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वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 3 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 3

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
तृतीयः सर्गः (सर्ग 3)

हनुमान जी का श्रीराम और लक्ष्मण से वन में आने का कारण पूछना और अपना तथा सुग्रीव का परिचय देना

 

वचो विज्ञाय हनुमान् सुग्रीवस्य महात्मनः।
पर्वतादृष्यमूकात् तु पुप्लुवे यत्र राघवौ॥१॥

महात्मा सुग्रीव के कथन का तात्पर्य समझकर हनुमान जी ऋष्यमूक पर्वत से उस स्थान की ओर उछलते हुए चले, जहाँ वे दोनों रघुवंशी बन्धु विराजमान थे॥

कपिरूपं परित्यज्य हनुमान् मारुतात्मजः।
भिक्षुरूपं ततो भेजे शठबुद्धितया कपिः॥२॥

पवनकुमार वानरवीर हनुमान् ने यह सोचकर कि मेरे इस कपिरूप पर किसी का विश्वास नहीं जम सकता, अपने उस रूप का परित्याग करके भिक्षु (सामान्य तपस्वी) का रूप धारण कर लिया॥२॥

ततश्च हनुमान् वाचा श्लक्ष्णया सुमनोज्ञया।
विनीतवदुपागम्य राघवौ प्रणिपत्य च॥३॥
आबभाषे च तौ वीरौ यथावत् प्रशशंस च।
सम्पूज्य विधिवद् वीरौ हनुमान् वानरोत्तमः॥४॥
उवाच कामतो वाक्यं मृदु सत्यपराक्रमौ।
राजर्षिदेवप्रतिमौ तापसौ संशितव्रतौ॥५॥

तदनन्तर हनुमान् ने विनीत भाव से उन दोनों रघुवंशी वीरों के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके मन को अत्यन्त प्रिय लगने वाली मधुर वाणी में उनके साथ वार्तालाप आरम्भ किया। वानरशिरोमणि हनुमान् ने पहले तो उन दोनों वीरों की यथोचित प्रशंसा की। फिर विधिवत् उनका पूजन (आदर) करके स्वच्छन्द-रूप से मधुर वाणी में कहा—’वीरो! आप दोनों सत्य-पराक्रमी, राजर्षियों और देवताओं के समान प्रभावशाली, तपस्वी तथा कठोर व्रत का पालन करने वाले जान पड़ते हैं ।। ३—॥

देशं कथमिमं प्राप्तौ भवन्तौ वरवर्णिनौ।
त्रासयन्तौ मृगगणानन्यांश्च वनचारिणः॥६॥
पम्पातीररुहान् वृक्षान् वीक्षमाणौ समन्ततः।
इमां नदी शुभजलां शोभयन्तौ तरस्विनौ॥७॥
धैर्यवन्तौ सुवर्णाभौ कौ युवां चीरवाससौ।
निःश्वसन्तौ वरभुजौ पीडयन्ताविमाः प्रजाः॥

‘आपके शरीर की कान्ति बड़ी सुन्दर है। आप दोनों इस वन्य प्रदेश में किसलिये आये हैं। वन में विचरने वाले मृगसमूहों तथा अन्य जीवों को भी त्रास देते पम्पासरोवर के तटवर्ती वृक्षों को सब ओर से देखते और इस सुन्दर जलवाली नदी-सरीखी पम्पा को सुशोभित करते हुए आप दोनों वेगशाली वीर कौन । हैं? आपके अङ्गों की कान्ति सुवर्ण के समान प्रकाशित होती है। आप दोनों बड़े धैर्यशाली दिखायी देते हैं। आप दोनों के अङ्गों पर चीर वस्त्र शोभा पाता है। आप दोनों लंबी साँस खींच रहे हैं। आपकी भुजाएँ विशाल हैं। आप अपने प्रभाव से इस वन के प्राणियों को पीड़ा दे रहे हैं। बताइये, आपका क्या परिचय है ? ॥ ६–८॥

सिंहविप्रेक्षितौ वीरौ महाबलपराक्रमौ।
शक्रचापनिभे चापे गृहीत्वा शत्रुनाशनौ॥९॥

‘आप दोनों वीरों की दृष्टि सिंह के समान है। आपके बल और पराक्रम महान् हैं। इन्द्र-धनुष के समान महान् शरासन धारण करके आप शत्रुओं को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं॥९॥

श्रीमन्तौ रूपसम्पन्नौ वृषभश्रेष्ठविक्रमौ।
हस्तिहस्तोपमभुजौ द्युतिमन्तौ नरर्षभौ॥१०॥

‘आप कान्तिमान् तथा रूपवान् हैं। आप विशालकाय साँड़ के समान मन्दगति से चलते हैं।आप दोनों की भुजाएँ हाथी की ड़ के समान जान पड़ती हैं। आप मनुष्यों में श्रेष्ठ और परम तेजस्वी हैं। १०॥

प्रभया पर्वतेन्द्रोऽसौ युवयोरवभासितः।
राज्याविमरप्रख्यौ कथं देशमिहागतौ ॥११॥

‘आप दोनों की प्रभा से गिरिराज ऋष्यमूक जगमगा रहा है। आप लोग देवताओं के समान पराक्रमी और राज्य भोगने के योग्य हैं। भला, इस दुर्गम वनप्रदेश में आपका आगमन कैसे सम्भव हुआ॥११॥

पद्मपत्रेक्षणौ वीरौ जटामण्डलधारिणौ।
अन्योन्यसदृशौ वीरौ देवलोकादिहागतौ॥१२॥

‘आपके नेत्र प्रफुल्ल कमल-दल के समान शोभा पाते हैं। आपमें वीरता भरी है। आप दोनों अपने मस्तक पर जटामण्डल धारण करते हैं और दोनों ही एक-दूसरे के समान हैं। वीरो! क्या आप देवलोक से यहाँ पधारे हैं?॥

यदृच्छयेव सम्प्राप्तौ चन्द्रसूर्यौ वसुंधराम्।
विशालवक्षसौ वीरौ मानुषौ देवरूपिणौ ॥१३॥

‘आप दोनों को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो चन्द्रमा और सूर्य स्वेच्छा से ही इस भूतल पर उतर आये हैं। आपके वक्षःस्थल विशाल हैं। मनुष्य होकर भी आपके रूप देवताओं के तुल्य हैं॥ १३॥

सिंहस्कन्धौ महोत्साहौ समदाविव गोवृषौ।
आयताश्च सुवृत्ताश्च बाहवः परिघोपमाः॥ १४॥
सर्वभूषणभूषार्हाः किमर्थं न विभूषिताः।
उभौ योग्यावहं मन्ये रक्षितुं पृथिवीमिमाम्॥ १५॥
ससागरवनां कृत्स्नां विन्ध्यमेरुविभूषिताम्।

‘आपके कंधे सिंह के समान हैं। आपमें महान् उत्साह भरा हुआ है। आप दोनों मदमत्त साँड़ों के समान प्रतीत होते हैं। आपकी भुजाएँ विशाल, सुन्दर, गोल-गोल और परिघ के समान सुदृढ़ हैं। ये समस्त आभूषणों को धारण करने के योग्य हैं तो भी आपने इन्हें विभूषित क्यों नहीं किया है ? मैं तो समझता हूँ कि आप दोनों समुद्रों और वनों से युक्त तथा विन्ध्य और मेरु आदि पर्वतों से विभूषित इस सारी पृथ्वी की रक्षा करने के योग्य हैं। १४-१५ ।।

इमे च धनुषी चित्रे श्लक्ष्णे चित्रानुलेपने॥१६॥
प्रकाशेते यथेन्द्रस्य वज्रे हेमविभूषिते।

‘आपके ये दोनों धनुष विचित्र, चिकने तथा अद्भुत अनुलेपन से चित्रित हैं। इन्हें सुवर्ण से विभूषित किया गया है; अतः ये इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित हो रहे हैं॥ १६ १/२॥

सम्पूर्णाश्च शितैर्बाणैस्तूणाश्च शुभदर्शनाः॥ १७॥
जीवितान्तकरैोरैवलद्भिरिव पन्नगैः।

‘प्राणों का अन्त कर देने वाले सर्पो के समान भयंकर तथा प्रकाशमान तीखे बाणों से भरे हुए आप दोनों के तूणीर बड़े सुन्दर दिखायी देते हैं’ ॥ १७ १/२ ॥

महाप्रमाणौ विपुलौ तप्तहाटकभूषणौ ॥१८॥
खड्गावेतौ विराजेते निर्मुक्तभुजगाविव।

‘आपके ये दोनों खड्ग बहुत बड़े और विस्तृत हैं। इन्हें पक्के सोने से विभूषित किया गया है। ये दोनों केंचुल छोड़कर निकले हुए सो के समान शोभा पाते

एवं मां परिभाषन्तं कस्माद् वै नाभिभाषतः॥ १९॥
सुग्रीवो नाम धर्मात्मा कश्चिद् वानरपुङ्गवः।
वीरो विनिकृतो भ्रात्रा जगभ्रमति दुःखितः॥ २०॥

‘वीरो! इस तरह मैं बारम्बार आपका परिचय पूछ रहा हूँ, आपलोग मुझे उत्तर क्यों नहीं दे रहे हैं? यहाँ सुग्रीव नामक एक श्रेष्ठ वानर रहते हैं, जो बड़े धर्मात्मा और वीर हैं। उनके भाई वाली ने उन्हें घर से निकाल दिया है। इसलिये वे अत्यन्त दुःखी होकर सारे जगत् में मारे-मारे फिरते हैं ॥ २० ॥

प्राप्तोऽहं प्रेषितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना। 
राज्ञा वानरमुख्यानां हनुमान् नाम वानरः॥२१॥

‘उन्हीं वानरशिरोमणियों के राजा महात्मा सुग्रीव के भेजने से मैं यहाँ आया हूँ। मेरा नाम हनुमान् है। मैं भी वानरजाति का ही हूँ॥२१॥

युवाभ्यां स हि धर्मात्मा सुग्रीवः सख्यमिच्छति।
तस्य मां सचिवं वित्तं वानरं पवनात्मजम्॥ २२॥
भिक्षुरूपप्रतिच्छन्नं सुग्रीवप्रियकारणात्।
ऋष्यमूकादिह प्राप्तं कामगं कामचारिणम्॥ २३॥

‘धर्मात्मा सुग्रीव आप दोनों से मित्रता करना चाहते हैं। मुझे आपलोग उन्हीं का मन्त्री समझें। मैं वायुदेवता का वानरजातीय पुत्र हूँ। मेरी जहाँ इच्छा हो, जा सकता हूँ और जैसा चाहूँ, रूप धारण कर सकता हूँ। इस समय सुग्रीव का प्रिय करने के लिये भिक्षु के रूप में अपने को छिपाकर मैं ऋष्यमूक पर्वत से यहाँपर आया हूँ’॥

एवमुक्त्वा तु हनुमांस्तौ वीरौ रामलक्ष्मणौ।
वाक्यज्ञो वाक्यकुशलः पुनर्नोवाच किंचन॥ २४॥

उन दोनों भाई वीरवर श्रीराम और लक्ष्मण से ऐसा कहकर बातचीत करने में कुशल तथा बात का मर्म समझने में निपुण हनुमान् चुप हो गये; फिर कुछ न बोले॥ २४॥

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
प्रहृष्टवदनः श्रीमान् भ्रातरं पार्श्वतः स्थितम्॥ २५॥

उनकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। वे अपने बगल में खड़े हुए छोटे भाई लक्ष्मण से इस प्रकार कहने लगे- ॥२५॥

सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः।
तमेव कांक्षमाणस्य ममान्तिकमिहागतः॥२६॥

‘सुमित्रानन्दन! ये महामनस्वी वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और उन्हीं के हित की इच्छा से यहाँ मेरे पास आये हैं॥२६॥

तमभ्यभाष सौमित्रे सुग्रीवसचिवं कपिम्।
वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदमम्॥२७॥

‘लक्ष्मण! इन शत्रुदमन सुग्रीवसचिव कपिवर हनुमान् से, जो बात के मर्म को समझने वाले हैं, तुम स्नेहपूर्वक मीठी वाणी में बातचीत करो॥ २७॥

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ २८॥

जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसनेयजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।

नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बह व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्॥२९॥

‘निश्चय ही इन्होंने समूचे व्याकरण का कई बार स्वाध्याय किया है; क्योंकि बहुत-सी बातें बोल जाने पर भी इनके मुँह से कोई अशुद्धि नहीं निकली। २९॥

न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्॥ ३०॥

‘सम्भाषण के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अङ्गों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ॥ ३०॥

अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्यथम्।
उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्॥३१॥

‘इन्होंने थोड़े में ही बड़ी स्पष्टता के साथ अपना अभिप्राय निवेदन किया है। उसे समझने में कहीं कोई संदेह नहीं हुआ है। रुक-रुककर अथवा शब्दों या अक्षरों को तोड़-मरोड़कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नहीं किया है, जो सुनने में कर्णकटु हो। इनकी वाणी हृदय में मध्यमारूप से स्थित है और कण्ठ से बैखरीरूप में प्रकट होती है, अतः बोलते समय इनकी आवाज न बहुत धीमी रही है न बहुत ऊँची मध्यम स्वर में ही इन्होंने सब बातें कहीं हैं। ३१॥

संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्।
उच्चारयति कल्याणी वाचं हृदयहर्षिणीम्॥ ३२॥

‘ये संस्कार’ और क्रम से सम्पन्न, अद्भुत, अविलम्बित तथा हृदय को आनन्द प्रदान करने वाली कल्याणमयी वाणी का उच्चारण करते हैं।॥ ३२ ॥
१. व्याकरण के नियमानुकूल शुद्ध वाणी को संस्कार सम्पन्न (संस्कृत) कहते हैं। २. शब्दोच्चारण की शास्त्रीय परिपाटी का नाम क्रम है। ३. बिना रुके धाराप्रवाहरूप से बोलना अविलम्बित कहलाता है।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया।
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि॥३३॥

‘हृदय, कण्ठ और मूर्धा—इन तीनों स्थानों द्वारा स्पष्टरूप से अभिव्यक्त होने वाली इनकी इस विचित्र वाणी को सुनकर किसका चित्त प्रसन्न न होगा। वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का हृदय भी इस अद्भुत वाणी से बदल सकता है।॥ ३३॥

एवंविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु।
सिद्ध्यन्ति हि कथं तस्य कार्याणां गतयोऽनघ॥ ३४॥

‘निष्पाप लक्ष्मण ! जिस राजा के पास इनके समान दूत न हो, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है।

एवंगुणगणैर्युक्ता यस्य स्युः कार्यसाधकाः।
तस्य सिद्धयन्ति सर्वेऽर्था दूतवाक्यप्रचोदिताः॥ ३५॥

‘जिसके कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं ॥ ३५॥

एवमुक्तस्तु सौमित्रिः सुग्रीवसचिवं कपिम्।
अभ्यभाषत वाक्यज्ञो वाक्यज्ञं पवनात्मजम्॥ ३६॥

श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर बातचीत की कला जानने वाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मण बात का मर्म समझने वाले पवनकुमार सुग्रीवसचिव कपिवर हनुमान् से इस प्रकार बोले- ॥ ३६॥

विदिता नौ गुणा विदन् सुग्रीवस्य महात्मनः।
तमेव चावां मार्गावः सुग्रीवं प्लवगेश्वरम्॥ ३७॥

‘विद्वन्! महामना सुग्रीव के गुण हमें ज्ञात हो चुके हैं। हम दोनों भाई वानरराज सुग्रीव की ही खोज में यहाँ आये हैं॥ ३७॥

यथा ब्रवीषि हनुमन् सुग्रीववचनादिह।
तत् तथा हि करिष्यावो वचनात् तव सत्तम॥ ३८॥

‘साधुशिरोमणि हनुमान् जी! आप सुग्रीव के कथनानुसार यहाँ आकर जो मैत्री की बात चला रहे हैं, वह हमें स्वीकार है। हम आपके कहने से ऐसा कर सकते हैं’॥ ३८॥

तत् तस्य वाक्यं निपुणं निशम्य प्रहृष्टरूपः पवनात्मजः कपिः।
मनः समाधाय जयोपपत्तौ सख्यं तदा कर्तुमियेष ताभ्याम्॥ ३९॥

लक्ष्मण के यह स्वीकृतिसूचक निपुणतायुक्त वचन सुनकर पवनकुमार कपिवर हनुमान् बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सुग्रीव की विजयसिद्धि में मन लगाकर उस समय उन दोनों भाइयों के साथ उनकी मित्रता करने की इच्छा की॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे तृतीयः सर्गः॥३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ।३॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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