररूप वीणा की मधुर झंकार हो रही है। मेढकों की आवाज कण्ठताल-सी जान पड़ती है। मेघों की गर्जना के रूप में मृदङ्ग बज रहे हैं। इस प्रकार वनों में संगीतोत्सव का आरम्भ-सा हो रहा है॥ ३६॥
क्वचित् प्रनृत्तैः क्वचिदुन्नदद्भिःक्वचिच्च वृक्षाग्रनिषण्णकायैः।
व्यालम्बबर्हाभरणैर्मयूरै र्वनेषु संगीतमिव प्रवृत्तम्॥ ३७॥
‘विशाल पंखरूपी आभूषणों से विभूषित मोर वनों में कहीं नाच रहे हैं, कहीं जोर-जोर से मीठी बोली बोल रहे हैं और कहीं वृक्षों की शाखाओं पर अपने सारे शरीर का बोझ डालकर बैठे हुए हैं। इस प्रकार उन्होंने संगीत (नाच-गान) का आयोजन-सा कर रखा है। ३७॥
स्वनैर्घनानां प्लवगाः प्रबुद्धा विहाय निद्रां चिरसंनिरुद्धाम्।
अनेकरूपाकृतिवर्णनादा नवाम्बुधाराभिहता नदन्ति॥३८॥
‘मेघों की गर्जना सुनकर चिरकाल से रोकी हुई निद्रा को त्यागकर जागे हुए अनेक प्रकार के रूप, आकार, वर्ण और बोली वाले मेढक नूतन जल की धारा से अभिहत होकर जोर-जोरसे बोल रहे हैं॥ ३८ ॥
नद्यः समुद्राहितचक्रवाकास्तटानि शीर्णान्यपवाहयित्वा।
दृप्ता नवप्रावृतपूर्णभोगादृतं स्वभर्तारमुपोपयान्ति॥३९॥
(कामातुर युवतियों की भाँति) दर्पभरी नदियाँ अपने वक्ष पर (उरोजों के स्थान में) चक्रवाकों को वहन करती हैं और मर्यादा में रखने वाले जीर्ण-शीर्ण कूलकगारों को तोड़-फोड़ एवं दूर बहाकर नूतन पुष्प आदि के उपहार से पूर्ण भोग के लिये सादर स्वीकृत अपने स्वामी समुद्र के समीप वेगपूर्वक चली जा रही हैं॥ ३९॥
नीलेषु नीला नववारिपूर्णा मेघेषु मेघाः प्रतिभान्ति सक्ताः।
दवाग्निदग्धेषु दवाग्निदग्धाः शैलेषु शैला इव बद्धमूलाः॥४०॥
‘नीले मेघों में सटे हुए नूतन जल से परिपूर्ण नील मेघ ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो दावानल से जले हुए पर्वतों में दावानल से दग्ध हुए दूसरे पर्वत बद्धमूल होकर सट गये हों॥ ४०॥
प्रमत्तसंनादितबर्हिणानि सशक्रगोपाकुलशादलानि।
चरन्ति नीपार्जुनवासितानि गजाः सुरम्याणि वनान्तराणि॥४१॥
‘जहाँ मतवाले मोर कलनाद कर रहे हैं, जहाँ की हरी-हरी घासें वीरबहूटियों के समुदाय से व्याप्त हो रही हैं तथा जो नीप और अर्जुन-वृक्षों के फूलों की सुगन्ध से सुवासित हैं, उन परम रमणीय वनप्रान्तों में बहुत-से हाथी विचरा करते हैं॥ ४१॥
नवाम्बुधाराहतकेसराणि द्रुतं परित्यज्य सरोरुहाणि।
कदम्बपुष्पाणि सकेसराणि नवानि हृष्टा भ्रमराः पिबन्ति॥४२॥
‘भ्रमरों के समुदाय नूतन जल की धारा से नष्ट हुए केसरवाले कमल-पुष्पों को तुरंत त्यागकर केसरशोभित नवीन कदम्ब-पुष्पों का रस बड़े हर्ष के साथ पी रहे हैं। ४२॥
मत्ता गजेन्द्रा मुदिता गवेन्द्रा वनेषु विक्रान्ततरा मृगेन्द्राः।
रम्या नगेन्द्राः निभृता नरेन्द्राः प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः॥४३॥
‘गजेन्द्र (हाथी) मतवाले हो रहे हैं। गवेन्द्र (वृषभ) आनन्द में मग्न हैं, मृगेन्द्र (सिंह) वन में अत्यन्त पराक्रम प्रकट करते हैं, नगेन्द्र (बड़े-बड़े पर्वत) रमणीय दिखायी देते हैं, नरेन्द्र (राजालोग) मौन हैं युद्ध विषयक उत्साह छोड़ बैठे हैं और सुरेन्द्र (इन्द्रदेव) जलधरों के साथ क्रीडा कर रहे हैं। ४३॥
मेघाः समुद्भूतसमुद्रनादा महाजलौघैर्गगनावलम्बाः।
नदीस्तटाकानि सरांसि वापीमहीं च कृत्स्नामपवाहयन्ति॥४४॥
‘आकाश में लटके हुए ये मेघ अपनी गर्जना से समुद्र के कोलाहल को तिरस्कृत करके अपने जल के महान् प्रवाहसे नदी, तालाब, सरोवर, बावली तथा समूची पृथ्वी को आप्लावित कर रहे हैं। ४४॥
वर्षप्रवेगा विपुलाः पतन्ति प्रवान्ति वाताः समुदीर्णवेगाः।
प्रणष्टकूलाः प्रवहन्ति शीघ्रं नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः॥४५॥
‘बड़े वेग से वर्षा हो रही है, जोरों की हवा चल रही है और नदियाँ अपने कगारों को काटकर अत्यन्त तीव्र गति से जल बहा रही हैं। उन्होंने मार्ग रोक दिये हैं।
नरैर्नरेन्द्रा इव पर्वतेन्द्राःसुरेन्द्रदत्तैः पवनोपनीतैः।
घनाम्बुकुम्भैरभिषिच्यमाना रूपं श्रियं स्वामिव दर्शयन्ति॥४६॥
‘जैसे मनुष्य जल के कलशों से नरेशों का अभिषेक करते हैं, उसी प्रकार इन्द्र के दिये और वायुदेव के द्वारा लाये गये मेघरूपी जल-कलशों से जिनका अभिषेक हो रहा है, वे पर्वतराज अपने निर्मल रूप तथा शोभा सम्पत्ति का दर्शन-सा करा रहे हैं॥ ४६॥
घनोपगूढं गगनं न तारा न भास्करो दर्शनमभ्युपैति।
नवैर्जलौघैर्धरणी वितृप्ता तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः॥४७॥
‘मेघों की घटा से समस्त आकाश आच्छादित हो गया है। न रात में तारे दिखायी देते हैं, न दिन में सूर्य नूतन जलराशि पाकर पृथ्वी पूर्ण तृप्त हो गयी है। दिशाएँ अन्धकार से आच्छन्न हो रही हैं, अतएव प्रकाशित नहीं होती हैं उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है॥४७॥
महान्ति कूटानि महीधराणां धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातैर्मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः॥४८॥
‘जल की धाराओं से घुले हुए पर्वतों के विशाल शिखर मोतियों के लटकते हुए हारों की भाँति एवं बहुसंख्यक झरनों के कारण अधिक शोभा पाते हैं। ४८॥
शैलोपलप्रस्खलमानवेगाः शैलोत्तमानां विपुलाः प्रपाताः।
गुहासु संनादितबर्हिणासु हारा विकीर्यन्त इवावभान्ति॥४९॥
‘पर्वतीय प्रस्तरखण्डों पर गिरने से जिनका वेग टूट गया है, वे श्रेष्ठ पर्वतों के बहुतेरे झरने मयूरों की बोली से गूंजती हुई गुफाओं में टूटकर बिखरते हुए मोतियों के हारों के समान प्रतीत होते हैं॥ ४९॥
शीघ्रप्रवेगा विपुलाः प्रपाता निधीतशृङ्गोपतला गिरीणाम्।
मुक्ताकलापप्रतिमाः पतन्तो महागुहोत्सङ्गतलैर्धियन्ते॥५०॥
‘जिनके वेग शीघ्रगामी हैं, जिनकी संख्या अधिक है, जिन्होंने पर्वतीय शिखरों के निम्न प्रदेशों को धोकर स्वच्छ बना दिया है तथा जो देखने में मुक्तामालाओं के समान प्रतीत होते हैं, पर्वतों के उन झरते हुए झरनों को बड़ी-बड़ी गुफाएँ अपनी गोद में धारण कर लेती हैं।
सुरतामर्दविच्छिन्नाः स्वर्गस्त्रीहारमौक्तिकाः।
पतन्ति चातुला दिक्षु तोयधाराः समन्ततः॥५१॥
‘सुरत-क्रीडा के समय होने वाले अङ्गों के आमर्दन से टूटे हुए देवाङ्गनाओं के मौक्तिक हारों के समान प्रतीत होने वाली जल की अनुपम धाराएँ सम्पूर्ण दिशाओं में सब ओर गिर रही हैं। ५१॥
विलीयमानैर्विहगैर्निमीलद्भिश्च पङ्कजैः।
विकसन्त्या च मालत्या गतोऽस्तं ज्ञायते रविः॥ ५२॥
‘पक्षी अपने घोसलों में छिप रहे हैं, कमल संकुचित हो रहे हैं और मालती खिलने लगी है; इससे जान पड़ता है कि सूर्यदेव अस्त हो गये॥५२॥
वृत्ता यात्रा नरेन्द्राणां सेना पथ्येव वर्तते।
वैराणि चैव मार्गाश्च सलिलेन समीकृताः॥ ५३॥
‘राजाओं की युद्ध-यात्रा रुक गयी। प्रस्थित हुई सेना भी रास्ते में ही पड़ाव डाले पड़ी है। वर्षा के जलने राजाओं के वैर शान्त कर दिये हैं और मार्ग भी रोक दिये हैं। इस प्रकार वैर और मार्ग दोनों की एक-सी अवस्था कर दी है॥ ५३॥
मासि प्रौष्ठपदे ब्रह्म ब्राह्मणानां विवक्षताम्।
अयमध्यायसमयः सामगानामुपस्थितः॥५४॥
‘भादों का महीना आ गया। यह वेदों के स्वाध्याय की इच्छा रखने वाले ब्राह्मणों के लिये उपाकर्म का समय उपस्थित हुआ है। सामगान करने वाले विद्वानों के स्वाध्याय का भी यही समय है। ५४॥
निवृत्तकर्मायतनो नूनं संचितसंचयः।
आषाढीमभ्युपगतो भरतः कोसलाधिपः॥५५॥
‘कोसलदेश के राजा भरत ने चार महीने के लिये आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करके गत आषाढ की पूर्णिमा को निश्चय ही किसी उत्तम व्रत की दीक्षा ली होगी॥ ५५॥
नूनमापूर्यमाणायाः सरय्वा वर्धते रयः।
मां समीक्ष्य समायान्तमयोध्याया इव स्वनः॥ ५६॥
‘मुझे वन की ओर आते देख जिस प्रकार अयोध्यापुरी के लोगों का आर्तनाद बढ़ गया था, उसी प्रकार इस समय वर्षा के जल से परिपूर्ण होती हुई सरयू नदी का वेग अवश्य ही बढ़ रहा होगा॥५६॥
इमाः स्फीतगुणा वर्षाः सुग्रीवः सुखमश्नुते।
विजितारिः सदारश्च राज्ये महति च स्थितः॥ ५७॥
‘यह वर्षा अनेक गुणों से सम्पन्न है। इस समय सुग्रीव अपने शत्रु को परास्त करके विशाल वानर राज्य पर प्रतिष्ठित हैं और अपनी स्त्री के साथ रहकर सुख भोग रहे हैं॥ ५७॥
अहं तु हृतदारश्च राज्याच्च महतश्च्युतः।
नदीकूलमिव क्लिन्नमवसीदामि लक्ष्मण ॥५८॥
‘किंतु लक्ष्मण ! मैं अपने महान् राज्य से तो भ्रष्ट हो ही गया हूँ, मेरी स्त्री भी हर ली गयी है; इसलिये पानी से गले हुए नदी के तट की भाँति कष्ट पा रहा हूँ।
शोकश्च मम विस्तीर्णो वर्षाश्च भृशदुर्गमाः।
रावणश्च महाञ्छत्रुरपारः प्रतिभाति मे॥५९॥
‘मेरा शोक बढ़ गया है। मेरे लिये वर्षा के दिनों को बिताना अत्यन्त कठिन हो गया है और मेरा महान् शत्रु रावण भी मुझे अजेय-सा प्रतीत होता है॥ ५९॥
अयात्रां चैव दृष्ट्वेमां मार्गांश्च भृशदुर्गमान्।
प्रणते चैव सुग्रीवे न मया किंचिदीरितम्॥६०॥
‘एक तो यह यात्राका समय नहीं है, दूसरे मार्ग भी अत्यन्त दुर्गम है। इसलिये सुग्रीव के नतमस्तक होने पर भी मैंने उनसे कुछ कहा नहीं है॥ ६० ॥
अपि चापि परिक्लिष्टं चिराद् दारैः समागतम्।
आत्मकार्यगरीयस्त्वाद् वक्तुं नेच्छामि वानरम्॥
‘वानर सुग्रीव बहुत दिनों से कष्ट भोगते थे और दीर्घकाल के पश्चात् अब अपनी पत्नी से मिले हैं। इधर मेरा कार्य बड़ा भारी है (थोड़े दिनों में सिद्ध होने वाला नहीं है); इसलिये मैं इस समय उससे कुछ कहना नहीं चाहता हूँ॥
स्वयमेव हि विश्रम्य ज्ञात्वा कालमुपागतम्।
उपकारं च सुग्रीवो वेत्स्यते नात्र संशयः॥६२॥
‘कुछ दिनों तक विश्राम करके उपयुक्त समय आया हुआ जान वे स्वयं ही मेरे उपकार को समझेंगे; इसमें संशय नहीं है॥ ६२॥
तस्मात् कालप्रतीक्षोऽहं स्थितोऽस्मि शुभलक्षण।
सुग्रीवस्य नदीनां च प्रसादमभिकांक्षयन्॥६३॥
‘अतः शुभलक्षण लक्ष्मण! मैं सुग्रीव की प्रसन्नता और नदियों के जल की स्वच्छता चाहता हुआ शरत्काल की प्रतीक्षा में चुपचाप बैठा हुआ हूँ॥ ६३॥
उपकारेण वीरो हि प्रतीकारेण युज्यते।
अकृतज्ञोऽप्रतिकृतो हन्ति सत्त्ववतां मनः॥६४॥
‘जो वीर पुरुष किसी के उपकार से उपकृत होता है, वह प्रत्युपकार करके उसका बदला अवश्य चुकाता है; किंतु यदि कोई उपकार को न मानकर या भुलाकर प्रत्युपकार से मुँह मोड़ लेता है, वह शक्तिशाली श्रेष्ठ पुरुषों के मन को ठेस पहुँचाता है’॥ ६४॥
अथैवमुक्तः प्रणिधाय लक्ष्मणः कृताञ्जलिस्तत् प्रतिपूज्य भाषितम्।
उवाच रामं स्वभिरामदर्शनं प्रदर्शयन् दर्शनमात्मनः शुभम्॥६५॥
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर लक्ष्मण ने सोचविचारकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और दोनों हाथ जोड़कर अपनी शुभ दृष्टि का परिचय देते हुए वे नयनाभिराम श्रीराम से इस प्रकार बोले॥६५॥
यदुक्तमेतत् तव सर्वमीप्सितं नरेन्द्र कर्ता नचिराद्धरीश्वरः।
शरत्प्रतीक्षः क्षमतामिमं भवान् जलप्रपातं रिपुनिग्रहे धृतः॥६६॥
‘नरेश्वर! जैसा कि आपने कहा है, वानरराज सुग्रीव शीघ्र ही आपका यह सारा मनोरथ सिद्ध करेंगे। अतः आप शत्रु के संहार करने का दृढ़ निश्चय लिये शरत्काल की प्रतीक्षा कीजिये और इस वर्षाकाल के विलम्ब को सहन कीजिये॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डेऽष्टाविंशः सर्गः॥२८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२८॥
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