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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 29 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 29

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
एकोनत्रिंशः सर्गः (सर्ग 29)

हनुमान जी के समझाने से सुग्रीव का नील को वानर-सैनिकों को एकत्र करने का आदेश देना

 

समीक्ष्य विमलं व्योम गतविद्युबलाहकम्।
सारसाकुलसंघुष्टं रम्यज्योत्स्नानुलेपनम्॥१॥
समृद्धार्थं च सुग्रीवं मन्दधर्मार्थसंग्रहम्।
अत्यर्थं चासतां मार्गमेकान्तगतमानसम्॥२॥
निवृत्तकार्यं सिद्धार्थं प्रमदाभिरतं सदा।
प्राप्तवन्तमभिप्रेतान् सर्वानेव मनोरथान्॥३॥
स्वां च पत्नीमभिप्रेतां तारां चापि समीप्सिताम्।
विहरन्तमहोरात्रं कृतार्थं विगतज्वरम्॥४॥
क्रीडन्तमिव देवेशं गन्धर्वाप्सरसां गणैः।
मन्त्रिषु न्यस्तकार्यं च मन्त्रिणामनवेक्षकम्॥५॥
उच्छिन्नराज्यसंदेहं कामवृत्तमिव स्थितम्।
निश्चितार्थोऽर्थतत्त्वज्ञः कालधर्मविशेषवित्॥६॥
प्रसाद्य वाक्यैर्विविधैर्हेतुमद्भिर्मनोरमैः।
वाक्यविद् वाक्यतत्त्वज्ञं हरीशं मारुतात्मजः॥ ७॥
हितं तथ्यं च पथ्यं च सामधर्मार्थनीतिमत्।
प्रणयप्रीतिसंयुक्तं विश्वासकृतनिश्चयम्॥८॥
हरीश्वरमुपागम्य हनूमान् वाक्यमब्रवीत्।

पवनकुमार हनुमान् शास्त्र के निश्चित सिद्धान्त को जानने वाले थे क्या करना चाहिये और क्या नहीं— इन सभी बातों का उन्हें यथार्थ ज्ञान था। किस समय किस विशेष धर्म का पालन करना चाहिये—इसको भी वे ठीक-ठीक समझते थे। उन्हें बातचीत करने की कला का भी अच्छा ज्ञान था। उन्होंने देखा, आकाश निर्मल हो गया है। अब उसमें न तो बिजली चमकती है और न बादल ही दिखायी देते हैं। अन्तरिक्ष में सब ओर सारस उड़ रहे हैं और उनकी बोली सुनायी देती है। (चन्द्रोदय होने पर) आकाश ऐसा जान पड़ता है, मानो उस पर श्वेत चन्दनसदृश रमणीय चाँदनी का लेप चढ़ा दिया गया हो। सुग्रीव का प्रयोजन सिद्ध हो जाने के कारण अब वे धर्म और अर्थ के संग्रह में शिथिलता दिखाने लगे हैं। असाधु पुरुषों के मार्ग (कामसेवन) का ही अधिक आश्रय ले रहे हैं। एकान्त में ही (जहाँ स्त्रियों के सङ्ग में कोई बाधा न पड़े) उनका मन लगता है। उनका काम पूरा हो गया है। उनके अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि हो चुकी है। अब वे सदा युवती स्त्रियों के साथ क्रीडा-विलास में ही लगे रहते हैं। उन्होंने अपने सारे अभिलषित मनोरथों को प्राप्त कर लिया है। अपनी मनोवाञ्छित पत्नी रुमा तथा अभीष्ट सुन्दरी तारा को भी प्राप्त करके अब वे कृतकृत्य एवं निश्चिन्त होकर दिन-रात भोगविलास में लगे रहते हैं। जैसे देवराज इन्द्र गन्धर्वो और अप्सराओं के समुदाय के साथ क्रीडा में तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार सुग्रीव भी अपने मन्त्रियों पर राजकार्य का भार रखकर क्रीडा-विहार में तत्पर हैं। मन्त्रियों के कार्यों की देखभाल वे कभी नहीं करते हैं। मन्त्रियों की सज्जनता के कारण यद्यपि राज्य को किसी प्रकार की हानि पहुँचने का संदेह नहीं है, तथापि स्वयं सुग्रीव ही स्वेच्छाचारी-से हो रहे हैं। यह सब सोचकर हनुमान जी वानरराज सुग्रीवके पास गये और उन्हें युक्तियुक्त विविध एवं मनोरम वचनों के द्वारा प्रसन्न करके बातचीत का मर्म समझने वाले उन सुग्रीव से हितकर, सत्य, लाभदायक, साम, धर्म और अर्थ-नीति से युक्त, शास्त्रविश्वासी पुरुषों के सुदृढ़ निश्चय से सम्पन्न तथा प्रेम और प्रसन्नता से भरे वचन बोले॥१–८ १/२॥

राज्यं प्राप्तं यशश्चैव कौली श्रीरभिवर्धिता॥९॥
मित्राणां संग्रहः शेषस्तद् भवान् कर्तुमर्हति।

‘राजन्! आपने राज्य और यश प्राप्त कर लिया तथा कुलपरम्परा से आयी हुई लक्ष्मी को भी बढ़ाया; किंतु अभी मित्रों को अपनाने का कार्य शेष रह गया है, उसे आपको इस समय पूर्ण करना चाहिये॥९ १/२॥

यो हि मित्रेषु कालज्ञः सततं साधु वर्तते॥१०॥
तस्य राज्यं च कीर्तिश्च प्रतापश्चापि वर्धते।

‘जो राजा ‘कब प्रत्युपकार करना चाहिये’ इस बात को जानकर मित्रों के प्रति सदा साधुतापूर्ण बर्ताव करता है, उसके राज्य, यश और प्रतापकी वृद्धि होती है।

यस्य कोशश्च दण्डश्च मित्राण्यात्मा च भूमिप।
समान्येतानि सर्वाणि स राज्यं महदश्नुते॥११॥

‘पृथ्वीनाथ! जिस राजा का कोश, दण्ड (सेना), मित्र और अपना शरीर—ये सब-के-सब समान रूप से उसके वश में रहते हैं, वह विशाल राज्य का पालन एवं उपभोग करता है॥ ११॥

तद् भवान् वृत्तसम्पन्नः स्थितः पथि निरत्यये।
मित्रार्थमभिनीतार्थं यथावत् कर्तुमर्हति॥१२॥

‘आप सदाचार से सम्पन्न और नित्य सनातन धर्म के मार्ग पर स्थित हैं; अतः मित्र के कार्य को सफल बनाने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसे यथोचित रूप से पूर्ण कीजिये॥

संत्यज्य सर्वकर्माणि मित्रार्थे यो न वर्तते।
सम्भ्रमाद् विकृतोत्साहः सोऽन, वरुध्यते॥

‘जो अपने सब कार्यों को छोड़कर मित्र का कार्य सिद्ध करने के लिये विशेष उत्साहपूर्वक शीघ्रता के साथ नहीं लग जाता है, उसे अनर्थ का भागी होना पड़ता है।

यो हि कालव्यतीतेषु मित्रकार्येषु वर्तते।
स कृत्वा महतोऽप्यर्थान्न मित्रार्थेन युज्यते॥ १४॥

‘कार्यसाधन का उपयुक्त अवसर बीत जाने के बाद जो मित्र के कार्यों में लगता है, वह बड़े-से-बड़े कार्यों को सिद्ध करके भी मित्र के प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला नहीं माना जाता है॥ १४ ॥

तदिदं मित्रकार्यं नः कालातीतमरिंदम।
क्रियतां राघवस्यैतद् वैदेह्याः परिमार्गणम्॥ १५॥

‘शत्रुदमन! भगवान् श्रीराम हमारे परम सुहृद् हैं। उनके इस कार्य का समय बीता जा रहा है; अतः विदेहकुमारी सीता की खोज आरम्भ कर देनी चाहिये॥

न च कालमतीतं ते निवेदयति कालवित्।
त्वरमाणोऽपि स प्राज्ञस्तव राजन् वशानुगः॥ १६॥

‘राजन् ! परम बुद्धिमान् श्रीराम समय का ज्ञान रखते हैं और उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के लिये जल्दी लगी हुई है, तो भी वे आपके अधीन बने हुए हैं। संकोचवश आपसे नहीं कहते कि मेरे कार्य का समय बीत रहा है॥१६॥

कुलस्य हेतुः स्फीतस्य दीर्घबन्धुश्च राघवः।
अप्रमेयप्रभावश्च स्वयं चाप्रतिमो गुणैः॥१७॥
तस्य त्वं कुरु वै कार्यं पूर्वं तेन कृतं तव।
हरीश्वर कपिश्रेष्ठानाज्ञापयितुमर्हसि ॥१८॥

‘वानरराज! भगवान् श्रीराम चिरकाल तक मित्रता निभाने वाले हैं। वे आपके समृद्धिशाली कुल के अभ्युदय के हेतु हैं। उनका प्रभाव अतुलनीय है। वे गुणों में अपना शानी नहीं रखते हैं। अब आप उनका कार्य सिद्ध कीजिये; क्योंकि उन्होंने आपका काम पहले ही सिद्ध कर दिया है। आप प्रधान-प्रधान वानरों को इस कार्य के लिये आज्ञा दीजिये॥ १७-१८ ॥

नहि तावद् भवेत् कालो व्यतीतश्चोदनादृते।
चोदितस्य हि कार्यस्य भवेत् कालव्यतिक्रमः॥ १९॥

‘श्रीरामचन्द्रजी के कहने के पहले ही यदि हमलोग कार्य प्रारम्भ कर दें तो समय बीता हुआ नहीं माना जायगा; किंतु यदि उन्हें इसके लिये प्रेरणा करनी पड़ी तो यही समझा जायगा कि हमने समय बिता दिया है— उनके कार्य में बहुत विलम्ब कर दिया है। १९॥

अकर्तुरपि कार्यस्य भवान् कर्ता हरीश्वर।
किं पुनः प्रतिकर्तुस्ते राज्येन च वधेन च॥२०॥

वानरराज! जिसने आपका कोई उपकार नहीं किया हो, उसका कार्य भी आप सिद्ध करने वाले हैं फिर जिन्होंने वाली का वध तथा राज्य प्रदान करके आपका उपकार किया है, उनका कार्य आप शीघ्र सिद्ध करें, इसके लिये तो कहना ही क्या है॥ २० ॥

शक्तिमानतिविक्रान्तो वानरसंगणेश्वर।
कर्तुं दाशरथेः प्रीतिमाज्ञायां किं नु सज्जसे॥ २१॥

‘वानर और भालू-समुदाय के स्वामी सुग्रीव! आप शक्तिमान् और अत्यन्त पराक्रमी हैं; फिर भी दशरथनन्दन श्रीराम का प्रिय कार्य करने के लिये वानरों को आज्ञा देने में क्यों विलम्ब करते हैं? ॥ २१ ॥

कामं खलु शरैः शक्तः सुरासुरमहोरगान्।
वशे दाशरथिः कर्तुं त्वत्प्रतिज्ञामवेक्षते॥२२॥

‘इसमें संदेह नहीं कि दशरथकुमार भगवान् श्रीराम अपने बाणों से समस्त देवताओं, असुरों और बड़े बड़े नागों को भी अपने वश में कर सकते हैं, तथापि आपने जो उनके कार्य को सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की है, उसी की वे राह देख रहे हैं॥ २२ ॥

प्राणत्यागाविशंकेन कृतं तेन महत् प्रियम्।
तस्य मार्गाम वैदेहीं पृथिव्यामपि चाम्बरे ॥ २३॥

‘उन्हें आपके लिये वाली के प्राण तक लेने में हिचक नहीं हुई। वे आपका बहुत बड़ा प्रिय कार्य कर चुके हैं; अतः अब हमलोग उनकी पत्नी विदेहकुमारी सीता का इस भूतल पर और आकाश में भी पता लगावें॥

देवदानवगन्धर्वा असुराः समरुद्गणाः।
न च यक्षा भयं तस्य कुर्युः किमिव राक्षसाः॥ २४॥

‘देवता, दानव, गन्धर्व, असुर, मरुद्गण तथा यक्ष भी श्रीराम को भय नहीं पहुँचा सकते; फिर राक्षसों की तो बिसात ही क्या है॥२४॥

तदेवं शक्तियुक्तस्य पूर्वं प्रतिकृतस्तथा।
रामस्यार्हसि पिङ्गेश कर्तुं सर्वात्मना प्रियम्॥ २५॥

‘वानरराज! ऐसे शक्तिशाली तथा पहले ही उपकार करने वाले भगवान् श्रीराम का प्रिय कार्य आपको अपनी सारी शक्ति लगाकर करना चाहिये॥२५॥

नाधस्तादवनौ नाप्सु गतिर्नोपरि चाम्बरे।
कस्यचित् सज्जतेऽस्माकं कपीश्वर तवाज्ञया॥ २६॥

‘कपीश्वर! आपकी आज्ञा हो जाय तो जल में, थल में, नीचे (पातालमें) तथा ऊपर आकाश में— कहीं भी हम लोगों की गति रुक नहीं सकती॥ २६॥

तदाज्ञापय कः किं ते कुतो वापि व्यवस्यतु।
हरयो ह्यप्रधृष्यास्ते सन्ति कोट्यग्रतोऽनघ॥२७॥

‘निष्पाप कपिराज! अतः आप आज्ञा दीजिये कि कौन कहाँ से आपकी किस आज्ञा का पालन करने के लिये उद्योग करे। आपके अधीन करोड़ों से भी अधिक ऐसे वानर मौजूद हैं, जिन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता’॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा काले साधु निरूपितम्।
सुग्रीवः सत्त्वसम्पन्नश्चकार मतिमुत्तमाम्॥२८॥

सुग्रीव सत्त्वगुण से सम्पन्न थे। उन्होंने हनुमान जी के द्वारा ठीक समय पर अच्छे ढंग से कही हुई उपर्युक्त बातें सुनकर भगवान् श्रीराम का कार्य सिद्ध करने के लिये अत्यन्त उत्तम निश्चय किया॥२८॥

संदिदेशातिमतिमान् नीलं नित्यकृतोद्यमम्।
दिक्षु सर्वासु सर्वेषां सैन्यानामुपसंग्रहे ॥ २९॥
यथा सेना समग्रा मे यूथपालाश्च सर्वशः।
समागच्छन्त्यसलेन सेनापये ण तथा कुरु॥३०॥

वे परम बुद्धिमान् थे। अतः नित्य उद्यमशील नील नामक वानर को उन्होंने समस्त दिशाओं से सम्पूर्ण वानर-सेनाओं को एकत्र करने के लिये आज्ञा दी और कहा—’तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे मेरी सारी सेना यहाँ इकट्ठी हो जाय और सभी यूथपति अपनी सेना एवं सेनापतियों के साथ अविलम्ब उपस्थित हो जायँ॥ २९-३०॥

ये त्वन्तपालाः प्लवगाः शीघ्रगा व्यवसायिनः।
समानयन्तु ते शीघ्रं त्वरिताः शासनान्मम।
स्वयं चानन्तरं कार्यं भवानेवानुपश्यतु॥३१॥

‘राज्य-सीमा की रक्षा करने वाले जो-जो उद्योगी और शीघ्रगामी वानर हैं, वे सब मेरी आज्ञा से शीघ्र यहाँ आ जायें। उसके बाद जो कुछ कर्तव्य हो, उसपर तुम स्वयं ही ध्यान दो॥ ३१॥

त्रिपञ्चरात्रादूर्ध्वं यः प्राप्नुयादिह वानरः।
तस्य प्राणान्तिको दण्डो नात्र कार्या विचारणा॥ ३२॥

‘जो वानर पंद्रह दिनों के बाद यहाँ पहुँचेगा, उसे प्राणान्त दण्ड दिया जायगा। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये॥ ३२॥

हरीश्च वृद्धानुपयातु साङ्गदो भवान् ममाज्ञामधिकृत्य निश्चितम्।
इति व्यवस्थां हरिपुङ्गवेश्वरो विधाय वेश्म प्रविवेश वीर्यवान्॥३३॥

‘यह मेरी निश्चित आज्ञा है। इसके अनुसार इस व्यवस्थाका अधिकार लेकर अङ्गद के साथ तुम स्वयं बड़े-बूढ़े वानरों के पास जाओ।’ ऐसा प्रबन्ध करके महाबली वानरराज सुग्रीव अपने महल में चले गये॥ ३३॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः ॥२९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में उन्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२९॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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